अथ पंचमः परिच्छेदः अथातो ध्वजारोहणविधानम् ।।
(अब ध्वजारोहण विधि कहते हैं – )
अनुष्टुपछंदः-
अथांकुराच्चतुर्थेन्हि, ध्वजारोहणसिद्धये ।
विदध्याद्विधिवच्छक्रो, बृहच्छान्तिकसंविधिम् ।। 1 ।।
ध्वजप्रतिष्ठां निष्ठाप्य, भूत्या पुरि विहार्य च ।
ध्वजमारोपयेद्दंडे, सुलग्ने विधिवत्सुधीः ।। 2।।
बृहच्छांतिविधेः सर्वं, लक्षणं ध्वजदंडयोः ।
तत्प्रतिष्ठाक्रमश्चूर्णौ, प्रयोगे वर्णयिष्यते ।। 3 ।।
प्रायशोऽत्र मया तत्तल्लक्षणं विध्यनुक्रमः ।
प्रयोगे वर्णयिष्येते, काले तत्स्मृतये स्फुटम् ।। 4।।
(अब अंकुरारोपण विधि करने के बाद चैथे दिन ध्वजारोहण विधि करने के लिए इन्द्र-प्रतिष्ठाचार्य विधिवत् बृहत् शांतिक विधि करे। ध्वज की प्रतिष्ठा करके वैभव के साथ उसकी नगर में शोभायात्रा निकालें, पुनः अच्छे लग्न में विधिपूर्वक वह विद्वान् ध्वजदण्ड पर ध्वजा को चढ़ावें। बृहत् शांतिविधि का लक्षण, ध्वज और दण्ड की प्रतिष्ठा का क्रम चूर्णिसूत्र में कथित प्रयोग विधि में वर्णित करेंगे। प्रायः यहां उन-उनके लक्षण और उनके करने की विधि का क्रम प्रयोग के समय उसकी स्पष्ट स्मृति के लिए उसी-उसी काल में कहेंगे ।। 1-4।।)
कन्याभिः कारयेद्वेदी-लेपनं गव्यगोमयैः ।
क्षीरद्रुमत्वक्कषाय-कलितैर्भूम्यपातिभिः ।। 5 ।।
यद्यंकुराः समुत्पन्नाः, सुसम्यक् तैः समर्चयेत् ।
तस्मिन्नेव दिने भूत्या, नित्यार्चाविध्यनंतरम् ।। 6 ।।
तद्रात्रौ ध्वजनिष्ठायां, श्रीबलेः समनंतरम् ।
वक्ष्यमाणेन विधिना, भेरीताडनसंविधिम् ।। 7 ।।
(क्षीरवृक्ष आदि की छाल का काढ़ा, भूमि में न गिरे ऐसा गोबर या पीली मिट्टी आदि द्रव्य से कुमारिकाओं द्वारा वेदी का लेपन करावें। जो अंकुर उत्पन्न हुये हैं, उसी दिन नित्यपूजा के अनंतर उन अंकुरों से अर्चा करें। अनंतर उसी रात्रि में ध्वजारोहण के अनंतर ‘‘श्रीबलि’ करें, पुनः आगे कही विधि के अनुसार भेरीताड़न विधि करें।। 5-7।।
अथ बृहच्छान्तिकयंत्राराधनविधेः प्रयोगः (अब बृहत्शांतिकयंत्राराधन विधि का प्रयोग दिखाते हैं)-
बसंततिलकाछंदः-
स्नानादिसिद्धस्तवनादिपूर्वं, पूजामुखं तद्विधिना विधाय।
निःशेषविघ्नप्रतिघातनाय, श्रीशांतिकाराधनमारभेऽहम्।।8।।
।। प्रस्तावना पुष्पांजलिः ।।
(अभिषेक-सिद्धस्तवनादिपूर्वक विधिवत् पूजामुखविधि करके सर्वविघ्नों को दूर करने के लिए हम श्रीशांतिकाराधना करते हैं।)
गद्य-अथ वक्ष्यमाणविधिना क्षेत्रपालवास्तुदेवबलिं
वायुमेघाग्निदेवानामभ्यर्चनपूर्वकं तैर्भूमिशोधनं
