लगभग २६०० वर्ष पूर्व नाथवंशीय राजा सिद्धार्थ बिहार प्रदेश के कुण्डलपुर में राज्य करते थे, उनकी रानी का नाम त्रिशला (प्रियकारिणी) था। कुण्डलपुर में अवस्थित नंद्यावर्त महल उनका निवास स्थान था। यह ७ मंजिला महल अत्यंत रमणीक था। सिद्धार्थ के पिता का नाम राजा सर्वार्थ एवं माता का नाम श्रीमती था।
About two thousand six hundred years ago, King Siddhartha of Nath Dynasty ruled at Kundalpur of Bihar state in India. The name of his wife was Trishala (Priyakarini). Both of them lived at 7 storeyed Nandyavarta Palace of Kundalpur. The name of the parents of Siddhartha was king Sarvartha & queen Shrimati. एक बार महारानी त्रिशला ने रात्रि में क्रम से १६ स्वप्न देखे-ऐरावत हाथी, उत्तम बैल, सिंह, हाथियों द्वारा अभिषेक को प्राप्त होती हुई लक्ष्मी, दो मालाएँ, चन्द्रमा, उगता हुआ सूर्य, मछलियों का युगल, जल से भरे दो कलश, कमलों से युक्त सरोवर, समुद्र, सिंहासन, स्वर्ग से आता हुआ विमान, नागेन्द्र भवन, रत्नों की राशि और बिना धुएँ की अग्नि। प्रात:काल महाराज सिद्धार्थ से स्वप्नों का फल पूछने पर उन्होंने अत्यन्त हर्षपूर्वक महारानी को बताया कि हे देवी! आप महान सौभाग्यशालिनी हैं क्योंकि आपके गर्भ में तीर्थंकर प्रभु का जीव अवतरित हुआ है। यह सुनकर महारानी प्रियकारिणी को अपार हर्ष हुआ।
One night queen Trishala saw sixteen dreams serially-Aeravat elephant, Bull, Lion, Laxhmi (being anointed by elephants), A pair of garlands, Moon, Sun, A pair of fish, Two pitchers filled with water, Pond with lotuses, Sea, Throne, Viman coming from the heaven, Nagendra bhawan, A heap of jewels & Fire without smoke. In the morning she asked her husband King Siddharth the meaning of her dreams. He told her with lot of happiness- “O Devi Trishala! Yor are very lucky because the great soul of Lord Tirthankar has come in your womb.” Queen Trishala became very much delighted and returned to her palace with her divine lady attendants.
नव माह और सात दिन के उपरांत चैत्र शुक्ला तेरस की रात्रि में रानी त्रिशला ने सूर्य से भी अधिक तेजस्वी, तीन लोक के नाथ तीर्थंकर शिशु को जन्म दिया। तीर्थंकर भगवान के जन्म को जानकर सौधर्म इन्द्र अपने समस्त देव परिवार के साथ कुण्डलपुर आये, पुन: ऐरावत हाथी पर चढ़कर जिनशिशु को सुमेरु पर्वत पर ले गये। वहाँ इन्द्र ने जन्माभिषेकपूर्वक भगवान का जन्मकल्याणक महोत्सव सम्पन्न किया तथा उनके ‘वीर’ और ‘वर्धमान’ दो नाम रखे, पश्चात् कुण्डलपुर में आकर भी देवों द्वारा राजा सिद्धार्थ, रानी त्रिशला एवं कुण्डलपुरवासियों के मध्य भगवान का जन्मकल्याणक महोत्सव महान हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाया।
After nine months and seven days a son more lustrous than the Sun, was born to queen Trishala without any pain in the night of Chaitra Shukla 13. Knowing the birth of Lord Tirthankar, Saudharma Indra came to Kundalpur with his divine family from the heaven. He took the Tirthankar-child to Sumeru mountain on Aeravat elephant and with performing His birth anointment (ceremonial bathing) celebrated gracious Janma Kalyanak Mahotsava. At that time, Indra gave Him two names-VEER & VARDHAMAN. Later the same Mahotsava was celebrated at Kundalpur also with great zeal & happiness by the deities in the presence of King Siddharth & Queen Trishala.
