प्रतिष्ठादिवसात्पश्चाद्द्वितीयेऽहनि याजकः।
यागमंडलमारभ्य, समासात्तत्र विष्टरे।।1।।
जिनबिंबं निवेश्यास्य, विदध्यादधिवासनम्।
धर्मोपदेशसंकल्पात्तत्वार्थं साधु घोषयेत्।।2।।
त्रिसंध्यमेवं कुर्वीत, प्रतिष्ठोक्ताधिवासनम्।
मध्यान्हेऽस्ति विशेषस्तद्यथा कृत्वाधिवासनाम्।।3।।
जिनपादाचतैर्गंध-पुष्पतांबूलसत्फलैः।
संतप्र्य भव्यसंदोहं, प्रागुक्तविधिनाशिषा।।4।।
द्वारपालबलिं ब्रह्म-बलिं दिक्पालसद्बलिं।
श्रीबलिं च ध्वजबलिं, ग्रामसंबधिनां पुनः।।5।।
ब्रह्मदिक्पालकानां च, बलिं कृत्वा क्रमात्ततः।
पीतैः सुगंधिभिश्चूर्णैः, पुंजितैरर्चयेज्जिनम्।।6।।
तच्चूर्णं बिभृयुः सर्वे, भव्याः शिरसि भक्तितः।
विहारघोषमुक्त्वा च, सर्वसंघेन सेवितम्।।7।।
पद्मयानं समारोप्य, देवं पुरि विहारयेत्।
कंभैरष्टशतेनाभि-षिच्य देवं समर्पयेत्।।8।।
प्रतिष्ठातस्तृतीयेऽन्हि, चैवमेव क्रियाक्रमः।
किंतु कुंकुमपंकाढ्य-तीर्थवारिभिरुंभितैः।।9।।
कुंभैरलंकृतैर्देव-मभिषिच्य समच्र्य च।
तज्जलं बिभृयुर्भव्याः, पापपंकापहारकम्।।10।।
तद्यथा प्रतिष्ठादिवसाद्द्वितीयेऽहनि यागमंडलस्य
प्रागुक्तगद्यपद्याभ्यां प्रथमपद्यमात्रेण वा समासतः समाराधनां समापयेत्।।
(अब इसी को कहते हैं प्रतिष्ठादिवस के दूसरे दिन पूर्वकथित गद्य-पद्य से या प्रथम पद्य से संक्षेप में यागमंडल की आराधना करें।) प्रतिष्ठा दिवस के अनंतर दूसरे दिन प्रतिष्ठाचार्य यागमंडल विधि करें, उस पर सिंहासन पर जिनबिंब को विराजमान करके,‘अधिवासन’ विधि करें। धर्मोपदेश के संकल्परूप से-जिनेंद्रदेव उपदेश दे रहे हैं, ऐसी घोषणा कर देवें। इस प्रकार से प्रतिष्ठाविधि में कथित अधिवासन तीनों संध्या में करें। मध्यान्ह में विधि कुछ भिन्न है। वह ऐसी है-अधिवासनविधि करके, जिन्होंने जिनेंद्रदेव की पूजा की है, ऐसे भव्यजनों को गंध, पुष्प, तांबूल, फलों को देकर पूर्वोक्त विधि से आशीर्वाद देकर संतुष्ट करें।।1 से 4।। अनंतर द्वारपालबलि-पूजा, दिक्पालों की बलि-पूजा, श्रीबलि और ध्वजबलि ये बलि अर्थात् पूजा कराके तदनंतर ग्राम संबंधी ब्रह्मबलि और दिक्पालबलि करावें। अनंतर क्रम से पीले सुगंधित, चूर्णों के पुंजों से श्रीजिनेन्द्रदेव की अर्चना करें पुनः उस चूर्ण को सभी भव्यजन भक्तिपूर्वक मस्तक पर लगावें। पश्चात् विहार की घोषणा करके सर्वसंघ से सेवित ऐेसे भगवान को ‘पद्मयान’ पालकी या रथ में विराजमान करके गांव या शहर में भगवान का श्रीविहार करावें-रथयात्रा निकालें। अनंतर एक सौ आठ कलशों से भगवान का अभिषेक करें।।5-8।। प्रतिष्ठा से तीसरे दिन भी यही क्रिया है, किंतु केशर-चंदनमिश्रित जल से भरे कुंभों से भगवान का अभिषेक करके पुनः पूजा करके पापपंकनाशक ऐसे गंधोदक को भव्यजन ग्रहण करें।। 9-10।।
यागमंडल पर सिंहासन की स्थापना करें
श्रीपांडुकाव्हयशिलाग्रिमपीठकल्पं।
तद्वेदिकोपरि तटे निदधे भवन्तम्।
प्रक्षालयामि शुचिभिः सलिलैः पटेन।
प्रच्छादितेऽत्र निदधेऽक्षतपुष्पदर्भान्।।1।।
ॐ ह्रीं अर्हं क्ष्मं ठः ठः श्रीपीठस्थापनं करोमि स्वाहा। पीठस्थापनम्। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन श्रीपीठप्रक्षालनं करोमि स्वाहा। (जल से पीठ अर्थात् भगवान को विराजमान करने का पात्र या सिंहासन को प्रक्षालित करें।) पीठप्रक्षालनम्।। तत्पीठोपरि प्रागग्रवस्त्राच्छादनम्।। ॐ ह्रीं दर्पमथनाय नमः। सकुसुमाक्षतदर्भस्थापनम्। (दर्भ की स्थापना करें।) स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।। हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, पीठं समभ्यर्चये।।2।। ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय स्वाहा। पीठार्चनम्।। संस्थापयाम्युपरि तस्य जिनेश्वरार्चां, चक्रत्रयं जिनपतेरपसव्यभागे। छत्रत्रयं तदनु तस्य तु सव्यभागे। वादित्रजालजटिले सति सर्वलोके।।3।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं स्वाहा प्रतिमास्थापनम्।। गद्य जिनमतमिव सूक्ष्ममित्यादिना मुखवस्त्रप्रदानादघ्र्योद्धरणांतामधिवासनां विदध्यात्। जिनदिव्यध्वनिसंकल्पेन प्रतिमाग्रे भव्यसंघस्तत्त्वार्थं घोषशुध्या पठेत्। एवं त्रिसंघ्यमधिवासनां कुर्यात्। ‘‘श्रीमज्जिनेंद्रा हतमोहतंद्रा’’ इत्याशीर्वादैर्भव्यसंघं जिनपार्दा£चत- गंधमाल्यतांबूलफलैः संतर्पयेत्।। प्रागुक्ततन्मंत्रैद्र्वारपालादिबलिं विदध्यात्। अनंतर पूर्वकथित मंत्रों से द्वारपालादि की बलि विधि-पूजा करें। उत्सवविधौ वक्ष्यमाणविधिना पीतसुरभिचूर्णं कृत्वा तच्चूर्णपुंजै£जनमभ्यर्चयेत्।।
(पुनः उत्सवविधि में आगे कथित विधि से पीत-सुगंधित चूर्ण बनाकर उन चूर्णपुंजों से जिनेंद्रदेव की अर्चना करें।) यागमंडल पर सिंहासन पर जिनप्रतिमा स्थापित करके प्रतिमा के दाहिने भाग में तीन चक्र और बायें भाग में तीन छत्र स्थापित करें। पुनः ‘जिनमतमिव सूक्ष्मं….’ इस श्लोक से प्रारंभ करके पृष्ठ 257 से मुखवस्त्र प्रदान से लेकर अघ्र्य चढ़ाने तक की अधिवासना- विधि पूरी करें। पुनः जिनेंद्रदेव की दिव्यध्वनि खिर रही है, ऐसा संकल्प करके प्रतिमा के सामने सभी भव्यजन या साधुगण तत्त्वार्थसूत्र का शुद्ध रीति से पाठ करें। इस प्रकार तीनों संध्या में अधिवासना विधि करें। भगवान की दिव्यध्वनि तीनों संध्या कालों में छह-छह घड़ी अर्थात् तीन-तीन मुहूत्र्त तक खिरती है। एक घड़ी 24 मिनट की एवं एक मुहूर्त 48 मिनट का होता है। इस प्रकार तीनों कालों में यह दिव्यध्वनि एक काल में दो घंटे चैबीस मिनट तक खिरती है। यह दिव्यध्वनि श्रोताओं के कान में पहुंचकर सात सौ अठारह भाषा में परिणत हो जाती है या सर्वभाषामय हो जाती है। गणधरदेव इस ध्वनि को सुनकर द्वादशांग की रचना करते हैं। अनंतर पृष्ठ 99 से ‘श्रीमज्जिनेंद्राहतमोहतन्द्रा….’ आदि श्लोकों द्वारा जिनपादा£चत गंध, पुष्प, फल आदि से भव्यों को संतुष्ट करें। ==