नागतर्पणं दर्भन्यासं भूम्यर्चनं च क्रमेण विदध्यात् ।
वेद्यां मंडलमालिखार्चितेत्यादिना चूर्णस्थापनं नयेत् ।।
(अब पृष्ठ 64 से क्षेत्रपाल अर्चा और वास्तुदेव अर्चा करें, अनंतर वायुकुमार, मेघकुमार, अग्निकुमार की अर्चा पूर्वक भूमिशोधन करें, पुनः नागतर्पण, दर्भन्यास और भूमि अर्चन विधि करें।
अनंतर ‘‘वेद्यां मंडलमालिखा……… ’’ इत्यादि श्लोक आगे 118 पृष्ठ से बोलकर चूर्ण स्थापन करें।)
गद्य-अथातः समुचितोद्देशपरिकल्पिते चतुःस्तंभसंभृतचतुरस्रसमुचितोत्सेधायामविस्तारविराजिते चंद्रोपकमुक्तालंंबूषादि- विविधमंडनाभिमंडिते शांतिकयागमंडलाराधनमंडपे। तिर्यगूध्र्वन्यासवज्राग्रविंशतिसूत्रपरिकल्पितैकाशीतिपदेषु साष्टदलपद्मानि तावंति विरचय्य मध्येपद्मकर्णिकायां पंचगुरुमंगलोत्तमशरणधर्मान् पूर्ववत् समवस्थाप्य, अष्टषोडशचतुर्विंशतिद्वात्रिंशत्पदेषु जयादिदेवीः षोडशविद्यादेवीः, चतुर्विंशतियक्षीद्र्वात्रिंशदिन्द्रान्दिक्षु दिक्पालकान्, वज्राग्रेषु चतुर्विंशतियक्षान्सोमदिक्पालकोपरि नवग्रहान्, ग्रहमंडलमध्ये केतुग्रहं च । सर्वानिमान्मंत्ररूपान्निधाय सर्वविघ्नानामनुत्त्पत्यर्थं उपशमार्थं च सम्यगिदानीमाराधयामहे ।।
अर्थ – समुचित मंडप में यागमंडल बनावें, इसमें-इस यंत्र में 81 कोष्टक होते हैं, प्रथम आठ पांखुड़ियों का कमल बनावें। सर्वकमल कोष्ठक की संख्या इतनी हैं-मध्यभाग में स्थित कमल की कर्णिका में पंचगुरु, मंगल, लोकोत्तम, शरण और धर्म इनकी पूर्ववत् स्थापना करें। इसके चारों ओर आठ, सोलह, चैबीस और बत्तीस स्थानीय कमल समूह में क्रम से आठ जयादि देवी, सोलह विद्यादेवी, चैबीस यक्षिणी, बत्तीस इन्द्र और दिशाओं में दिक्पालों की स्थापना करें।
वज्र के अग्रभाग में चैबीस यक्ष और सोम दिक्पाल के ऊपर नवग्रह और ग्रहमंडल के मध्य केतुग्रह, इन सबको मंत्ररूप से स्थापित करके सर्वविघ्न दूर करने के लिए शांतिक यंत्र की आराधना करें। इस यागमंडल के यंत्र को परिशिष्ट में देखें। )
गद्य – शब्दब्रह्मावर्जनं, परब्रह्माधिवासनं, पंचपरमेष्ठिपूजनं, मंगललोकोत्तमशरणाघ्र्यप्रदानं, धर्मपूजां च अनादिसिद्धमंत्रेण पुष्पजपं विदध्यात् ।। (अनन्तर शब्द ब्रह्म पूजा, परब्रह्म की अधिवासना, पंचपरमेष्ठी पूजा, मंगल, लोकोत्तम और शरण को अघ्र्य देना, धर्मपूजा और अनादिसिद्धमंत्र से पुष्पों द्वारा जाप करें।)
आर्याछंदः-
पंचपरमेष्ठिनस्ते, मंगललोकोत्तमाश्च शरणानि।
