तीर्थंकरों के धर्म प्रवर्तन काल धर्म बरसे है।
केवलज्ञानी मुनी आर्यिका होते ही रहते हैं।।
तीर्थ प्रवर्तन काल मैं नमूं ऋषि मुनिगण को वंदूं।
मन वच तन से वंदन करके सर्व दुखों को खंडूं।।१।।
सागर पचास सुलाख कोटी, तथा इक पूर्वांग है।
पुरुदेव जिनका तीर्थ वर्तन काल शास्त्र प्रमाण है।।
इस काल में बहुकेवली श्रुतकेवली मुनिगण हुये।
निज आत्म संपद प्राप्त हेतु नमूं उनको नत हुये।।१।।
शुभ तीस लाख करोड़ सागर और त्रय पूर्वांग है।
श्री अजित जिनका तीर्थ वर्तन काल भविजन त्राण है।।इस.।।२।।
दश लाख कोटी सागरोपम तथा चउ पूर्वांग है।
संभव जिनेश्वर तीर्थ वर्तन काल शिव पथ दान है।।इस.।।३।।
नव लाख कोटी सागरा पूर्वांग चार प्रमाण है।
अभिनंदनेश्वर तीर्थ वर्तन काल सब जग त्राण है।।इस.।।४।।
नब्बे हजार करोड़ सागर और चउ पूर्वांग है।
श्री सुमतिजिन का तीर्थ वर्तन काल मुक्ति निदान है।।इस.।।५।।
नव सहस कोटी सागरा पूर्वांग चार प्रमाण है।
श्रीपद्म जिनका तीर्थ वर्तन काल मुक्ति प्रदान है।।इस.।।६।।
नौ सौ करोड़ सुसागरा पूर्वांग चार प्रमाण है।
सूपाश्र्व जिनका तीर्थ वर्तन काल मोक्ष निदान है।।इस.।।७।।
सागर सुनब्बे कोटि चउ पूर्वांग काल प्रमाण है।
श्री चंद्रप्रभु का तीर्थ वर्तन चतु: संघ निधान है।।
इस काल में बहुकेवली श्रुतकेवली मुनिगण हुये।
निज आत्म संपद प्राप्त हेतु नमूं उनको नत हुये।।८।।
नवकोटी सागर में पूर्वांग अठाइस पल्यका चतुर्थांश।
कम कीजे पुन: मिला दीजे इक लाख पूर्व का वर्ष अंक।।
श्री पुष्पंदत का तीर्थ प्रवर्तन काल धर्म युग माना है।
पाव पल्य तक इसमें धर्म तीर्थ विच्छेद बखाना है।।
धर्म तीर्थ विच्छेद में, चतु: संघ नहिं होय।
शेष काल के केवली, मुनी नमूँ नत होय।।९।।
इक कोटी सागर में सौ सागर आधा पल्य हीन करिये।
छ्यासठ लख छब्बिस सहसवर्ष कम पच्चिस सहस पूर्व धरिये।।
शीतल जिनका यह तीर्थ प्रवर्तन काल चार संघ से राजे।
इसमें जिन धर्मतीर्थविच्छित्ती आधा पल्य शास्त्र भाषें।।
तीर्थ प्रवर्तन काल में, नग्न दिगंबर साधु।
मोक्ष सतत जाते रहें, नमूँ साम्यरस स्वादु।।१०।।
चौवन सागर इक्कीस लाख वर्षों में पौन पल्य कम हैं।
श्रेयांसनाथ का तीर्थकाल इसमें केवलिगण मुनिगण है।।
इनके तीरथ में पौन पल्य जिनधर्म तीर्थ व्युच्छिन्न रहा।
धर्मामृत इच्छुक मुनि ने ही इस तीर्थ काल को वंद्य कहा।।
रत्नत्रयनिधि के धनी, केवलज्ञानी साधु।
नमूँ नमूँ उनको सदा, मिटे जन्म की व्याधि।।११।।
शुभ तीस सागरा चौवन लाख बरस में एक पल्य कम है।
श्रीवासुपूज्य का तीर्थकाल यह मोक्षमार्ग का साधन है।।
इस एक पल्य कम में ही तीर्थ का छेद बखाना है।
इन दिनों न होवें जैन साधु शिवद्वार बंद ही माना है।।
तीर्थ काल के केवली, साधु सुरासुर वंद्य।
नमूँ नमूँ उनके चरण, हरूँ जगत का पंद।।१२।।
नव सागर पंद्रह लाख बरस में पौन पल्य कम कर दीजे।
यह विमलनाथ का तीर्थ प्रवर्तन काल इसे वंदन कीजे।।
यह पौन पल्य का धर्म तीर्थ व्युच्छेद शास्त्र में गाया है।
जिनशासन के केवल ज्ञानी मुनियों को शीश नमाया है।।
बहिरातमता छोड़कर, निज शुद्धात्म स्वरूप।
ध्याते परमात्मा बनें, चिदानंद चिद्रूप।।१३।।
यह सात लाख पच्चास सहस है बरस चार सागर माना।
