सिद्धिप्रदाः षोडश भावना याः। तीर्थंकरैः प्राक् खलु भावितास्ताः।।
प्रवर्तयंते भुवि धर्मतीर्थं। तास्तांश्च नित्यं प्रणुमः स्वसिद्ध्यै।।१।।
सद्दृग्विशुद्धिः शिवसौख्यदात्री। प्रसूरिवानन्तगुणान् प्रसूते।।
पंचोत्तरा विंशतिदोषशून्या। गुणाष्टमुख्या तां नंनमीमि।।२।।
दृग्ज्ञानवृत्तेषु तथोपचारे। विनेयवृत्तिर्विनयानुरक्ता।।
आनम्रलोकापि च मोक्षद्वारा। संपन्नतां तां विनयैर्नमामि।।३।।
सिद्धि प्रदाता सोलह कारण, भावनाएं मुनि गाते।
तीर्थंकर भगवान् इन्हें ही पहले भव में भाते।।
पुनः जगत् में धर्मतीर्थ का, सफल प्रवर्तन करते।
भावनाओं को तीर्थकरों को, सिद्धिहेतु हम नमते।।१।।
दर्शविशुद्धी शिवसुख देती, प्रथम भावना जग में।
माता सम अनंतगुण गण को, पैदा करती सच में।।
पच्चिस दोष रहित यह सम्यग्दर्शन शुद्ध कहा है।
संवेगादि आठ गुणयुत को, मैंने नमन किया है।।२।।
दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, उपचार विनय चारों है।
इनमें इनके धारी में, अनुराग विनययुत जो हैं।।
सभी जगत् को नम्र बनावे, शिव का द्वार कहावे।
द्वितीय विनय संपन्न भावना इसे सदा शिर नावें।।३।।
शीलव्रतेषूचितधीरजस्रं । श्रुतानुसारैरतिचारशून्या।।
संपूर्णशीलव्रतपूर्णकर्त्री। वंदे तृतीयां शुभभावनां ताम् ।।४।।
चतु: प्रकारांश्च जिनोक्तवेदान् । योऽध्यापयेच्चापि स्वयं त्वधीते।।
ज्ञानोपयोगं विदधात्यभीक्ष्णम् । तं भावनां चापि नमामि नित्यम्।।५।।
वैराग्यभावो भवदेहभोगे। धर्मेषु प्रीतिः परमा प्रशस्ता।।
स्वात्मोत्थपीयूषरसैकतृप्तिः। संवेगतां तां हृदि भावयामि।।६।।
रत्नत्रयं भव्यजनाय दद्यात् । महामुनिः प्रासुकदानदक्षः।।
दानं चतुर्धापि हिताय लोके। तं शक्तितस्त्यागमहं महामि।।७।।
अंतर्बहिर्द्वादशभेदयुक्तं। तपश्च कुर्वन् मुनिरात्मशक्त्या।।
ध्यानैकसिद्ध्यै चरतीह सर्वं। तपांसि सर्वाण्यपि भावयामि।।८।।
शील व्रतों में उचित प्रवृत्ति, सदा शास्त्र अनुसारे।
अतिचारों से रहित धरें जो, तृतीय भावना धारें।
।श्रेष्ठ भावना शील व्रतों में, अनतिचार को वंदूँ।
सकल शील व्रत पूर्ण करे ये, इसको धर भव खंडूँ।।४।।
जिनवर कथित वेद हैं, चारों ये अनुयोग कहाते।
स्वयं पढ़ें जो चतुःसंघ को, रुचि से नित्य प़ढ़ाते।।
वे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग को, धरते उन्हें नमूं मैं।
सदा भावना को भी प्रणमूं, परमानंद भजूं मैं।।५।।
जो संसार देह भोगों से, विरति भाव को धारें।
श्रेष्ठ धर्म में परम प्रीति धर, वर संवेग विचारें।
स्वात्मा से उत्पन्न परम, अमृत से तृप्त हुए हैं।
उस संवेग भावना को नित, भावूं धरूं हिये में।।६।।
रत्नत्रयनिधि भव्यजनों को, देते साधु नाते।
