अंकुरार्पणतः पश्चात्सप्तमे दिवसे दिवा । जन्माभिषेककल्याणपूजां कुर्याद्यथाक्रमम् ।। 1 ।।
मूलवेद्यां समाराध्य पूर्ववद्यागमंडलम् । वेदीं गत्वोत्तरां तत्र वक्ष्यमाणविधानतः ।। 2 ।।
पुष्पांजल्यादिकलशस्थापनांतविधिं चरेत् । ततः स्नपनवेद्यां तु पंचमंडलवर्तनम् ।। 3 ।।
तत्र स्नपनपीठस्य स्थापनं तद्विधानतः । दर्भशय्यास्थिते बिंबे ततः शक्रैर्विधीयते ।। 4 ।।
जिनजन्मोत्सवारोपो वस्त्रापनयनं ततः । जिनजन्मस्थापनं तन्मात्रादिस्तुतिपूर्वकम् ।। 5 ।।
निःस्वेदत्वाद्यतिशयारोपणं विजयादिभिः । उपासना जिनांबाया जातकर्म च तत्कृतम् ।। 6 ।।
प्रतिज्ञाकारसंशुद्धेरिंद्रादित्रिदशागमः । शच्यार्हतोऽर्पणं पत्युः सुमेरौ प्रापणं सुरैः ।। 7 ।।
पूर्वस्थापितपीठाग्रे प्रतिमाविनिवेशनम् । अभिषेकोपकरणसज्जीकरणमन्वतः ।। 8 ।।
प्रतिमांगपरामर्शः सकलीकरणं ततः । प्रधानपूजया पंचमंडलस्य समर्चनम् ।। 9 ।।
जिनमंत्रेण बिंबस्य सप्तवाराभिमंत्रणम् । कुंभे पुष्पादिनिक्षेपो बिंबाग्रे कुसुमांजलिः ।। 10 ।।
सुलग्ने प्रतिमानेत्रोल्लेखनं विश्वकर्मणः । पटापसरणं सर्पिर्वत्सवद्गोप्रदर्शनम् ।। 11 ।।
यष्ट्रा सम्माननं तस्य तेनेंद्रानुमतेन तु । पीठाग्रन्यस्तसद्धूलिकुंभेनार्चाभिषेचनम् ।। 12 ।।
जीवत्पितृश्वशुरपत्यात्मजस्त्रीकरेषुभिः । संप्रोक्षणं चाष्टसम्मार्जनकुंभाभिषेचनम् ।। 13 ।।
नीराजनं चाष्टभेदं भवेत् पुष्पजपस्ततः । आव्हानाद्यवशिष्टैस्तु कलशैरभिषेचनम् ।। 14 ।।
चतुर्विधावतरणं चतुःकुंभाभिषेचनम् । पुष्पवृष्टिर्मध्यकुंभेनाभिषेकोष्टधार्चनम् ।। 15 ।।
वज्रे कर्णवेधोथ स्त्रीभिश्चंदनचर्चनम् । भूषासन्नामकरणमानंदस्तवनं क्रिया ।। 16 ।।
आनंदनर्तन पश्चात् नगर्यानयनं विभोः । राजांगणे स्थापनं स्यादंबायै सन्निधापनम् ।। 17 ।।
तस्याः स्तुतिः प्राभृतं च नृत्यं रक्षादिसंविधिः । गुरुपूजोपलंभोऽथ तत्तत्तीर्थकरोचितम् ।। 18 ।।
राज्यभोगानुभवनसमं देवंेद्रसेवया । शांत्यर्थबलिरिष्टार्थप्रार्थना चेत्ययं क्रमः ।। 19 ।।
जन्माभिषेककल्याणविधानस्यावगम्यताम् । तत्तत्कर्मविशेषस्तु प्रयोगे प्रतिपाद्यते ।। 20 ।।
श्रीमत्पंचमवार्धिनिर्मलपयः-पूरैः सुधासंनिभैः।। यज्जन्माभिषवं सुराद्रिशिखरे, सर्वे सुराश्चक्रिरे ।।
त्रैलोक्यैकमहापतेर्जिनपतेस्तस्याभिषेकोत्सवं । कर्तुं भव्यमलोपलेपविलयं, प्राज्ञैः स्तुतं प्रस्तुवे ।।1।।
ॐ हीं श्रीं क्षीं भूः स्वाहा ।। प्रस्तावना पुष्पांजलिः ।
अंकुरार्पण विधि होने के बाद उससे सातवें दिन जन्माभिषेक कल्याणक पूजाविधि क्रम के अनुसार संपन्न करें। मूलवेदी पर पूर्व में कहे अनुसार यागमंडल विधि करें। अनंतर उत्तरवेदी के पास आगे कहे अनुसार पुष्पांजलि क्षेपण से लेकर कलश स्थापनापर्यंत सर्वविधि करें पुनः स्नपनवेदी पर-अभिषेक वेदी पर पंचमंडल बनावें ।। 1-2-3।।
वहां अभिषेक पात्र शास्त्रोक्त विधि से स्थापित करें। इस विधि के बाद दर्भशय्या पर स्थित जिनबिंब पर प्रतिष्ठाचार्य के द्वारा जिनजन्मोत्सव आरोपण किया जाता है। इस विधि के बाद जिनप्रतिमा पर लपेटे हुये वस्त्र को हटा देवें और जिनेन्द्रदेव के जन्म की स्थापना करके स्तुति करें।
पसीना नहीं आना, शरीर सुगंधित रहना आदि जन्म के दश अतिशयों की स्थापना करें। ‘विजया’ आदि देवियों द्वारा जिनमाता की आराधना व उनके द्वारा की जाने वाली जातकर्म विधि करावें। आकारशुद्धि करें, इन्द्रादि देवों का आगमन, इंद्राणी द्वारा जिनबालक को लेना, इंद्र को सौंपना और उन जिनबालक को मेरु पर्वत पर ले जाना ये सब विधि करावे ।। 4 से 7।।
पूर्व में स्थापित सिंहासन पर जिनप्रतिमा को विराजमान करके अभिषेक के उपकरण आदि एकत्रित करने की विधि करें। प्रतिमा के सर्वांग का स्पर्श करके सकलीकरण करें अनंतर पंचमंडल के देव-देवियों की पूजा करें। जिनमंत्रों से जिनप्रतिमा को सात बार अभिमंत्रित करें पुनः कुंभ में फूल डालें, प्रतिमा के सामने कुसुमांजलि अर्पण करें।
उत्तम लग्न में शिल्पकार द्वारा नेत्रोद्घाटन करावें। अनंतर सामने डले हुये पर्दे को हटा कर घी के पात्र व बछड़े सहित गाय को दिखावें। प्रतिष्ठाकार शिल्पी का सन्मान करें पुनः प्रतिष्ठाचार्य ऐसे शिल्पी द्वारा जिनप्रतिमा पर धूली कलशाभिषेक करावें।। 8 से 12।।
अनंतर जिनके माता-पिता, सास-ससुर पति और पुत्र जीवित हैं ऐसी सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा प्रेक्षणविधि करावें। पुनः आठ संमार्जन कुंभों से अभिषेक करावें, आठ प्रकार की नीराजनविधि करावें, पुष्पजप करावें, पुनः आह्नान आदि करके कलशों से अभिषेक करावें। अष्ट द्रव्यों से पूजन करके वज्र से कर्णवेधन क्रिया संपन्न करें।
सौभाग्यवती स्त्रियां प्रतिमा को चंदन लगावें, आभूषण पहनावें, वस्त्राभरण से अलंकृत करें। इन्द्र भगवान का नामकरण करें। स्तुति व आनन्दनृत्य करके जिनप्रतिमा को वापस लाकर राजांगण में स्थापित करें, पुनः माता को देवें। माता की स्तुति करके उन्हें भेंट अर्पित करें। नृत्यादि करके जिनबालक की रक्षा के लिये देव-देवियों को वहां रखकर गुरुपूजा विधि करें। अनंतर उन-उन तीर्थंकरों के लिये उचित ऐसी राज्यभोगानुभवन विधि करें। देवेन्द्र द्वारा सेवा विधि करावें।
इसके बाद शांतिबलि, इष्ट प्रार्थना करें। इस प्रकार जन्माभिषेक कल्याणक विधि करावें।
अब हम जन्माभिषेक कल्याणक की प्रयोग विधि कहेंगे ।। 13 से 20 ।।
(जन्माभिषेक कल्याणक प्रयोगविधि)
गद्य-तत्रादौ तावन्मूलवेद्यां प्रतिष्ठायंत्राराधनां पूर्ववन्निष्ठाप्य उत्तरवेद्यां पुष्पांजल्यादिपीठस्थापनांतं विधिं विदध्यात् ।। तद्यथा-
(प्रथम ही मूलवेदी में प्रतिष्ठा यंत्र की आराधना पूर्ववत् करके पुनः उत्तर वेदी में पुष्पांजलि आदि से लेकर पीठ स्थापनापर्यंत विधि करें।)
ॐ परमब्रह्मणे नमो नमः स्वस्ति स्वस्ति जीव जीव नंद नंद इत्यादि सोदकानि पुष्पाणि क्षिपेत् ।
पूर्ववत्क्षेत्रपालवास्तुदेवबलिं वायुमेघाग्निदेवैः भूमिशोधनं नागतर्पणं दर्भन्यासं भूम्यर्चनं मंडपप्रतिष्ठां वेदिका प्रतिष्ठां च क्रमेण विदध्यात् ।
घंटाटंकारवीणा….लतांतांजलिं प्रोत्क्षिपामि।
(पृष्ठ 64 से क्षेत्रपाल, वास्तुदेव पूजा, वायुकुमार आदि की पूजा द्वारा भूमिशोधन, नागतर्पण, दर्भन्यास, भूमि अर्चन, मंडपप्रतिष्ठा, वेदीप्रतिष्ठा विधि क्रम से संपन्न करे।)
गद्य-ॐ विशोधितभूभागपरिकल्पितप्रतिष्ठितमंडपमंडनीयांतः प्रतिष्ठामहितहावेदिकायां। पूर्वाग्रैः षोडशभिरुत्तराग्रैस्तावद्भिः सूत्रैः पंचविंशत्युत्तरशतद्वयपदानि कलशप्रमाणेन परिकल्प्य तत्र बहुमध्यभागे महाकुंभं विन्यस्य सर्वतस्तन्मध्यवीथीं परित्यज्य।
मध्यकुंभाद्वीथेर्वीथीं परित्यज्य, प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थावरणेषु क्रमेण चतुरो, विंशतिं, षट्त्रिंशतं, द्विपंचाशतं, घटान् यथाविधि ब्रीह्यासने विरचितयंत्रे विन्यस्य तेषु वक्ष्यमाणमंत्रोदिततत्तद्द्रव्याणि यथोचितमापूर्य कोणेषु द्रोणांभः संभृतकुंभान्समवस्थाप्य तेषु रैरत्नसर्वगंधकुशकूर्चमंगलद्रव्यसुरभिपुष्पाणि विनिक्षिप्यछेदभेदाद्यष्टदोषवर्जितानमलसितसूत्रसमावृतानंभोजबीज-पूरपिहिताननान्।
चंदनपंकपरिलग्नवलक्षाक्षतपुंजोपलक्षितान्, प्रसूनमालांबरफलपल्लवदूर्वादर्पणादि-परिष्कृतानिमान्सर्वान्कुंभान्संपूजयामहे। पुष्पांजलिः।।
(कलश स्थापित करने का स्थान शुद्ध हो। प्रतिष्ठा मंडप को शोभित करने वाली वेदी पर कलशाभिषेक यंत्र बनावें (उसमें आड़ी सोलह और खड़ी सोलह, ऐसी रेखा समांतर से कुंभ रखते जावें, ऐसी व्यवस्थित बनावें। जिसमें 225 कुंभ आ सकते हों, ऐसा कोष्ठक तैयार करें। अर्थात् कुंभ तो 113 हैं उनके लिये कोष्ठक दूने होना चाहिये।
ठीक मध्य में महाकुंभ को स्थापित करें। सभी के मध्यभाग में जो मार्ग है, उसे छोड़ देवें। पहले, दूसरे, तीसरे और चैथे आवरण में क्रम से चार, बीस, छत्तीस और बावन कुंभों की विधिवत् रचना करें। ये कलश स्थापना के चित्र पृष्ठ 209 से 213 तक हैं।
सर्वप्रथम जमीन में तंदुल फैलाकर कलश स्थापन का यंत्र बनाकर उन पर कुंभ रखावें। आगे कथित रीति से उन कलशों में वस्तुयें डालें, चारों कोनों के कुंभों में पानी भरकर दर्भ, रत्न आदि सुगंधित द्रव्य डालें। ये कुंभ फूटे न हों, चिटके न हों, इत्यादि आठ दोषों से रहित होवें। सफेद सूत से चारों तरफ वेष्टित हों, मुख पर कमल अथवा विजौरा आदि फल रखे हुये हों, उनमें गंध-अक्षत लगे हों। ये कुंभ फूलों की माला, वस्त्र, पान, दूब आदि से सुशोभित हों। ऐसी रचना करके पूजन के लिये प्रथम ही पुष्पांजलि क्षेपण करें।)
कल्याणावसरे विभोरर्हतः शक्रेण ये स्थापिताः । तेऽमी इत्यभिकल्पनां स्फुटयतः श्रीशातकुंभादिभिः ।।
निर्वृत्तानथवा मृदाभिघटितान्कालादिदोषोज्झितां-स्तत्तद्द्रव्यसुपूरितानिह घटान्यंत्रोपरि स्थापयेत् ।।
(कलशों पर पुष्पांजलि छोड़ें।)
श्रीखंडकर्पूरवरादिगंध-द्रव्यप्रसूनोत्तमरिक्थरत्नम्। क्षिपामि मध्यस्थमहाघटेऽस्मिन्, गलस्थवस्त्रादिविराजमाने।।
ॐ हां हीं हूं हौं हः नमोर्हते भगवते श्रीमते पद्ममहापद्मतिगिंछकेसरिमहापुंडरीकपुंडरीकगंगासिंधु-रोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकांतासीतासीतोदानारीनरकांतासुवर्णरूप्य-कूलारक्तारक्तोदापयोधिषु शुद्धजलं स्वर्णघट- प्रक्षालितपरिपूरितं नवरत्नगंधपुष्पाक्षताद्यर्चितामोदकं पवित्रं कुरु कुरु ह्मममफ ह्मममफ वं मं हं सं तं पं हीं असि आउसा नमः।
अनेन मध्यमहाकुंभे रैरत्नादिनिक्षेपणम् ।
(इस मंत्र से मध्य के महाकुंभ में धन-रुपये, रत्नादि छोड़ें।)
सर्वेषु कुंभेषु च सर्वगंधं, क्षिपामि वारा परिपूरितेषु।
शेषेषु योग्यार्थसुपूरितेषु, न्यसामि सर्वेषु कुशस्य कूर्चम्।।
(जल कुंभों में सर्वौषधि डालें और सभी कुंभों में कुश डालें।)