एक बार नंद्यावर्त महल में शिशु वर्धमान पालने में झूल रहे थे। तभी संजय और विजय नाम के दो चारणऋद्धिधारी मुनि वहाँ पधारे। जिनशिशु को देखने मात्र से ही उनके मन में स्थित सूक्ष्म शंका का तत्क्षण ही समाधान हो गया, अत: महान प्रसन्नता से उन्होंने भगवान का नाम ‘सन्मति’ रखा। शिशु वर्धमान इन्द्र द्वारा अंगूठे में रखे गये अमृत को चूसते हुए चंद्रमा की कलाओं के समान बढ़ने लगे और धीरे-धीरे घुटने के बल चल-चलकर अपनी तोतली बोली एवं बालचेष्टाओं से परिवार को खूब आनंदित करने लगे। center]]Once child Vardhaman was swinging in the cradle at Nandyavarta Palace. By chance, two great Digambar Jain Munis named Sanjay and Vijay came there and only by looking at the Tirthankar-child, the existing slight suspicion about some matter (Tattva) in their heart was at once cleared and so with great delight, they named Him as SANMATI. Divine child Vardhaman was growing up with sucking the nectar, placed in His thumb by Indra. Both the parents and the whole family were very much delighted seeing the charming childish activities of the divine child.
एक दिन बालक वर्धमान अपने बहुत से देव मित्रों के साथ नंद्यावर्त महल के बगीचे में खेल रहे थे। तभी उनकी बहादुरी की परीक्षा लेने हेतु स्वर्ग से संगम नाम का एक देव विशालकाय सर्प का रूप बनाकर वहाँ आया। सभी बच्चे डरकर इधर-उधर भागने लगे किन्तु बालक वर्धमान किंचित् भी भयभीत नहीं हुए। महान वीरता का परिचय देते हुए वह उस सर्प के फण पर माँ की गोदी की भाँति खेलने लगे। तब संगम देव ने अपना असली रूप प्रगट कर दिया और वर्धमान के बल एवं धैर्य की बारम्बार प्रशंसा करते हुए उनका नाम ‘महावीर’ रखा।
One day Tirthankar child Vardhaman was playing in the garden of Nandyavarta Palace with his divine friends. Listening about his bravery & courage a deity named Sangam came there from the heaven to test His qualities in the form of a large ferocious cobra. All the children started running here & there, but Vardhaman was not disturbed at all. Showing great courage, he started playing on the hood of the snake like the lap of mother. Then Sangam dev appeared in his real form and appreciating the strength & patience of Vardhaman again & again, named Him as ‘MAHAVIRA’.
धीरे-धीरे महावीर बड़े होने लगे। उनके लिए सदैव स्वर्ग से ही भोजन, वस्त्र एवं आभूषण आदि आते थे। उन्होंने कभी भी अपने घर का भोजन नहीं किया क्योंकि सभी तीर्थंकरों के लिए यही नियम है कि वे स्वर्ग का दिव्य भोजन ही करते हैं। युवावस्था को प्राप्त करने पर एक दिन महारानी त्रिशला ने उन्हें विवाह करने के लिए समझाया परन्तु युवराज महावीर ने विवाह न करके जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मुक्तिरूपी कन्या का वरण करने का अपना संकल्प माँ को बताया, जिससे माता त्रिशला बहुत दुःखी हुर्इं किन्तु महावीर ने उन्हें समझा-बुझा कर शांत किया और देवों द्वारा लाई पालकी में बैठकर दीक्षा लेने हेतु वन में चले गये।
Vardhaman was growing up gradually. He had always eaten the food of Kalpvrikshas of heaven, so he did not eat the food of his house any time. He also used to wear the clothes & jewellery brought from the heaven. Vardhaman entered the young age from Childhood and passed thirty years. One day queen Trishala asked Him to give consent for the marriage but the Prince Mahavira expressed His keen intention to take Jaineshwari Deeksha to get free from the worldly transmigration at the place of being married with some girl. Mother Trishala became very anxious to listen to this but somehow Mahavira pacified her. Later He went to the forest to take Deeksha being seated in Palki.
