निर्वाणकल्याणक
प्रतिष्ठादिवसात्पश्चाद्द्वितीयेऽहनि याजकः।
यागमंडलमारभ्य, समासात्तत्र विष्टरे।।1।।
जिनबिंबं निवेश्यास्य, विदध्यादधिवासनम्।
धर्मोपदेशसंकल्पात्तत्वार्थं साधु घोषयेत्।।2।।
त्रिसंध्यमेवं कुर्वीत, प्रतिष्ठोक्ताधिवासनम्।
मध्यान्हेऽस्ति विशेषस्तद्यथा कृत्वाधिवासनाम्।।3।।
जिनपादाचतैर्गंध-पुष्पतांबूलसत्फलैः।
संतप्र्य भव्यसंदोहं, प्रागुक्तविधिनाशिषा।।4।।
द्वारपालबलिं ब्रह्म-बलिं दिक्पालसद्बलिं।
श्रीबलिं च ध्वजबलिं, ग्रामसंबधिनां पुनः।।5।।
ब्रह्मदिक्पालकानां च, बलिं कृत्वा क्रमात्ततः।
पीतैः सुगंधिभिश्चूर्णैः, पुंजितैरर्चयेज्जिनम्।।6।।
तच्चूर्णं बिभृयुः सर्वे, भव्याः शिरसि भक्तितः।
विहारघोषमुक्त्वा च, सर्वसंघेन सेवितम्।।7।।
पद्मयानं समारोप्य, देवं पुरि विहारयेत्।
कंभैरष्टशतेनाभि-षिच्य देवं समर्पयेत्।।8।।
प्रतिष्ठातस्तृतीयेऽन्हि, चैवमेव क्रियाक्रमः।
किंतु कुंकुमपंकाढ्य-तीर्थवारिभिरुंभितैः।।9।।
कुंभैरलंकृतैर्देव-मभिषिच्य समच्र्य च।
तज्जलं बिभृयुर्भव्याः, पापपंकापहारकम्।।10।।
तद्यथा प्रतिष्ठादिवसाद्द्वितीयेऽहनि यागमंडलस्य
प्रागुक्तगद्यपद्याभ्यां प्रथमपद्यमात्रेण वा समासतः समाराधनां समापयेत्।।
(अब इसी को कहते हैं प्रतिष्ठादिवस के दूसरे दिन पूर्वकथित गद्य-पद्य से या प्रथम पद्य से संक्षेप में यागमंडल की आराधना करें।) प्रतिष्ठा दिवस के अनंतर दूसरे दिन प्रतिष्ठाचार्य यागमंडल विधि करें, उस पर सिंहासन पर जिनबिंब को विराजमान करके,‘अधिवासन’ विधि करें। धर्मोपदेश के संकल्परूप से-जिनेंद्रदेव उपदेश दे रहे हैं, ऐसी घोषणा कर देवें। इस प्रकार से प्रतिष्ठाविधि में कथित अधिवासन तीनों संध्या में करें। मध्यान्ह में विधि कुछ भिन्न है। वह ऐसी है-अधिवासनविधि करके, जिन्होंने जिनेंद्रदेव की पूजा की है, ऐसे भव्यजनों को गंध, पुष्प, तांबूल, फलों को देकर पूर्वोक्त विधि से आशीर्वाद देकर संतुष्ट करें।।1 से 4।।
अनंतर द्वारपालबलि-पूजा, दिक्पालों की बलि-पूजा, श्रीबलि और ध्वजबलि ये बलि अर्थात् पूजा कराके तदनंतर ग्राम संबंधी ब्रह्मबलि और दिक्पालबलि करावें। अनंतर क्रम से पीले सुगंधित, चूर्णों के पुंजों से श्रीजिनेन्द्रदेव की अर्चना करें पुनः उस चूर्ण को सभी भव्यजन भक्तिपूर्वक मस्तक पर लगावें। पश्चात् विहार की घोषणा करके सर्वसंघ से सेवित ऐेसे भगवान को ‘पद्मयान’ पालकी या रथ में विराजमान करके गांव या शहर में भगवान का श्रीविहार करावें-रथयात्रा निकालें। अनंतर एक सौ आठ कलशों से भगवान का अभिषेक करें।।5-8।।
प्रतिष्ठा से तीसरे दिन भी यही क्रिया है, किंतु केशर-चंदनमिश्रित जल से भरे कुंभों से भगवान का अभिषेक करके पुनः पूजा करके पापपंकनाशक ऐसे गंधोदक को भव्यजन ग्रहण करें।। 9-10।।