जलकुंभेषु सर्वौषधिस्थापनं सर्वकुंभेषु कूर्चस्थापनं च।। (दर्भ डालें)
यन्मंगलद्रव्यमिति प्रतीतं, बिसं च बोधिद्रुमपल्लवं च।
क्षिपाम्यपामार्गदलं च पूतं, तत्कोणकुंभेषु विभूषितेषु।।
कोणकुंभेषु मंगलद्रव्यनिक्षेपणम्।
(कलशों में आम्र, अशोक आदि के पत्ते लगावें और कोण कुंभों में मंगल द्रव्य डालें।)
अर्घ्य- स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।। हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, कुंभान्समभ्यर्चये।।
(अर्घ्य चढ़ावें) इति कलशस्थापनविधिः।।
(यहां पीठयंत्राराधना यंत्र या मंडल बनावे। पृष्ठ 28 से मंत्रों से संक्षिप्त पूजन करें। यह यंत्र ‘पीठयंत्र’ नाम से परिशिष्ट में है।)
वेद्यां मंडलमालिखार्चितसितैश्चूर्णैः सिताकल्पभृन्-नागाधीशधनेशपीतवसना-लंकारपीतैश्च तैः ।।
नीलैर्नीलभनीलवेषसुरभो, रक्ताभ रक्तैस्ततो-रक्ताकल्पककृष्णवेषविलसन्कृष्णैश्च कृष्णप्रभ।।
चूर्णपंचकस्थापनं । (पांच प्रकार की रंगोली स्थापित करें।)
गद्य-तदेवं चूर्णानि संस्थाप्य वेदिकामध्ये पीतचूर्णेन कर्णिकां तद्बहिर्लोहितचूर्णैरष्टदलानि, तद्बहिः श्वेतपीतहरितारुणकृष्णचूर्णैः क्रमेण चतुः कोणयुतपंचमंडलानि विरच्य सुवर्णशलाकया अपामार्गलेखन्या वा दर्भेण वा कर्णिकायां ।
इति सिद्धादिमंत्रान्। आग्नेयादिविदिग्दलेषु
इति धर्मादिमंत्रान् । पंचमंडलेषु क्रमेण
इति अष्टाशीतिपरिवारदेवताधिष्ठितपंचमंडलवर्तनम् ।
(इस प्रकार अठासी परिवार देवताओं से सहित नवदेवताओं की पूजारूप पंचमंडल वर्तन पूर्ण हुआ।)
(इस पंचमंडल यंत्र के ऊपर पीठ-अभिषेक हेतु पात्र स्थापित करना है।)
पार्श्वप्रोतमणिप्रभाभिरभितः क्लृप्तेंद्रचापोत्करम् । पार्श्वद्वंद्वनिवेशितोचितलसद्देवेंद्रपीठद्वयम्।
अर्धेन्दूपमपांडुकोपलतलानादिस्थपीठोपमम्। पीठं भासुरभर्मनिर्मितमिदं यंत्रोपरि स्थापये।।1।।
हाटकीय घटपूर्णपयोभिः पाटलातृटि-पटीरविमिश्रैः।
क्षालयामि निजमानसपंक-क्षालनाय जिनमज्जनपीठम्।।2।।
पीठप्रक्षालनं। (अभिषेक पात्र धोवे)
स्याद्वादविद्वज्जनशेमुषीव, नितांतमेतन्निशिताग्रभागान्।
हिरण्मयेऽस्मिन्नभिषेकपीठे, हरिन्मणिच्छायकुशान्न्यसामि।।3।।
पीठदर्भः । (अभिषेक पात्र में दर्भ रखे ।)
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, पीठं समभ्यर्चये।।4।।
पीठार्चनम्। (अर्घ्य चढ़ावे)
श्रीपीठक्लृप्ते विशदाक्षतौघ-श्रीप्रस्तरे पूर्णशशांककल्पे।
श्रीर्वर्तते चन्द्रमसीति वार्तां, सत्यापयंतीं श्रियमालिखामि ।। 5 ।।
इति पीठस्थापनविधानम्।। अथ दर्भशय्यास्थितप्रतिमाया वस्त्रापनयनविधानम्।।
(अब दर्भशय्या पर स्थित प्रतिमा के वस्त्र दूर करने की विधि कहते हैं)
(आगे के चार श्लोकों को पढ़ते हुये चारों तरफ पुष्पांजलि क्षेपण करें)
दिशः प्रसेदुर्ववुरात्तशैत्याः सुगंधयो मंदतराः समीराः।
प्रदक्षिणार्चिर्हविराददेऽग्नि-र्यज्जन्मनि ख्यात जिनः स एषः।। 1 ।।
व्योमप्रदेशः प्रससाद तद्व-ज्जलाशयोऽपि प्रससाद सर्वः।
मनो जनानां प्रससाद सद्यो, यज्जन्मनि ख्यात जिनः स एषः।। 2 ।।
कल्पेषु घंटा भवनेषु शंखो, ज्योतिर्विमानेषु च सिंहनादः।
दध्वान भेरी वनजालयेषु, यज्जन्मनि ख्यात जिनः स एषः।। 3 ।।
आलेन किं सर्वचराचरेषु, लोकत्रये स्वस्वभवोरुचिन्हैः
क्षोभो बभूव प्रबलप्रमादाद्, यज्जन्मनि ख्यात जिनः स एषः ।। 4 ।।
एतच्चतुष्टयं पठित्वा जिनजन्मोत्सवस्थापनाय सर्वतः पुष्पांजलिं विकिरेत् ।
यस्मिन्नुत्पद्यमाने, सकल-मघवता-मुत्तमांगानि नेमुः।
चेलुश्चित्तानि पीठान्यपि चलदचला भूतधात्री चकंपे।।
अंभोधिश्चोज्जजृंभे सुरकुजनिकरः संववर्ष प्रसूनम्।
मत्वार्हन्तं तमेनां प्रतिकृतिमधुना वस्त्रमुत्सारयामि।।5।।
जिनजन्मसूचकत्रैलोक्यभवचिन्हसंकल्पेन पुष्पांजलिं विधाय प्रतिमाच्छादितवस्त्रमपनयेत् ।
(जिनजन्मसूचक त्रैलोक्य में हुये चिन्हों की कल्पना करते हुये पुष्पांजलि क्षेपण करके आगे लिखे हुये मंत्र को पढ़कर प्रतिमा के वस्त्र को निकाल देवें।)
(इस मंत्र को बोलकर सभी प्रतिमाओं के वस्त्र हटा देवें।)
मातेयं त्रिजगत्प्रभोर्जिनपतेस्तज्जन्मकालो ह्ययम् ।
तज्जन्मास्पदमेतदित्यहमियद्वक्तुं प्रभुर्नाधिकम्।।
इत्थं वर्णयति स्म यां यममरा-धीशो यदेवादरात् ।
सेयं सोयमिदं तदित्यहमिह, स्वारोप्य तानघ्र्यये।। 6।।
जिनमातृजिनजन्मस्थानप्रशंसनाय तेभ्योऽघ्र्यं दद्यात्।
(जिनमाता और जिनजन्मस्थान की प्रशंसा के लिये अघ्र्य चढ़ावें।)
जिनजन्म की स्थापना हेतु पुष्पांजलि
देव! त्वय्यद्य जाते त्रिभुवनमखिलं चाद्य जातं सनाथं।
जातो मूर्तोद्य धर्मः, कुमतबहुतमो ध्वस्तमद्यैव जातम्।।
स्वर्मोक्षद्वाः कवाटं स्फुटमिह निवृतं चाद्य पुण्याहमाशी-
र्जातं लोकाग्रचक्षुर्जय जय भगवज्जीव वर्धस्व नंद।।7।।
जिनजन्मस्थापनार्थं तस्य अन्यासां च प्रतिष्ठेयप्रतिमानामुपरि पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(जिन जन्म स्थापना की सूचना के लिये विधिनायक प्रतिमा एवं अन्य सभी प्रतिमाओं के ऊपर पुष्पांजलि क्षेपण करें एवं जय-जयकार करते हुए भगवान का जन्म हो गया है, ऐसी घोषणा करें।) जन्म के दश अतिशय की स्थापना
निःस्वेदामलदुग्धगौररुधिर-स्वाद्याकृतित्वानि च ।
स्वाद्यं संहननं स्फुरत्सुरभिता-सौरूप्यसल्लक्ष्मताः।।
वीर्यं चाप्रतिमं जगत्रयहिता-भाषित्वमत्यूर्जितम्।
प्राप्तं यद्दशसद्गुणं जिनवपु-र्दिव्यं तदेतद्ध्रुवम्।।8।।
अष्टशतलक्षणैस्तैर्नवशतसद्व्यंजनैश्चकास्ति तराम्।
परमौदारिकमर्हद्दिव्यांगं यत्तदेवेदम्।।9।।
ॐ हीं श्रीं सर्वलक्षणसंपूर्णविग्रहाय स्वाहा ।
सहजदशातिशयस्थापनार्थं प्रतिमोपरि दशपुष्पीमावसेत्।
(सहज दश अतिशय की स्थापना के लिये सभी प्रतिमाओं पर दश-दश पुष्प क्षेपण करें)
(इन मंत्रों से भी पुष्प, लवंग या पीले तंदुल क्षेपण कर सकते हैं)
अथ विजयादिदेवतोपास्तिस्थापनम्
(अब विजया आदि देवताओं की उपासना विधि कहते हैं। आठ देवियाँ झारी लेवें)
समेत्य सद्यो रुचकालयेभ्यो, जिनोदयेऽम्बां समुपासमानाः।
वहंति भृंगारकमष्टदेव्यो, यास्ता इमाः स्युर्विजयादयोऽत्र ।।1।।
पीठस्थप्रतिमां सर्वतः समलंकृताष्टकन्याः स्थापयित्वा तासां करेषु भृंगारकं दत्वा विजयादिदेवीसंकल्पनेन तासु कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
(सिंहासन पर स्थित प्रतिमा के चारों तरफ वस्त्राभरण से अलंकृत आठ कन्याओं को खड़ी करके उनके हाथ में झारी देवंे और विजया आदि देवी की कल्पना करके उनके ऊपर चंदन मिश्रित पुष्पांजलि क्षेपण करें।) आठ देवियां दर्पण लेवें
समेत्य सद्यो रुचकालयेभ्यो, जिनोदयेऽम्बां समुपासमानाः।
वहंति देव्यो मुकुरुंदमष्टौ, याः सुस्थिताद्या इह ता इमाः स्युः।।2।।
पूर्ववत्स्थापिताष्टकन्यानां करेषु दर्पणं दत्वा सुस्थितादिदेवीसंकल्पेन तासु कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(पूर्व के समान आठ कन्याओं के हाथ में दर्पण देकर उनमें सुस्थिता आदि देवियों की कल्पना करके पुष्पांजलि छोड़ें।)
समेत्य सद्यो रुचकालयेभ्यो, जिनोदयेऽम्बां समुपासमानाः।
वहंति छत्रत्रयमष्टदेव्यो, यास्ता इलाद्या इह संतु चैताः।।3।।
पूर्ववत्स्थापिताष्टकन्यानां करेषु छत्रत्रयं दत्वा इलादिदेवीसंकल्पेन तासु कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
(पूर्ववत् आठ कन्याओं के हाथ में छत्रत्रय देकर इलादिदेवी के संकल्प से उन कन्याओं पर पुष्पांजलि छोड़ें।) आठ देवियां चंवर लेवें
समेत्य सद्यो रुचकालयेभ्यो, जिनोदयेऽम्बां समुपासमानाः।
वहंति याश्चामरमष्टदेव्यो, लंबूषिकाद्या इह ता इमाः स्युः ।।4।।
पूर्ववत्स्थापिताष्टकन्यानां करेषु चामराणि दत्वा लंबूषादिदेवीसंकल्पेन तासु कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(आठ कन्याओं के हाथ में चंवर देकर उन्हें लंबूषिका आदि देवी मानकर उन पर पुष्पांजलि छोड़ें।) चार कन्याओं को दीपक देवें
समेत्य सद्यो रुचकालयेभ्यो, जिनोदयेऽम्बां समुपासमानाः।
उद्योतयन्ते च गृहं चतस्रश्चित्रादिदेव्यः खलु या इमास्ताः।।5।।
महादिक्षु पूर्ववत्स्थापितचतुःकन्यानां करेषु प्रदीपपात्राणि दत्वा चित्रादिदेवीसंकल्पेन तासु कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(चार महादिशाओं में चार कन्याओं को खड़ी करके उनके हाथ में दीपक देकर चित्रा आदि देवी की कल्पना से उन पर पुष्पांजलि क्षेपण करें।)
(अब जातकर्म की विधि दिखलाते हैं-)
(चार दिशाओं में चार कन्याओं के हाथ में वेत्रदंड देकर खड़ी करें।)
चतस्रो दिक्कुमारीणां, या महत्तरिकाः प्रभोः।
जातकर्म वितन्वंति, ता एता रुचकादयः।।6।।
ॐ रुचकगिरीन्द्रपूर्वादि-अभ्यंतरशिखरवासिन्यो रुचकादिदेव्यो जातकर्म कृत्वार्हत्प्रभुमिह इदानीं परिचरन्त्विति स्वाहा। महादिक्षु पूर्ववत्स्थापितचतुःकन्यानां करेषु वेत्रदंडं दत्वा दिक्कुमारीमहत्तरिकासंकल्पेन तासु कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
(चार महादिशा में पूर्ववत् चार कन्याओं के हाथ में वेत्रदण्ड को देकर दिक्कुमारी महत्तरिका का संकल्प करके उन पर कुंकुम से रंगे पीले चावल छोड़ें।)
तासां विद्युत्कुमारीणां, या महत्तरिकाः प्रभोः।
जातकर्म वितन्वन्ति, ता एता विजयादयः।।7।।
ॐ रुचकवरगिरीन्द्रशिखरवासिन्यः विजयादिदेव्यो जातकर्म कृत्वा अर्हत्प्रभुमिह इदानीं परिचरन्त्विति स्वाहा। विदिक्षु पूर्ववत्स्थापितचतुःकन्यानां करेषु वेत्रदण्डं दत्वा विद्युत्कुमारीमहत्तरिकासंकल्पेन तासु कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
(विदिशाओं में खड़ी हुई चार कन्याओं के हाथों में वेत्रदंड देकर विद्युत्कुमारी देवियों की प्रधाना मानकर उन पर पीले चावल छोड़ें।)
द्वात्रिंशदेव रुचकाश्रयदिक्कुमार्यो, विद्युत्कुमार्य इह तत्स्थितयश्चतस्रः।
