रे मन! तेरी चंचलता पर, विश्वास न मुझको आता है।
मैं चाहूँ आत्म मगन होना, तू उसको क्यों भरमाता है।।
मैं तेरे वश में रहा सदा, अब तू मेरे वश में आ जा।
सांसारिक बातों से हटकर, अब तू भी शिवपथ में आ जा।।१।।
तूने अपने संग पाँच-पाँच, इन्द्रिय सखियों को बाँध रखा।
उनकी इच्छा अनुकूल प्रवृत्ती, करने में तू रमा रहा।।
गुरुओं ने चाहे कितना भी, समझाया मुझको ध्येय बना।
लेकिन वह समझ कहाँ आता, जब मैं विषयों का दास बना।।२।।
स्पर्शन इन्द्रिय ने जब-जब, अपनी सुख इच्छा प्रगट करी।
प्रासुक-अप्रासुक में भी ध्यान न दे अभिलाषा पूर्ण करी।।
चाहे हो ठंडा-गरम-कड़ा या, नरम सभी का स्पर्श किया।
जिसमें मिल गया क्षणिक सुख उसको, ही शाश्वत सुख समझ लिया।।३।।
रसना इन्द्रिय ने जब सुन्दर, पकवानों को खाना चाहा।
उसके सुख में सुख मान स्वयं, तन-मन-धन खूब किया स्वाहा।।
जब चाहा जिसको जो बोला, कैंची सम जीभ चलाई है।
इस इन्द्रिय ने दो कार्यों से, पाई सर्वदा बुराई है।।४।।
सुरभित सुगंधि की ओर स्वयं, घ्राणेन्द्रिय तुरत पहुँचती है।
भौंरे की मृत्यू देख भी उसकी, अभिलाषा नहिं मिटती है।।
मैंने भी उसके वश होकर, केवल सुगंध लेनी चाही।
दुर्गन्ध में समता पल न सकी, इस तरह विवशता बन आई।।५।।
आँखों ने सुन्दर रूपों का, अवलोकन जब करना चाहा।
चल पड़ा मेरा मन उसी तरफ, चक्षू को देने सुख छाया।।
नाटक व सिनेमा देख-देख, भौतिक माया में पड़ा रहा।
अन्तर्चक्षू नहिं किया कभी, ऐसा बाहर में रमा रहा।।६।।
कर्णेन्द्रिय ने अपना रुचिकर, संगीत सदा सुनना चाहा।
प्रभु भजन श्रवण तो दूर कभी, सत्संग कथा नहिं सुन पाया।।
ऐसे ही काल अनादी से, विकथाएँ खूब सुनीं मैंने।
उसमें ही सुख पा गया क्षणिक, शाश्वत सुख पाता कैसे मैं।।७।।
इन पंचेन्द्रिय एवं मन के, संग में ही सच मैं रमा रहा।
नहिं देव-शास्त्र-गुरु शरण लिया, इससे ही जग में दु:खी रहा।।
वह सतयुग भी बेकार हुआ, जब सम्यग्दर्शन नहीं मिला।
जाने कितनी पर्यायों में, घूमा असली फल नहीं मिला।।८।।
अब कलियुग यह वरदान बना, मेरे इस जीवन उपवन में।
जब सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ, नर जन्म किया सार्थक मैंने।।
साक्षात् गुरू के दर्शन से, ये भाव नवोदित प्रगट हुए।
‘‘चन्दनामती’’ गुरु वंदन से, वैराग्य भाव शुभ उदित हुए।।९।।
पंचेन्द्रिय मन के सभी, अशुभ भाव नश जाय।
शुभ भावों को प्रगट कर, शुद्ध बनूँ शिव पाय।।१०।|