अथ चूर्णार्चनम् (पीत चूर्ण पुंज चढ़ाना)
==
शार्दूलविक्रीडित- भव्यानुग्रहराग एष किमयं, भव्यैकबंधो£वभो-र्भव्यानां बहुभक्तिरागविसरः, किं वा जिनांघ्रिद्वये।। इत्याशंकितपीतचूर्णनिकरैः, श्रीवश्यचूर्णोपमैः। संचूर्णीकृतकर्मणो जिनपतेः, श्रीपादमाराधये।। ॐ ह्रीं सर्वकर्म चूर्णीकरोतु भगवान् स्वाहा। चूर्णार्चनम्। हल्दी, चंदन आदि का पीत चूर्ण बनाना उस चूर्ण के पंुज चढ़ाना। तच्चूर्णं शिरसि सर्वे भव्या धारयंतु। उस चूर्ण को सभी भव्य मस्तक पर चढ़ावें। ततो जिनाग्रे विहारघोषणामुक्त्वा श्रीविहारसंकल्पेन जिनं पुरि विहारयेत्। प्रागुक्तनित्यमहविधिनाष्टोत्तरशतकलशैरभिषिच्यैकादशमहेन जिनमभ्यर्चयेत्। (पुनः जिनेंद्र देव के समक्ष श्रीविहार की घोषणा करके रथयात्रा निकालें अनंतर ‘नित्यमह’ की विधि से 108 कलशों से महाभिषेक करके पूजा करें।) विसर्जनं सर्वे देवाः समाहूताः, शिष्टार्हत्प्रभुपूजने। इष्टमस्माकमापाद्य, तुष्टा यांतु यथायथम्।। ॐ जिनपूजासमाहूता देवाः सर्वे विहितमहामहाः स्वस्थानं गच्छत गच्छत जः जः जः इति सर्वदेवविसर्जनम्। परब्रह्मात्माध्यासनं शांतिधारां शांतिबलिक्षमापणगमनाप्रच्छनं विदध्यात्।। इति प्रतिष्ठा द्वितीय दिन विधानम्।। परब्रह्म परमात्मा का ध्यान, शांतिधारा, शांतिबलि, क्षमापण और जाने की आज्ञा लेना, ये सर्वविधि करें। इस प्रकार प्रतिष्ठा अर्थात् केवलज्ञानकल्याणक के द्वितीय दिन की विधि हुई। तृतीयदिनेऽपि पीतचूर्णार्चनं वर्जयित्वा इदमेव विधानमवसेयम्। तत्र कुंकुमोदकपरिपूरितकलशैः प्रागुक्तमध्यकुंभाभिषेक- गद्यपद्यमंत्रै£जनमभ्यर्चयेत्। इति प्रतिष्ठातृतीयदिनविधानम्।।
तृतीय दिन भी पीतचूर्णार्चन विधि को छोड़कर यही विधि समझना चाहिए। उसमें कुंकुमोदक-केशरमिश्रित जल से भरे कलशों से पूर्वकथित मध्यकुंभाभिषेक के गद्य-पद्य मंत्रों से जिनेंद्रदेव की अभिषेकपूर्वक पूजा करें। इस प्रकार से प्रतिष्ठा के तृतीय दिन की विधि हुई।
प्रतिष्ठादिवसात्पश्चाच्चतुर्थेऽहनि याजकः। प्रातरेव हि कुर्वीत, यागमंडलपूजनम्।।1।। तत्पुरो भूतले पंच-चूर्णैरष्टदलांबुजम्। विरच्य भूमिं संशोध्य, न्यस्य दर्भान्समच्र्य ताम्।।2।। क£णकायां न्यसेत्सिद्धान्-दलेष्वष्टसु तद्गुणान्। तदग्रे विधिना न्यस्य, पीठे संस्थापयेज्जिनम्।।3।। कल्याणमालामारोप्य, कृत्वा तामधिवासनाम्। मुखवस्त्रं समुत्सार्य, प्रोत्क्षिप्याघ्र्यमनघ्र्यकम्।।4।। सम्यक्त्वादिगुणांस्तत्र, समारोप्य समप्र्य च। आराध्य पीठिकामंत्रैः, सप्तधा कुसुमैः सितैः।।5।। मंत्रैस्तैर्गार्हपत्याग्नौ, हुत्वान्नाहुतिमन्वतः। स्तुत्वा शिवक्रियां कृत्वा, माल्यैः कुसुमचंदनैः।।6।। अक्षताद्यै£जनानिष्ट्वा, तानि विभ्रतु भाक्तिकाः। प्रागुक्तविधिना तीर्थ-जलमानीय तज्जलैः।।7।। भृतैरष्टसहस्रेण, कुंभैरवभृथाव्हयम्। अभिषेकं प्रभोः कुर्या-देकादशविधं महम्।।8।। अभिषेकक्रियां कृत्वा, समभ्यच्र्य श्रुतं गुरुम्। गंधोदकभृतं यष्ट्रे, कुंभं दद्यान्मुदाशिषा।।9।। शेषां च सर्वभव्येभ्यो, दद्यात्प्रागुदिताशिषा। यष्टा संपूजयेत्संघं, यथाशक्ति यथोचितम्।।10।। अथावरोह्य तद्रात्रौ, प्रासादे स्थापयेद्ध्वजम्। पूर्ववत्तेन भात्येष, सर्वेषां तच्छुभाय च।।11।। विसर्जनं निर्जराणामध्यात्ममध्यासनं विभोः। शांतिधारां ततः शांति-बलिकर्मक्षमापणं।।12।। गमनाप्रच्छनं पश्चात्कृतकर्मफला£थनाम्। आशीर्दानविधिं दीक्षा-मोचनं गुरुसाक्षिकम्।।13।। शांतिभक्तिं च कृत्वेन्द्रः, प्रतिष्ठां तां समापयेत्। निष्ठापितप्रतिष्ठं तं, यष्टेन्द्रं बहु मानयेत्।।14।। सत्कृत्य शक्त्या भव्यास्तं सर्वे यांतु यथायथम्। प्रतिष्ठादिवसे कुर्यादुत्सवं मासि मासि च।।15।। आवर्षादत ऊध्र्वं तु, वर्षे वर्षे च शक्तितः। उत्सवानां विधिर्भेदो-प्युत्तरत्राभिधीयते।।16।। इति व्यासप्रतिष्ठाया, विधिः सर्वो निरूपितः। अनुक्तमन्यतो ग्राह्य-मुचितं लक्षणादिकम्।।17।।
अब प्रतिष्ठा दिवस के पश्चात् चतुर्थ दिवस याजक प्रातः ही यागमंडल पूजन करें। प्रथम ही भूमि पर पांच प्रकार के चूर्णों से आठ दल का कमल बनावें। पुनः भूमिशोधन विधि, दर्भन्यास विधि करके भूमिदेवता की पूजा करके कमल की क£णका में सिद्ध भगवान की स्थापना करें और आठ पंखुड़ियों पर क्रम से सिद्धों के आठ गुणों की स्थापना करें। उस कमल के सामने पीठ पर-सिंहासन पर जिनेन्द्र भगवान को विराजमान करके कल्याणमाला का आरोपण कर अधिवासन क्रिया करके मुखवस्त्र उत्सारित करके अघ्र्य चढ़ाकर सम्यक्त्वादि गुणों का आरोपण करके पूजा करें। पुनः श्वेत पुष्पों से सप्तविध पीठिकामंत्रों से आराधना करें। अनंतर गार्हपत्य अग्नि में- चतुष्कोण कुंड में उन्हीं सप्तविधि मंत्रों से अन्न की आहुति देवें। फिर निर्वाणकल्याणक क्रिया करके माला, कुसुम, चंदन, अक्षत आदि से जिनेंद्रदेव की पूजा करके उन माला आदि को भाक्तिकजन ग्रहण करें। पुनः पूर्वोक्त विधि से तीर्थजल को लाकर उस