तासां च विश्रुतमहत्तरिकास्तथाष्टौ, यज्जन्मनि प्रतिभजंति स एष देवः।।9।।
ॐ रुचकवरगिरीन्द्रशिखरवासिन्यो विजयादिदेव्यो यथास्वं अर्हत्प्रभुमिह इदानीं परिचरन्त्विति स्वाहा। पीठस्थप्रतिमां सर्वतः कुंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(पीठ पर विराजमान प्रतिमाओं के चारो तरफ पीतपुष्पांजलि क्षेपण करें।)
इति विजयादिदेवतोपास्ति विधानम्
विशेष – रुचकगिरि की 44 देवियों को लिया है और पूर्व की श्री, हीं आदि आठ देवियां मिलाकर 52 होती हैं। पहले से ही जाति कुल से शुद्ध 52 बालिकायें निश्चित करके उपर्युक्त देवियां बनानी चाहिये। (व्यवहार में 56 कुमारी देवियाँ बनाने की परम्परा है किन्तु हमें इस प्रतिष्ठातिलक में 52 की संख्या ही प्राप्त हुई है।)
(अब आकारशुद्धि विधि कहते हैं-)
(प्रतिमाओं की शुद्धि की विधि और जन्माभिषेक की विधि को यहां आकारशुद्धि कहा है।)
स्रग्धराछंद-
देवीभिः श्र्यादिभिस्तैरमलतरगुणैर्भूषिताया जनन्या।
दिव्यद्रव्यौघसंशोधितमणिगृहसंकाशगर्भे प्रसूतः।।
अस्पृष्टो गार्भदोषैर्जलजमिव जलैर्यस्त्रिबोधादिशुद्धः।
तस्यांतर्बाह्यशुद्धेर्विधिरिति विदधे शुद्धिमद्याकरस्य।।1।।
नामापि यस्यातनुते विशुद्धिं, ध्यायंति यं शुद्धिकृते मुनीन्द्राः।
किं तस्य शुद्धेर्विधिना तथापि, तमेष आचार इतीह कुर्वे।।2।।
आकारशुद्धिविधानस्थापनार्थं तीर्थोदकाप्लुतपुष्पाणि प्रतिमोपरि निदध्यात् ।
(प्रतिमाओं पर पुष्पांजलि क्षेपण करें।)
इंद्राणी स्थापना भवनवनजकल्प-ज्योतिरिन्द्राः स्वशंखा-नकपटुरवघंटा-स्फारभेरीनिनादैः।
जिनजनिमवगम्यागम्य कल्याणपूजां, व्यधुरिति विभवाद्ये याजकाः सन्तु तेऽमी।।3।।
इन्द्रभार्यायां इन्द्राणीभावस्थापनार्थं सौधर्मः पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । इन्द्रयजमानादिषु तत्तदिन्द्रादिभावस्थापनाय सौधर्मः पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
(इन्द्र की पत्नी में इन्द्राणी भाव की स्थापना के लिये पुष्पांजलि छोड़े तथा इन्द्र और यजमान आदि के मस्तक पर भी उन-उन इन्द्रादि के भावों की स्थापना हेतु पुष्पांजलि छोड़ें।)
स्रग्धराछंद-
मायानिद्रां जनन्याः सपदि विदधती स्थापयित्वा तदग्रे।
मायाबालं कराभ्यां जिनममलमुपादाय भक्त्या दधाना।।
अग्रे यांतीषु च श्र्यादिषु विधृतलसन्मंगला स्वागमय्य।
प्रीतेन्द्राणीन्द्रहस्ते निधिमिव निदधौ यं स एवैष देवः ।।4।।
इन्द्राण्यां भद्रासनादुद्धृत्य समप्र्यमाणायां प्रतिमायां पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(इन्द्राणी ने भद्रासन से प्रतिमा को लिया है, उन प्रतिमा पर पुष्पांजलि छोड़ें।)
वसंततिलकाछंद-
या गाढभक्तिरतिगूढतनुःप्रविश्य, शिष्टामरिष्टवसतिं जिनमुज्ज्वलांगं।
प्राचीतटे रविरिव स्थितमंबिकांके, दृष्ट्वा प्रणम्य च तुतोष शची तु सेयम्।।5।।
यस्तोरणप्रणिधिदेशमभीत्य शच्या, दत्तं ससंभ्रममवेक्ष्य दधौ कराभ्याम्।
स्तुत्वा ननाम च मुहुर्जिनबालकं स्वं, मेने कृतार्थममरप्रवरोऽस्मि सोऽहम्।।6।।
इंद्राण्यां समप्र्यमाणां प्रतिमां जय-जयेति वदन् प्रणतशिराः करकमलाभ्यां इन्द्रो गृण्हीयात्।
(इन्द्राणी के द्वारा दी गई प्रतिमा को जय-जय बोलते हुये मस्तक झुकाकर नमस्कार करके पुनः अपने दोनों हाथों से इन्द्र ग्रहण करें।)
शार्दूलवि.-
द्वात्रिंशन्मुखतच्चतुर्गुणमहा-दंतांतपद्माकर-
द्वात्रिंशत्कमलोल्लसद्दलशिखा-नृत्यत्सुरस्त्रीजनम् ।।
नृत्यंतं रजताचलाभमुचिता-लंकारमैरावणम् ।
स्वारूढस्य शतक्रतोर्जिनविभु-र्योंऽके स्थितः सोस्त्वयम् ।।7।।
ऐरावणभावस्थापनाय समलंकृतगजे पुस्तगजे वा पुष्पांजलिं प्रयुज्य सौधर्मस्तमारुह्य स्वांके प्रतिमां सुदृढं निवेशयेत्।
(ऐरावत हाथी की स्थापना के लिये अलंकृत हाथी पर या लकड़ी आदि के हाथी पर पुष्पांजलि क्षेपण करके सौधर्मइंद्र प्रतिमा को गोद में लेकर हाथी पर बैठें।)
उपजातिछंद-
ईशानशक्रः शरदिंदुबिंब-शोभाविशेषास्पदमातपत्रम्।
यस्योपरिष्टाद्विभरांबभूव, स एव देवो जिनबिम्ब एषः।।8।।
ईशानशक्रस्थापनायच्छत्रधारिणि प्रतीन्द्रे पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(ईशान इन्द्र की स्थापना के लिये छत्रधारी द्वितीय इंद्र पर पुष्पांजलि छोड़ें।)
पाश्र्वस्थितौ यस्य सनत्कुमार-माहेन्द्रशक्रौ चमरीरुहे द्वे।
संवीजयामासतुरिंदुशुभ्रे, स एव देवो जिनबिम्ब एषः।।9।।
सनत्कुमारमाहेन्द्रशक्रस्थापनाय चमरधारिप्रतीन्द्रोपरि पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
(सानत्कुमार-माहेन्द्र इंद्रों की स्थापना के लिये चंवरधारी इंद्रों पर पुष्पांजलि छोड़ें।)
शच्यादयः श्रीप्रमुखाश्चदेव्यो, नानाविधं मंगलमुद्वहन्त्यः।
यस्याग्रतो जग्मुरुदारवेषाः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।10।।
शच्यादिश्र्यादिदेवीभावस्थापनाय इन्द्रयजमानप्रभृतिमत्तकाशिनीषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(शची आदि, श्री आदि की स्थापना के लिये इंद्राणी, देवी आदि पर पुष्पांजलि छोड़ें। ये देवियां हाथों में मंगलद्रव्य लिये हों।)
अत्याहितं नृत्यमदृष्टपूर्वं, विचित्रभावैः करणांगहारैः।
यस्याग्रतश्चाप्सरसो बबंधुः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।11।।
अप्सरोजनभावस्थापनाय नटद्वारवधूषु पुष्पाणि क्षिपेत् ।
(नृत्य करती हुई महिलाओं और बालिकाओं पर पुष्पांजलि छोड़ें।)
वर्धस्व नित्यं विजयस्व जीव, नंदेति घोषोन्मुखशेषशक्राः।
पुष्पोपहारं विदधुर्यदग्रे, स एव देवो जिनबिंब एषः।।12।।
ब्रह्मेन्द्रादिशेषशक्रस्थापनाय स्तवनोन्मुखा विद्वद्विशिष्टेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(ब्रह्मेन्द्र आदि शेष इन्द्रों की स्थापना हेतु स्तवन करते हुये इंद्रों पर पुष्पांजलि छोड़ें।)
जगुर्जगर्जुर्नृनतुर्ननन्दु – रास्फोटयांचक्रुरलं ववल्गुः।
यस्याग्रतः सर्वसुराः प्रमोदात्, स एव देवो जिनबिंब एषः।।13।।
आस्फोटितगीतनृत्यवादित्रहास्योत्प्लुत-वल्गितमंगलाशी-र्धवलस्तुतिविधायिसुरजनभावस्थापनाय आस्फोटितादि – विधायि भव्यजनेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(गीत नृत्य करने वाले, बाजे बजाने वाले, जय-जय करने वाले आदि जनों पर,
ये सब देवगण हैं, ऐसा संकल्प कर पुष्पांजलि क्षेपण करें।)
जगु-र्जगर्जु-र्ननृतु-र्ननंदु-रास्फोटयांचक्रुरलं ववल्गुः।
विद्याधरा यस्य पुरः प्रमोदात्, स एव देवो जिनबिंब एषः।।14।।
आस्फोटितगीतादिविधायि-विद्याधरभावस्थापनाय तद्विधायिभव्यजनेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
(गीत नृत्य आदि करते हुये मनुष्यों पर विद्याधर की कल्पना से पुष्पांजलि छोड़ें।)
अभ्यागतान्यंबरचारणानां, युग्मानि दृष्ट्वा यमतीव तुष्ट्या।
संतुष्टवुः स्पष्टसुमृष्टवाक्यैः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।15।।
अंबरचारणभावस्थापनाय मुनिजनपादाग्रतः पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(आकाशगामी मुनियों की कल्पना से मुनियों के चरणों के आगे पुष्पांजलि छोड़ें। इससे यह स्पष्ट है कि जन्म कल्याणक में मुनि सम्मिलित होते हैं। जन्मकल्याणक के जुलूस में भी चलते हैं।)
तदातनीं यस्य महाविभूतिं, दृष्ट्वा सुराः केचन खेचराश्च।
इन्द्रप्रमाणाः सुदृशो बभूवुः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।16।।
सुरजनभावस्थापनाय निरीक्षकजनेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(‘ये सभी देवगण हैं’ ऐसी कल्पना से सभी दर्शकों पर पुष्पांजलि छोड़ें।)
(जहाँ जन्माभिषेक के लिये पांडुकशिला बनाई है, वहाँ पहुँचकर प्रतिमा को उस मंडप में लेवें।)
स्रग्धराछंद-
इत्थं नीत्वा सुमेरो-रुपरितनवने, पांडुके पांडुकाख्यां।
प्रादक्षिण्येन पूर्वो-त्तरविदिशि शिलां, स्थापितं मध्यपीठे।।
क्षीरोदस्यांबुभिर्यं, पृथुकलशशतैः, स्थापयन्ति स्म शक्राः।
तं मत्वा देवमेनं, त्रिदशशतघटैः, स्नापयामोत्र बिंबम्।।17।।
इति महोत्सवेन जिनप्रतिष्ठेयप्रतिमामुत्तरवेदीमंडपं नीत्वा तत्र पुष्पाक्षतं विकिरेत् ।
(महामहोत्सव से प्रतिष्ठेय प्रतिमा को वेदीमंडप में ले जाकर पुष्पांजलि छोड़ें।)
श्रीभद्राशालकं सौमनसमुरुवनं नंदनं पांडुकाख्यम् ।
यस्योच्चैरंतरीयं परिवृतरशना-मुत्तरीयं क्रमेण।।
उष्णीषं चानुकुर्यान्नवनवतिसहस्रोन्नतिर्योजनानां।
ख्यातो मेरुः स साक्षा-न्मणिकनकमयो-स्त्वेतदेवोच्चपीठम्।।18।।
महामेरूभावस्थापनाय तन्मंडपे सर्वतः पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
(महामेरु की कल्पना से सर्वत्र पुष्पांजलि छोड़ें।)
वसंततिलकाछंद-
यो योजनानि शतमायतिमेतदर्ध-व्यासं बिभर्ति विशदाष्टतदुच्छ्रयं च।
अर्धेन्दुबिंबसदृशी सुरभिः सुरम्या, सा पांडुकाव्हयशिलेयमिहास्तु वेदी।।19।।
नीत्वा भूरिविभूतितः सुरगिरिं, श्रीपांडुकाग्रासने ।
पूर्वास्यं विनिवेश्य ते सुरवराः, संस्नापयन्ति स्म यम्।।
तं देवं स्नपनार्थमंडपमिमं-नीत्वा विभूत्या समम् ।
पीठेऽत्र श्रुतबीजभासुरतले, पूर्वाननं स्थापये।।20।।
(श्लोक व मंत्र बोलकर श्रीकार वर्ण पर प्रतिमा स्थापित करें।)
(अभिषेक की सभी वस्तुयें एकत्रित करना)
शार्दूलवि.-
एषा मेरुतटे जिनालयपुरो-भूः पांडुकाग्रस्थितं ।
पीठं पीठमिदं त्वियं प्रतिकृतिः, साक्षाच्च सोऽर्हत्प्रभुः।।
सौधर्मामरनायकोऽहममराः, सर्वे च भव्या अमी।
यज्ञांगानि च तान्यमूनि सकलं, तत्सिद्धमिष्टं हि नः।।21।।
अभिषेकोपकरणसज्जीकरणाय समंतात्पुष्पाक्षतं विकिरेत् ।
(अभिषेक की वस्तुयें एकत्रित कर सब तरफ पुष्पांजलि छोड़ें।)
(अब श्लोक और मंत्र बोलकर प्रतिमा का स्पर्श करें।)
उपजातिछंद-
अनन्यसाधारणसद्गुणानां, तव स्मरन्नस्तमित-स्मरार्तेः।
जिनेंद्र ! साक्षात्कृत्सर्वतत्त्व ! त्वामात्मनः सन्निहितं करोमि।।22।।
