-डॉ. जीवन प्रकाश जैन, जम्बूद्वीप
‘‘जब व्यक्ति के जीवन में किसी पराक्रम, साहस और पौरुष की बात आती है, तब आसमान से सितारे तोड़ लाने और छप्पर फाड़कर अपने हर उद्देश्य में सफल हो जाने की कल्पना करता है। लेकिन आज हमारे समक्ष ऐसी बातें केवल सुनने के योग्य नहीं, अपितु प्रत्यक्ष देखने और महसूस करने के योग्य बन चुकी हैं। क्योेंकि ऋषभगिरि, मांगीतुंगी में एक ऐसा अजूबा निर्मित होकर तैयार हो चुका है, जो सोचने में सैकड़ों साल में किया जाने योग्य कार्य दिखता है और किसी दृष्टि से तो पूर्ण असंभव ही नजर आता है।
यह कार्य है-‘एक विशाल पर्वत को कांट-छांटकर उसी पर्वत से अखण्ड पाषाण वाली विश्व की सबसे बड़ी शिला को तराशना और उसके उपरांत उस शिला में तीनों लोक के सर्वसुन्दर मानुष आकार को गढ़कर उसमें प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की स्थापना करना।’ यह एक महाअसंभव कार्य था, जिसकी पूर्णता विश्व की सबसे ऊँची १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव प्रतिमा के रूप में हुई है, जिसे गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड में भी विश्व इतिहास के रूप में दर्ज किया गया है।
इस कार्य की संभवता के पीछे तीन विश्वविभूतियों के दृढ़ संकल्प और कर्मठता की कहानी आज के युवाओं को सीख और चुनौती देती है कि जीवन में सोचा हुआ हर असंभव कार्य भी संभव हो सकता है, यदि हमारे संकल्पों में मजबूती और परिश्रम में लगनशीलता का अखण्ड सामंजस्य सदैव हमारे लक्ष्य में स्थापित रह सके।
विश्व के समक्ष आज ऐसे दृढ़ संकल्प और कर्मठता की सफलता का एक आदर्श उदाहरण बन चुकी वे तीन विभूतियाँ हैं-
१) सर्वोच्च जैन साध्वी दिव्यशक्ति परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी, जिन्होंने भारत में अनेक तीर्थों की विकास प्रेरणा के साथ स्वत: जीवन में केवल चौथी कक्षा तक अध्ययन के बावजूद संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी भाषाओं में ४०० ग्रंथों का लेखन किया है। पुन:
२) द्वितीय विश्वविभूति पूज्य माताजी की शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी हैं, जिनका सशक्त मार्गदर्शन कार्ययोजनाओं को अनुशासनपूर्वक सफलता की दिशा में ले जाता है तथा
३) तृतीय विभूति के रूप में कर्मयोगी पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी को यह सम्पूर्ण देश पूर्ण विश्वास के साथ स्वीकारता है, जब उनकी कार्य कुशलता के समक्ष मुश्किल से मुश्किल योजनाएं आसान बनकर इस धरती पर नये उपहार प्रदान करती हैं।
तो आइये, आज विश्व के समक्ष १०८ फुट ऊँची भगवान ऋषभदेव प्रतिमा को प्रदान करने वाली इन तीन विश्वविभूतियों के प्रति सादर प्रणाम करते हुए उनकी चरण वंदना करते हैं और अपनी आसमान को छूती भावनाओं के साथ इनके प्रति कतिपय शब्दांशों में विनयांजलि समर्पित करने का एक सूक्ष्म प्रयास करते हैं-’’
१) ‘‘वर्तमानयुगीन संत परम्परा शिरोमणि’’ : गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
बंधुओं! यूँ तो अलग-अलग विचाराधाराओं में सिद्धान्तों व संतों की परम्पराएं अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर अविरल इस सृष्टि पर चल रही है। हर परम्परा में अपने-अपने सिद्धान्तों के आधार पर आराधकों के जीवन को समुन्नत बनाने की कला सिखाई जाती है। लेकिन परम्पराओं के सच्चे प्रवर्तन हेतु संतों की भूमिका सर्वमान्य मानी जाती है। जब-जब इस धरती पर विभिन्न सिद्धान्तों के प्रभावी संत विचरण करते हैं, तब-तब उन सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार एवं उनकी मान्यताएं लोकव्यापी बन जाती हैं और उन संतों की प्रेरणा से हजारों नहीं, लाखों नहीं, करोड़ों भव्य आत्माओं का कल्याण होता है।