जल से भरे हुए एक हजार आठ (1008) कलशों से जिनप्रतिमा का ‘अवभृत’ नाम का महाभिषेक करें। एकादशविध पूजा करके अभिषेक क्रिया पूर्ण कर सरस्वती की और गुरु की पूजा करके गंधोदक से भरे हुए कुंभ को यजमान को आशीर्वादपूर्वक देवें और पूर्वकथित आशीर्वादात्मक श्लोकों को पढ़ते हुए सभी भव्यों को ‘शेषा’ देवें। पुनः प्रतिष्ठाचार्य और यजमान आचार्यसंघ या मुनिसंघ की यथोचित और यथाशक्ति पूजा करें। अनंतर उसी दिन रात्रि में ध्वजा की अवतरणविधि कर-ध्वजा उतारकर मंदिर के ऊपर ध्वजा चढ़ा देवे। वह ध्वज जिनमंदिर के ऊपर चढ़कर अतिशय शोभता हुआ फहरे। सभी के शुभ के लिए शांतिधारा, शांतिबलि क्रिया, क्षमापण, जाने की आज्ञा मांगना आदि क्रियायें करके पूजन के फल की याचना करें। पश्चात् आशीर्वाद देने की विधि करके गुरु के समक्ष गुरुसाक्षीपूर्वक दीक्षामोचन विधि करके शांतिभक्ति करके प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा को पूर्ण करें। उस समय यजमान प्रतिष्ठाचार्य का बहुत ही सम्मान करे। सभी भव्य प्रतिष्ठाचार्य का सत्कार करके अपने-अपने स्थान जावें। पुनः प्रत्येक महीने में उसी प्रतिष्ठादिवस के दिन उत्सव मनावें। यह विधि एक वर्ष तक करें। अनंतर वर्ष-वर्ष में प्रतिष्ठा के दिन उत्सव करें। उत्सव के प्रकार तो बहुत हैं, उन्हें मैं आगे कहूँगा। इस प्रकार से सभी विस्तृत प्रतिष्ठा की विधि यहाँ मैंने कही है। जो कुछ यहाँ कही गई है, वह विधि यथा उचित अन्यत्र गंरथों से भी ग्रहण की जा सकती है।। 1 से 17।।
‘गद्य-तद्यथा-प्रतिष्ठादिवसाच्चतुर्थेहनि प्रत्युषसि पूर्ववद्यागमंडलमारभ्य तत्पुरस्तादुचितोद्देशे प्रागुक्तविधिना भूमिशोधनं दर्भन्यासं भूम्यर्चनं च कृत्वा वेद्यां मंडलमालिखाचतमित्यनेन पद्येन चूर्णस्थापनं कृत्वाष्टदलकमलं विरचय्य क£णकायां। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा। इति विलिख्य पूर्वादिषु दलेषु प्रादक्षिण्येन ॐ ह्रीं सिद्धसम्यक्त्वगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धज्ञानगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धवीर्यगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धसूक्ष्मत्वगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धावगाहनगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धागुरुलघुगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धाव्याबाधगुणाय स्वाहा। इत्यष्टौ मंत्रान्विलिखेत्। इति लेखनविधानम्।
अब उन सभी विधि को कहते हैं- प्रतिष्ठा दिवस से चतुर्थ दिन प्रातः काल में पूर्ववत् यागमंडल प्रारंभ करके उसके आगे उचित स्थान पर पूर्वकथित विधि से भूमिशोधन, दर्भन्यास, भूम्यर्चन करके पृष्ठ 118 पर ‘वेद्यांमंडलमालिखार्चित… इस पद्य से चूर्ण स्थापन करके आठ दल का कमल बनाकर क£णका में
‘‘ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा’’ इस मंत्र को लिखकर पूर्व आदि के दलों में प्रदक्षिणा के क्रम से ‘ॐ ह्रीं सिद्धसम्यक्त्वगुणाय स्वाहा।’’ ॐ ह्रीं सिद्धज्ञानगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धवीर्यगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धसूक्ष्मत्वगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धावगाहनगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धागुरुलघुगुणाय स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धाव्याबाधगुणाय स्वाहा। इन आठों मंत्रों को लिखे। यह लेखनविधि हुई। देवस्य देवेंद्रकृतोत्सवस्य, संप्राप्तकल्याणचतुष्टयस्य। निर्वाणकल्याणचिकीर्षयाह-मग्रेऽस्य पुष्पांजलिमुत्क्षिपामि।।1।। पुष्पांजलिः।। ॐ स्वस्ति-स्वस्ति जीव-जीव इत्यादि पुष्पांजलिः। कमल के सामने पुष्पांजलि क्षेपण करें बाह्याभ्यंतरहेतुजातसुदृशः, पूर्वश्रुतैरादिमा-च्छुक्लध्यानयुगाद्विजित्य दुरितं, लब्ध्वा सयोगिश्रियम्। प्राप्यायोगिपदं परेण सकलं, नि£जत्य कर्मोत्करं। शुक्लध्यानयुगेन सिद्धसुगुणान्सिद्धान्समाराधये।। 2।। गद्य- ॐ ह्रीं अशेषभोग्यद्रव्यकर्मनिरपेक्षस्वात्मोपादानमात्रसंजातसातिशयसकलात्मप्रदेशनित्यव्यापकस्य। सर्वदा सर्वबाधा- वृद्धिक्षयप्रतिपक्षदुःखोदयमानोपमानरिक्तस्य सकलचक्रिकुरुभवार्यफणींद्रसुरेंद्राहमिंद्रत्रिकालसंभवितसुखानंत गुणितक्षणपर्यायस्य। सम्यक्सकलशास्त्रविद्दृृष्टांतसाधितसंसारनाटकावलोकनसंभावितसर्वकालशाश्वतपरमोत्कृष्टसुखस्यैकनिवासानाम्। निरवशेषावरण- विश्लेषविशेषाविष्कृतचरमानंतानंतनिर्भासजाज्वलत्त्रिकालविषयलोकालोकव£तसर्वद्रव्यपर्ययक्रमकरणव्यवधानातिक्रमसाक्षात्करण- दक्षाक्षूणकेवलाख्यपरंज्योतिः प्रमुखस्वाभाविकानंतगुणविशेषविभूषितानाम्। नैगमनयातिरूढतपोनयसंयमचारित्रज्ञानदर्शनसिद्धप्रसिद्ध- व्यवहाराणां। सकललोकैकमंगललोकोत्तमशरणभूतानां सप्ततिसमेतशतकर्मभूमिभूतभवद्भव्यानां भगवत्सिद्धपरमेष्ठिनामष्टतयीमिष्टिं करोमि स्वाहा।
(बाह्य और अभ्यंतर कारणों से सम्यग्दर्शन प्राप्तकर, श्रुतज्ञान के बल से और शुक्लध्यान के द्वारा जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त करके पुनः आठों कर्मों का नाश करके जिन्होंने सिद्धपद प्राप्त कर लिया है, ऐसे सिद्धों की मैं पूजा करता हूँ। संपूर्ण कर्मों के नाश से सिद्धात्मा के प्रदेश शुद्ध हो जाते हैं, अनंत सुख प्राप्त कर लेते हैं। सर्व चक्रवर्ती, उत्तम भोगभूमिज, देवेंद्र, अहमिन्द्र की अपेक्षा भी अनंत गुणा सुख सिद्धों को एक क्षण में प्राप्त हो जाता है। उनका ज्ञान अतीन्द्रिय होता है। ये 170 कर्मभूमि में ही जीव सिद्ध होते हैं। इसीलिए उन सिद्धों की मैं पूजा करता हूँ।
ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। आव्हाननादिमंत्रः।। स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।। हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, श्रीसिद्धनाथान्यजे।।3।। ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा। एवं गंधादि।
(इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावे। पुनः एक-एक दल में स्थापना करके जल, चंदन आदि आठों द्रव्य पृथक्-पृथक् चढ़ाकर अघ्र्य चढ़ावे।) ==
अथ प्रत्येकपूजा
== पूर्वदलाभ्यंतरे (पूर्वदल के अभ्यंतर में)
जानाति बोधो यदनुग्रहेण, द्रव्याणि सर्वाणि सपर्ययाणि। दुराग्रहत्यक्तनिजात्मरूपं, तं सिद्धसम्यक्त्वगुणं यजामि।। 1।। ॐ ह्रीं सिद्धसम्यक्त्वगुण! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं सिद्धसम्यक्त्वगुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धसम्यक्त्वगुण! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सिद्धसम्यक्त्वगुणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें) आग्नेयदलाभ्यंतरे (आग्नेयदल के अभ्यंतर में) जानाति नित्यं युगपत्स्वतोन्य-सर्वार्थसामान्यविशेषपूर्वम्। निर्बाधकं स्पष्टतरं च यस्तं, सिद्धात्मविज्ञानगुणं यजामि।।2।। ॐ ह्रीं सिद्धात्मविज्ञानगुण! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं सिद्धात्मविज्ञानगुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धात्मविज्ञानगुण! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सिद्धात्मविज्ञानगुणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें) दक्षिणदलाभ्यंतरे (दक्षिण दल में) स्वात्मस्थसामान्यविशेषसर्वं, साक्षात्करोत्येव समं सदा यः। सुनिश्चितासंभवबाधकं तं, सिद्धात्मनो दृष्टिगुणं यजामि।।3।। ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनगुण! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनगुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनगुण! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनगुणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें) नैऋत्यदलाभ्यंतरे (नैऋत्य दल में) अनंतविज्ञानमनंतदृष्टिं, द्रव्येषु सर्वेषु च पर्ययेषु। व्यापारयंतं हतसंकरादि, सिद्धात्मवीर्याख्यगुणं यजामि।।4।। ॐ ह्रीं सिद्धवीर्यगुण! अत्र एहि एहि संवौषट्।ॐ ह्रीं सिद्धवीर्यगुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धवीर्यगुण! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सिद्धवीर्यगुणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें) पश्चिमदलाभ्यंतरे (पश्चिम दल में) अबाधकं मानमबाध्यमेव, निष्पीतसर्वार्थमसंगसंगम्। सर्वज्ञवेद्यं तदवाच्यमेव, सिद्धात्मसूक्ष्माख्यगुणं यजामि।।5।। ॐ ह्रीं सिद्धसूक्ष्मगुण! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं सिद्धसूक्ष्मगुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धसूक्ष्मगुण! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सिद्धसूक्ष्मगुणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें) वायव्यदलाभ्यंतरे (वायव्य दल में) एकत्र सिद्धात्मनि चान्यसिद्धा, वसंत्यसंबाधमनंतसंख्याः। यस्य प्रभावात्सुनयस्थितं तं, सिद्धावगाहाख्यगुणं यजामि।।6।। ॐ ह्रीं सिद्धावगाहगुण! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं सिद्धावगाहगुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धावगाहगुण! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सिद्धावगाहगुणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें) उत्तरदलाभ्यंतरे (उत्तर दल में) अधो न पातोस्ति यथा शिलादे-र्न तूलवद्वायुकृतेरणं च। सिद्धात्मनां तेन सुयुक्तिसिद्धं, गुणं यजामोऽगुरुलघ्वभिख्यम्।।7।। ॐ ह्रीं सिद्धागुरुलघुगुण! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं सिद्धागुरुलघुगुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धागुरुलघुगुण! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सिद्धागुरुलघुगुणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें) ईशानदलाभ्यंतरे च (ईशान दल में) भवाग्निशांत्यै विहितश्रमोऽव्या-बाधात्मना यं परिणाममेति। स्वात्मोत्थसौख्यैकनिबंधनं तं, सिद्धात्मनिर्बाधगुणं यजामि।।8।। ॐ ह्रीं सिद्धाव्याबाधगुण! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं सिद्धाव्याबाधगुण! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्धाव्याबाधगुण! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं सिद्धाव्याबाधगुणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें) एवं सिद्धपरमेष्ठिनं तद्गुणानभ्यच्र्य शरच्चंद्रमरीचिरोचिषोंतश्चेतसि चिंतयन्ननादिसिद्धमंत्राभिमंत्रितकर्पूरहरिचंदन- द्रवालुलितसुरभिशुभ्रपुष्पांजलिभिरेकविंशतिवारानधिवास्य पूर्णाघ्र्यदानेन बहु मानयेत्। अयमिहानादीसिद्धमंत्रः- (इस प्रकार सिद्धपरमेष्ठी की और उनके गुणों की पूजा करके उनके गुणों का चिंतन करते हुए अनादिसिद्ध मंत्र से अभिमंत्रित कर्पूर, चंदन आदि से सुगंधित, ऐसे श्वेत सुरभित पुष्पों से इक्कीस बार मंत्र जपकर पूर्णाघ्र्य चढ़ाकर सिद्धपरमेष्ठी का बहुमान-विशेष पूजा करें।) ॐ णमो सिद्धाणं, सिद्धा मंगलं, सिद्धा लोगुत्तमा, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि। ह्रीं शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। इत्यनादिसिद्धमंत्रः। यह अनादिसिद्ध मंत्र है। इत्थं समभ्यचतसिद्धनाथ-सम्यक्त्वमुख्याश्च गुणास्तदीयाः। सर्वाचताः सर्वजनार्चनीयाः, स्वात्मोपलब्ध्यै मम संतु तेऽमी।। पूर्णाघ्र्यः।।9।। पूर्णाघ्र्य चढ़ावे। अथ तन्मंडलस्योपरि पीठस्थापनम् (अब मंडल पर पीठ-सिंहासन की स्थापना करें।) वेद्या मूध्न निधाय पीठमुचितं, प्रक्षाल्य तीर्थांबुभिः। प्रत्यग्रेण महाघनेन परितः, प्रच्छाद्य दर्भैरपि। अभ्यच्र्योपरि तस्य सिद्धनिकरस्यार्चां सताम£चताम्। न्यस्यार्चामि समच्र्य सप्तविधिसन्मंत्रैः समाराधये।।1।। ॐ ह्रीं र्हं क्ष्मं ठ ठ श्रीपीठस्थापनं करोमि स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन पीठप्रक्षालनं करोमि स्वाहा।। पीठप्रक्षालनम्।। ॐ ह्रीं दर्पमथनाय नमः। सकुसुमाक्षतदर्भस्थापनम्।। स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।। हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, पीठं समभ्यर्चये।।2।। ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय नमः स्वाहा। पीठार्चनम्। (श्रीपीठ को अघ्र्य चढ़ावें।) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं र्हं आहूता तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्वाहा। प्रतिमास्थापनं।। आहूता इव सिद्धमुक्तिवनितां, मुक्तान्यसंगा ययुः। तिष्ठन्त्यष्टमभूमिसौधशिखरे, सानंतसौख्याः सदा। साक्षात्कुर्वत एव सर्वमनिशं, सालोकलोकं समं । तानद्धेद्धविशुद्धसिद्धनिकरा-नावाहनाद्यैर्भजे ।।3।। ॐ ह्रीं र्हं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं र्हं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं र्हं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। अथ कल्याणपंचकारोपणम् ‘‘योत्र स्वर्गावतीर्णः सुरगिरिशिखरे दुग्धवाद्र्धेः पयोभिः’’ इत्यादि कल्याणमालारोपणविधिं निर्वाणकल्याणस्थापनाय प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्पर्यंतं कुर्यात्। योऽत्र स्वर्गावतीर्ण इत्यादि पृष्ठ 265 से पढ़कर पंचकल्याणमाला का आरोपण करते हुए प्रतिमाओं पर पुष्पांजलि क्षेपण करें। पूर्ववत् पृष्ठ 257 से अधिवासनविधि पूर्ण करें। अथाधिवासनविधानम् जिनमतमिव सूक्ष्ममित्यादिरभ्युद्धराम्यघ्र्यमनघ्र्यमस्य। पूर्णाघ्र्यपर्यन्तं विधिं कुर्यात्। प्रागुक्तानादिसिद्धमंत्रेण सप्तवारान्प्रतिमां स्पृशन्नेवाभिमंत्रयेत्। इत्यधिवासनम्। (पूर्व में कथित पृष्ठ 278 से अनादिसिद्ध मंत्र से सात बार प्रतिमा का स्पर्श करे।) घंटाटंकारवीणाक्वणितमुरजधांधांक्रियां काहलाच्छें – च्छेंकारोदारभेरीपटहधलधलंकारसंभूतघोषे। आक्रम्याशेषकाष्ठातटमथ झटिति प्रोच्छटत्युद्भटेऽभ्रं। शिष्टाभीष्टार्हदिष्ट्यै जिनमुखपटमुद्घाटये मंत्रपूर्वम्।।4।। ॐ उसहाइवड्ढमाणाणं, पंचकल्लाणसंपण्णाणं, महइमहावीरवड्ढमाणाणं सामीणं, सिज्झउ मे महइमहाविज्जा, अट्ठमहापाडिहेरसहियाणं, सयलकलाधराणं, सज्जोजादरूवाणं, चउतीसातिसयविसेससंजुत्ताणं, बत्तीसदेविंद- मणिमउडमत्थयमहिदाणं, सयललोयस्य संतिपुट्ठिबुद्धिकल्लाणाउआरोग्गकराणं बलदेववासुदेवचक्कहररिसिमुणि- जदिअणगारोवगूढाणं, उहयलोयसुहफलयराणं, थुइसयसहस्सणिलयाणं, परापरपरमप्पाणं, अणाइणिहणाणं बलिबाहुबलिसहिदाणं, वीरे वीरे, ओं हां क्षां सेणवीरे वड्ढमाणवीरे हसं जयंतवराइये वज्जसिलत्थंभमयाणं, सदभव्वपइट्ठियाणं। यत्थ सण्णिहिदा मे भवंतु, मे भवंतु ठः ठः क्ष क्ष स्वाहा। मुखवस्त्रोद्घाटनम्। (इस मंत्र से प्रतिमा के सामने का वस्त्र हटा देवें।) वार्गंधतंडुललतांतहविः प्रदीपै-र्धूपैः फलैः कनकपात्रगतै£जनाग्रे। नंद्यादिवर्तदधिस्वस्तिकदर्भदूर्वा-सिद्धार्थकैश्च कृतमघ्र्यमिहोद्धरामः।।5।। ॐ अट्ठविहकम्मवियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। अट्ठगुणा किदकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा।।6।। भूयासुरिति स्वाहा। महोत्सवेन महाघ्र्यमवतारयेत्। (महाघ्र्य चढ़ावे।)
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अथ गुणारोपणम्
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जानाति बोधो यदनुग्रहेण, द्रव्याणि सर्वाणि सपर्ययाणि। दुराग्रहत्यक्तनिजात्मरूपं, सिद्धेऽत्र सम्यक्त्वगुणं न्यसामि।।1।। ॐ ह्रीं परमावगाढसम्यक्त्वगुणभूषिताय नमः। इति प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिप्त्वा तद्गुणमारोपयेदेवमुत्तरत्रापि विधेयम्। (मंत्रों से प्रतिमा के ऊपर पुष्पांजलि क्षेपण कर उन-उन गुणों का आरोपण करें, ऐसे ही आगे करना है।) जानाति नित्यं युगपत्स्वतोन्यत्-सर्वार्थसामान्यविशेषसर्वम्। निर्बाधकं स्पष्टतरं च यस्तं, सिद्धेऽत्र विज्ञानगुणं न्यसामि।।2।। ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानभूषिताय नमः। स्वात्मस्थसामान्यविशेषसर्वं, साक्षात्करोत्येव समं सदा यः। सुनिश्चितासंभवबाधकं तं, सिद्धेऽत्र दृष्ट्याख्यगुणं न्यसामि।।