धर्मोपि कर्णिकायां, समर्चिताः संतु नः सुखदाः।।
पूर्णाघ्र्यः।।
गद्य-अथ वक्ष्यमाणगद्यपद्यमंत्रवाक्यैर्जयादिदेवीनां, षोडशविद्यादेवीनां, चतुर्विंशतियक्षीणां, द्वात्रिंशदिंद्राणां, दशदिक्पालकानां, चतुर्विंशतियक्षाणां, नवग्रहाणां, पूजाविधिं नवग्रहहोमं चेशानदिश्यनावृतार्चनं च क्रमेण विदध्यात् ।। अथात्र मंडले स्नपनपीठे निवेश्य जिनचतुर्विंशतिं प्रागुक्तस्नपनविधिना संस्नाप्याभ्यर्चयेत् ।।
(आगे कहे जाने वाले गद्य-पद्य मंत्र वाक्यों से जयादिदेवी, सोलह विद्यादेवी, चैबीस यक्षी, बत्तीस इन्द्र, दश दिक्पाल, चैबीस यक्ष, नवग्रह इनकी पूजा विधि करके नवग्रह होम करें पुनः ईशान दिशा में अनावृतयक्ष की अर्चना करें। पुनः इस मंडल पर स्नपनपीठ रखकर जिनचतुर्विंशति प्रतिमा का स्नपन विधि से अभिषेक करके पूजा करें।) इति बृहच्छान्तिकविधेः प्रयोगः ।।
गद्य-ॐ सर्वद्रव्यपर्यायविषयवैशद्यपराकाष्ठाधिष्ठितकेवलज्ञाननिष्ठपरमेष्ठिप्रतिष्ठादिवसात् षष्ठेऽहनि बृहच्छान्तिकयागमंडला- राधनां समासतः समापूर्य पंचदशाद्यंतवितस्तिरूपषड्विधदैघ्र्यान्यतमदैघ्र्यस्य, एकोनविंशत्यंगुलादिचतुर्विंशत्यंगुलांतषड्विधव्यासान्यतमव्यासस्य,
पादोनतद्व्याससमदैघ्र्यसरज्जुपाश्र्वामूलाग्र पौष्टिकक्रमहानिरूपकफुल्लिकालंकृतशिखोपलक्षितस्य, शिखासमाभ्यंतरं मूलाग्रपौष्टिकक्रमहानिरूप- पादद्वयविराजितस्य, अष्टत्रयोदशाद्यंतयवव्यासकदलिच्छेदकलितशिखापादवर्जितपाश्र्वस्य, शिखापादविस्तारतिर्यग्गूढेषिकाभूषितस्य, शिखामूलैषिकामध्यघटितरज्जुबंधस्य,
हटद्धाटकघंटिकाफुल्लिकासमुल्लसितस्य सुधौतसुश्लिष्टश्वेतनूतनवासःपरिकल्पितस्यास्य ध्वजस्य,ध्वजमस्तकाधः प्रथमे पदे छत्रत्रयं, द्वितीये पदे जिननाथपद्मयानप्रदर्शकं पद्मवाहनं, तृतीये पूर्णकलशं, तत्पाश्र्वयोः स्वस्तिकं, स्वस्तिकचूलिकायाः पाश्र्वद्वये दीपदंडद्वयमुज्वलज्ज्वालकं, चतुर्थे श्वेतातपत्रं, तदुभयपाश्र्वयोः कुंदेंदुविशदचारुचामरद्वयं,
पंचमे पदे छत्रं, तस्याधःप्रदेशे तत्र विलिखितध्वजे वा श्वेतगजपृष्ठाधिष्ठितमिंद्रनीलप्रभमधः करद्वयरचितांजलिं, ऊध्र्वकरद्वयधृतधर्मचक्रं, जिनबिंबेद्ध- मूर्धानं एकछत्रसमन्वितं अनेकालंकारालंकृतसर्वाण्हयक्षम्, तत्पाश्र्वयोर्दीपदंडचामरस्वस्तिकानि यथाशोभं शिल्पिना विलिख्य तदेतन्महाध्वजं तद्यागमंडलस्याग्रतो वेदिकातले पूर्वस्यां दिशि समवस्थाप्य,
