तर्ज-दिल के अरमां………..
प्रभु जी सिद्धि कांता वरने चल दिये।
संग में चार हजार राजा चल दिये।। प्रभु जी.।।
सारी धरती पर प्रभू का राज्य था।
किन्तु प्रभु को हो गया वैराग्य था।।
तज के सब संसार, वे तो चल दिये।
संग में चार हजार राजा चल दिये।।1।।
वन में जाकर नग्न दीक्षा धार ली।
अवध की जनता दुःखी अपार थी।।
पंचमुष्टी केशलुंचन कर लिये।
संग में चार हजार राजा चल दिये।।2।।
दीक्षा लेकर वे तो ध्यान मग्न हुए।
बाकी सब राजा नियम से च्युत हुए।।
सम्बोधा वनदेव ने नहिं मुनिमार्ग ये।
संग में चार हजार राजा चल दिए।।3।।
छह महीने के बाद चले आहार को।
हुआ जहाँ आहार, धरा गजपुर की वो।।
तभी ‘‘चन्दनामती’’ मुनी व्रत पल रहे।
संग में चार हजार राजा चल दिए।।4।।