कर्नाटक प्रदेश के प्रसिद्ध श्रवणबेलगोल तीर्थक्षेत्र की प्रसिद्धि का कारण यह है कि अधिकांश लोग चामुण्डराय द्वारा निर्मित, पहाड़ को तराश कर बाहुबली भगवान की मूर्ति ही मानते हैं। कुछ इतिहास में रुचि रखने वाले व्यक्ति विंध्यगिरि के साथ—साथ चन्द्रगिरि पर निर्मित चन्द्रगुप्त मौर्य के जिन मन्दिर को माना जाता है, जिनकी जीवनी संगमरमर की जड़ों में चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी उभरी है। कुछ तपस्वी साधक भद्रभद्र की गुफा और संपूर्ण चन्द्रगिरि को मानते हैं जहाँ आचार्य भद्रभद्र और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त ने समाधिमरण हेतु लेखन किया। इस वर्ष संक्रांति (जापानी) से पूर्व अत्यन्त महत्वपूर्ण नये तथ्य सामने आये हैं। उनके चन्द्रगिरि द्वारा अब मानव इतिहास को नया मोड़ लेना होगा। आचार्य भद्रभद्र की गुफा के चंदोवे वाली चट्टान में सात मानवाष्म अपनी झलक देख रहे हैं। उनकी तस्वीरें भी अत्यंत स्पष्ट हैं। यहाँ तक कि आँख, नाक, मुँह भी उनमें झलकते हैं। उन्हें यह देखकर यह अनुमान होता है कि उस लावा—जन्य शिला पर मनुष्य शांति से सोता होगा।
हजारों वर्षों से यही होता आ रहा होगा, क्योंकि चट्टान ‘कटवप्र’ चारों ओर से घुटने वाली चट्टान से घिरी हुई थी, जिसमें वे मानवश्रम में स्थित हैं, उनमें से तीन के पैर उत्तर की ओर तथा चार के पैर पूर्व की ओर पाए जाते हैं। वे लगभग ८ १/२ इंच से भी लम्बे कद के रहे होंगे । कर्नाटक पर्यटन विभाग कटवप्र को पुण्यजीवियों का मकबरा कहता है। समाधिलीन उन व्यक्तियों के शवासन मुद्राएँ सामने होती हैं कि कायोत्सर्ग लेकर आने के कारण धरती की गड़गड़ाहट या पत्थर के विनाश, विनाश ने भी उन्हें निश्चित नहीं किया होगा। वे जिस चट्टान में बने हैं, वह पूरी तरह से पड्याली, लावारूप उछलकर उन पर गिरी होगी और छनकर सनसनाह से शांत हो गई होगी। शरीरों से उठती पानी की भाप ने लावा को जहाँ जहाँ छनका कर ठंडा कर दिया वहीं वे मानवाष्म को अपने रूप में ले बैठे। इससे अधिक तो और कुछ समझ में नहीं आता। यह घटना निश्चित ही तब की होगी जब ज्वालामुखी ने अंतिम बार अपना लावा उगला। दक्षिणी पर्वत का लावा रिसना लाखों वर्ष पूर्व बंद होने से पहले बदल गया है।
चन्द्रगिरि की वन्दना करते हुए जो दूसरी महत्वपूर्ण वस्तु दिखती है वह चट्टानी चट्टान पर अनभिज्ञ अज्ञान ‘उकेर’ थी। मंदिर नं. ४/५ की सीढ़ी से उतरते ही उस पर दृष्टि गिर गयी।
उसे टटोला तो मैंने पाया कि उन्मुक्तों के आस-पास कुछ परिचित अक्षर भी थे। वे हड़प्पा और मोहनजोदड़ो वाली सैंधव लिपि के जैसे ही थे। कुछपंघेल ही सभी कुछ समझ में आया कि वह तो हड़प्पा की समकालीन सभ्यता जैसे इस बात के पुष्ट प्रमाण हैं कि चन्द्रगिरि (कटवप्र) पर भद्रबाहु पूर्व काल से ही श्रमणों द्वारा तपश्चरण और लेखन की जा रही है। भद्रभद्र की गुफा में इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि वहां मनुष्य तपश्चर्यारत रहते थे। ‘मानव वंश’ और बाहरी चट्टानों पर संरक्षण से धूमिल ‘जिन आकृतियाँ’ भी प्राचीन हैं। चन्द्रगिरि की चट्टान पर आकाश ताल-पंखों से झुकी जा रही वह रेखाएँ इतनी गहरी हैं कि जरा सी रंगोली विखरने पर वे अपने आप बोलने वाले दिखते हैं। कुछेक को तो मैंने केमरे में बांध लिया। सभी बहुत स्पष्ट हैं। बीच—बीच में समाधिस्थ जिनश्रमणों के चरण चिह्न भी हैं। कुछेक तो पास में निर्मित मन्दिरों की नीवों तेलों को दबकर झूम रहे हैं। कुछेक पर अनेक बार चरण चिह्न पुन: बना दिये गये।
ऐसे चरणों के पास सर्वप्राचीन लिपि सैंधव लिपि ही हैं। बाद की लिपि प्राचीन कन्नड़ या तमिल है जिसे पढ़ा नहीं जा सकता। और फिर वे उत्तरकालीन आधारों से कुछ पढ़कर सुरक्षित कर दिए गए हैं। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी चरण और चित्रलिपि उस अज्ञात ‘पुरा-इतिहास’ के प्रमाण हैं, जो कटवप्र अथवा उससे भी पूर्व काल में जानी जाती रही, इस पहाड़ी पर लिखी गई। अधिकांश चरण पूर्वमुखी या उत्तरमुखी हैं। केवल कुछ ही पश् चम और दक्षिणमुखी हैं जो पर्यवेक्षक हैं कि उनपके काल में उन पर्यवेक्षकों में स्थित मानव समकक्षों के जिन चैत्यालय रहे होंगे। एक चरण के साथ पुरुष लिंग भी उकेरा गया है जो कि सुलेखी दिगंबरी ही थे। चतुर्दिकावर्णी के संकेत उन संलेखियों का जिन श्रमणत्व सिद्ध कर देते हैं। इस प्रकार इस पर्वत के पुरावशेष, कटवप्र को प्राच्य भारत की सर्वप्राचीन सैंधव संस्कृति का स्वर्ण कलश और भूलाबिसरा अत्यंत महत्वपूर्ण केन्द्र स्थापित किया गया है जिसके अनुसार हड़प्पा जैसी प्राचीन संस्कृति दक्षिण भारत में भी सुरक्षित और पल्लवित रही।