हस्तद्वयोदयहस्तविस्तारप्रमितान् शिखापादकदलिच्छेदफुल्लिकाशोभितान्, दिक्पालकेतून् तथा विधानेन मंगलाघ्र्यकरदिक्कन्यकाकेतून्, एकहस्तोदयहस्तार्धव्यासशिखाद्यलंकृतमालामृगेन्द्राद्यंकितपंचवर्ण केतून्तद्ध्वजपाश्र्वयोरवस्थाप्य, यक्षादिसर्वध्वजदेवानां आवाहनस्थापनसंनिधापनानि समंत्रं विधाय।
तन्महाध्वजाग्रतः सर्वौषधिमिश्र- तीर्थोदकपूर्णामृतमंत्राभिमंत्रितनवकलशान् गंधाक्षतपुष्पफलादीन् मंगलोपकरणानि निधाय । दर्पणप्रतिबिंबितानां सर्वाण्हयक्षादिध्वजदेवतानां तज्जलेन सप्रोक्षणमनुलेपनं विधाय। मुखवस्त्रं दत्वा नयनोन्मीलनं सुलग्ने विरचय्याभ्यच्र्य विविधालंकारालंकृतानामेषां सर्वध्वजानां पुरि महोत्सवेन विहारमिदानीं विधातुमिमे वयमुत्सहामहे।।
श्री जिनेंद्रदेव के केवलज्ञान कल्याणक के दिवस से छठे दिवस पूर्व ‘‘बृहत्शांतिकयागमंडलाराधन विधि’’ संक्षेप से करके ध्वजारोहण करें। यह ध्वज कैसा हो ? ध्वज का वस्त्र कितना लंबा और कितना चैड़ा हो ? इस विषय का वर्णन ध्वज के चित्र में जो दिया है उसी में से समझना चाहिए। इस ध्वजा के दोनों तरफ लघुध्वजायें 28 होनी चाहिए।
यह महाध्वज यागमंडल के सामने और वेदी के नीचे होना चाहिए। महाध्वज के वस्त्र पर सर्वाण्हयक्ष की मूर्ति लिखना चाहिए। इस ध्वज के दोनों तरफ दिक्पाल और दिक्कन्यकाओं के लघुध्वज और माला, मृगेन्द्र आदि चिन्ह के ध्वज रहते हैं। इन सर्वध्वज देवताओं का आह्वानन-स्थापन-सन्निधीकरण मंत्र विधि से करें।
पुनः ध्वजा के सन्मुख नव कलश स्थापित करें। उन कलशों में सर्वोषधि डालें, अमृतमंत्र से अभिमंत्रित जलयात्रा विधि से लाये गये तीर्थोदक-तीर्थ के जल को भरें। गंध, अक्षत, पुष्प, फल और मंगलद्रव्य, उपकरण आदि पास में रखकर महाध्वज के सामने बड़ा सा दर्पण स्थापित करें। उसमें सभी ध्वजाओं का प्रतिबिंब पड़ना चाहिए।
उस दर्पण में बिंबित सर्वाण्हयक्ष आदि देवताओं का कलशों के जल से अभिषेक व अनुलेपन करें। तदनंतर मुखवस्त्र लगाकर (पर्दा डालकर) शुभलग्न में नयनोन्मीलन विधि करें और पूजा करें। अनंतर इस महाध्वज को सजाकर शहर में बड़े वैभव के साथ जुलूस निकालें। अब ध्वजारोहण विधि कहते हैं
बसंततिलकाछंद-
श्रीमज्जिनस्य जगदीश्वरताध्वजस्य, मीनध्वजादिरिपुजालजयध्वजस्य।
तन्न्यासदर्शनजनागमनध्वजस्य, चारोपणं विधिवदाविदधे ध्वजस्य।।1।।
श्रीमद्विमानाभिमुखं ध्वजस्थं।
यक्षं प्रसूनांजलिभिः समंत्रम्।
आहूय संस्थाप्य च संनिधाप्य।
प्रसादये दिक्पतिदिक्कुमारीः।।2।।