३० वर्ष की अवस्था में भगवान ने मगशिर कृष्णा दशमी को कुण्डलपुर के निकट मनोहरवन में सालवृक्ष के नीचे पंचमुष्टि केशलोंच करके जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। देवों ने आकर भगवान का दीक्षाकल्याणक महोत्सव मनाया। दो दिन का योग धारण करके महामुनि महावीर अविचल खड़े हो गये। इन्द्र ने उनके पवित्र केशों को ले जाकर क्षीरसागर में विसर्जित कर दिया और प्रतिदिन अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वे किंकररूप में भगवान की सेवा में सदा तत्पर रहने लगे”
At the age of 30 years Bhagwan took Jaineshwari Deeksha below the Sal tree at Manohar forest near Kundalpur on Magshir Krishna Dashmi with performing Panchmushti Keshlonch (fist-plucking of own hairs in 5 times). Deities came and celebrated the Deekshakalyanak Mahotsava of Bhagwan. Mahamuni Mahavira stood up in meditation for 2 days. Indra took away His hairs & consigned them to the water of Ksheer Sagar. He used to attend Bhagwan like a servant daily taking it as his holy duty.
दीक्षा के दो दिन के पश्चात् भगवान प्रथम पारणा के लिए निकले। कूल ग्राम के राजा कूल (अपरनाम वकुल) के यहाँ उनका प्रथम पड़गाहन हुआ। महामुनि को अत्यन्त प्रफुल्लित भाव से राजा एवं रानी ने खीर का आहार प्रदान किया। देवताओं ने महामुनि महावीर के इस प्रथम आहार पर आकाश से रत्न, पुष्प आदि पंचाश्चर्य की वृष्टि की। पुन: महावीर स्वामी मौनपूर्वक विचरण करते हुए सबको जैन मुनि की चर्या से परिचित कराने लगे। दिगम्बर जैन परम्परानुसार तीर्थंकर भगवान दीक्षा के बाद मौन ही रहते हैं, पुन: केवलज्ञान होने पर ही उनकी दिव्यध्वनि खिरती है। center]]After two days of taking Deeksha, Tirthankar Mahamuni Mahavira went for taking the first Ahar (meals). The king Kool (other name-Vakul) of Kool village had the fortune of giving the first Ahar to Mahamuni Mahavira. He along with his wife gave Kheer (delicious milk food) to Mahamuni with great happiness. Kuber (the deity of wealth) showered five wonderful things like jewels, flowers etc. from the sky at this occasion. According to the Digamber Jain tradition, Tirthankar Bhagwan keep silence after taking Deeksha and His Divya-Dhvani becomes available only after getting Kevalgyan (enlightenment).