इदं उच्चारयन् प्रतिमां परामृशेत् ।
(इस मंत्रपूर्वक प्रतिमा का स्पर्श करें।)
ततः सकलीं पूर्ववत्कुर्यात् (इसके बाद सकलीकरण पूर्ववत् करे।)
ततः पीठाधःस्थितपंचमंडलयंत्राराधनम्।
(इसके बाद पीठ-अभिषेक पात्र के नीचे स्थित पंचमंडलयंत्र की आराधना करें। यहां पर परिशिष्ट में से बने हुये नवदेव समेत88 देवों का मंडल बनाकर नीचे रखें।
अष्टाधिकाशीतिसुरावृताना-मिष्टार्थदानां नवदेवतानाम्।
आराधनां जैनमहांगभूतां, श्रीपीठयंत्रे विधिना विधास्ये।। 23।।
पुष्पांजलिः । (पुष्पांजलि क्षेपण करें।)
अथ पूजा-पूर्ववद् भूमिशोधनम्, भूम्यर्चनानि कृत्वा, कर्णिकाभ्यंतरेऽर्हत् परमेष्ठिनः पूर्वादिदिग्दलेषु सिद्धादिपरमेष्ठिनां विदिग्दलेषु धर्मादीनां पूर्ववत्पूजां विधाय। पंचमंडलेषु तिथिग्रहयक्षयक्षीदिक्पालद्वारपालानां प्रागुक्तपद्यैः प्रधानपूजां कृत्वा, कलशान् परितो दिक्पालानां प्रत्येकपूजां जलहोमं च विदध्यात्।
(पृ. 114 से भूमिशोधन आदि विधि करके पृ. 28 से पीठयंत्राराधना विधि करें। पुनः कलशों के चारों तरफ दिक्पाल पूजा करके जलहोम करें। पीठयंत्राराधना का मंडल बनाने की विधि एवं जलहोम परिशिष्ट में है।)
शिल्प्यादिसंस्पर्शनदोषशुद्ध्यै, साक्षात्परब्रह्म च सन्निधातुं।
जिनादिमंत्रेण जिनेंद्रबिंबं, सप्तैव वारानभिमंत्रयामि।।24।।
अथ पुनस्तामेव प्रतिमां जिनमंत्रेण सप्तवारानभिमंत्र्य आकारशुद्धिं विदध्यात् ।
आगे के मंत्रों को सात बार बोलकर प्रतिमा को स्पर्श कर मंत्रित कर आकार शुद्धि करें।
ॐ अर्हद्भ्यो नमः, केवललब्धिभ्यो नमः, क्षीरस्वादुलब्धिभ्यो नमः, मधुरस्वादुलब्धिभ्यो नमः, संभिन्नश्रोतृभ्यो नमः, पदानुसारिभ्यो नमः, कोष्ठबुद्धिभ्योे नमः, बीजबुद्धिभ्यो नमः, सर्वावधिभ्यो नमः, परमावधिभ्यो नमः,ॐ हीं वल्गु वल्गु निवल्गु निवल्गु सुश्रवणे महाश्रवणे ¬ ऋषभादिवर्धमानांतेभ्यो वषट् संवौषट् स्वाहा ।
(कुंभों को स्थापित करें।)
वसंततिलकाछंद-
कुंदेंदुहारधवलोत्तमदुग्धपूर-तत्पंचमांबुनिधि भूरिपयः प्रपूर्णाः।
ये योजनास्यततयोष्ट च तानि निम्ना-स्तेमी भवंतु कलशाः कलधौतजाताः।।25।।
शार्दूलवि.-
ये क्षीराब्धितटादितः प्रसरता-मामेरुकूटादवि-च्छेदेनैव दिवौकसामतिरसाद्वेगेन पंक्त्यार्पिताः।
हस्ताहस्तिकया दधौ सुरपति-र्दोष्णां सहस्रेण यान् यैरर्हन्नभिषिच्यते स्म जनने, ते संतु कुंभा अमी।।26।।
एतद्द्वयं पठित्वा कुंभेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् । (ये दोनों श्लोक पढ़कर कुंभों पर पुष्पांजलि छोडं
शार्दूलवि.-
कुंभैरष्टसहस्रमानकलितै-रंभोभरैरुंभितैः ।
क्षीराब्धेः सुरगानतूर्यनिनदे, दिक्षु प्रसर्पत्यलम्।।
पीठे पाश्र्वगतेन्द्रपीठयुगले, श्रीपांडुकाग्रस्थितेः ।
पूर्वास्यं विनिवेश्य यं सुरवरा, जन्मन्यसिंच जिनम्।।27।।
तं मत्वा जिनबिंबमेनमधुना, तत्कल्पभूत्यानया।
स्वस्वौक्तौषधवत्त्रयोदशशतन्यस्तार्चितश्रीघटैः।।
एतत्संघसमन्विता वयमिमे, जन्माभिषेकोत्सव-
स्थानीयाकरशोधनाभिषवणं, कुर्मोऽस्य शर्माप्तये।।28।।
एतद्द्वयं पठित्वा जिनबिंबाग्रे पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(ये दोनों श्लोक पढ़कर जिनप्रतिमा के सामने पुष्पांजलि क्षेपण करें।)
(नेत्रों में गोलाकार मंडल बनाना)
गद्य-अथ तद्रात्रौ उपोषितः पीतपयाः शिल्पी प्रातः स्नात्वा श्वेतमाल्यांबरधरः सन् आकारशुद्ध्यादौ बिंबाग्रे यवनिकां धृत्वा सुवर्णशलाकया नयनमध्यमंडलं शुभलग्ने समुल्लिख्य, यवनिकां अपसार्य पूर्वमाज्यपात्रं ततः सवत्सधेनुं प्रदश्र्य धूलिकलशाभिषेकं कुर्यात्। धूलि कलशाभिषेक (इसमें तीर्थों की मिट्टी, नदी-सरोवर के तट की, पर्वत आदि की मिट्टी लेकर तीर्थजल में घोलकर उससे धूलि अभिषेक करावें ।)
शार्दूलवि.-
तीर्थेभ्यः सरितः सरोवरतटादद्रेः समुद्रान्ननृप-द्वाराद्दंतिवराहदंतयुगलाच्छ्रंगाद्गवेन्द्रस्य च।
मृत्स्नाभिः समुपाहृताभिरुचितोपस्कारसंशुद्धिभि- स्तीर्था परिपूरितेन कलशेनार्चामिह स्नापये।।29।।
एतत्पठित्वा स्थापकः शिल्प्यादीन् संमान्य जिनपीठाग्रभूमौ स्थापितधूलिकलशेन स्थपतिना जिनार्चां स्नापयेत्।
(जिस महिला के सास-ससुर, माता-पिता, पुत्र और पति मौजूद हैं ऐसी सौभाग्यवती महिला से आगे के श्लोक व मंत्र बोलकर प्रोक्षण विधि करावें।)
शार्दूलवि.-
जीवेतौ श्वसुरौ तथैव पितरौ, यासां सपुत्राश्च याः ।
कुल्याः शल्यविवर्जिताश्च शुचयो, भत्र्रान्विता योषितः।।
ताभिः काण्डमुखोद्धृतेन सनिशासिद्धार्थदूर्वाक्षतै-
र्दध्नान्यैः कृतकल्ककेन विधिना, संप्रोक्षयामि प्रभुम्।।30।।
गद्य–इंद्रो हि गुडधानादीनि दत्वा तादृक् पुरंध्रीभिः प्रोक्षणकर्म कारयेत् । तास्तु तत्कल्कचूर्णेन प्रतिमामालेप्य स्वहस्तधृतकांडमुखेन प्रतिमां चतुरस्रं परिमाय मंगलपात्रारोपितदधि उद्धृत्य चंदनवर्धनविधिना तां तेन सिंचतु। इति संप्रोक्षणविधानं।
(प्रतिष्ठाचार्य सौभाग्यवती महिला को गुड़, धानी (लावा) आदि देकर उनसे प्रोक्षण क्रिया करावे। वे महिलायें कल्क चूर्ण से प्रतिमा का लेपन करें। पुनः प्रतिष्ठाचार्य अपने हाथ में दर्भकांड या सूत लेकर प्रतिमा को समचतुरस्र माप करके मंगलपात्र में रखे हुये दधि को लेकर चंदनवर्धन विधि से सिंचित करे। सफेद सरसों, दूर्वा, अक्षत, हल्दी और दही मिलाकर कल्कचूर्ण बनता है)
(इस जन्माभिषेक में आकारशुद्धि विधि से अभिषेक करना है। इसमें 117 कलश स्थापित किये जाते हैं। उनको आगे दिये हुए नक्शे के अनुसार स्थापित करें।)
(पहले आठ कलशों से अभिषेक करना है। उसमें प्रथम पंक्ति के चार कलशों से पुनः द्वितीय पंक्ति के चार कलश लेना है। उसमें भी इस द्वितीय पंक्ति में चार भागों में से एक-एक कलश क्रम से लेना है। इस विधि में कलशों पर नंबर डाल देना चाहिये।
पुष्पांजलि
प्रथमावरणे पूर्वद्वारदक्षिणतोंऽशकात्।
आरभ्य चतुरः कुंभा-नुद्धरामि यथाक्रमम्।।
कलशोद्धरणक्रमविध्यवधानाय प्रथमावरणे पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
(कलशों की प्रथम पंक्ति में पुष्पांजलि छोड़ें।)
(इस कलश में चंपक, अशोक, पीपल, वकुल, बड़, कदंब, उदुंबर, आम, पिप्पली, बेल, अर्जुन इन सभी के पत्ते कलश पर रखंे और जिसमें अनेक नद-नदी, बावड़ी, कुंआ, तालाब, सरोवर, समुद्र आदि तीर्थों का जल भरा हो, ऐसे कलश से आगे का श्लोक व मंत्र पढ़कर अभिषेक करें। सभी कलशों के जल से विधिनायक प्रतिमा व सभी प्रतिमाओं का अभिषेक होना चाहिये।)
उपजातिछंद-
अग्नेर्दिशि स्थापितकुंभमेनं, सच्चंपकाद्यौषधपूर्यमाणम्।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।।1।।
(इस कुंभ में श्रीखंड-श्वेत चंदन, गोरोचन, अगरु, लालचंदन, दूब, पद्मक, सरसों, कुंद, नंद्यावर्त, मालतीपुष्प, तिल, जौ, तंदुल, समुद्र और नदी के तट की मिट्टी, गाय का अधर लिया हुआ गोबर और नदी आदि तीर्थों का जल भरा हो, ऐसे कलश से आगे का श्लोक और मंत्र बोलकर अभिषेक करें।)
रक्षोदिशि स्थापितकुंभमेनं, श्रीचंदनाद्यौषधिपूर्यमाणम्।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।।2।।
ॐ श्रीखंडगोरोचनागरुरक्तचंदनदूर्वापद्मकसिद्धार्थकुंदनंद्यावर्तमालतीकुसुमतिलयवब्रीहि-रूप्यकांचनसमुद्रनद्युभय- तटमृत्तिका-भूम्यपतितपवित्रगोमयोपेत-समस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन मणिमयमंगलकलशेन भगवदर्हत्प्रतिकृतिं स्नापयामः। ॐ हीं र्हं श्रीं अनंतदर्शनाय पवित्रांगाय ह्मममफ हीं र्हं नमः स्वाहा। श्रीखंडादिकलशाभिषेकः।
(इस कुंभ में समुद्र, नदी के तट की मिट्टी, पर्वत की मिट्टी, वामी की मिट्टी, सरोवर आदि की मिट्टी, घी, दूध, दही और इक्षुरस मिश्रित समस्ततीर्थ जल भरा हो, ऐसे कुंभ से आगे के श्लोक व मंत्र पढ़कर अभिषेक कारें।)
वायोर्दिशि स्थापितचारुकुंभं, स्वपंचगव्योत्तममृत्प्रपूर्णम् ।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 3 ।।
ॐ समुद्रनदी-उभयतटगिरीवल्मीकपद्मसरोवरमृद्वृषभकरिशूकरशृंगदंष्ट्रापस्कीर्णमृत्तिका-भूम्यपतितपवित्रगोमयमूत्र- घृतक्षीरदधिइक्षुरसमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन मणिमयमंगलकलशेन भगवदर्हत्प्रतिकृतिं स्नापयामः। ॐ हीं र्हं श्रीं अनंतवीर्याय परमपवित्राय ह्मममफ हीं र्हं नमः स्वाहा । दिव्यमृत्तिकादि पंचगव्यकलशाभिषेकः ।
(इस कुंभ में सहदेवी, गिलोय, शमी, शतावरी, माका, प्रियंगु, विष्णुकांता इन सप्तौषधि को मिलाकर तीर्थजल से भरे कलश से अभिषेक करें।)
ईशानकाष्ठास्थितपूर्णकुंभं, प्रपूर्यमाणं सहदेविकाद्यैः ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 4 ।।
ॐ सहदेवीगलूचीशमीशतावरीप्रियंगुभृंगराजविष्णुक्रान्त्यभिधानसप्तौषधिमिश्रिततीर्थवारिपरिपूरितेन मणिमय- मंगलकलशेन भगवदर्हत्प्रतिकृतिं स्नापयामः । ॐ हीं र्हं श्रीं अनंतसुखाय उत्तमसंहननाय ह्मममफ हीं नमः स्वाहा । सहदेव्यादिसप्तौषधिकलशाभिषेकः ।
द्वितीय आवरण में स्थापित बीस कुंभों से अभिषेक
(इन बीस कुंभों में से पहले चार कलशों से अभिषेक करना है। इसमें भी एक-एक भाग के 1-1 कुंभ उठाना है। बाद में आठ प्रकार के नीराजन द्रव्यों से नीराजन विधि कारें। अनंतर शेष 16 कलशों से अभिषेक करें।)
पुष्पांजलि
द्वितीयावरणे पूर्व-द्वारदक्षिणतोंऽशकात् ।
आरभ्य विंशतिघटा-नुद्धरामो यथाक्रमम् ।।
कलशोद्धरणक्रमविध्यवधानाय द्वितीयावरणे पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(द्वितीय पंक्ति में पुष्पांजलि क्षेपण करें।)
(बेल, भिलावा, आम, लवंग और जायफल चूर्ण से मिश्रित जलयुक्त द्वितीय आवरण के पूर्वद्वार के दक्षिण भाग से एक कलश लेकर अभिषेक करें।)
अत्रादिमांशे परिवर्तमानं, बिल्वादिसंपूरितचारुकुंभं ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 1 ।।