(‘‘अभिनव’’ आदि श्लोक बोलकर 8 कलश स्थापित करें। इन कलशों के पास मंगल-द्रव्य आदि स्थापित करें पुनः आगे लिखित
अभिनवनवकुंभान्पुण्यतीर्थाम्बुपूर्णान् ।
विधिवदिह निवेश्या-भ्यच्र्य यक्षध्वजाग्रे।
कलशनिकटदेशे, सर्वतः स्थापयामि ।
प्रकृतयजनयोग्यं, मंगलद्रव्यजालम्।।3।।
(जो नवकलश जल से भरे स्थापित किये थे, उनसे दर्पण में प्रतिबिंबित सर्वाण्हयक्ष का अभिषेक करें।)
वसंततिलकाछंदः-
तत्कुंभवार्भिर्वरमंत्रपूतैः सत्संमुखीनप्रतिबिंबितानाम्।
यक्षादिसर्वध्वजदेवतानां, संप्रोक्षणं सांप्रतमातनोमि।।4।।
(दर्पण के प्रतिबिम्ब को निम्नलिखित ‘अभिमुख . . . . ’ आदि श्लोक व मंत्र पढ़कर चंदन लेपन करें। )
मालिनीछंदः-
अभिमुखनिहितश्रीदर्पणे यक्षनाथं, प्रतिफलिततनुं श्रीचंदनेनानुलिप्य ।
ध्वजविलिखितकाष्ठानाथदिक्कन्यकानां, मुकुरमुपगतानां तेन तन्वेऽनुलेपम्।। 5।।
(‘कांडादि’ श्लोक बोलकर मंत्र पढ़कर ध्वजा के सामने श्वेतवस्त्र का पर्दा लगावे।)
अनुष्टुपछंदः-
कांडादिमंडितादभ्र-श्रीकांडपटमुज्ज्वलं।
यक्षस्य संप्रयच्छामि, सर्वधान्यादिसंभृतम्।। 6।।
(‘ध्वजविरचित’ आदि श्लोक पढ़कर व मंत्र पढ़ते हुए नेत्रोन्मीलन विधि करें। एक सुवर्ण कटोरी में दूध, शक्कर और कपूर मिलाकर रखें, सोने की सलाई से उसे लेकर सर्वाण्हयक्ष के नेत्रों में लगावें, यही नेत्रोन्मीलन विधि है।)
मालिनीछंदः-
ध्वजविरचितमूर्तेर्यक्षनाथस्य सद्यो, हिमसितयुतदुग्धैः स्वर्णपात्रोपयुक्तैः।
कनकमयशलाकाग्राहृतैर्वल्गुलग्ने, विधियुतमिह नेत्रोन्मीलनं संविदध्मः ।। 7।।
(‘उत्तुंगं’ आदि पढ़कर अघ्र्य चढ़ावें)
शार्दूलविक्रीडितछंदः-
उत्तुंगं शरदभ्रशुभ्रमुचितं, सद्विभ्रमं बिभ्रतं ।
यो दिव्यद्विपमारुरोह शिरसि, श्रीधर्मचक्रं दधौ।
हस्ताभ्यामसितद्युतिं करयुगे-नान्येन बद्धांजलिं ।
तं जैनाध्वररक्षणक्षममिमं, सर्वाण्हयक्षं यजे।।8।।
श्रीमत्सर्वजनीनजैनसवन-प्रत्यूहविध्वंसनµ
प्रोद्भूताप्रतिमप्रभावविहित-प्रख्यातिपूजांचितान्।।
स्वस्वातुच्छपरिच्छदान्दशदशा-मन्याप्रधृष्यामितान्।
दिक्पाला॰जगदेकपालकजिनाधीशाध्वरे व्याह्वये।।9।।
मेरोर्दक्षिणतो महाकुलकुभृत्पद्माकरांभोरुह प्रासादस्थितिकाः शचीपतिवधूश्रीधृतीरंबिकाः।
तस्यैवोत्तरतस्तथोत्तरसुरेड्गृह्यां च कीर्तिं धियम्-लक्ष्मीं शांतिकरीं च शांतिमिह सत्पुष्टिं च पुष्टिं यजे।।10।।
(पुनः महाध्वज को शहर में घुमावें। जुलूस से शहर में घुमाकर जहां ध्वज स्थापना करना है वहां लाकर ध्वज दण्ड का पंचामृत अभिषेक आगे लिखित विधि से करना है।)