प्रासुक दान यही है उत्तम, महामुनि कर पाते।।
दान चतुर्विध भी इस जग में, सबका है हितकारी।
यथाशक्ति यह त्याग भावना, नमूं इसे सुखकारी।।७।।
अंतरंग छह बाहर के छह, बारह तप माने हैं।
मुनिवर निजशक्ती सम इनको, करते अघ हाने हैं।
ध्यानसिद्धि के लिए सभी ये, तपश्चरण मुनि करते।
मैं भी नितप्रति सभी तपों को, भावूं अतिशय रुचि से।।८।।
साधोः समाधिर्महतां पुनाति। धर्म्ये च शुक्लेऽविचलं करोति।।
पीड़ा: समस्ताश्च मुनेर्धिनोति। एनां सदा भावय भव्य! चित्ते।।९।।
निर्दोषरीत्यैव रुजादिहर्त्री। सेवा गुरूणां गुणपुंजदात्री।।
या भावना सर्वतपस्सु प्राणं। तां नौमि नित्यं नवमीं गुणाप्त्यै।।१०।।
अर्हत्सु भक्तिर्भुवि कामधेनुः। एकाकिनी सर्वसुखानि दत्ते।।
दौर्गत्यदुःखानि क्षणात् लुनीते। नमाम्यहं तामनुरागभावैः।।११।।
आचार्यभक्त्या बहुमंत्रविद्याः। सिद्ध्यंति भक्तस्य श्रुतौ प्रणीतं।।
मुक्तेश्च दातारमहं प्रवंदे। गुणानुरागादपि भावनां तां।।१२।।
शास्त्राब्ध्युपाध्यायगुरुं प्रणौमि। यस्य प्रसादात् श्रुतवार्धिपारं।।
गच्छन्ति शीघ्रं निजसौख्यपूरं। ज्ञानामृतं चापि पिबंति भव्याः।।१३।।
प्रकृष्टवाचामनुरागभक्त्या। चित्ते स्मरन्तः सततं स्तुवंति।।
चतुर्विधं संघमपीह प्रीत्या। नमंति ते स्वात्मनिधिं लभंते।।१४।।
आवश्यकान् षट् प्रतिपालयन्तः। हानिं कदाचित् नहि कुर्वते ये।।
त एव वश्यां विदधत्यपूर्वां। लक्ष्मीं स्तुवेऽहं किल भावनां तां।।१५।।
ज्ञानेन पूजाविधिना तपोभिः। मार्गप्रभावी जिनशासने यः।।
रत्नत्रयेणापि स्वयं च स्वस्मिन्। प्रभावयेत् नौमि प्रभावनां तां।।१६।।
प्रकृष्टवाचीह सुवत्सलत्वं। संघे श्रुतौ चापि विशिष्टमोदः।।
माता गुणानां च शिवस्य सास्ति। नमोऽस्तु तस्यै जिनसंपदाप्त्यै।।१७।।
अनुष्टुप् -जगत्सत्त्वान् समुद्धर्तुं, तीर्थकृत्पुण्यहेतुकाः।
भावनाः षोडशाप्यल्प-ज्ञानमत्यां विभांतु मे।।१८।
साधु समाधि महापुरुष के, मन को पावन करती।
धर्मध्यान अरु शुक्लध्यान में निश्चल मन को धरती।।
मुनियों के संपूर्ण कष्ट को, दूर करें जो रुचि से।
|ऐसी साधुसमाधि भावना, भव्य धरो नित चित में।।९।।
प्रासुक औषधि से सेवा से, गुरु की वैयावृत्ति।
गुरुओं के रोगादि दूर कर, गुण के पुंज धरें भी।।
सर्व तपों का प्राण कही यह, वैयावृत्ति भावना।
जिनगुण प्राप्ती हेतु नमूं मैं, उत्तम यही भावना।।१०।।
अर्हंतों की भक्ति भुवन में, कामधेनु कहलाती।
यही अकेली सर्वसुखों को, देती मोक्ष दिलाती।।
दुर्गति के संपूर्ण दुःखों को, क्षण में दूर भगाती।
नित्य नमूं अनुरागभाव से, हो निजसुख की प्राप्ती।।११।।
गुरूवर्य आचार्यभक्ति से, बहुत मंत्र विद्यायें।
सिद्धी होती भक्तगणों को, ऐसा शास्त्र बतायें।।