दीक्षा के बाद विहार करते हुए एक बार भगवान कौशाम्बी नगरी में पधारे जहाँ महारानी त्रिशला (महावीर की माता) की सबसे छोटी बहन महासती चन्दना को एक सेठानी सुभद्रा ने सिर मुंडवा कर बेड़ियों में जकड़कर रखा था। महामुनि को आया देख चन्दना के मन में उन्हें आहार देने की उत्कट अभिलाषा जागृत हो गई। महावीर के पधारते ही चन्दना की समस्त बेड़ियाँ टूट गर्इं, सिर पर सुन्दर केश आ गये और शरीर सुन्दर वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत हो गया, मिट्टी का सकोरा सोने का पात्र बन गया और कोदों का भात मीठी खीर के रूप में बदल गया। चंदना ने अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक महामुनि को आहार दान दिया, पुन: स्वर्ग से पंचाश्चर्यों की वृष्टि होने लगी। उसके बाद चन्दना का अपने माता-पिता एवं परिवार के साथ मिलन हुआ।
Once Bhagwan came to Kaushambi, where Mahasati Chandna, the younger sister of queen Trishala (the mother of Mahavira) was prisoned by Sethani Subhadra. Seeing Mahamuni Mahavira, Chandna developed the keen desire to give Ahar to Him. As soon as Mahavira came to her, all her shackles were broken, beautiful hairs developed on her tonsured head, attractive garments & jewellery beautified her body, her earthen pot was converted into the golden bowl and the low quality rice (Kodo) became delicious milk food (Kheer) by the impact of her dedication for Mahavira. Chandna gave Ahar to Mahamuni with full devotion and again the deities showered jewels, flowers etc. from the heaven.
एक बार महामुनि महावीर उज्जयिनी नगरी के श्मशान घाट (अतिमुक्तक वन) में ध्यान लीन थे। तभी एक रुद्र वहाँ आया और उन पर भयंकर उपसर्ग करने लगा परन्तु धीर-वीर महामुनि अपने ध्यान से किंचित् भी विचलित नहीं हुए। उनके इस साहस और धैर्य को देखकर रुद्र अत्यन्त प्रभावित हुआ और अनेक प्रकार से उनकी पूजा करके उन्हें ‘महति महावीर’ नाम प्रदान किया। व्यवहार में महावीर का यह नाम ‘अतिवीर’ के नाम से प्रचलित है। इस प्रकार भगवान महावीर के वीर, वर्धमान, सन्मति, महावीर और अतिवीर ये पाँच नाम प्रसिद्ध हुए हैं। Once Mahamuni Mahavira was meditating in the cremation ground (Atimuktak forest) of Ujjaini Nagari. A Rudra came there and started teasing Him in various ways but courageous Mahavira was not perturbed at all in His meditation. The Rudra was very much impressed by the courage and patience of Mahavira and after worshipping Him, he gave Him the name MAHATI MAHAVIRA. Usually, Mahavira is known by the name of Ativira also. Thus the five famous names of Lord Mahavira are-Veer, Vardhaman, Sanmati, Mahavira & Ativira.
महावीर को तपस्या करते हुए लगभग १२ वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन वह बिहार प्रान्त में (कुण्डलपुर के पास) जम्भिृका गाँव के निकट ऋजुकूला नदी के तट पर गहरे ध्यान में लीन थे। ध्यान की परमविशुद्धि से उन्होंने चारों घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। यह वैशाख शुक्ला दशमी का दिन था जब महावीर अरिहंत परमेष्ठी बन गये। इन्द्र ने तत्क्षण ही कुबेर को समवसरण बनाने की आज्ञा दी। भगवान की दिव्य प्रवचन सभा ‘समवसरण’ कहलाती है, जिसकी १२ सभाओं में बैठकर मनुष्य, देवता, पशु-पक्षी आदि सभी भगवान की ॐकारमयी दिव्यध्वनि का पान करते हैं। यह समवसरण पृथ्वी से २०,००० (बीस हजार) हाथ ऊपर अधर आकाश में रहता है।
About 12 years had passed since Mahavira took Deeksha. One day He was immersed in deep meditation at the bank of Rijukula river at the village named Jambhrika (near Kundalpur). His concentration became so pious and acute that He destroyed His four Ghati Karmas and attained Enlightenment i-e. Kevalgyan. It was the day of Vaishakh Shukla Dashmi. Mahavira became ARIHANT PERMESHTHI. Indra ordered Kuber to form Samavsaran, the divine assembly of Tirthankar Bhagwan. Innumerable beings-Human, Deities, Animals-birds sit in 12 Sabhas (divisions) of Samavsaran and listen to the Omkarmayi Divya-Dhvani (Sermons or Preachings in divine voice) of Bhagwan. Samavsaran remains in the midsky at the height of 20,000 hands above the earth.
भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुए ६६ दिन बीत गये परन्तु उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी। सौधर्मइन्द्र ने विचार किया कि गणधर का अभाव ही इसका कारण है। इन्द्र ब्राह्मण का वेश धरकर ब्राह्मण गाँव के इन्द्रभूति गौतम नामक प्रकाण्ड ज्ञानी ब्राह्मण के पास उनके आश्रम में आया एवं युक्तिपूर्वक उनसे कुछ प्रश्न पूछा, गौतम उन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाये, अत: बोले कि मैं तुमसे इस विषय में बात न करके तुम्हारे गुरु महावीर के पास चलकर ही वाद-विवाद करूँगा। इस प्रकार इन्द्र उन्हें भगवान महावीर के समवसरण में ले आये। center]]Days were passing since Tirthankar Mahavira attained Kevalgyan but to the surprise of all, His Divya-Dhvani remained unavailable. After thinking a lot, Saudharma Indra came to the conclusion that the reason was the lack of Gandhar. He went to the Ashram of a great Brahman scholar named Indrabhuti Gautam of Brahman village and trickfully asked him some question. Gautam could not reply, so he said that I will not give reply to you but will argue with your Guru only, thus Indra persuaded him trickfully to come to Lord Mahavira once.
जैसे ही इन्द्रभूति ब्राह्मण अपने ५०० शिष्यों के साथ राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर स्थित भगवान के समवसरण में पहुँचा, उसका सारा मान भंग हो गया और वह तुरंत जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर महावीर के प्रथम गणधर बन गये। उसी समय केवलज्ञान होने के ६६ दिन बाद श्रावण कृष्णा एकम के दिन भगवान महावीर की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी और तब से ही यह दिवस ‘वीरशासन जयंती दिवस’ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। भगवान की दिव्यध्वनि ७१८ भाषाओं में खिरती थी जिससे प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भाषा में भगवान की देशना ग्रहण कर लेते थे। इन्द्रभूति गौतम गणधर ने भगवान की दिव्यध्वनि को द्वादशांगरूप में निबद्ध किया। ]As soon as Indrabhuti along with his 500 disciples reached the Samavsaran at Vipulachal Mountain of Rajgrahi, all his proud was shed away and he took Jaineshwari Deeksha & became the first Gandhar of Lord Mahavira. At once the FIRST DESHNA (Sermon) of Bhagwan became available through Divya-Dhvani on Shravan Krishna Ekam (the first day of Shravan month)after 66 days of His Enlightement. Since then this day is celebrated as Veer Shasan Jayanti Diwas (day). The sermons of Bhagwan were in 718 languages, so that each creature could understand them in its own language. Gautam Gandhar prepared scriptures in the form of 12 Angas (Parts) compiling the Divya-Dhvani of Bhagwan.
राजगृही नगरी की घटना है कि एक बार एक मेंढक अपने मुख में कमल की पांखुड़ी दबाए अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक समवसरण में विराजमान भगवान महावीर के दर्शन करने के लिए विपुलाचल पर्वत की ओर जा रहा था। मार्ग में वह राजा श्रेणिक के हाथी के पाँव के नीचे दबकर मर गया। भगवान की भक्ति के प्रभाव से वह तत्क्षण ही स्वर्ग में जाकर देव हो गया। राजा श्रेणिक के पहुँचने से पूर्व ही समवसरण में पहुँचकर मुकुट में मेंढक के चिन्ह से युक्त वह देव भक्ति में अत्यन्त तन्मय होकर नृत्य करने लगा। उसे ऐसी भक्ति करते देखकर राजा श्रेणिक ने भगवान महावीर से उसके बारे में पूछा, तब गौतम गणधर ने बताया कि राजन्! एक मेंढक अभी-अभी आपके हाथी के पग तले दबकर मरा है और भक्ति के प्रभाव से देवता बनकर यह यहाँ आया है। जिनभक्ति की इस महिमा को जानकर सभी लोग अत्यन्त प्रभावित हुए।
Once a frog was going to the Samavsaran of Mahavira with a lot of devotion to Him. It had picked up a petal of a lotus in its mouth. In the way, it was crushed to death under the foot of the elephant of the king Shrenik. At once it became a Dev(deity) in the heaven due to the effect of devotional spirits. The deity with the mark of frog in its crown started dancing with joy after reacthing the Samavsaran even before Shrenik could reach there. Knowing this greatness of JIN-BHAKTI, all were very much impressed. Since then, this story of “frog turned deity” became immortal.