(आगे का पद्य व मंत्र बोलकर द्वितीय आवरण के द्वितीयभाग से प्रथम कलश लेवें)
पदे द्वितीये परिवर्तमानं,पलासकाद्यौषधपूर्णकुंभम् ।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 2 ।।
(आगे का पद्य व मंत्र बोलकर द्वितीय आवरण के तृतीय भाग से एक कलश लेकर अभिषेक करें)
पदे तृतीये स्थितहेमकुंभं,शतावरी मुख्यमहौषधाढ्यम् ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं,संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 3 ।।
(आगे का पद्य व मंत्र बोलकर द्वितीय आवरण के चतुर्थ भाग से प्रथमकलश लेकर अभिषेक कारें।)
पदे चतुर्थे स्थितहेमकुंभं, सिद्धार्थकाद्यौषधिपूर्यमाणम् ।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 4 ।।
एवं प्रतिमाशुद्धिं विधाय वक्ष्यमाणाष्टविधनीराजनं कुर्यात्।
(इस प्रकार प्रतिमाओं की शुद्धि करके आगे कही विधि से नीराजन करें-आगे लिखी वस्तुओं को लेकर भगवान के सामने अवतरण विधि से 3 बार उतारकर आगे लिखित दिशाओं में रखते जावें।)
त्रैलोक्यरक्षामणिमर्हदीश-मष्टप्रकारैरवतारयेऽर्थैः ।।
त्रिवारमामस्तकमापदाब्ज-मन्वीदृशोऽस्य स्नपनक्रमः स्यात्।।
प्रकृतक्रमविधि-अवधानाय प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
(प्रतिमाओं के सामने पुष्पांजलि क्षेपण करें।)
(आगे के श्लोक व मंत्र से अक्षत अवतरण करके पूर्वदिशा में रखें।)
उपजातिछंद-
वीतक्षताद्र्राक्षतसौरभाढ्य – प्रसूनपूर्णांजलिनांजसार्थम्।
पतिं जिनानामवतारयामि, रत्नत्रयं निक्षितमाप्तुकामः ।। 1 ।।
इदं पूर्वदिशि क्षिपेत्।
(आगे के श्लोक व मंत्र से गोमयपिंड अवतरित करके आग्नेय दिशा में रखें।)
भूतलापतितगोमयपिंडै – र्दौर्वगुच्छसितसर्षपयुक्तैः।
अर्हतोऽवतरणं विदधे यं, कर्तुमात्मदुरितौघविलोपम् ।।2।।
गोमयपिंडावतारणम्। इदमग्नेर्दिशि क्षिपेत्। (आग्नेयदिशा में रखेँ।)
(आगे के श्लोक व मंत्र को पढ़कर भस्म के पिंड का अवतरण करके दक्षिण दिशा में रखें।)
शुद्धगोमयज-भस्मकपिंडै-र्गंधवारिलुलितै-र्जिनप्रभोः।
अग्रतोऽवतरणं वितन्महे, दग्धुमात्मदुरितेन्घनोत्करम्।।3।।
भस्मपिंडावतरणं । इदं दक्षिणदिशि क्षिपेत् । (दक्षिण दिशा में रखें।)
(आगे के श्लोक-मंत्र से भात के पिंड का अवतरण कर नैऋत दिशा में रख देवें)
उपजातिछंद-
पीयूषपिंडोपमपांडुराभ-स्वादिष्टशाल्योदनवृत्तपिंडैः।
विदांवर ! त्वामवतारयामि, क्षेमं सुभिक्षं जगतां विधित्सुः।।4।।
शाल्यन्नपिंडावतरणं। इदं नैऋतेर्दिशि क्षिपेत् । (नैऋत्य दिशा में रखेँ)
(पुनः छोटी-छोटी मिट्टी की कलशी श्वेत, कृष्ण, हरित, पीली, लाल रंग से रंग कर आगे के श्लोक से भगवान के सामने अवतरण करके पश्चिम दिशा में रख देवें।)
रूपाग्निवाध्र्यंगुलवक्त्रभूमि-समुच्छ्रयैः सच्चतुरस्रकैस्तैः।
सपंचवर्णैरवतारये त्वां, श्रीवद्र्धनार्थं जिनवद्र्धमानैः।।5।।
पंचवर्णवद्र्धमानावतरणं । इदं पश्चिमदिशि क्षिपेत् । (पश्चिम दिशा में रखें)
(आगे के श्लोक व मंत्र पढ़कर दोनों तरफ जलती हुई बत्ती वाले दीपों से अवतरण करें।)
अनंतनिर्भासनिजावबोधं, प्रध्वस्तदुर्मोहमहांधकारं।
सद्धर्मदीप्त्यै जिनभानुमंतं, माणिक्यदीपैरवतारयामि।।6।।
ॐ हीं क्रों पद्मरागमणिभिरिव देदीप्यमानकर्पूरपारिदीपैरिवोभयपाश्र्वप्रज्ज्वलितोल्कया भगवतोऽर्हतोऽवतरणं करोमि अस्माकं धर्मं उज्ज्वलं करोतु भगवान् स्वाहा।
दीपावल्यावतारणं । इदं वायोर्दिशि निक्षिपेत्। (वायव्य दिशा में रखें)
(आगे के श्लोक-मंत्र से जल की अंजलि लेकर उसमें कपूर मिलाकर अवतरण करके उत्तर दिशा में रखें।)
शीताम्भसा पाणिपुटस्थितेन, युक्तेन कर्पूरसुगंधिपुष्पैः।
नीराजनं नीरजसो जिनस्य, निर्वर्तये शीतसमाधिसिद्ध्यै।।7।।
ॐ हीं क्रों सुरभिशिशिरनिर्मलसलिलपूर्णेनांजलिना भगवतोऽर्हतोऽवतरणं करोमि विमलशीतलध्यानमस्माकं उत्पादयतु भगवान् स्वाहा। सलिलांजल्यावतरणं ।
इदं उत्तरदिशि निक्षिपेत् । (उत्तर दिशा में छोडे)
(आगे के श्लोक व मंत्र पढ़कर थाल में फलों को लेकर अवतरण करके उत्तर दिशा में रखें)
जंबीरजंबूकदलीकपित्थ-फलोत्तमाम्रादिफलोत्तमाद्यैः।
निर्वर्तये नित्यफलं जिनेंद्रं, नित्यामृतानंदफलोपलब्ध्यै।।8।।
ॐ हीं क्रों पवित्रतरसमुत्पन्नक्रमुकनालिकेरमातुलुंगपनसदाडिमजम्ब्वाम्रफलैर्भगवतोऽर्हतोऽवतरणं करोमि अस्माकमाशाफलं संपादयतु भगवान् स्वाहा ।
फलावतरणं । इदमैशान्यां दिशि निक्षिपेत्। (ईशान दिशा में रखें) ।।
इत्यष्टविधनीराजनम् ।।
शुभप्रसूनैर्मणिभिर्विशुद्धै-स्तथा समंत्रैरथवांगुलीभिः।
आराधयाम्यष्टशतं सुरेन्द्रै-राराध्यपादं भगवज्जिनेंद्रम्।।9।।
(आगे के मंत्र से 108 बार या 27 बार पुष्पों से जप कारें)
इति मंत्रं सपुष्पकं अष्टोत्तरशतबारं वा जपेत् ।
(अब आव्हानन आदि विधि करें)
शार्दूलविक्रीडित-
वेधश्चेतसि मे स्फुरंतमपि च, त्वामाव्हयामि प्रभो! शुद्धस्वात्मकृतप्रतिष्ठमपि च, त्वामत्र संस्थापये।।
आसन्नं वितनोमि सर्वगमपि, त्वां निर्विकारं सदा। पाद्याद्यैश्च पुनामि केवलमिदं, सर्वं हि पूजाक्रमः ।।
प्रकृतक्रमविध्यवधानाय प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपेत् । (प्रतिमा के आगे पुष्पांजलि क्षेपण करें)
स्थापना
आहूता भवनामरैरनुगता, यं सर्वदेवास्तथा। तस्थौ यस्त्रिजगत्सभांतरमही-पीठाग्रसिंहासने।।
यं द्यं दि सन्निधाप्य सततं, ध्यायंति योगीश्वराः । तं देवं जिनमर्चितं कृतधिया-मावाहनाद्यैर्भजे।।1।।
तीर्थोदकैर्जिनपादौ प्रक्षाल्य तदग्रे पृथगिमान् मंत्रानुच्चारयन् पुष्पांजलिं प्रयुंजीत ।
(जल से भगवान के चरणों का प्रक्षालन करके उपर्युक्त मंत्रों से स्थापना आदि करें- पंचगुरु मुद्रा बनाकर आगे लिखे श्लोक व मंत्र से पंचगुरुमुद्रा लिखे।)
वसंततिलकाछंद –
आराधितौ सुरवरैर्बहुभक्तियुक्तै-र्यौसंस्तुतौ मुनिवरैर्विविधद्र्धियुक्तैः।
श्रीपादयोर्जिनवरस्य तयोः पुरस्ताद्-बध्नामि विघ्नहरपंचजिनेंद्रमुद्राम्।।2।।
(आगे के श्लोक व मंत्र पढ़कर जिनप्रतिमाओं का स्पर्श करें)
उपजातिछंद-
अनन्यसाधारणसद्गुणान्तां, तव स्मरन्नस्तमितस्मरार्तेः।
जिनेंद्र ! साक्षात्कृतसर्वतत्त्व ! त्वामात्मनः सन्निहितं करोमि।।3।।
इदमुच्चारयन् प्रतिमां परामृशेत् । इत्याह्नानादिविधानम् ।
(जिन प्रतिमा के चरणों में जलधारा छोड़ें – आगे के श्लोक व मंत्र पढ़कर)
मालिनी छंद-
विजयविभवविद्या-वीर्यमौदार्यमाज्ञां, श्रुतिमतिधृतिनीतीः, शांतिकांती प्रसादात्।
दृगवगमचरित्रं सिद्धिवृद्धिप्रसिद्धी-र्वितरतु जगतोऽत्र स्थापितः श्रीजिनेंद्रः।।4।।
उपजातिछंद- सुरेश्वरो यस्य सुराचलाग्रे, पाद्यक्रियामातनुते स्म भक्त्या।
तस्य प्रभोः पाद्यविधिं विधास्ये, निपात्य पादे वरवारिधाराम्।।5।।
(आगे के श्लोक व मंत्र को बोलकर भगवान के मुख के पास जलधारा डालें, यह आचमन क्रिया है-)
अनुष्टुप्छंद-
श्रीतीर्थक्षेत्रियस्यास्य, मेरुमूध्र्नीव देवराट्। हस्ते निपात्य वार्धारां, करोम्याचमनक्रियाम्।।6।।
इतिपाद्याचमनविधानम् (पाद्य व आचमन विधि हुई ।)
(इसी मंत्र से चंदन आदि चढ़ावें)
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकैर्गंधोद्गमैरुद्गमैः।।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, देवं समभ्यर्चये।।7।।
ततः शेषकलशाभिषेक (आगे शेष कलशों से अभिषेक करें)
इसमें भी द्वितीय आवरण में से प्रथमपद का द्वितीय कलश लेवं पुनः द्वितीय पद का द्वितीय कलश, पुनः तृतीय पद का द्वितीयकलश पुनः चतुर्थ पद का द्वितीय कलश लेवें।)
ऐसे ही द्वितीय आवरण के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थपद के तीसरे-तीसरे कलश लेवें पुनः चैथे-चैथे कलश लेवें, अनंतर पांचवें-पांचवें कलश क्रम से उठावें। इस प्रकार आगे के सोलह कलशों से अभिषेक करें।)
पदे स्थितं पंचमकेऽत्र कुम्भं, प्रपूरितं लोहितचंदनेन।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।।1।।
अनेन मंत्रेणावशिष्टसर्वकलशैरभिषेचयेत्। (इस मंत्र से शेष सर्व कलशों से अभिषेक करें)
अधिष्ठितं षष्ठपदं करीरं, श्रीखंडतीर्थोदकपूर्यमाणं ।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 2 ।।
संस्नापितं सप्तमके पदेऽस्मिन्, विशिष्टचोचोदकपूर्णकुंभम्।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 3 ।।
पदेऽष्टमे स्थापितमाम्रमुख्य-फलोत्करोद्यद्रसपूर्णकुंभम् ।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 4 ।।
पदे निषण्णं नवमे करीरं, पुण्ड्रेक्षुजातस्वरसप्रमाणम् ।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 5 ।।
संस्थाप्यमानं दशमे पदेऽस्मिन्, सौवर्णकुंभं सितचूर्णपूर्णम् ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 6 ।।
एकादशे स्थापितकुंभमेनं, पदेऽत्र पाद्यार्थविशेषपूर्णम् ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 7।।
समाश्रितद्वादशमंशमेतं, कुटं प्रतीताचमनार्थपूर्णं ।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 8 ।।
त्रयोदशांशस्थितमघ्र्यकुंभ-मनघ्र्यमघ्र्यार्र्थविशेषपूर्णम् ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः ।। 9 ।।
चतुर्दशांशे रचितप्रतिष्ठं, हय्यंगवीनान्वितहेमकुंभं ।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 10 ।।
न्यस्तं घटं षोडशपूरणांशे, भृशं शशांकोज्ज्वलशुद्धदध्ना ।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः ।। 12 ।।
हटद्घटं सप्तदशांशलब्ध-प्रतिष्ठमत्युज्ज्वललाजपूर्णम् ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः ।। 13 ।।
अष्टादशांशस्थितलाजचूर्ण-मुद्गादि चूर्णोत्कर पूर्णकुंभम् ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 14 ।।
एकोनविंशांशकृतप्रतिष्ठं, कल्कार्थपूर्णं कलधौतकुंभम् ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 15 ।।