बस आधा पल्य घटा दीजे यह तीर्थ विछेद काल माना।।
जिनवर अनंत के शासन में केवलज्ञानी बहुतेहि मुनी।
रस वर्ण गंध स्पर्श शून्य निज आत्म ध्यान करते सुगुणी।।
भव्य जहां दीक्षाभिमुख, नहीं हुये वह काल।
धर्मतीर्थ विच्छेद का, कहें यति१ वृषभ कृपालु।।१४।।
दो लाख पचास हजार वर्ष त्रय सागर में इक पल्य हीन।
यह धर्मनाथ का तीर्थकाल इसमें करते मुनि कर्म क्षीण।।
जिनधर्म ध्वजा फहराती है भवि ज्ञान ज्योति से जग देखें।
हम वंदें उन सब मुनियों को जो भव्य कमल विकसाते थे।।
पाव पल्य विच्छेद था, धर्मतीर्थ इस काल।
तीर्थ प्रवर्तन काल को, नमूँ नमूँ नत भाल।।१५।।
बारह शतक सुपचास वर्ष व अर्ध पल्य प्रमाण है।
श्रीशांतिजिन का तीर्थ वर्तन काल जिनमत प्राण है।।
श्रीशांतिजिन से आज तक औ दुषम कालावधी तक।
निरबाध चउविध संघ है होता रहेगा अंत तक।।१६।।
नवसौ निन्यावे कोटि निन्यानवे लक्ष सत्तानवे।
हजार द्विशत पचास वर्ष कम पल्य के चतुर्थांश में।।
यह तीर्थ वर्तन काल कुंथूनाथ का सुरवंद्य है।
मुनि केवली होते रहें वंदूं उन्हें वे वंद्य हैं।।१७।।
नौ अरब निन्यानवे कोटि निन्यानवे ही लाख हैं।
छ्यासठ सहस सौ वर्ष अरजिन तीर्थ वर्तन काल है।।
ऋषि मुनि यती अनगार केवल ज्ञान प्राप्ती कर रहें।
इनकी करें हम वंदना ये ताप त्रय मेरे दहें।।१८।।
जिन तीर्थ चौवन लाख सैंतालिस सहस चउशत बरस।
यह मल्लि प्रभु का सुरगणों के आगमन से जिनसदृश।।
मुनिराज जिन मुद्रा धरें विहरें सदा मंगल करें।
हम वंदतें इन साधुओं को विघ्न बाधा परिहरें।।१९।।
छह लाख पांच हजार वर्षों धर्म वर्तन काल है।
प्रभु मुनीसुव्रत नाथ का शासन महान उदार है।।
जो केवली मुनिगण हुये हैं मैं उन्हें वंदन करूँ।
निज आत्म सौरभ प्राप्त करके जगत को सुरभित करूँ।।२०।।
पण१लाख अठरह सौ वरस नमिनाथ तीरथ काल है।
अर्हंतमुद्रा धारि मुनिगण करें भविक निहाल हैं।।
मैं आत्मरस पीयूष अनुभव प्राप्ति हेतू नमत हूँ।
सम्यक्त्व क्षायिक होय मेरा आश यह मन धरत हूँ।।२१।
चौरासि सहस्र सु तीन सौ अस्सी बरस तक धर्म है।
श्री नेमि जिनका तीर्थ वर्तन करत भवि को धन्य है।।
सज्जाति सद्गार्हस्थ्य पारिव्राज्य और सुरेंद्रता।
साम्राज्य अरु आर्हन्त्य परिनिर्वाण वंदत हों स्वत:।।२२।।
दो सौ अठत्तर वर्ष तक प्रभु पाश्र्व का शासन चला।
इसमें सतत सुरगण यहां जिन भक्त का करते भला।।
मैं पूजहूँ निज सात परम स्थान पाने के लिये। हे नाथ!
अब करके दया मुझ थान मुझको दीजिये।।२३।।
इक्किस सहस ब्यालिस बरस तक वीर का शासन यहाँ।
तब तक चतुर्विध धर्म चलता ही रहेगा नित यहाँ।।
त्रय वर्ष साढ़े आठ महिने पूर्व पंचम काल तक।
यह अविच्छिन्न परंपरा मुनि की सभी को नमूँ नत।।२४।।
श्री ऋषभदेव से लेकर के अंतिम वीरांगज मुनि तक भी।
जिन मुद्राधारी रत्नत्रय निधि३ धरा धरत धारेंगे भी।।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय युत निज आत्मतत्त्वविद इन सबको।
नित शत शत मेरा वंदन है मैं भक्ती से वंदूँ गुरु को।।२५।।
ब्राह्मी सुंदरि से लेकर के, अंतिम साध्वी सर्वश्री तक।
संयतिका जिनकी हुई हो रहीं होवेंगी आरजखंड तक।।
दो साड़ी मात्र परिग्रह धर उपचार महाव्रतिका मानीं।
इन सबको मेरा वंदन है प्रतिवंदन है ये गुणखानी।।२६।।