3।। ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनभूषिताय नमः। अनंतविज्ञानमनंतदृष्टिं, द्रव्येषु सर्वेषु च पर्ययेषु। व्यापारयंतं हतसंकरादिं, सिद्धेऽत्र वीर्याख्यगुणं न्यसामि।।4।। ॐ ह्रीं वीर्यगुणभूषिताय नमः। अबाधकं मानमबाध्यमेव, निष्पीतसर्वार्थमसंगसंगम्। सर्वज्ञवेद्यं तदवाच्यमेव, सिद्धेऽत्र सूक्ष्माख्यगुणं न्यसामि।।5।। ॐ ह्रीं सूक्ष्मगुणभूषिताय नमः। एकत्र सिद्धात्मनि चान्यसिद्धा, वसंत्यसंबाधमनंतसंख्याः। यस्य प्रभावात्सुनयस्थितं तं, सिद्धेऽवगाहाख्यगुणं न्यसामि।।6।। ॐ ह्रीं अवगाहनगुणभूषिताय नमः। अधो न पातोऽस्ति यथा शिलादे-र्न तूलवद्वायुकृतेरणं च। सिद्धात्मना तेन सुयुक्तिसिद्धं, गुणं न्यसामोऽगुरुलघ्वभिख्यम्।।7।। ॐ ह्रीं अगुरुलघुगुणभूषिताय नमः। भवाग्निशान्त्यै विहितश्रमोव्या-बाधात्मना यं परिणाममेति। स्वात्मोत्थसौख्यैकनिबंधनं तं, सिद्धेऽत्र निर्र्बाधगुणं न्यसामि।।8।। ॐ ह्रीं अव्याबाधगुणभूषिताय नमः। इति गुणारोपणम्।
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अथ अष्टद्रव्य से पूजा
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गंगादितित्थप्पहवप्पएहिं, सग्गंधदा णिम्मलदापएहिं। अच्चेमि णिच्चं परमट्ठसिद्धे, सव्वट्ठसंपादयसव्वसिद्धे।।1।। ॐ ह्रीं श्रीं नमः सिद्धाधिपतये जलम् निर्वपामीति स्वाहा। गंधेहिं धाणाण सुहप्पएहिं, समच्चयाणंपि सुहप्पएहिं। अच्चेमि णिच्चं परमट्ठसिद्धे, सव्वट्ठसंपादयसव्वसिद्धे।।2।। ॐ ह्रीं श्रीं नमः सिद्धाधिपतये गंधं निर्वपामीति स्वाहा। परेंतछोणीसयकारणेहिं, वरक्खएहिं सियकारणेहिं। अच्चेमि णिच्चं परमट्ठसिद्धे, सव्वट्ठसंपादयसव्वसिद्धे।।3।। ॐ ह्रीं श्रीं नमः सिद्धाधिपतये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। पुप्फेहिं दिव्वेहिं सुवण्णएहिं, कव्वे कऊसेहिं सुवण्णएहिं।। अच्चेमि णिच्चं परमट्ठसिद्धे, सव्वट्ठसंपादयसव्वसिद्धे।।4।। ॐ ह्रीं श्रीं नमः सिद्धाधिपतये पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। बब्भेहि णाणासुरसप्पएहिं, भव्वाण णाणाइरसप्पएहिं।। अच्चेमि णिच्चं परमट्ठसिद्धे, सव्वट्ठसंपादयसव्वसिद्धे।।5।। ॐ ह्रीं श्रीं नमः सिद्धाधिपतये चरुं निर्वपामीति स्वाहा। देदिव्वमाणप्पहदीवएहिं, संऊयआणं सिरिदीवएहिं।। अच्चेमि णिच्चं परमट्ठसिद्धे, सव्वट्ठसंपादयसव्वसिद्धे।।6।। ॐ ह्रीं श्रीं नमः सिद्धाधिपतये दीपं निर्वपामीति स्वाहा। कालाअरुं भूयसुहूवएहिं, जीयाण पावाण सुहूवएहिं।। अच्चेमि णिच्चं परमट्ठसिद्धे, सव्वट्ठसंपादयसव्वसिद्धे।।7।। ॐ ह्रीं श्रीं नमः सिद्धाधिपतये धूपं निर्वपामीति स्वाहा। अणग्घभूएहिं फलव्वएहिं, भव्वस्स संदिण्णफलव्वएहिं।। अच्चेमि णिच्चं परमट्ठसिद्धे, सव्वट्ठसंपादयसव्वसिद्धे।।8।। ॐ ह्रीं श्रीं नमः सिद्धाधिपतये फलं निर्वपामीति स्वाहा। णयेण णाणेण य दंसणेण, तवेण उट्टेण य संजमेण। सिद्धे तिकालेसु विसुद्धबुद्धे, समग्घयामो सयलेवि सिद्धे।।9।। ॐ ह्रीं श्रीं नमः सिद्धाधिपतये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। जलादियज्ञांगदूर्वादर्भदधिसिद्धार्थादिमंगलद्रव्यविनिर्मितमहाघ्र्यमवतारयेत्।
(थाल में अघ्र्य-जलादि आठद्रव्य, दूब, दर्भ, दधि, सरसों आदि मंगल द्रव्य रखकर महाघ्र्य चढ़ावें।) ==
अथ सप्तविधपीठिकामंत्रैः सिद्धाराधनम्
== (श्वेत सुगंधित पुष्पों में कर्पूरमिश्रित चंदन के छींटे देकर उन पुष्पों से पृष्ठ 70 से सप्तविधपीठिका मंत्रों से सिद्धों की आराधना करें।)
सिद्धार्चायां ये क्रियामंत्रसंज्ञा, जैने वेदे साधनाद्याश्च मंत्राः। त्रेताहोमे होममंत्रास्तदेतैः, जप्तैः पुष्पैः सिद्धमाराधयामि।।1।। ॐ सत्यजाताय नमः। (पृष्ठ 70 से ये मंत्र लेना है।) इत्यादिसप्तविधपीठिकामंत्रैरभिमंत्रितैः कर्पूरहरिचंदनद्रवालुलितसुरभिशुभ्रकुसुमैः सिद्धपरमेष्ठिनमाराधयेत्। विविधदुरितशुद्धान्सर्वतत्त्वार्थसिद्धान्। परमसुखसमृद्धान्युक्तिशास्त्राविरुद्धान्। बहुविधगुणवृद्धान्सर्वलोकप्रसिद्धान्। प्रमितसुनयसिद्धानर्घये सर्वसिद्धान्।।2।। पूर्णाघ्र्यः । पूर्णाघ्र्य चढ़ावें। (यहाँ पर भगवान को मोक्ष हो गया है ऐसी घोषणा करें) गद्य-अथ तदग्रोपकल्पितचतुरस्रकुंडे गार्हपत्याग्नौ होमविधानम्। तद्यथा प्रागुक्तविधिना आसनस्थापनादि चतुरस्रकुंडार्चन- विधिं विधाय, क्षिपामि कुंडस्येत्यादिना परिधिपरिस्तरणकल्पनं आम्नायेत्यादिना गार्हपत्याग्नेः स्थापनं संधुक्षणं संनिधीकरणैक- समिधाहुत्यर्चनानि परिसमाप्य होमविधौ प्रागुक्तान्नाहुतिविधिं विस्तरेण विदध्यात्। इति होमविधानम्। सिद्धप्रतिमा के आगे चैकोन कुंड बनाकर उसमें ‘गार्हपत्य’ अग्नि स्थापित कर हवन करें। उसे ही कहते हैं पूर्वकथित विधि से आसन स्थापन आदि से लेकर चतुष्कोण कुंडार्चन विधि करके ‘‘क्षिपामि कुंडस्य’’ इत्यादि श्लोक से समिधा स्थापित करना, ‘आम्नाय’ इत्यादि श्लोक बोलकर गार्हपत्य अग्नि की स्थापना, अग्नि को संधुक्षित करना, सन्निधिकरण विधि करके ‘एक समिधा’ की आहुति देकर अर्चना विधि समाप्त करके होमविधि में पूर्वकथित अन्नाहुति की विधि को विस्तार से करें। यह होम विधि हुई। सिद्धश्रुतचरित्रषशिवशांतीशभक्तिभिः। भक्त्या निर्वाणकल्याण-क्रियां कुर्वंतु याजकाः।।3।। इति निर्वाणकल्याणक्रियां विधिवद्विधाय सर्वोऽपि संघस्ततो बहुतरमाल्यचंदनाक्षतराशिभि£जनमभ्यच्र्य तन्माल्यादिकमुत्सवेन धृत्वा प्रागुक्तविधिना तीर्थोदकमानीय। तज्जलपरिपूरिताष्टोत्तरशतकलशैर्वक्ष्यमाणमहाभिषेकविधिना महाभिषेकं विदध्यात्। अनंतर निर्वाणकल्याणक क्रिया को सभी संघ विधिवत् करें।
