(स्वर्ग में इन्द्र का दरबार लगा हुआ है, अप्सरा द्वारा नृत्य चल रहा है। नृत्य के बाद वहाँ आज देवों में कुछ चर्चा चल रही है)
इन्द्र –स्वर्गलोक के मेरे प्रिय देवगणों! आज की सभा में हम आपको एक विशेष जानकारी प्रदान करने जा रहे हैं।
देव – देवराज! कृपया बताइये कि ऐसी कौन सी विशेष जानकारी आप हमें देने वाले हैं।
इन्द्र – मित्रों! आज हमारे आनत नामक स्वर्ग में एक महापुण्यशाली आत्मा देवरूप में जन्म लेने वाली है।
देव – स्वामी! उन पुण्यशाली आत्मा की क्या विशेषता है?
इन्द्र – देवसाथी, उस पुण्यशाली आत्मा के बारे में मैं आपको अवश्य बताऊँगा, वह महान आत्मा जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में शाश्वत जन्मभूमि अयोध्यानगरी के राजा आनन्द के रूप में थी, जिसने सागरदत्त नामक महामुनिराज से जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया, वही राजा आनंद अपनी आयु पूर्ण कर समाधिपूर्वक अपने नश्वर शरीर का त्यागकर यहाँ आनतेन्द्र के रूप में जन्म लेने वाले हैं।
इन्द्र – हे इन्द्रराज! यह आनतेन्द्र कौन सी नगरी में कौन से तीर्थंकर के रूप में जन्मेंगे?
इन्द्र – मित्रवर! वह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में वाराणसी नगरी के राजा अश्वसेन की प्रिय महारानी वामादेवी से तेईसवें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ के रूप में जन्मेंगे।
सभी देव –देवी मिलकर-(खड़े होकर) जय हो, जय हो, तीर्थंकरपार्श्वनाथ की जय हो। वाराणसी नगरी की जय हो। हे इन्द्रराज! अब हमें बताइये कि हम क्या-क्या तैयारी करें, जिससे कि वे देवसाथी सदैव प्रसन्न रहें।
इन्द्र – मित्रों! आप सब आनत नामक विमान को खूब सुसज्जित करें और देखिए उपपाद शैय्या तो ठीक है ना! उसे फूलों से खूब सुसज्जित करिए।
सभी – ठीक है मित्रवर! (सभी जयजयकार करते हुए निकल जाते हैं)
-दूसरा दृश्य-
निर्देशक –(स्वर्ग में सुन्दर फूलों से सुसज्जित उपपाद शैय्या तैयार है, शैय्या ऊपर चारों ओर से ढ़की हुई है। अन्दर एक सोलहवर्षीय नवयुवक निद्रा में लीन है। बाजे, नगाड़ों की ध्वनि हो रही है, पुष्पों की वर्षा तथा मन्द-मन्द वायु चल रही है, जय-जयकार से दशों दिखाएँ मुखरित हो रही हैं, अनेक देव-देवी हाथ जोड़कर शैय्या के चारों ओर खड़े हैं। तभी वह देव उठकर बैठ जाते हैं।)
आनतेन्द्र –(हाथ जोड़कर णमोकार मंत्र का उच्चारण करते हैं)
ओह! मैं कौन हूँ? मैं यहाँ कहाँ आ गया? मैं इतनी सुन्दरता कहाँ की देख रहा हूँ? कौन हैं ये लोग, इतने सुन्दर और मुझे नमस्कार कर रहे हैं। (पुन: अवधिज्ञान से जानकर) ओह! मैं स्वर्ग में देव हुआ हूँ।
सभी देवगण – हम सभी देवों का प्रणाम स्वीकार करें। स्वर्ग में आपका आगमन मंगलकारी हो। आप तेरहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र के रूप में जन्मे हैं। प्राणत नामक विमान में जन्म हुआ है आपका।
आनतेन्द्र – ओह! मैं राजा आनन्द की पर्याय में था। मैंने वहाँ कुशलतापूर्वक राज्य संचालन कर वैराग्य हो जाने से दीक्षा ग्रहण कर ली थी और सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन करते हुए समाधिपूर्वक शरीर का त्याग किया था जिससे मैं चौदहवें स्वर्ग में जन्मा हूँ, अब मुझे पुन: उसी धर्म की शरण लेनी है।
एक देव – (समीप जाकर) हे स्वामिन्! आपकी जय हो, आप पुण्यवान हैं। प्रभो! स्नान की सभी सामग्री तैयार है अत: आप शैय्या का त्यागकर मंगल स्नान करें, पुन: जिनेन्द्र भगवान की पूजन करने चलेंगे। इसके बाद अपने वैभव का सर्वेक्षण करने चलें। (आनतेन्द्र नहा धोकर सुन्दर वस्त्र पहनकर तैयार हो जाते हैं और देवसाथियों के साथ अकृत्रिम जिनमंदिर में पहुँचकर अभिषेक पूजन करते हैं) (यहाँ मंदिर का दृश्य दिखावें) पुन: स्वर्ग में वापस आते हैं-