दीक्षादाता मुक्ति प्रदाता, उनके गुण का रागी।
उन्हें नमूं आचार्यभक्ति भी, वंदू गुरु अनुरागी।।१२।।
श्रुतसमुद्र गुरु उपाध्याय को, सदा नमूं भक्ती से।
श्रुतसमुद्र पारंगत होऊँ, उन प्रसाद को पाके।।
बहुश्रुत भक्ती से निजसौख्यपूर पा जाते भविजन।
वे ही ज्ञानामृत को भी नित पीते रहते मुदमन।।१३।।
जिनवर के प्रकृष्ट वचनों में अनुराग भक्ती से।
मन में नित स्मरण करें, स्तुती करें भी रुचि से।।
चउविध संघ को नमन करें भी, जो मन में धर प्रीती।
स्वात्मनिधी को पाते वे ही, वंदूं प्रवचन भक्ती।।१४।।
छह आवश्यक को नित पालें, कभी न करते हानी।
अपूर्व लक्ष्मी को वश करते, वे ही मुनिवर ज्ञानी।।
यह आवश्यक अपरिहाणि है, श्रेष्ठ भावना मानी।
मैं इसकी संस्तुति करूं नित पाऊँ निज रजधानी।।१५।।
श्रेष्ठ ज्ञान पूजा विधान से, घोर तपश्चर्या से।
जो जिनशासन में रत शिवपथ की प्रभावना करते।।
रत्नत्रय गुणतेज स्वयं धर, निज की करें प्रभावन।
मार्ग प्रभावन नमूं भावना, करूं स्वगुण उद्भावन।।१६।।
जिनवर वचनों में वत्सलता, प्रवचन वत्सलता है।
संघ में आगम में भी अतिशय, प्रीति हर्षपरता है।।
सब गुण को पैदा करने में, जननी शिव की दात्री।
जिनगुण संपत्ती हेतू मैं, नमूं यही सुखकर्त्री।।१७।।
त्रिभुवन के सब जीवों का, उद्धार करन में हेतू।
तीर्थंकर का अतिशय पुण्य उपार्जन में यह हेतू।।
ये सोलह कारण सुभावना, अल्प ‘‘ज्ञानमति’’ मुझमें।
नित्य रहें देदीप्यमान ये, नमूं इन्हेें नितप्रति मैं।।१८।।
इच्छामि भंते! सोलहकारणभत्तिकाओसग्गो कओ तस्सालोचेउं, तित्थयर-पयडिणामकम्मबंधकारणभूदाणं
दंसणविसुद्धिविणय-संपण्णदा-सीलव्वद-णिरदिचारदा-अभिक्खण-णाणोवजोगसंवेग-जधाथाम-चाग-तव-साहुसमाहि-वेज्जावच्चकरण-अरंहतभत्ति-आइरियभत्ति-बहुसुदभत्ति-पवयण-भत्ति-आवासय-अपरिहीणदा-मग्गप्पभावण-पवयणवच्छलदाणं इमाणं सोलसकारण-भावणाणं णिच्चकालं
अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
हे भगवन् ! इच्छा करता मैं, सोलह कारण भावन।
भक्ती कायोत्सर्ग किया अब करता हूँ आलोचन।।
तीर्थंंकर शुभ नामकर्म की प्रकृति बंध में कारण।
दरश विशुद्धी विनययुक्तता शीलव्रता-नतिचारण।।१।।
सतत ज्ञानउपयोग तथा संवेग शक्तितस्त्यागो।
यथाशक्ति तप साधु समाधी वैय्यावृत में लागो।।
अर्हद् भक्ति सूरिभक्ती बहुश्रुत और प्रवचन भक्ती।
आवश्यक में हानि नहीं शिवपथ प्रभावना युक्ती।।२।।
प्रवचनवत्सलता ये सोलह कारण भावन सुन्दर।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूं वंदूं नमूं शिवंकर।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय बोधिलाभ भी होवे।
सुगतिगमन मम समाधिमरणं, जिनगुणसंपति होवे।।३।।