निवेशितं विंशतिपूरणांशे, कुंभं भृशं तत्परिमार्जनार्थैः ।।
उद्धृत्य तेनोद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 16 ।।
तृतीयावरणे पूर्व-द्वारदक्षिणतोंऽशकात्। समारभ्यैव षट्त्रिंशद्-घटानुद्धर्तुमुत्सहे।।
ॐ कलशोद्धरणक्रमविध्यवधानाय तृतीयावरणे पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(आगे के श्लोक व मंत्र बोलकर तीन-तीन कलशों से अभिषेक कारें।)
(तीन कलशों में पंच उदुंबर, जामुन, आम, गुडपुष्प-महुवा, शमी आदि की छाल के चूर्ण से मिश्रित जल लेवें।)
उपजातिछंद-
कषायसंसिद्धजलप्रपूर्णांस् ततस्त्रिकोष्ठ-स्थितहेमकुंभान्।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।।1।।
(आगे के तीन कुंभों में जौ का चूर्ण मिश्रित करके आगे का श्लोक व मंत्र पढ़कर अभिषेक करें।)
यवैकलोलीभवदम्बुपूर्णांस्-ततस्त्रिकोष्ठ-स्थितहेमकुंभान्।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 2 ।।
(तीन कुंभों में दर्भचूर्ण मिश्रित कर आगे का श्लोक व मंत्र पढ़कर तीन कलशों से अभिषेक करें)
सद्दर्भगर्भोत्तमवारिगर्भांस्-ततस्त्रिकोष्ठस्थितहेमकुंभान् ।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 3 ।।
(तीन कुंभों में तिलमिश्रित करके आगे के श्लोक व मंत्रों से अभिषेक कारें)
तिलावलीलोलजलानुलीनांस्-ततस्त्रिकोष्ठ स्थितहेमकुंभान् ।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 4 ।।
(तीन कुंभों में पलास, खैर, आम्र, सहदेवी, हल्दी, दाभ, बड़, बेल, कुंद, अहिनेत्र, पाषाणभित्, शमी (सौंदड़) बालुक, उंबर, कांतलक्ष्मी, एकदल, पद्मक, पंचपत्र आदि मार्जन-स्वच्छता करने वाले द्रव्यों से मिश्रित जल भरें)
अभ्यंतरावर्जितमार्जनार्थांस्-ततस्त्रिकोष्ठस्थितहेमकुंभान्।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 5 ।।
(तीन कुंभों में कमल, इन्द्रवल्ली, अपामार्ग, पीपल, पलाश, लौंग, (लवंगपत्र) तिल, प्रियंगु, मूंग, श्वेत सरसों, जौ आदि मंगल द्रव्यों से मिश्रित जल भरें)
अंतर्मिलन्मंगलवस्तुवारींस्-ततस्त्रिकोष्ठस्थितहेमकुंभान् ।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 6 ।।
(तीन कुंभों में मालती, मोगरा, जाई, केवड़ा, नवमल्लिका, पाटली, करवीर आदि सुगंधित पुष्पों से मिश्रित जल भरें)
सपुष्पसंश्लेषणमेघपुष्पांस्-ततस्त्रिकोष्ठस्थितहेमकुंभान् ।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 7 ।।
(तीन कुंभों में लौंग आदि सर्वौषधि मिश्रित जल भरें)
सर्वौषधोपस्कृतसारवारींस्-ततस्त्रिकोष्ठस्थितहेमकुंभान् ।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 8 ।।
(तीन कुंभों में लोहा, तांबा, चांदी, सोना, कसीस, सीसा, पारा और पीतल इनकी भस्म से मिश्रित जल भरें)
लोहाष्टकक्षोदपयः प्रपूर्णांस्-ततस्त्रिकोष्ठस्थितहेमकुंभान्।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 9 ।।
(तीन कुंभों में हीरा, वैडूर्य, पद्मराग, प्रवाल, पुष्पराग, गोमेद, इन्द्रनील, मरकत, मोती इन नव रत्नों से मिश्रित जल भरें)
रत्नप्रभापिंजरितांबुपूर्णांस्-ततस्त्रिकोष्ठस्थितहेमकुंभान्।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 10 ।।
(तीन कुंभों में गंध द्रव्य और पुष्प आदि मिला हुआ जल भरें)
ससर्वगंधांबुभृताहृतालींस्-ततस्त्रिकोष्ठस्थितहेमकुंभान् ।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 11 ।।
(तीन कुंभों में केशर, अगरु, कर्पूर, रक्तचंदन, श्वेतचंदन, हल्दी, खस आदि सुगंधित द्रव्यों से मिश्रित जल भरें)
निशारजोमंजुलपुंजपूर्णांस्-ततस्त्रिकोष्ठस्थितहेमकुंभान् ।।
उद्धृत्य तैरुद्धृतलोकमीशं, संस्नापयामि स्नपितं सुरेन्द्रैः।। 12 ।।
(इस प्रकार इन बारह श्लोक व मंत्रों से तीन-तीन कलशों द्वारा छत्तीस कलशों से अभिषेक किया गया है।)
चतुर्थावरणे पूर्व-द्वारदक्षिणतोंऽशकात्। उद्धरामि द्विपंचाशद्-घटान् गंधांबुपूरितान्।।
(बाहर वाली चैथी लाइन में पुष्पांजलि छोड़ें) पुनः आगे का श्लोक व मंत्र पढ़कर सर्वौषधि आदि सुगंधित द्रव्य मिश्रित बावन कलशों से अभिषेक करें-)
तत्सर्वगंधांचितपुण्यतीर्थ-वाःपूर्णबाह्यावरणस्थकुंभान्।
उद्धृत्य तैरुद्धृतसर्वलोकं, संस्नापये स्नापकमर्हदीशम्।।1।।
(यहाँ तक 52 कलशों से अभिषेक हुआ।)
(अब चार प्रकार की अवतरणविधि है- पंचरंगी भात के पिंड से अवतरण करें)
मालिनीछंद-
जिनतनुगतमेवं स्नेहलेपं व्यपोह्य, प्रवरकनकपात्रे स्थापितैरानुपूव्र्या।
अरुणहरितकृष्णश्वेतपीतान्नपिंडैः, पृथगिह गतदोषं देवमावर्तयामि।।1।।
(पुष्प और अक्षत अंजुली में भरकर अवतरण करें)
वीताक्षताद्र्राक्षतसौरभाढ्य-प्रसूनपूर्णांजलिनांजसार्थम्।
पतिं जिनानामवतारयामि, रत्नत्रयं निःक्षतमाप्तुकामः।।2।।
(पांच मिट्टी की छोटी-छोटी कलशी पांच रंगों से रंग कर अवतरण करें)
रूपाग्निवाध्र्यंगुलवक्रभूमि-समुच्छ्रयैः सच्चतुरस्रकस्तैः।
सपंचवर्णैरवतारये त्वां, श्रीवर्धनार्थं जिनवर्धमानैः।।3।।
(जंभीरी, नींबू, जामुन, कैथा, केला, आम आदि फल थाल में लेकर उतारें)
जंबीरजंबूकदलीकपित्थ-फलोत्तमाम्रादिफलोत्तमौघैः।
निर्वर्तये नित्यफलं जिनेंद्रं, नित्यामृतानंदफलोपलब्ध्यै।।4।।
फलावतरणं ।
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, देवं समभ्यर्चये।।
(अब चतुष्कोण कुंभों से अभिषेक करें)
गद्य-ॐ सकलभुवनजनादेयगुणजातजातरूपमयैरपि निजांगसितातिबद्धनूतनवसनसमालंकृतैः बहुधान्यप्रतिष्ठितैरपि निजविशालेादर- विवरप्रतिष्ठिता-परिमितभुवनैः निजनिखिलांगन्यस्तप्रशस्तसूत्रैरपि सूत्रन्यासबहिर्भूतैः महनीयमहत्त्वप्रसिद्धैरपि सजातीयमध्यगणनावर्जितैः विशिष्टतमसुवृत्तजुष्टैरपि सुवृत्त-स्वकीयसभाबहिष्कृतैः।
स्वतः प्रसिद्धमंगलैरपि परमप्रसिद्धमंगलभावैः। अनवद्यजीवनैरपि मणिकनका- सक्तजीवनैः। परित्यक्तमहाशयैरपि कमलोन्मुखैः । आकंठपरिपूर्णामृतैः वदनगतफलैः। विरुद्धविविधधर्माध्यासैरपि विबुधजनसमर्चितैः चतुर्भिरमीभिः।
स्रग्धराछंद-
चत्वार : सारतोयां-बुधय उत घनाः पुष्करावर्तकाद्याः।
निर्यद्दुग्धाः स्तना वा किमु सुरसुरभेरित्थमाशंक्यमानैः।।
अच्छाच्छस्वाददिव्यत्परिमलविलसत्तीर्थवारिप्रवाहैः ।
कुंभैरेभिश्चतुर्भि-र्युगपदभिषवं कुर्महे भव्यबंधोः।। 1 ।।
चत्तारिमंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा ।
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि । त्रिभुवनदंडकमंत्रेण चतुःकुंभाभिषेकं विदध्यात् ।
शार्दूलविक्रीडित-
आहार्यस्फुटसौरभामलजलैः, संसिद्धिकामोदिभिः। श्रीखंडाक्षतपुष्पहव्यहिमरुग्-दीपैः सुधूपैः फलैः।।
अघ्र्यैर्घातिविघातजातपरमा-नंदावबोधास्पदं । त्रैलोक्यार्चितमर्चयामि चरण-द्वंद्वं जिनेंद्रप्रभोः।।2।।
यो नैर्मल्यगुणादिभूषिततनु-र्दीप्त्या बलेनोर्जसा । युक्तश्चानपवत्र्यकायुरनिशं, सक्तश्च मुक्तिश्रिया।।
नार्थस्तस्य जगत्प्रभोः स्नपनतः, किं त्वाप्तुमेतान्गुणान्-इन्द्राद्यैरभिषिक्त एष भगवान्, पायादपायाज्जिनः।।3।।
इंद्रवज्राछंद-
शांतिं च कांतिं विजयं विभूतिं, तुष्टिं च पुष्टिं सकलस्य जंतोः।
दीर्घायुरारोग्यमभीष्टसिद्धिं, कुर्याज्जिनस्नानजलप्रवाहः।।4।। आशीर्वादः।
(आगे के श्लोक से पुष्पवृष्टि करें)
मालिनीछंद-
कमलवकुलवालोत्फुल्लकल्हारमल्ली-कुमुदकुरुवकोद्यद्-यूथिकाकेतकीनाम्।
मरुवकदवनानां, मालतीचंपकाना-मिह जिनपतिशीर्षे, वृष्टिमुच्चैस्तनोमि।।5।।
इति पुष्पवृष्टिः ।
अथ मध्यकुंभाभिषेकः (अब मध्य के पूर्णकुंभ से अभिषेक करें)
गद्य-निजांगसंगतनिखिलनिरतिशयगंधद्रव्यामोद-प्रसरसमाकृष्टमंजुगुंजन्मधुकरमधुराराव-बधिरितदिगंतरालेन। विविधमंगलालंकार- विशेषविराजमान महामूर्तिनिर्वर्तितसर्वजननयनानंदेन । सर्वतोभवभासमानमाननीयविशदगुणकलाप-समुत्पादितसकलजनचित्तचमत्कारेण ।
अनन्यसाधारणमहत्त्वमहोन्नति महालक्ष्मीसमालक्षितेन । शिष्टजनसमुदयसमीहितसंपादन समुपपन्नशिष्टप्रतिपालनेन। दुस्सहदुरितव्रात- विध्वंसनारूपदुष्टनिग्रहनिरर्गलेन।
चतुर्भद्रोपायशक्ति रत्नत्रयसाधनभावसमासाधितसकलविबुधजनपूजनेन। मणिकनकादिसमस्तसारवस्तु विशेषनिवासेन। जिनमहासाधनप्रधानभावकृतार्थीकृतनिजजीवनेन।
समलंकृताखिलसुवृत्तकलशसभामध्यमध्यासीनेन। सकलकलशराज- श्रियातिशुंभतानेन मध्यकुंभेन।
मालिनीछंद-
सकलभुवननाथं, तं जिनेंद्रं सुरेन्द्रैः । अभिषवविधिमाप्तं, स्नातकं स्नापयामि।
यदभिषवणवारां, बिंदुरेकोऽपि न¤णाम् । प्रभवति हि विधातुं, भुक्तिसन्मुक्तिलक्ष्मीः।। 1।
(गंधोदकवंदन करके नेत्र, ललाट आदि उत्तम अंगों में गंधोदक लगावें)
शार्दूलविक्रीडित-
घातिव्रातविघातजातविपुल-श्रीकेवलज्योतिषो। देवस्यास्य पवित्रगात्रकलनात्, पूतं हितं मंगलम्।।
कुर्याद्भव्यभवार्तिदावशमनं, स्वर्मोक्षलक्ष्मीफल-प्रोद्यद्धर्मलताभिवर्धनमिदं, सद्गंधगंधोदकम्।।1।।
यस्योदारदयस्य जन्म हरतो, जन्माभिषेकोत्सवं । चारौ मेरुमहीधरस्य शिखरे, दुग्धैस्तु दुग्धोदधेः।।
चक्रे शक्रगणो महागुणनिधेः, श्रीपादपद्मद्वयम् । तस्यैकादशधा महेन महता-माराध्यमाराधये।।2।।
(अब ग्यारह प्रकारी पूजा कारें अर्थात् अष्टद्रव्य चढ़ाना, अघ्र्य चढ़ाना, शांतिधारा करना और पुष्पांजलि चढ़ाना ये ग्यारह प्रकारी पूजा है)
शार्दूलविक्रीडित-
यत्रागाधविशालनिर्मलगुणे, लोकत्रयं सर्वदा। सालोकं प्रतिबिंबितां प्रविशतां, नित्यामृतानंदनम्।।
सर्वाब्जानिमिषास्पदं स्मृतिगतं, तापापहं धीमता-मर्हत्तीर्थमपूर्वमक्षयमिदं, वार्धारया धारये।।1।।
गंधश्चंदनगंधबंधुरतरो, यद्दिव्यदेहोद्भवो । गंधर्वाद्यमरस्तुतो विजयते, गंधान्तरं सर्वतः।।
गंधादीनखिलानवैति विशदं, गंधादिमुक्तोऽपि यस्-तं गंधाद्यघगंधमात्रहतये, गंधेन संपूजये।।2।।