-तृतीय दृश्य-
एक देव साथी –(आनतेन्द्र को उनका वैभव दिखाते हुए) देखिए मित्रवर! अब मैं आपको यहाँ की सारी व्यवस्था बता रहा हूँ। हे देवोत्तम! स्वर्ग के ये दिव्य वस्त्र, माला, मुकुट आदि ग्रहण करें, जो हमेशा खिले हुए पुष्प के समान आपके शरीर को सुशोभित करेंगे।
आनतेन्द्र –धन्यवाद देव! आपके इस स्नेह के लिए मैं हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। हम और आप सभी मिलकर यहाँ स्वर्ग के सुखों का उपभोग करते हुए धर्माराधना करेंगे, क्योंकि धर्म से बढ़कर संसार में कोई दूसरी वस्तु नहीं है। (पुन: कुछ देवियों को उनकी सेवा में प्रस्तुत करते हुए)
देव – हे देवश्रेष्ठ! इस स्वर्ग में यह देवियाँ सदैव आपकी सेवा में तत्पर रहा करेंगी और आपका मनोरंजन करती हुई दिव्य भौतिक सुख प्रदान करेंगी। (वे देवियाँ आगे बढ़कर आनतेन्द्र के चरण स्पर्श कर कहती हैं)
देवियाँ – हे देव! हमारे लिए क्या आज्ञा है?
आनतेन्द्र – देवियों! आइए हम सब नंदीश्वर द्वीप की वंदना के लिए चलें, वहाँ पूजन के पश्चात् सीमंधर स्वामी के समवसरण में चलेंगे।
एक देवी – नाथ! क्या आप वहाँ के वनों में क्रीड़ा हेतु भी चलेंगे।
आनतेन्द्र –नहीं देवी! सर्वप्रथम जिस धर्म के प्रभाव से मुझे यह सब लक्ष्मी प्राप्त हुई है उस जिनधर्म की आराधना हेतु चलेंगे। (प्रीतिपूर्वक) देखो देवी! यह रूप-सौदर्य आदि भी आप लोगों को पूर्वजन्म के पुण्य प्रभाव से मिला है।
सभी देवियाँ – चलिए स्वामिन्! हम तैयार हैं। (आनतेन्द्र देव-देवियों के साथ नंदीश्वर द्वीप की वंदना हेतु जाते हैंं और वहाँ पूजन आदि करके सीमंधर स्वामी के समवसरण में चल देते हैं)
-चतुर्थ दृश्य-
(सीमंधर स्वामी का समवसरण है, देव अपनी देवियों के साथ अपने योग्य कोठे की ओर बढ़ते हुए देव-देवियों को वहाँ का वैभव दिखाते हैं)
आनतेन्द्र – देखो मित्रों! देखो देवियों! यह जिनधर्म की ही महिमा है जिसके प्रभाव से मनुष्य तीर्थंकर पद की प्राप्ति कर लेता है।
एक देव – ओह! कैसा अनुपम दृश्य है, चारों ओर मानस्तंभ में जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। सरोवर, वाटिका, बावड़ी, नाट्यशाला, धर्मसभा सब कुछ अद्भुत है।
आनतेन्द्र –देवियों! मित्रों! चलिए, धर्मसभा में अपने योग्य कोठे में बैठकर दिव्यध्वनि का पान करें।
सभी देव – देवी-चलिए प्रभो! (वह सभी देव-देवियों के साथ समवसरण में स्थित बारह सभा में अपने योग्य कोठे में बैठ जाते हैं और भगवान की ॐकारमयी दिव्यध्वनि खिरती है जिसे गणधरदेव श्रवण कर विस्तार से बताते हैं)
तीर्थंकर भगवान – इस संसार में धर्म से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं है। इस धर्म के द्वारा प्रत्येक प्राणी अपने को मोक्षमहल का स्वामी बना सकता है।
आनतेन्द्र –प्रभो! धर्म का अर्थ क्या है?
भगवान –जो संसार के दुखों से निकालकर उत्तम सुख में पहुँचा दे वही धर्म है।
आनतेन्द्र – त्रैलोक्याधिपति! इस धर्म को पूर्णरूप से कैसे ग्रहण कर सकते हैं।
भगवान –ज्ञानावरण आदि आठ कर्म जो हमें हर क्षण दुख देकर चतुर्गतियों में भ्रमण कराते हैं, उनको पूर्णरूप से नष्ट करके हम इस धर्म को आत्मसात कर परमात्मस्वरूप की प्राप्ति कर सकते हैं।
आनतेन्द्र – भगवन्! क्या हम भी परमात्मा पद प्राप्त कर सकते हैं?