इसी क्रम में वर्तमान समय पर यदि हम विशेष दृष्टिपात करें, तो विभिन्न परम्पराओं के कतिपय विशिष्ट संतों के साथ ही विश्व व्यापी स्तर पर जैनधर्म की एकमात्र विदुषी साध्वी का नाम जगत विख्यात हो रहा है, जिनका नाम है – दिव्यशक्ति गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी।
इस सृष्टि पर धर्म का पराक्रम पुरजोर पैâलाने के लिए आज ऐसी ही दिव्यशक्ति महासाधिका की इस संसार को आवश्यकता है, जिनकी तीव्र सकारात्मक ऊर्जा और प्रेरणाओं से जन-जन का कल्याण होता है और कल-कल बहती अमृत की धारा के समान घर-घर में विश्वशांति, आपसी प्रेम, सौहाद्र्र, भगवान की भक्ति, अहिंसा के संदेश, सहिष्णुता आदि सिद्धान्तों को प्रमुखता प्राप्त होती है।
सरस्वतीस्वरूपा पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की तपस्या का प्रभाव वर्तमान में सारे जगत पर दिख रहा है, जिनकी प्रेरणा से तीर्थंकर जैसे तीन लोक के नाथ कहे जाने वाले महापुरुषों की वाणी आज घर-घर में पहुँच रही है। ८२ वर्ष की उम्र में जिन्होंने बालब्रह्मचारिणी बनकर अपने जीवन के ६४ वर्ष अखण्ड ब्रह्मचर्य के साथ त्याग व तपस्या में व्यतीत किये हैं, निश्चित ही आज उनकी आत्मा एक दिव्यस्वरूप को प्राप्त हो रही है और उनके दर्शन से, उनकी वंदना से, उनके आशीर्वाद से व उनकी वाणी से जैनधर्म का जिन ऊँचाईयों के साथ प्रचार-प्रसार हो रहा है, वह सर्वोत्कृष्ट है।
उपरोक्त वर्णन का सबसे महत्वपूर्ण एवं जीता-जागता एक ऐसा उदाहरण हमारे सामने है, जो एक सामान्य व्यक्तित्व ही नहीं, अपितु किसी विशेष व्यक्तित्व के लिए भी कल्पनातीत है। वह उदाहरण है, ‘‘ऋषभगिरि-मांगीतुंगी के पर्वत पर अखण्ड पाषाण में निर्मित विश्व की सबसे ऊँची दिगम्बर जैन प्रतिमा अर्थात् १२१ फुट भगवान ऋषभदेव प्रतिमा’’। इस प्रतिमा की मान्यता न सिर्पâ जैनधर्म के अनुयायियों के लिए है अपितु यह प्रतिमा ‘‘स्टेचू ऑफ अहिंसा’’ के रूप में समूचे विश्व के सर्वधर्मानुयायियों के लिए पूज्य एवं विख्यात हो रही है। सैद्धान्तिक आधार पर निश्चित ही जैनधर्म के अनुयायी ही इस प्रतिमा की पूजा-पाठ व अभिषेक करेंगे, लेकिन हम समझते हैं कि इस प्रतिमा के दर्शन से प्रत्येक धर्म के अनुयायी को अपने जीवन में अहिंसा धर्म को अपनाने की प्रेरणा प्राप्त होगी और विशेषरूप से अपरिग्रह के साथ वीतरागता, सर्वज्ञता, हितोपदेशिता तथा जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाकर भगवान बनने की युक्ति और दिशा की भी प्राप्ति होगी।
आज सम्पूर्ण संसार के लोग अपने जीवन में शांति की कामनाएं करते हैं। जो लोग संसार की वास्तविकताओं से काफी हद तक परिचित हो गये हैं, वे अपने जीवन में धन-दौलत की कामनाओं को छोड़कर आत्म शांति की कामनाएं करते हैं और स्वस्थ शरीर के साथ धर्माराधना करते हुए इस संसार से गमन की अपेक्षा रखते हैं। वे लोग समझ जाते हैं कि धन, वैभव के भोग-उपभोग नश्वर हैं, लेकिन आत्मा की शांति अविनश्वर है। ऐसी परिस्थितियों में आज भगवान ऋषभदेव की सर्वोच्च प्रतिमा का निर्माण समूचे विश्व को आत्म शांति की ओर प्रेरित करने का एक सबल एवं प्रमुख माध्यम बनकर प्रगट हुआ है। अत: ऐसी प्रतिमा का निर्माण कराने वाली पूज्य माताजी ने आज जैनधर्म की परम्परा को सारे जगत में सर्वतोमुखी बनाने का जो कार्य किया है, वह युगों-युगों के लिए इस सृष्टि पर एक बहुत बड़ा अमृतमयी वरदान सिद्ध हुआ है, ऐसा हमारा आत्म विश्वास है।