एक दिन महासती चन्दना अपने माता-पिता के साथ राजगृही नगरी में भगवान महावीर के समवसरण में आर्इं और उत्कट वैराग्यभावना से उन्होंने प्रथम आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। अनन्तर उन्होंने गणिनीपद को प्राप्त किया और भगवान महावीर के समवसरण की छत्तीस हजार आर्यिकाओं में प्रमुख हो गर्इं। भगवान महावीर के समवसरण में श्री इन्द्रभूति आदि ११ गणधर, १४,००० मुनिराज, चंदना आदि ३६,००० आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। भगवान के शासनयक्ष मातंगदेव एवं शासनयक्षी सिद्धायिनी देवी हैं।
Mahasati Chandna came to the Samavsaran of Bhagwan at Rajgrahi with her parents and with the feeling of deep renunciation, she took first Aryika Deeksha , the highest rank in the female life. Later she became Ganini, the head of the group of 36,000 Aryikas of the Samavsaran of Bhagwan Mahavira. In the Samavsaran of Bhagwan, there were Indrabhuti etc. 11 Gandhars, 14,000 Munis, Chandna etc. 36,000 Aryikas, 1 lac Shravaks and 3 lacs Shravikas. The ruling demigod is Matang Dev and ruling female demigod is Siddhayani Devi.
मगध के सम्राट् राजा श्रेणिक पूर्व में बौद्ध धर्म के अनुयायी थे परन्तु अपनी पत्नी चेलना (महावीर की गृहस्थावस्था की मौसी) के बार-बार समझाने पर वह जैनधर्म की ओर आकृष्ट हुए और धीरे-धीरे जैनधर्म के शाश्वत एवं सर्वोदयी सिद्धान्तों को जानकर भगवान महावीर के कट्टर अनुयायी बन गये। वह भगवान के समवसरण में जाकर उनके प्रति अपार भक्ति किया करते थे। समवसरण के मुख्य श्रोता के रूप में श्रेणिक ने भगवान से साठ हजार प्रश्न किए। इन प्रश्नों के उत्तर में खिरी भगवान की दिव्यध्वनि के आधार पर ही आज का उपलब्ध श्रुतज्ञान निबद्ध हुआ है।
King Shrenik, the emperor of Magadh, was a follower of Buddhism previously but on the persistent advice of his wife Chelna, the mausi (aunt) of Bhagwan Mahavira, he got attracted towards Jain Dharma. Gradually he became a strict follower of Lord Mahavira knowing the eternal & universal principles of Jainism. He used to go to the Samavsaran of Bhagwan and got immersed into deep devotion for Him. Shrenik asked 60,000 questions from Bhagwan Mahavira being the Chief “Shrota” (listener) in His Samavsaran. The scriptural knowledge of today is based on the replies given by Bhagwan in response to the questions of Shrenik.
