देवेन्द्रवंद्यचरणांबुरुहं जिनेन्द्रं।
उत्तिष्ठ भव्य! भज तं सहसा प्रभाते।।
भंक्त्वा प्रमादमचिरं त्यज मोहनिद्रां।
उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातम्।।१।।
सुरपति वंदित चरणसरोरुह कर्म शत्रुजित् जिनवर को। उठो भव्य! प्रात: मंगलमय बेला मे तुम उन्हें भजो।। मोहनींद को दूर भगावो उठो! उठो! झट तजो प्रमाद। उठो भव्य! अब प्रकाश फैला मंगलमय हो सदा प्रभात।।
आगत्य चैत्यसदने जिनवक्त्रपद्मं।
संवीक्ष्य भक्तिभरत: गतरागरोगं।।
प्रेम्णा नतिं कुरु जिनेश्वरपादपद्मे।
उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातम्।।२।।
श्री जिनचैत्यालय में आकर भक्तिभाव से जिनवर की। वीतराग के आस्य कमल का दर्शन करो स्थिर चित ही।। मुद से प्रभु के चरण कमल में नमस्कार तुम करो सतत। उठो भव्य! अब प्रकाश फैला मंगलमय हो सदा प्रभात।।
अर्हत्सुसिद्धगुरुसुरिसुपाठकांश्च।
साधून् मुदा प्रणम सर्व मुमुक्षुवर्गान्।।
जैनेन्द्रबिम्बमवलोक्य विमुञ्च रागं।
उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातं।।३।।
अर्हत्सिद्धाचार्य उपाध्याय-साधु पंचपरमेष्ठी को। मुक्ति वधू प्रिय, मुमुक्षु मुनिगण रुचि से वंदो इन सबको।। श्री जिन वीतराग प्रतिमा का दर्शन कर झट तजो कुराग। उठो भव्य! अब प्रकाश फैला मंगलमय हो सदा प्रभात।।
घात्यंतकांतशुचिकेवल-बोधभास्वान्।
सज्ज्ञानदीधितिविनष्टतम:समूह:।।
तं श्री जिनं किल भज त्यज मोहनिद्रां।
उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातं।।४।।
घातिकर्म संहारक निर्मल केवलज्ञान विभाकर हैं। ज्ञानज्योति मय खर किरणों से तमसमूह के ध्वंसक हैं।। उन जिनवर का आश्रय लेवो करो मोह निद्रा का त्याग। उठो भव्य! अब प्रकाश फैला मंगलमय हो सदा प्रभात।।
तारागणा अपि विलोक्य विधो: सपक्षं।
खे निष्प्रभं विमतयोऽपि च यांति नाशं।।
स्याद्वादभास्वदुदये त्यज मोहनिद्रां।
उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातं।।५।।
तारागण भी निजस्वामी शशि के विद्रोही रवि को लख। निष्प्रभ हुए गगन में तद्वत् कुवादि गण भी हुए प्रहत।। ममतामय निद्रा को छोड़ो स्याद्वाद रवि हुआ उदित। उठो भव्य! अब प्रकाश फैला मंगलमय हो सदा प्रभात।।
त्रैलोक्यभास्कर! महाकुमतांधकारं।
निर्दोषवाङ्मयकरैश्च निहन्सि वेगात्।।
एकांतवादिमनुजा: झटिति प्रणष्टा:।
उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातं।।६।।
त्रिभुवन भास्कर! महा कुमतिमय अंधकार छाया जग में। दिव्यध्वनि मय खर किरणों से उसे भगाया प्रभु तुमने।। मिथ्यैकांत वादि गण झटिति तुमको लख हो गये विनाश। उठो भव्य! अब प्रकाश फैला मंगलमय हो सदा प्रभात।।
अस्मिन्ननादिभव संकटजन्मसिन्धौ।
मज्जंत्यनंतभविन: किल दृष्टिमोहात्।।
पश्यंति मार्गमचिरात् त्वदपूर्वसूर्यात्।
उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातं।।७।।
इस अनादि भव संकटमय संसार जलधि में हे स्वामिन्। डूब रहे हैं अनंत प्राणी दर्शन मोह उदय से नित।। प्रभु तुम अद्वितीय भास्कर हो तुमसे झट देखें मारग। उठो भव्य! अब प्रकाश फैला मंगलमय हो सदा प्रभात।।
श्रीमज्जिनेन्द्र! हर मे त्वरमार्तरौद्रं।
‘ज्ञाने मतिं’ वितनु शांतिमपास्तदु:खां।।
संघाय, मे च जगते, कुरु मंगलं च।
उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातं।।८।।
श्रीमन्! भगवन् शीघ्र हमारे आर्तरौद्र दुध्र्यान हरो। तत्त्व ‘ज्ञानमती’ करो सदा दु:ख रहित शांति को पूर्ण करो।। संघ के, जग के लिये, हमारे लिये, करो मंगल संतत। उठो भव्य! अब प्रकाश फैला मंगलमय हो सदा प्रभात।।
जिनस्य भवने घंटा-नादेन प्रतिवादिन:।
तमोनिभा: प्रणष्टा हि ते जिना: संतु न: श्रियै।।९।।
अर्हत्प्रभु के चैत्यसदन में घंटाध्वनि हो रही महान। मिथ्यादृष्टिजन उसको सुन नष्ट हो रहे तिमिर समान।। देवदेव का सुखद सुमंगल प्रभात शुभ मंगलमय हो। वे जिनदेव अमंगलहारी हमें मुक्ति लक्ष्मी प्रद हों।।