इंद्राहीन्द्रसमर्चितैरनुपमै-र्दिव्यैर्वलक्षाक्षतैः। यस्य श्रीपदसन्नखेंदुसविधे, नक्षत्रजालायितम्।।
ज्ञानं यस्य समक्षमक्षतमभूद्, वीर्यं सुखं दर्शनम् । यायज्म्यक्षतसंपदे जिनमिमं, सूक्ष्माक्षतैरक्षतैः।।3।।
यस्य द्वादशयोजने सदसि सद्-गंधादिभिः स्वोपमा-
नप्यर्थान् सुमनोगणान् सुमनसो, वर्षन्ति विष्वक् सदा।।
यः सिद्धिं सुमनः सुखं सुमनसां, स्वं ध्यायतामावहेत्।
तं देवं सुमनोमुखैश्च सुमनो-भेदैः समभ्यर्चये।।4।।
यद्व्याबाधविवर्जितं निरुपमं, स्वात्मोत्थमत्यूर्जितम् ।
नित्यानंदसुखेन तेन लभते, यस्तृप्तिमात्यंतिकीम्।।
यं चाराध्य सुधाशिनो ननु सुधा-स्वादं लभन्ते चिरम् ।
तस्योद्यद् रसचारुणैव चरुणा, श्रीपादमाराधये।।5।।
स्वस्यान्यस्य सहप्रकाशनविधौ, दीपोपमोऽप्यन्वहं । यः सर्वं ज्वलयन्ननंतकिरणै-स्त्रैलोक्यदीपोऽस्त्यतः।।
येनोद्दीपितधर्मतीर्थमभवत्, सत्यं विभोस्तस्य सद्-दीप्त्या दीपितदिङ्मुखस्य चरणौ, दीपैः समुद्दीपये।।6।।
येनेदं भुवनत्रयं चिरमभूद् – उद्धूपितं सोऽप्यहो । मोहो येन सुधूपितो निजमहो-ध्यानाग्निना निर्दयम्।।
यस्यास्थानपदस्थधूपघटजै-र्धूमैर्जगद् धूपितम् । धूपैस्तस्य जगद्वशीकरणसद्-धूपैः पदं धूपये।।7।।
यद्भक्त्या फलदायि पुण्यमुदितं, पुण्यं नवं बध्यते । पापं नैव फलप्रदं किमपि नो, पापं नवं प्राप्यते।।
आर्हन्त्यं फलमद्भुतं शिवसुखं, नित्यं फलं लभ्यते । पादौ तस्य फलोत्तमादिसुफलैः, श्रेयःपदायार्चये।।8।।
मंगं लाति मलं च गालयति यन्-मुख्यं ततो मंगलम् । देवोऽर्हन् वृषमंगलोऽभिविनुतै-स्तैर्मंगलैः साधुभिः।
चंचच्चामरतालवृंतमुकुर- र्मुख्येतरैर्मंगलैः। मुख्यं मंगलमिद्धसिद्धसुगुणान्, संप्राप्तुमाराध्यते।।9।।
मालिनीछंद-
ज्वलितसकललोका-लोकलोकोत्तरश्री- कलितललितमूर्ते, कीर्तितेन्द्रैर्मुनीन्द्रैः।।
जिनवर ! तव पादो-पान्ततः पातयामः । भवदवशमनार्था-मर्थतः शांतिधाराम्।।10।।
(शांतिधारा)
पुष्पेषोरिषवो वयं पुनरिदं, पुष्पेषु निःशेषकम् । निष्पीतानि मधुव्रतैर्वयमिदं, निष्पापसंसेवितम्।।
इत्यालोच्य नमन्त्यपास्य मदमित्-याशंकयन्तीशते । निष्पीताखिलतत्त्वपादकमले, पुष्पाणि निःपातये।।11।।
(पुष्पांजलिः) इत्येकादशमहः ।
(कर्णवेधनक्रिया में आगे का श्लोक पढ़कर भगवान-प्रतिमा के कानों में हीरे की कलम से स्पर्श करें)
निर्माणाह्वयनामकर्मकुशल-श्रीशिल्पिना कल्पिते । रन्ध्रे यस्य विशालकर्णयुगले, सूक्ष्माजिनाच्छादिते।।
वज्रेण स्वकरस्थितेन मघवा – नाविश्चकारैव ते। तद् बिंबस्य करोमि कर्णयुगले, वज्रेण तत्स्थापनं।।1।।
(कर्णवेधन में वज्र की कलम से लेखन करें।)
(आगे के श्लोक से प्रतिमा को चंदन लगावें)
कृत्वा यस्य पुरंदरोऽतिविभवाज्जन्माभिषेकोत्सवं। शच्यापादयति स्म दिव्यवपुषि, श्रीचंदनोद्वर्तनम्।।
बिंबे तस्य च कारयामि कुलज-स्त्रीभिः समालंबनम् । श्रीखंडागरुजात्यकुंकुमलसत्कर्पूरकल्कद्रवैः।।2।।
प्रोक्षणाधिकृतनारीभिर्जात्यकुंकुमश्रीखंडागरुकर्पूरलुलितचंदनचर्चनम् ।
(पति-पुत्र वाली सौभाग्यवती महिलाओं से केशर, चंदन, कपूर, अगुरु आदि सुगंधित वस्तुओं से बने हुये कल्कचूर्ण-चंदन का लेप करावें ।)
(श्वेत कच्चे सूत्र से प्रतिमाओं की दाहिनी भुजा में कंकणबंधन करें)
नाकानीतजिनैकभोग्यविविधा-लंकारमाल्यांबरैः । भक्त्या शक्रनियोगतश्च समलं-चक्रे शची यद्वपुः।।
तन्मत्वा वरयोषिताप्रतिकृते-र्हस्ते त्रिवर्णोज्ज्वलम् । सूत्रं संप्रति बंधयामि यवसत्सिद्धार्थरत्नान्वितम्।।3।।
दक्षिणभुजे षोडशाभरणात्मकं कंकणबंधनम् ।
सद्यः कोटिभवार्जिताघविलयो, यन्नाममात्राद् भवेत् । यन्नाम्नामृषयः स्वदोषहतये, गृण्हन्ति कोटिं स्फुटम्।।
मेरौ संव्यवहारनाम तनुते, यस्य प्रभोर्देवराट् । तद्बिंबस्य च यष्ट्रसम्मतमिदं, नामार्पणं कुर्महे।।4।।
नामकरणार्थं प्रतिमोपरि कुंकुमाक्तपुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
इति नामकरणं कृत्वा तन्नाम प्रकाशयेत् ।
तद्यथा-आगे के सूत्रों को पढ़कर विधिनायक प्रतिमा के नाम को घोषित करें पुनः सर्व श्रावक भी प्रतिष्ठाचार्य के कहे अनुसार वही नाम बोलें-
इंद्रेण वक्तव्यं। वृषभेश्वरो भवतु इति सर्वैः प्रतिवक्तव्यम् ।
(उपर्युक्त मंत्र प्रतिष्ठाचार्य बोले पुनः ‘‘वृषभेश्वरो भवतु ‘‘ऐसा सभी बोले। यदि शांतिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी आदि कोई भी तीर्थंकर विधिनायक हों तो ‘शांतिनाथो भवतु, पाश्र्वनाथो भवतु, महावीर स्वामी भवतु आदि नाम बोलें।)
एवं यथाविवक्षमजितादिनाम्नापि प्रकाशनीयं एवमुत्तरत्रापि।
अयं वृषभेश्वरः परमोत्कर्षेण प्रवर्तताम् ।। इति नामकरणविधानम्।
जय जय जिनराज, ध्वस्तदुर्मोहराज, प्रहतमदनराज, प्रव्हतद्देवराज।
रुचिरतरविराज, स्तुत्यशक्ताहिराज, प्रचुरसुगुणराजन्नच्युताधीशराज।।1।।
जय जय जिनधीर-प्राप्तजन्माब्धिपार, प्रथितविभवसार, प्रौढतीर्थावतार।
प्रहतहतकमार, प्रोद्गतानंदपूर, प्रहसितशतशूर, प्रप्रकृष्टांशुभार।।2।।
जय जय जिनमित्र, ध्वांतविध्वंसमित्र, स्वतिशयगुणगात्र, ज्ञानविस्फूर्तिपात्र।
परमपदपवित्र, प्रोल्लसद्देवयात्र, प्रवरशरणचात्र, प्राणिनामप्यमुत्र।।3।।
जय जय जिन जैत्र, क्ष्मात्रयारामचैत्र, त्रिदशविधृतवेत्र, श्वेतचित्रातपत्र।।
निरतिशयचरित्र-श्रीमदर्थोक्तसूत्र, स्वदुरघतरुदात्र, श्रायसश्रीकलत्र।।4।।
जय जय जिनतात-त्रातरत्यंतपूत, स्थिरतरसुखदातः, कर्मसंघातघात।।
कुमत जलदवात, ज्ञेयजातप्रमातः, प्रवचनरथसूत-ख्यातदेवाभिनूत।।5।।
जय जय जिनचंद्र-च्छिन्नदुर्मोहतंद्र, प्रणतसुरनरेन्द्र-स्वात्मलक्ष्मन्मुनीन्द्र।
स्वतिशयगुणरुंद्र, प्रीणितप्राणिमंद्र, प्रवचनसरिदिंद्र-स्फीतभासांद्र चंद्र।।6।।
जय जय जिनसेव्य, त्रातसुप्रीतभव्य, त्रिभुवनमहितव्य-स्वाप्तिसंभावितव्य।।
वरद नमसितव्य-प्रत्यहं कीर्तितव्य, स्मृतिपथनिहितव्य-श्रेयसे भावितव्य।।7।।
जय जय जिननाथ-ज्ञानसंपत्सनाथ, प्रतिहतरतिनाथ-प्राप्तमोहाप्तनाथ ।।
नतसुरनरनाथ-श्रीदलोकाधिनाथ, श्रुतिकजदिननाथ-श्रीवधूप्राणनाथ।।8।।
नमदनिमिषषंडं खण्डितानंगकांडं, हसितलसिततुंडं-ध्यानधीराग्निकुंडं।
सुगुणमणिकरंडं, जन्मवार्धौ तरंडं, विनमितचिदखंडं श्रायसानंदपिंडम्।।9।।
इत्यानंदस्तवः
आवेद्यासनतः क्रियाप्रणमनं, पश्चाद्विधेयास्थितिः ।
स्त्र्यावत्र्यैकशिरोनतिः प्रथमतः, साम्यं तदंतेऽपि च।।
कायोत्सर्गविधिर्नतिस्तवनमा-योज्यं च तत्साम्यवत् ।
कार्या भक्तिरभीप्सिताप्यवसिता-वालोचनाप्यासनात्।।1।।
इत्थं वै सिद्धचारित्रशांतिभक्तीः ससंघकाः। जन्माभिषेककल्याण-क्रियां कुर्वन्तु याजकाः।।2।।
जन्मकल्याणक क्रिया में मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविका-चतुर्विधसंघ मिलकर सिद्ध, चारित्र और शांतिभक्ति करें। उसकी प्रयोग विधि इस प्रकार है। यहाँ जो भगवान विधिनायक हों उनका नाम लेवें यथा-
नमोऽस्तु ऋषभदेवजन्मकल्याणकक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं ।
(णमोकार मंत्र, चत्तारिमंगल आदि पढ़कर 9 बार महामंत्र जपकर थोस्सामिस्तव पढ़कर लघु सिद्धभक्ति 195 पृष्ठ से पढ़े। पुनः-)
नमोऽस्तु ऋषभदेवजन्मकल्याणकक्रियायां . . . चारित्रभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं ।
(पूर्ववत् सर्वक्रिया करके लघु चारित्रभक्ति 195 पृष्ठ से पढ़ें।)
नमोऽस्तु ऋषभदेवजन्मकल्याणकक्रियायां . . . शांतिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं ।
(सामायिक दण्डक, 9 जाप्य, थोस्मामिस्तव पढ़कर लघु शांतिभक्ति 195 पृष्ठ से पढ़े।)
नमोऽस्तु ऋषभदेवजन्मकल्याणकक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धचारित्रशांतिभक्तीः कृत्वा तद्हीनाधिकदोषशुद्ध्यर्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्र्गं करोम्यहं।
(पूर्ववत् कायोत्सर्ग विधि करके लघु समाधिभक्ति 196 पृष्ठ से पढ़े।)
इति जन्मकल्याणक्रिया
(सौधर्म इन्द्र आदि नृत्य कारें, नानाविध बाजे बजावें)
स्रग्धरा-
स्तुत्वा नत्वाप्यतृप्तः स्वयममरपतिस्तांडवं संवितेने ।
लास्यं तद्दोः सहस्रोपरिचरितसुर-स्त्रीजनश्चाबबंध।।
गीतं वाद्यं युयोज, प्रणुतसुरगणो यत्पुरस्ताज्जिनानाम् ।
संकल्पात्तस्य तौर्यत्रिकमिदमघभिद् बिंबमालक्ष्य योक्ष्ये।।1।।
इन्द्रपरिकल्पितानंदनाटकसंकल्पेन तदग्रे तौर्यत्रिकं प्रयुंजीत ।
(इन्द्र द्वारा किये गये आनंद नाटक की कल्पना से प्रतिमा के सामने वाद्य आदि बजावें।)
(आगे का श्लोक पढ़कर इंद्र तीन प्रदक्षिणा देवें)
शार्दूलविक्रीडित-
नीत्वा पूर्ववदेव भूरिविभवात्, तद्राजधानीं महा- सौधाग्रांगणमंडपे शतमखः, पीठे यमस्थापयत्।।
तं मत्वाहमपीह तत्प्रतिकृतिं, श्रीमूलवेदीमिमाम् । नीत्वा रत्नकुशांचिते पटवृते, पीठेऽत्र संस्थापये।।2।।
एतत्पद्यं मूलवेदी-अग्रे स्थितः शक्रः पठित्वा तां त्रिवारं प्रदक्षिणीकुर्यात् ।
आगे वेदी में भद्रासन पर प्रतिमा को विराजमान करें-
उपजातिछंद-
यं देवमैरावणतोऽवतार्य, धृत्वा स्वयं राजगृहं निनाय ।
सौधर्मशक्रः परमोत्सवेन, ततोऽयमैन्द्रः परमोत्सवोऽभूत् ।। 3 ।।
देवं तमद्याहमपि प्रमोदात्, स्कंधे समारोप्य महाविभूत्या ।
परीत्य संघेन समं त्रिवारं, श्रीमूलवेद्यां विनिवेशयामि ।। 4।।
ॐ नमोऽर्हते केवलिने परमयोगिने अनंतविशुद्धिपरिणामपरिस्फुरत्-शुक्ल-ध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय, प्राप्तानंत- चतुष्टयाय, सौम्याय, शांताय, मंगलाय, वरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा।
(मूलवेदीमध्यस्थापितभद्रासने प्रतिमानिवेशनमंत्रः)
(मंडप में चारों तरफ पुष्पांजलि क्षेपण करें)
उपजातिछंद-
श्रीदेन राजांगणनिर्मितो यो, रत्नप्रभापादितशक्रचापः।
वितानमाल्यादिविराजमानः, स एव साक्षान्मखमंडपोऽयम्।।5।।
मंडपे समन्तात् पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