अत: अखण्ड पाषाण में विश्व की सर्वोच्च तीर्थंकर प्रतिमा के निर्माण पर आज हम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी को समूचे विश्व की विभिन्न आध्यात्मिक-विभूतियों में श्रेष्ठ दिव्यशक्ति मानकर उन्हें ‘‘वर्तमानयुगीन संत परम्परा शिरोमणि’’ की उपमा से बहुमानित करने का साहस प्रगट करते हैं।
२) ‘‘ज्ञान चन्द्रिका’’ प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी
१०८ फुट भगवान ऋषभदेव प्रतिमा का निर्माणकार्य वास्तव में एक असंभवता से संभवता का सफरनामा है, एक आश्चर्य है, एक चमत्कार है। इसीलिए इस कार्य की सिद्धि भी किसी सामान्य विधि से नहीं हुई है अपितु इस कार्य की सिद्धि में आध्यात्मिक जगत की तीन विशिष्ट शक्तियों का समावेश व उनकी त्याग-तपस्या का प्रभाव मूल रहा है। सर्वप्रथम दिव्यशक्ति गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा ‘‘दीपक’’ के समान प्राप्त हुई। पश्चात् कर्मयोगी पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी का प्रवेश ‘‘घृत’’ के समान निमित्त बना और इसके साथ ही प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की शक्ति एक ‘‘बाती’’ के समान सिद्ध हुई। इस प्रकार इन त्रिवेणी शक्तियों के संगम से आज सम्पूर्ण विश्व ही नहीं तीनोंलोक, सूर्य की भांति दैदिप्यमान १०८ फुट भगवान ऋषभदेव प्रतिमा पाकर आलोकित हो रहे हैं।
इस महान कार्य की पूर्णता में जिन्होंने ‘बाती’ बनकर इस सूर्य-प्रकाश को चहुँओर फैलाया है, वे आर्यिका श्री चंदनामती माताजी हम सभी के लिए महान आराधना के योग्य हैं क्योंकि उन्होंने इस महान कार्य में विगत २० वर्षों से सतत अपना प्रतिभाशील मार्गदर्शन प्रदान किया और उनकी सूझ-बूझ व ज्ञान-चन्द्रिका से मूर्ति निर्माण कमेटी सदैव ही सशक्त हुई है। अनेक कठिनाईयों के रास्ते पर आपके मार्गदर्शन ने कमेटी को नई उम्मीदों की किरणें प्रदान करके पुन: ऊर्जावान बनाने का मार्ग प्रशस्त किया है।
अत: ऐसी वात्सल्यमयी प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी के व्यक्तित्व को आज हम ‘‘ज्ञानचन्द्रिका’’ की उपमा से अभिवंदित करके गौरव का अनुभव करते हैं।ऐसी आदर्शमयी ज्ञानचन्द्रिका पूज्य माताजी के साथ सदैव ही मूर्ति निर्माण कमेटी को भरपूर वात्सल्य, अपनापन, सौम्य समागम एवं समय-समय पर उचित निर्णय प्राप्त होते रहे, अत: आज हम इस विशाल प्रतिमा के अंतर्राष्ट्रीय पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव की अद्भुत सफलता पर सम्यग्ज्ञान पत्रिका की ओर से उनके श्रीचरणों में शत-शत नमन करते हैं।
३) दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह अमर हुए स्वामीजी