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निर्वाणकल्याणक भक्तिपाठ
== नमोऽस्तु श्रीऋषभदेव निर्वाणकल्याणकक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थभावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। अनंतर ‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि सामायिक दण्डक पढ़कर 9 बार णमोकार मंत्र जपकर ‘‘थोस्सामि हं’’ पढ़कर पृष्ठ 195 से लघुसिद्धभक्ति पढ़ें। ऐसे ही चारित्रभक्ति (पृष्ठ 195), योगिभक्ति (पृष्ठ 242), श्रुतभक्ति (पृष्ठ 267), निर्वाणभक्ति, शांतिभक्ति (पृष्ठ 195) और समाधिभक्ति (पृष्ठ 196) से पढ़कर निर्वाण क्रियाविधि पूर्ण करें। लघु निर्वाणभक्ति इस प्रकार है- ==
लघु निर्वाणभक्ति
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यत्रार्हतां गणभृतां श्रुतपारगाणां, निर्वाणभूमिरिह भारतवर्षजानाम्। तामद्य शुद्धमनसा क्रियया वचोभिः, संस्तोतु-मुद्यतमतिः परिणौमि भक्त्या।। इच्छामि भंत्ते! परिणिव्वाणभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं। इमम्मि अवसप्पिणीये चउत्थसमयस्स पच्छिमे भाये। आउट्ठमासहीणे वासचउक्कम्मि सेसकालम्मि। पावाये णयरीए कत्तियमासस्स किण्हचद्दसिए रत्तीए सादीए णक्खत्ते पच्चूसे भयवदो महदि महावीरो वड्ढमाणो सिद्धिं गदो। तिसुवि लोएसु भवणवासियवाणविंतरजोयिसियकप्पवासियत्ति चउव्विहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुप्फेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेण, णिच्चकालं अंच्चंति, पूजंति, वंदंति, णमंसंति परिणिव्वाणमहाकल्लाणपुज्जं करेंति। अहमवि इह संतो तत्थ संताइं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं। अथाभिषेक क्रियाप्रयोगविधानम्
अब अभिषेक क्रिया की प्रयोगविधि कहते हैं- अथ चलजिनेंद्रप्रतिबिंबप्रतिष्ठाचतुर्थदिनस्नपनक्रिया। तत्रेयं कृत्यप्रतिज्ञा- चल जिनबिंब प्रतिष्ठा के अभिषेक यह विधि की जाती है। भगवन्नमोस्तु ते एषोहं चलजिनेंद्रप्रतिबिंबप्रतिष्ठाचतुर्थदिनस्नपनक्रियां कुर्यामिति। शेषं समानम्। (यह बोलकर अभिषेक क्रिया का संकल्प करें।) अथ चलजिनें द्रप्रतिबिंबप्रतिष्ठाचतुर्थदिनस्नपनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजास्तववंदनासमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्। इत्युच्चार्य सामायिकदंडकचतु²वशतिस्तवौ पठित्वा सिद्धभक्तिं प्रयंुजीत। एवं चैत्यपंचगुरुशांतिसमाधिभक्तीरपि विदध्यात्।। इस प्रकार उच्चारण करके सामायिक दण्डक पढ़कर, 9 बार णमोकार मंत्र जपकर, थोस्सामिस्तव पढ़कर (पृष्ठ 17 से) सिद्धभक्ति पढ़ें। इसी विधि से (पृष्ठ 34 से 36 तक) चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शांतिभक्ति और समाधिभक्ति पढ़ें। अथ स्थिरे कृत्यप्रतिज्ञा (स्थिर जिनबिंबप्रतिष्ठा के अभिषेक में यह विधि करना है।) भगवन्नमोस्तु ते एषोहं स्थिरजिनेंद्रप्रतिबिंबप्रतिष्ठाचतुर्थदिनस्नपनक्रियां कुर्यामिति। शेषं समानम्। अथ स्थिरजिनेंद्र- प्रतिबिंबप्रतिष्ठाचतुर्थदिनस्नपनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। इत्युच्चार्य सामायिकादिविध्ंिा विधाय सिद्धचारित्रशांतिसमाधिभक्तीरपि प्रयुंजीत। नमोऽस्तु अभिषेकवंदनाक्रियायां………..सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्। (ऐसा उच्चारण कर सामायिक दंडक पढ़कर, 9 बार महामंत्र जपकर, थोस्सामि पढ़कर (पृष्ठ 195 से) सिद्धभक्ति पढ़ें। पुनः (पृष्ठ 195-196 से) चारित्रभक्ति, शांतिभक्ति, समाधिभक्ति पढे़ं। इसके बाद बहुत से माला, चंदन, अक्षत आदि से जिनदेव की पूजा करके उन मालादिक को उत्सवपूर्वक धारण कर पूर्वकथित विधि से घटयात्रा विधि से तीर्थजल लाकर एक सौ आठ कलशों से उस पवित्र जल को भरकर आगे कही जाने वाली महाभिषेक विधि से प्रतिमा का महाभिषेक संपन्न करें। इति अभिषेकक्रियाप्रयोगविधानम् (यह अभिषेक क्रिया की विधि पूर्ण हुई।) ==
सरस्वती पूजा
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अपौरुषेयानखिलानदोषानशेषविद्भि£वहितप्रकाशान्। प्रकाशितार्थान्प्रयजे प्रमाणं, प्रवेदयद्द्वादशदिव्यवेदान्।।1।। इत्यादिना श्रुतपूजां विदध्यात्। इत्यादि विधि से सरस्वती पूजा करें। गुरुपूजा ये येऽनगारा ऋषयो यतीन्द्रा, मुनीश्वरा भव्यभवद्व्यतीताः। तेषां समेषां पदपंकजानि, संपूजयामो गुणशीलसिंधून्।।2।। इत्यादिना गुरुपूजां विदध्यात्। (इत्यादि प्रकार से गुरुपूजा करें) ज्ञानादिसर्वगुणपूर्णजिनेश्वरांग-संगातिमंगलसुगंधिजलेन पूर्णः। दत्तः स एष समलंकृतपूर्णकुंभः, संपूर्णमावहतु सर्वमनोरथं वः।।3।। जिनगंधांबुपूर्णकुंभप्रदानम्।। (यह श्लोक बोलकर गंधोदक के कलश को या सभी को गंधोदक देवें पृष्ठ 63 से।) ॐ अथ निरतिशयनिजमहिमभरसमसमानमितात्मीय इत्यादिना सकलाभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिं करोतु। वृद्धिं करोतु। झ्वीं क्ष्वीं हं सः स्वाहा। पर्यंतं पठित्वा जिनगंधोदकेन यजमानशिरसि सिंचेत्।। (उपर्युक्त मंत्रों को पढ़ते हुए यजमान के मस्तक पर गंधोदक छिड़कें।) श्रीमज्जिनेन्द्रा हतमोहतंद्रा, इत्यादिद्वाविंशत्याशीर्वादैः गंधोदकं शेषभव्येभ्यो दद्यात्। पृष्ठ 99 से श्रीमज्जिनेंद्रा….. इत्यादि बत्तीस आशीर्वाद श्लोक बोलते हुए सभी श्रावकों को गंधोदक देवंे। देवषद्विजपूजनं च विहितं, श्रेयोथनां ते मता। रागद्वेषविमोहमूलविलयात्सारंभसंगोज्झनात्। स्थूलप्राणिवधादिवर्जनविधे-र्देवानृषींस्तादृशान्। संपूज्य द्विजपुंगवांश्च धिनुयां, तांबूलदानादिभिः।।