यः सेवमानो जिनमिन्द्रलोकः, शच्यादिदेवीनिवहः प्रतीतः।
स एव साक्षादयमस्तु संघो, जिनेंद्रसेवाप्रसितान्तरंगः।।6।।
चतुर्णिकायामरभावस्थापनाय संघे पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
प्रातिहार्य आदि पर पुष्पांजलि क्षेपण करें-
यदेव देवाहितहेमपीठं, तदेतदस्तु ध्रुवभद्रपीठम्।
दिव्यातपत्रादिपरिच्छदो यः, स एव देवोऽस्तु परिच्छदोऽयम्।।7।।
इन्द्रकृतपरिच्छदस्थापनाय भद्रपीठे छत्रादिपरिच्छदेऽपि पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(जिनमाता की स्थापना के लिये भद्रपीठ पर पुष्पांजलि छोड़ें-)
प्रबोध्य शच्या विभवेन नीत्वा, सिंहासनाग्रे विनिवेशितायाः।
सैवास्तु साक्षादियमेव पीठी, लोकत्रयांबा भगवज्जिनांबा।।8।।
जिनमातृभावस्थापनाय भद्रपीठे पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
(आगे के श्लोक से अन्य सभी प्रतिमाओं पर पुष्पांजलि छोड़ें-)
यः क्षीरनीरैरभिषिच्य मेरौ, सुरैः समानीय जिनांबिकांके।
निवेशितः श्रीजिनचंद्रबालः, स एव साक्षादयमस्तु बिंबः ।। 9 ।।
जिनकुमारस्थापनाय प्रतिबिंबेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।
वसंततिलकाछंद-
निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षं, न्यक्षेण सर्वजगदुज्ज्वलनैकतानम्।
सूते जगत्त्रयरविं भवती जिनेंद्रं, प्राचीमतो जयसि देवि ! तदल्पसूतिम्।।1।।
आभवादपि दुरासदमेव, श्रायसं सुखमनंतमचिन्त्यम्।
जायतेऽद्य सुलभं खलु पुंसां, त्वत्प्रसादत इहाम्ब ! नमस्ते।।2।।
उपजातिछंद-
चेतश्चमत्कारकरी जनानां, महोदयाश्चाभ्युदयाः समस्ताः।
हस्तीकृताः शस्तजनैः प्रसादात्, तवैव लोकांब ! नमोऽस्तु तुभ्यम्।।3।।
एकप्रसूरप्यसि विश्वमाता, त्वं मानुषी चाप्यधिदेवतासि।
स्त्रैणं दधानापि निरस्तदोषा, चित्रं चरित्रं तव लोकमातः।।4।।
मालिनीछंद-
सकलयुवतिसृष्टे-रंब! चूड़ामणिस्त्वम्। त्वमसि सुगुणपुष्टे-धर्मसृष्टेश्च मूलम्।।
त्वमसि च जिनमातः! सर्वमुक्त्यंगमुख्या। तदिह तव पदाब्जं भूरिभक्त्या नमामः।।5।।
इति देवीं जनाभ्यर्णां स्तुत्वा पीठिकायां कुंकुमाक्तकुसुमानि क्षिपेत्।
(भद्रपीठ पर पुष्पांजलि क्षेपण करें)
(आगे का श्लोक पढ़कर सभी जिनमाता के ऊपर पुष्पांजलि क्षेपण कर नमस्कार करें-)
सौधर्ममुख्येषु पुरंदरेषु, सानंदमग्रे सममानमत्सु।
या सुप्रसन्नां निदधे स्वदृष्टिं, तामर्हदम्बां वयमानमामः।।6।।
इन्द्रयजमानप्रभृतयः सर्वेऽपि श्रावका जिनमातरं पुष्पांजलिपूर्वकमानमंतु।
(इन्द्र-यजमान आदि सभी श्रावकगण जिनमाता को पुष्पांजलि क्षेपण कर नमस्कार करें।)
पीठाग्रभूघृष्टललाटपट्टाः, शच्यादिदेवीर्बहुभक्तियुक्ताः।
स्मितेन संभावयति स्म यासौ, तामर्हदम्बां वयमानमामः।।7।।
इदमुक्त्वा यजमानवधूप्रभृतयः सर्वाः श्राविका जिनमातरं पुष्पांजलिपूर्वकमानमन्तु।
(उपर्युक्त श्लोक को पढ़कर यजमान की महिलायें-इन्द्राणियां, सभी श्राविकायें पुष्पांजलि क्षेपण कर जिनमाता को नमस्कार करें।)
(पुनः आगे का श्लोक पढ़कर नाना वस्त्र-आभूषण से भरे थाल को प्रतिमा के सामने रखें)
विभूषयामास जगत्त्रयस्य, विभूषणं दिव्यविभूषणाद्यैः।
पुरंदरोऽयं जिनचन्द्रबालं, स एव देवो जिनबिंब एषः।।8।।
एतत्पठित्वा विविधवस्त्राभरणपूरितमंगलपात्रं जिनपीठाग्रे विन्यसेत्।
(पुनः इन्द्र के द्वारा किये गये आनंदनाटक की कल्पना हेतु प्रतिमा के आगे अनेक बाजे बजवावें और नृत्य आदि भी करावें)
स्तुत्वा नत्वाप्यतृप्तः स्वयममरपतिस्तांडवं संवितेने।
लास्यं तद्दोः सहस्रोेपरिचरित-सुरस्त्रीजनश्चाबबंध।।
गीतं वाद्यं युयोज प्रणुतसुरगणो, यत्पुरोऽर्हज्जनन्याः।
संकल्पात्तस्य तौर्यत्रिकमिदमघभिद् बिम्बमालक्ष्य योक्ष्ये।।9।।
इन्द्रपरिकल्पितानंदनाटकसंकल्पेन तदग्रे तौर्यत्रिकं प्रयु´जीत।
(एक स्वर्णपात्र में घी, दूध और शक्कर मिलाकर निम्नलिखित श्लोक पढ़कर प्रतिमा के दाहिने हाथ के अंगूठे में कुश-दाभ से लगा देवें)
यस्यांगुष्ठे स्थापयामास शक्रः, पीयूषौघं स्तन्यलौल्यक्षयाय।
तस्याधीशो दुग्धस£पःसितौघं, बिंबांगुष्ठे स्थापयेऽहं कुशाग्रैः।।10।।
पात्रार्पितं मधुरत्रयं कुशैरुद्धृत्य प्रतिबिम्बस्य दक्षिणहस्तांगुष्ठे स्थापयेत्।
(पुनः इन्द्र के द्वारा निर्धारित दिक्पाल के लिए धनुष, दंड, पाश और गदा धारण करने वाले चार लोगों को चार दिशा में खड़े करके आगे के श्लोक को पढ़कर उन पर पुष्पांजलि छोड़ें)
जिनस्य लोकत्रयरक्षिणोऽपि, रक्षार्थमिन्द्रश्चतुरो दिगिन्द्राः।
भक्त्या नियुंक्ते स्म शरासनादी-नाबिभ्रतो यानिह संतु तेऽमी।।11।।
इन्द्रनियोजितदिक्पालस्थापनाय धनुर्दण्डपाशगदाधरेषु समुचितभव्येषु चतुर्षु जिनबिंबस्य चतु£दक्षु पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
(श्री आदि देवी बनी हुई आठ कन्याओं को उबटन आदि द्रव्य हाथ में देकर प्रतिमा के दाहिने तरफ खड़ी करके आगे का श्लोक पढ़कर उन पर पुष्पांजलि छोड़ें)
उद्वर्तनस्नपनलेपनधूपनानि, भक्त्यान्यदप्यभिमतं परिकर्म चक्रुः।
याः श्र्यादयो जिनपते£जनमातृकल्पा-स्ता एव सांप्रतमिमाः कुलजाष्टकन्याः।।12।।
(यहां पर पालना झुलाने का कार्य संपन्न करें।)
(भगवान के साथ क्रीड़ा करने वाले 8 बालकों के हाथों में गेंद, खिलौने आदि वस्तुयें देकर प्रतिमा के बायीं तरफ खड़े करके आगे का श्लोक बोलकर उन पर पुष्पांजलि छोड़ें)
मनोऽनुकूलं च वयोऽनुकूलं, नानाविधं क्रीडनमाचरन्ति।
ये शक्रपुत्रा जिनबालकेन, ते सन्तु चामी कुलजाः कुमाराः।।1।।
त्रायस्त्रिंशदेवभावस्थापनार्थं प्रतिबिम्बवामपार्श्वस्थापितेषु कन्दुकजलक्रीड़ायंत्रफलपल्लवप्रसूनादिहस्तेषु चतुर्षु अष्टसु वा कुमारेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
कई एक थाल में सुंदर वस्त्र, आभूषण, दूध, दही, फल, भोजन सामग्री, पकवान आदि रखकर सामने थाल रखें, कुबेर की कल्पना से यजमान के ऊपर पुष्पांजलि क्षेपण करें
भोगोपभोगोचित वस्तु सर्वं, दिव्यं च संपादयति स्म काले।
काले धनेशो भगवज्जिनेशो, यः सोऽयमेवास्तु विशिष्टयष्टा।।2।।
भोगोपभोगार्थसंपादकधनेशस्थापनाय तत्संपादनीययजमाने पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
स च दिव्यवस्त्रगंधभूषणस्वस्तिकशाल्यन्नक्षीरान्नविचित्रभक्ष्यपक्वान्नदुग्धदधिघृत शर्कराचारुपुष्पफलप्रदीपधूपादि भोग्यवस्तुजातं कांचनभाजने विरचय्य शिलायां विनिवेशयेत्।
तीर्थंकर के शिष्यभाव नहीं है, ऐसी भावना से प्रतिमा के आगे पुष्पांजलि क्षेपण करें
यः सर्वविद्यानिकरोपदेशे, स्वातंत्र्यतः शिष्यतया विमुक्तः।
अशिक्षत त्र्यंबकसम्मतोसी-त्यानेमुरिन्द्रा यमहो स एषः।।3।।
गुरुपूजोपलंभनाय प्रतिमाग्रे पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
युवराजपद की स्थापना के लिए छत्र, चंवर, ध्वजा आदि राज्यचिन्हों की स्थापना करके प्रतिमा के ऊपर पुष्पांजलि छोड़ें
कुमारकाले किल यस्य पट्ट-बंधाभिषेकांचितयौवराज्यम्।
वितेनिरे स्वीयनृपाः सुरेन्द्राः, स एव साक्षादयमस्तु बिम्बः।।4।।
यौवराज्यपदस्थापनाय सर्वभव्योद्धृतछत्रचामरध्वजादि विविधराज्यचिन्ह शालिन्याः-प्रतिमाया उपरि शंखकाहलादि विविध- मंगलवाद्यघोषपूर्वकं कंकुमरंजितपुष्पाक्षतं क्षिपेत्। यौवराज्यस्थापनम्।
वासुपूज्यमल्लिनेमिपाश्र्ववर्धमानतीर्थंकराणां कुमारदीक्षितानां यौवराज्यस्थापनपर्यंतं जन्माभिषेकक्रियां कुर्यात्।
(स्वराज्य स्थापना हेतू प्रतिमा पर पुष्पांजलि)
यस्याधिराज्याभिषवं वितेनु, र्भूत्या सुरेन्द्राः सकला नरेन्द्राः।
यः सागरान्तं पृथिवीं शशास, क्षात्रेण धर्मेण स एष देवः।।5।।
स्वराज्यस्थापनाय प्रतिमोपरि पूर्ववत् पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
शेषषोडशतीर्थंकराणां स्वराज्यपर्यंतं जन्माभिषेकविधिं विदध्यात्। (पाँच वालयति तीर्थंकरों की युवराजपर्यंत क्रिया करें तथा सोलह तीर्थंकरों के राज्याभिषेक आदि क्रिया करें।)
चक्रवर्ती हुए शांति, कुंथु, अर तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के ऊपर ‘चक्रलाभ, दिग्विजय, राज्याभिषेक और राज्य करना’ इन चार लाभ की स्थापना के लिए चार पुष्प रखें
पुनः 108 कलशों से प्रतिमा का राज्याभिषेक कारें
शार्दूलविक्रीडित-
उद्यद्रत्ननिधीश्वरः स्वजनतो, यश्चक्रलाभक्रियां। लेभे सर्र्वदिशां जयं नृपवरैश्चक्राभिषेकोत्सवम्।।
पंचक्षत्रियवृत्तदेशनपरः, साम्राज्यरूढक्रियां। षट्खण्डक्षितिशासनेद्धविभवः, साक्षात् स एवास्त्वयम्।
चक्रलाभादिचतुष्टयस्थापनाय प्रतिमोपरि पूर्ववच्चतुः पुष्पीमावहेत्। शांतिकुंथ्वरतीर्थंकराणां चक्रलाभादिचतुष्टयपर्यंतं जन्माभिषेक- विधिं विदध्यात्।
आगे का श्लोक पढ़कर देवों द्वारा लाये गये भोग-उपभोग वस्तुओं का अनुभव भगवान कर रहे हैं,
ऐसी कल्पना से प्रतिमा के ऊपर पुष्पांजलि छोडे़
यहीं पर राज्यसभा लगाकर 32 राजाओं द्वारा भेंट लाने की क्रिया संपन्न करें
स्वर्भूगोचरभूरिभोग्यभवसद् – भोगोरुसौख्याकरो।
यः स्वाज्ञा£थसुरासुराधिपनृपैः, संसेव्यपादाम्बुजः।।
नित्यश्रीनिहितादरोऽप्युचिततत्, कालागमं पालयन्।
साम्राज्यं नृसुरासुराथतसुखं, भेजे स साक्षादयम्।।
देवोपनीतभोगोपभोगानुभवनाय प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
इत्थं सौधर्मशक्रप्रभृतिसुरवरा यां जिनेंद्रस्य साक्षात्।
चक्रुर्जन्माभिषेकोत्सवविषयमहाश्चर्यकल्याणपूजाम्।
तामारोप्यात्र बिंबे विधिवदिह कृता शक्तितो भूरिभक्त्या।
भुक्त्यै मुक्त्यै च यष्ट्रप्रभृतितनुभृतामस्तु कल्याणपूजा।।
इष्टप्रार्थनाय पुष्पांजलिः।
इत्थं विधत्ते जिनपुंगवस्य, जन्माभिषेकोत्सवसंविधिं यः।
जन्माभिषेकोत्सवमाशु यास्य-त्यमुत्र सोऽयं खलु धर्मनेमिः।।
इत्यर्हत्प्रतिष्ठासारसंग्रहे नेमिचन्द्रदेवविरचिते प्रतिष्ठातिलक-
नाम्नि जन्माभिषेककल्याणविधिर्नाम नवमः परिच्छेदः।।9।।