१. सामायिक | २. चतुर्विंशति स्तवन |
३. वन्दना | ४. प्रतिक्रमण |
५. वैनयिक | ६. कृतिकर्म |
७. दश वैकालिक | ८. उत्तराध्ययन |
९. कल्पव्यवहार | १०. कल्पाकल्प |
११. महाकल्प | १२. पुण्डरीक |
१३. महापुण्डरीक | १४. निषिद्धिका |
१. सामायिक—
६. कृतिकर्म— इसमें अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनवाणी जिनचैत्य—जिन—चैत्यालय, जिनधर्म—इस तरह नवदेवता आदि की वंदना की विधि बतलाई है। इसका वर्णन गोम्मटसार जीवकांड प्र. टी. ३६७ पर इस प्रकार लिया है—
कृत्ते:क्रियाया: कर्म विधान अस्मिन वण्यंते इतिकृतिकर्म: तच्च अर्हंत् सिद्धाचार्य बहुश्रुत साध्वादि नव देवता वंदना निमित्तमात्माधीनता प्रादक्षिण्य त्रिवार त्रिनति चतु:शिरो द्वादशावर्ता—दिलक्षण नित्य नैमित्तिक क्रिया विधानं च वर्णयति।
१०. कल्पाकल्प— द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार मुनि गणों के योग्य और अयोग्य क्रियाओं का इसमें वर्णन है।
१४. निषिद्धिक— प्रमाद जन्य दोषों के निराकरण को निषिद्धि कहते हैं। इस तरह दोषों की शुद्धि के कारणभूत प्रायश्चित के प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को निषिद्धिका कहते हैं। इस तरह द्वादशांग में जो चौदह प्रकीर्णक अंगबाह्य कहलाते हैं, उनके भेद तथा उनके वर्णन का विषय बतलाया गया है। अंग प्रविष्ट के बारह अर्थाधिकार हैं, उनका विवरण—
१. आचारांग | २. सूत्र कृतांग |
३. स्थानांग | ४. समवायांग |
५. व्याख्या प्रज्ञप्ति | ६. नाथधर्मकथांग |
७. उपासकाध्ययनांग | ८. अन्त:कृत दशांग |
९. अनुत्तरोपपादिकदशांग | १०. प्रश्न व्याकरणांग |
११. विपाक सूत्रांग | १२. दृष्टिवाद |
४. समवायांग— इसकी निरूपित आगम में इस प्रकार है— ‘‘द्रव्यक्षेत्र काल भावनाश्रित्य जीवादि पदार्थ: संग्रहेन सादृश्य सामान्येन अवेंयते सांयते यस्मिन् तत्समवायं’’, ‘‘इस अंग में द्रव्य क्षेत्र काल और भाव का आश्रय लेकर सादृश्य सामान्य से जीवादि समवायों का ज्ञान कराता है।’’ इन चारों समवायों के दृष्टाँत इस प्रकार हैं— द्रव्य समवाय की अपेक्षा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान है।
अर्थात् ये असंख्यात प्रदेशी हैं। क्षेत्र समवाय की अपेक्षा प्रथम नरक का प्रथम पटल का सीमांतक नामक इन्द्र कपिल, मध्यलोक के ढाई द्वीप, प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजु विमान और सिद्ध क्षेत्र एवं सिद्ध शिला इन सभी का क्षेत्र समान है अर्थात् ४५ लाख योजन विस्तार है। काल की अपेक्षा एक समय के बराबर है। भाव की अपेक्षा केवल ज्ञान समान है।
७. उपासकाध्ययनांक— दर्शन, व्रत, सामायिक आदि श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का एवं श्रावक के लक्षण व्रतादि पालन की विधि एवं अन्यान्य श्रावकाचार सम्बन्धी बातों का इसमें समावेश रहता है।
१०. प्रश्न व्याकरणांग— जिसमें आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदिनी, निर्वोदिनीइन चार प्रकार की कथाओं का तथा मूल भविष्यत् वर्तमान काल सम्बन्धी धन—धान्य, लाभ—अलाभ, जीवन—मरण, जय—पराजय आदि सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर बतलाने की विधि का वर्णन हो, उसे प्रश्न व्याकरणांग कहते हैं। आक्षेपिणी कथा में नाना प्रकार के मिथ्या मान्यताओं वाले परमत वादियों की एकान्त दृष्टियों का निराकरण करके, उनकी मान्यताओं को सदोष सिद्ध करके निर्दोष स्वसमय की मान्यताओं की प्ररूपणा होती है।