जिनेन्द्र भक्ति का महात्म्य राजा श्रेणिक के जीवन से भली प्रकार समझा जा सकता है। पूर्व में जैनधर्म और जैन साधुओं के प्रति विद्वेषभाव रखकर एक बार श्रेणिक ने एक मरा हुआ सर्प ध्यान करते हुए महामुनिराज के गले में डाल दिया और उसी समय इस दुष्कृत्य के प्रभाव से ३३ सागर की सातवें नरक की आयु का बंध कर लिया परन्तु बाद में मुनिराज की क्षमाशीलता को देखकर उन्हें अत्यन्त पश्चाताप हुआ। भगवान महावीर के समवसरण में दिगम्बर साधुओं और सच्चे मोक्षमार्ग की महानता को जानकर उन्होंने स्वयं को भगवान के चरण कमलों में समर्पित कर दिया, इस भक्ति के प्रभाव से उनकी सातवें नरक की ३३सागर की आयु घटकर प्रथम नरक की (मध्यम आयु) ८४ हजार वर्ष की रह गई। इतना ही नहीं सोलहकारण भावनाओं को भाकर उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया और आने वाली भविष्यत काल की चौबीसी में वह ‘महापद्म’ नाम के प्रथम तीर्थंकर होंगे।
The great effect of JINBHAKTI (Devotion to Jinendra Bhagwan) can be understood well by the life of Shrenik. Previously with malicious feelings towards Jain Dharma & Jain Sadhus (munis), once Shrenik dropped a dead snake around the neck of a meditating Jain Mahamuni and at the same moment he became destined to go the seventh hell for 33 Sagars (infinitely large time unit), although later Shrenik developed the feeling of repentance seeing the forgiving nature of Mahamuni. Gradually Shrenik understood the greatness of Digamber Sadhus and the real path of Salvation (Moksha) in the Samavsaran of Bhagwan Mahavira. He humbly dedicated himself in the lotus feet of the Lord and due to his pure inner devotion to Him, he reduced his Narakayu (lifetime at hell) of 33 Sagars of the 7th hell to 84,000 years of the 1st hell. Not only this, he bounded Tirthankar Prakriti by following Solahkaran Bhavnas in the feet of Mahavira and now he will become the first Tirthankar named Mahapadma in the coming Chaubeesi (tradition of 24 Tirthankars) of the next age (Yug) after completing the lifetime of 84,000 years of the 1st hell.
भगवान महावीर ने ३० वर्षों तक सम्पूर्ण आर्यखण्ड में असंख्य जीवों को धर्म का उपदेश प्रदान किया। ७२ वर्ष की आयु में वह एक बार (अन्त समय में) पावापुरी पधारे और वहाँ स्थित कमल सरोवर के मध्य में विशाल रत्नमयी शिला पर खड्गासन मुद्रा में विराजमान हो गये। अब तक समवसरण विघटित हो चुका था। विशुद्ध ध्यान की अवस्था में उन्होंने शेष चार अघातिया कर्मों का भी नाश कर दिया और कार्तिक कृष्णा अमावस्या की प्रातःकाल वह सिद्धपरमेष्ठी बन पावापुरी सरोवर के ठीक ऊपर सिद्धशिला पर जाकर विराजमान हो गये। संसार परिभ्रमण का नाश कर वह सिद्धभगवान अब अनन्तकाल तक मोक्ष में विराजमान रहेंगे।
Lord Mahavira preached for 30 years all over the Aryakhand in the form of Arihant Permeshthi. His age had become about 72 years. Once He came to Pawapuri and got seated on a great gem-rock in the middle of the Pond, with abundant lotus flowers. The Samavsaran had been diminished till then. Bhagwan was immersed into deep meditation and He destroyed His remaining 4 Aghati Karmas to become Siddha Parmatma on the dawn of Kartik Krishna Amavasya. As all the eight Karmas had been destroyed, the soul became completely pure and at once proceeded up to the Siddhashila just above the Pawapuri pond. Now the Siddha soul of Lord Mahavira will remain consecrated at Moksha (Siddhashila) for infinite times to come being liberated from the worldly transmigration (cycle of death & birth).