किसी कृति का निर्माण यदि सर्वोत्तम हो जाये, तो उस कृति के निर्माण के साथ कृतिकार की छाया भी सदैव के लिए अमर हो जाती है। विभिन्न विधाओं की कृतियों का निर्माण, विभिन्न पक्ष के उत्कृष्ट व्यक्तित्वों की पहचान को अजर-अमर करता है। आज समयसार ग्रंथ के आलोढन पर आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी को याद किया जाता है। षट्खण्डागम ग्रंथ के लिए पुष्पदंत-भूतबली आचार्य को याद किया जाता है। तत्त्वार्थसूत्र के लिए उमास्वामी आचार्य को याद किया जाता है। इसी प्रकार किसी आविष्कार के लिए उसके आविष्कारकर्ता को याद किया जाता है और किसी कविता के लिए उसके कविकार को याद किया जाता है।
ठीक इसी प्रकार की एक ऐतिहासिक कृति के आज हम स्वयं साक्षी बन रहे हैं और स्वयं अपने नेत्रों को धन्य कर रहे हैं, वह कृति कुछ और नहीं ‘‘१२१ फुट भगवान ऋषभदेव की विशाल प्रतिमा है, जिसका निर्माण युगों-युगों के लिए जैन संस्कृति ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति के लिए एक वरदान है।
ऐसी अमिट कृतियों के निर्माण की कल्पना करना भी स्वयं एक आश्चर्य है, जिसके माध्यम से इतने दूरगामी और अजर-अमर लक्ष्य की आज सिद्धि हुई है। पर्वत को तोड़ने से पहले इतना बड़ा आत्मविश्वास पैदा करना कि वहाँ प्रतिमा निर्माण के लिए इतने बड़े अखण्ड पाषाण की शिला प्राप्त हो सकेगी, यह भी एक चमत्कारिक व्यक्तित्व का ही परिणाम हो सकता है। ऐसे व्यक्तित्व भी स्वयं एक सामान्य सोच से कल्पनातीत होते हैं। ऐसी अथाह कल्पनाशक्ति, दृढ़विश्वास और अटूट आत्मसाधना की धनी पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी हैं, जिन्होंने आज से २० वर्ष पूर्व ही ऋषभगिरि मांगीतुंगी के पर्वत में १०८ फुट भगवान ऋषभदेव प्रतिमा का मानों दर्शन कर लिया था और आज उनका आत्मविश्वास साकार होकर हम सभी के समक्ष प्रत्यक्षदर्शी हो रहा है।
मूर्ति निर्माण के साथ पूज्य माताजी का व्यक्तित्व तो निश्चित ही अजर-अमर हुआ है, लेकिन इस प्रेरणा को शिरोधार्य करने वाले कर्मयोगी पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी का व्यक्तित्व भी आज दैदीप्यमान नक्षत्र के समान अजर-अमर हो गया है, जिन्होंने इस साहसिक कार्य को अपने सीने में भरी सांसों की ताकत से पूर्ण किया है।
पूज्य स्वामीजी द्वारा इस महान एवं दीर्घपरिणामी कार्य के लिए किया गया कठोर परिश्रम उनके धैर्य की पराकाष्ठा को प्रतिबिम्बित करता है। इस कार्य की सफलता के लिए प्रयोजनभूत हुई नेतृत्व क्षमता, सामाजिक सामंजस्य, मजबूत संगठन, एकता, उत्कृष्ट प्रबंधन, आर्थिक समायोजन, तकनीकी युक्तियाँ एवं इस विशाल योजना के प्रति जन-जन में स्पुâरित हुई आत्म विश्वास की सतत् लहर के पीछे स्वामीजी के मौन व्यक्तित्व की परछाई किसी भी बुद्धिजीवी के द्वारा पढ़ी जा सकती है। २० वर्ष के लम्बे अंतराल का धैर्य, आपसी सामंजस्य की स्थापना, समाज के बुद्धिजीवियों का मार्गदर्शन लेना, सटीक प्रबंधन की कुशाग्रता, अर्थविनिमय की कुशलता, तकनीकी युक्तियों का परिक्षण व उपयोग तथा इस कार्य के प्रति जन-जन में उत्साह जागृति के पीछे कर्मयोग के धनी पूज्य स्वामीजी का गुणवान व्यक्तित्व ही परिलक्षित होता है, जिसके कारण आज समाज को इतनी बड़ी उपलब्धि हुई है।
बंधुओं! महापुरुषों द्वारा जन-जन की गुणग्राहकता के साथ स्वयं कठिनाईयों के रास्ते पर चलकर मिसालें कायम की जाती हैं अत: आज हम इतने प्रबल गुणों के धनी पूज्य स्वामीजी को भी एक ‘‘महापुरुष’’ की संज्ञा प्रदान करते हुए उनके व्यक्तित्व का बखान करना चाहते हैं, जिनके अनथक कर्तृत्व एवं बेजोड़ सूझ-बूझ से इस विशाल प्रतिमा का निर्माण सम्पन्न हुआ है।
ऐसे पूज्य स्वामीजी के प्रति हम सभी का हार्दिक अभिवंदन एवं शत-शत नमन।