4।। इत्युक्त्वा संघपूजां कुर्यात्। (यह श्लोक बोलकर सभी को तांबूल फल आदि देकर सम्मानित करें।) गद्य-अथ तदर्धरात्रे त्रिःपरीत्य ध्वजमवरोह्य प्रासादोध्र्वतूर्यांशवेदिकायां विदिक्परिकल्पिताधारे हिरण्यपायसाकीर्णे गर्भगेहाया- मार्धतत्त्रिभागचतुर्भागमितशुभदारुदंडमवस्थाप्य, तत्र महाध्वजमलंकृतमवरोह्य, परिवारध्वजानपि तत्र प्रासादं परितोऽवस्थाप्य, सप्तधान्यविरूढकफलोत्करैः प्रासादमभिषिच्याभ्यच्र्य नूतनसद्वस्त्रैः परिधापयेत्।।
उसी दिन अर्धरात्रि में ध्वजा की तीन प्रदक्षिणा देकर पुनः ध्वजा को उतारकर मंदिर के ऊपर-चतुर्थांश वेदिका के ऊपर विदिशा में ध्वजदण्ड को स्थित करने का आधार-स्थान बनावें, उस स्थल में सुवर्ण और खीर फैला दें, उस गर्त में गर्भगृह के आयाम के आधे और उसके त्रिभाग या चतुर्भाग प्रमाण शुभ दारू-काष्ठ के दण्ड को स्थापित करें। उस ध्वजदण्ड में ‘महाध्वज’ को चढ़ावें, उसी मंदिर के ऊपर महाध्वजा के चारों तरफ परिवारध्वजाओं को अर्थात् लघु ध्वजाओं को लगाकर सप्तधान्य के अंकुरों से और फलों के समूह से जिनमंदिर की पूजा करके जिनमंदिर का अभिषेक करके नूतन अच्छे-अच्छे वस्त्रों से चंदोवा, तोरण, वंदनवार आदि से मंदिर को सजावें। ==
विसर्जन
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सर्वे देवाः समाहूताः शिष्टार्हत्प्रभुपूजने। इष्टमस्माकमापाद्य, तुष्टा यांतु यथायथम्।।1।। जिनपूजार्थं समाहूताः देवाः सर्वे विहितमहामहाः स्वस्थानं गच्छत गच्छत जः जः जः। इति विसर्जनमंत्रोच्चारणेन यागमंडले पुष्पांजलिं विकीर्य देवान्विसर्जयेत्।। (इस विसर्जन मंत्र का उच्चारण करके यागमंडल में पुष्पांजलि क्षेपण करते हुए देवों का विसर्जन करें।) प्रक्षीणदोषमलमिद्धनिजप्रकाशं। लोकैकभूषणमहो निजदिव्यरत्नम्। मुक्तिश्रियः सपदि संवदनं विधातुं। पूज्यं प्रपूज्य हृदये निदधे भवन्तम्।।2।। अनेन परब्रह्ममध्यात्ममध्यासयेत्। (इस श्लोक को पढ़कर परमात्मा का ध्यान करें।) यो लोकैकशिखामणिर्यमनिशं, ध्यायंति योगीश्वराः। येनादश समस्ततत्त्वममरा, यस्मै नमः कुर्वते। यस्मान्नास्त्यपरो हितस्त्रिजगते, यस्यैव युक्ताप्तता।। यस्मिन्केवलबोधभानुरुदितः, सोव्याज्जिनोयं जगत्।।3।। ॐ श्रीं ह्रीं र्हं श्रीं नमः परमशांताय सर्वलोकशांतिर्भवतु स्वाहा। (शांतिधारा करें) अर्चामग्रे प्रनृत्यत्कलशयुतवधूमग्रभृंगारनिर्य-द्वार्धारापूतधात्रीं बहुतरविभवामादरेणानुयांतः। सर्वाशाः पूरयंतो बलिमनुमुखराः सर्वधान्यैश्च लाजैः। सत्पुष्पैरक्षतौघै£जननिलयमिमे त्रिःपरीयाम शान्त्यै।।4।। ॐ अर्हद्भ्यो नमः शांतिबलिः1।। (शांतिबलि समर्पण करें) प्रमादाज्ञानदर्पाद्यैवहितमित्यादिना क्षमापणम्। (प्रमादाज्ञानदर्पाद्यैः श्लोक पढ़कर क्षमापण करावें।) मोहध्वान्तविदारणमित्यादिना गमनाप्रच्छनम्।। (मोहध्वांतविदारणं इत्यादि पढ़कर जाने की आज्ञा मांगे।) इत्थं सौधर्मशक्रप्रभृतिसुरवरा यां जिनेंद्रस्य साक्षात्। चक्रुनर्वाणलाभोत्सवविषयमहाश्चर्यकल्याणपूजाम्। तामारोप्यात्र बिंबे विधिवदिह कृता शक्तितो भूरिभक्त्या। भुक्त्यै मुक्त्यै च यष्ट्रप्रभृतितनुभृतामस्तु कल्याणपूजा।।5।। इष्टप्रार्थनाय पुष्पांजलिः (श्लोक पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण करें।) श्रीमज्जिनेंद्रा हतमोहतंद्रा ‘‘इत्यादिद्वाविंशत्याशीर्वादान् विजयविभवेत्यादिआशीर्वादांश्च चैत्यालयाग्रतः स्थित्वा पृथक्पुष्पांजलिपूर्वकं पठेत्। इत्याशीर्दानविधानम्।। (पृष्ठ 99 से आशीर्वाद के 22 श्लोक पढ़कर तथा ‘‘विजयविभव’’ इत्यादि श्लोक पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण करें) यज्ञ दीक्षा में धारण किए चिन्ह त्याग करना आपूर्य कर्मविधिना प्रकृतं कृतार्थ-स्त्यक्त्वा तदर्थनियमं स्वयमे दृढोऽहम्। चिन्हानि तस्य नियमस्य पुरो निधाय। वंदे गुरोर्गुरुगुणौघगुरोः पदाब्जम्।। एतत्पठित्वा यज्ञदीक्षाचिन्हानि गुरुपादमूले विन्यस्य नमस्येत्।। इस पद्य को पढ़कर यजमान के दीक्षा चिन्ह-कंकण व नियम आदि का गुरु के सामने समापन करा देवें। अथ प्रतिष्ठानिष्ठापनक्रिया (तत्रेयं कृत्यप्रतिज्ञा) भगवन्नमोस्तु ते एषोहं प्रतिष्ठानिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजास्तववंदनासमेतं शांतिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। इत्युच्चार्य सामायिकदंडकचतुवंशतिस्तवौ पठित्वा शांतिभक्तिं प्रयंुजीत।। इस प्रकार प्रतिज्ञा करके सामायिक दण्डक आदि पढ़कर (पृष्ठ 195 से) शांतिभक्ति का पाठ करें। इत्थं विधत्ते जिनपंगवस्य, निर्वाणलाभोत्सवसंविधिं यः। निर्वाणलाभोत्सवमाशु यास्यत्यमुत्र नूनं स हि धर्मनेमिः।।7।। इस प्रकार जो भव्यजीव जिनेंद्रदेव का निर्वाणकल्याणक महोत्सव करते हैं, वे अगले जन्म में निर्वाणलाभ प्राप्त करेंगे और धर्मचक्र के प्रवर्तक होंगेे, ऐसा समझना। इत्यर्हत्प्रतिष्ठासारसंग्रहे नेमिचंद्रदेवविरचिते प्रतिष्ठातिलकनाम्नि निर्वाणकल्याण- विधिर्नाम द्वादशः परिच्छेदः।