भगवान –भव्यात्मन्! अभी आप देवपर्याय में हैं, जब आप मनुष्य पर्याय की प्राप्ति करेंगे तो पुरुषार्थपूर्वक अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकते हैं। (सीमंधर स्वामी का धर्मोपदेश ग्रहण कर आनतेन्द्र देव-देवियों के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान करते हैं।)
-पंचम दृश्य-
(स्वर्ग के सुखों को भोगते हुए वह इन्द्र अपना सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनके शरीर में मल-मूत्र, पसीना आदि नहीं हैं, न उनकी पलवेंâ लगती हैं। न नख और केश ही बढ़ते हैं। बुढ़ापा, अकाल मृत्यु और व्याधि वहाँ नहीं है। वह कभी ऋषि, मुनियों के दर्शन का लाभ लेते हैं, कभी नंदन वन में क्रीड़ा करते हैं, तो कभी सभा में बैठकर देव-देवांगनाओं को संतुष्ट करते हुए मनोविनोद करते हैं। कभी-कभी उन्हें धर्म का उपदेश देते हुए कृतार्थ हो जाते हैं। भावी तीर्थंकर वे आनतेन्द्र इस अतुल वैभव को भोगते हुए भी उसमें आसक्त नहीं हैं। बीस सागर की उनकी आयु है। बीस हजार वर्ष बाद मानसिक अमृतमयी आहार है और २० पक्ष बीत जाने पर वे उच्छ्वास लेते हैं। साढ़े तीन हाथ का उनका दिव्य शरीर है) (यहाँ आनतेन्द्र को बाग-बगीचे में घूमते हुए दिखावें, पुन: देवसभा में देवांगना का नृत्य देखकर मनोरंजन करते हुए दिखावें।)
-छठा दृश्य-
(आनतेन्द्र स्वर्ग सुख में निमग्न हैं अचानक उन्हें अवधिज्ञानपूर्वक यह ज्ञात हो जाता है कि अब मेरी आयु के मात्र छ: माह शेष बचे हैं।)
आनतेन्द्र –(मन में) ओह! देखते-देखते मेरी बीस सागर की आयु पूरी हो गई और मेरा अन्त समय आ गया। अब मुझे प्रतिक्षण जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में तल्लीन हो जाना चाहिए। (तभी वहाँ देवगण प्रवेश करते हैं और उन्हें विचारमग्न देखकर पूछते हैं)
एक देव साथी – प्रभो! किस चिन्तन में मग्न हैं?
आनतेन्द्र – मित्र! चूँकि मेरी आयु का अन्तकाल नजदीक आ रहा है अत: अब मुझे भगवान की भक्ति में तत्पर हो जाना चाहिए।
दूसरे देव –हे महाभाग! क्या आप हमें छोड़ देंगे? तीसरे देव – हे स्वामी! हमें आपके बिना धर्म का मार्ग कौन दिखाएगा?
आनतेन्द्र –देखो मित्रों! सच्चे धर्म का मार्ग तो यही है कि इस समय आप विषाद न करें बल्कि मुझे जिनधर्म में और दृढ़ करें। आप ही तो कहते थे कि आप भावी तीर्थंकर हैं फिर अगर मैं मोह में पड़ गया तो क्या होेगा? अच्छा तो यही है कि मैं प्रतिक्षण प्रभुभक्ति करूँ।
देवगण – हे महामानव! हे श्रेष्ठवर! हे भावी तीर्थंकर भगवान! आपने हम सभी को उत्तम मार्ग दिखाया है, एक क्षण के लिए तो हम भी आपके मोह में पड़ गए थे, लेकिन संसार में चतुर्गति भ्रमण का कारण यह मोह ही है। जिसने इस पर विजय पाई, वही जिन बन सकता है।
आनतेन्द्र– बिल्कुल ठीक समझे मित्रों! चलिए, अब जिनमंदिर में चलें।
देवगण – चलिए स्वामी! हम सब जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के लिए चलें। (सभी देव-देवी आनतेन्द्र के साथ जिनमंदिर में पहुँचते हैं और भगवान की भक्ति में लीन हो जाते हैं, देखते-देखते छ: माह भी व्यतीत हो जाते हैं और आयु का अंत समय जानकर आनतेन्द्र एक रत्नजटित शिला पर बैठकर ध्यान में लीन हो जाते हैं) आनतेन्द्र – ॐ सिद्धाय नम:……………………।।
(इस प्रकार उनकी आयु पूर्ण हो जाती है और वह वाराणसी नगरी में महाराज अश्वसेन की महारानी वामादेवी के पवित्र गर्भ में सीप में मोती के समान अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं।)