गद्यअथ सर्वध्वजोपलक्षितमहाध्वजं प्रतिष्ठाप्य विधिनाभ्यच्र्य विविधशोभायुक्तासु पुरवीथिषु विहार्य यागमंडलाग्रतो निवेश्य, क्षुद्रधामांतनासांतसिंहस्थलान्तान्यतमसमानदैघ्र्यस्य, चंदनादिसारविटपिपूगवंशान्यतमार्जव संयुक्तदारुपरिकल्पितस्य, पंचदशाद्यंतांगुलान्यतम- समानमूलव्यासस्य,
पादोनमूलव्याससमानाग्रव्यासविशिष्ट ध्वजदंडस्य, तदग्रे द्वित्रिचतुरंगुलघनान्निशार्कतिथिमात्रायामान् षडादिद्वा- दशांतांगुलमूलव्यासान्, द्विरंध्रान्वितान्, पयोद्रुमपरिकल्पितकोकिलादंडान्संयोज्य, तदग्ररंध्रेषु ध्वजदंडचतुर्भागान्यतमदैघ्र्यां, चतुःपंचषडंगुलानाहां वेणुयष्टिं, ध्वजदंडाद्धृतिकृत्यंगुलोच्छ्रायां यथातथैव दृढतरं संयोज्य।
वेणुयष्ट्यग्रे अष्टांगुलस्याधः सुलोहजं सूत्राधारं विमानाभिमुखंदंडमध्यगतच्छिद्रं यथातथैव संयोज्य, तदेतद्ध्वजदंडमग्रतो मूलात्तीर्थोदकैः प्रक्षाल्य अशोकाश्वत्थपत्राढ्यदर्भमालयाभिवेष्ठ्य। वेणुयष्ट्यग्रे कुशकूर्चान्संबद्ध्य। ध्वजदंडचूलिकां ज्ञानशक्तिरूपिणीं संकल्प्य अनादिसिद्धमंत्रेण पंचामृतैरभिषिच्य बलिपीठाद्वहिस्तद्वयासान्तरालके गर्ते दधिदूर्वान्वितशाल्यादिधान्यं निक्षिप्य भूम्यर्चनविधिनार्चिते सहिरण्यपायसं निक्षिप्य, तन्महाध्वजदंडं विमानाभिमुखं दृढतरं संस्थाप्य।
तन्मूले पादोनपीठविस्तारां विस्तारसदृशोच्छ्रयां उत्सेधसप्तभागोच्छ्रयतत्तूर्यांशत्रयप्रवेशान्वितकमलाग्रां। सार्धसप्तभागद्वयोत्सेधपूर्ववत्प्रदेशान्वितांत्यमेखलां। वेदीं परिकल्प्य। तत्परितो दशदिक्पालकादिक्षुद्रपीठिकादिक्षुद्रपीठिकां निर्वत्र्य, द्वारद्वयोपेतां द्वारोत्तंभिततोरणां दर्भमालावृतां दारुभिर्वृतिं निर्माप्य।
महाध्वजदंडत्रिपंचसप्तभागान्यतमदैघ्र्यक्षुद्रध्वजवंशदंडानामष्टाविंशतिं स्वस्वपीठेषु समच्र्य। यथोचितं परितोवस्थाप्य। महाध्वजमनादिसिद्धमंत्रेणाष्टोत्तरशतवारं अधिवास्य। तन्मंत्रेण पंचामृतैरभिषिच्याभ्यच्र्य तदग्रे सर्वलोकशांत्यर्थमिष्टप्रार्थनामालामंत्रमुद्धोष्य।
शंखादिवाद्यघोषेषु दिगंतरपूरितेषु शुभलग्ने कार्पासतंतुनिर्वृत्तत्रिवर्तिरूपरज्जुयंत्रेण यंत्रविदा महाध्वजं कोकिलाग्रस्थवेणुदंडे समारोप्य। दिक्पालध्वजादिक्षुद्रध्वजान्वंशदंडेषु समारोप्य तन्महाध्वजं त्रिजगत्त्रिकालविषयं केवलाख्यपरंज्योतिःस्वरूपं ध्यात्वा महाघ्र्येण बहुमानयामहे।।
(आगे का श्लोक व मंत्र बोलकर जल से ध्वजदंड की शुद्धि करके उसमें दर्भ की माला पहनावें।)
समंततः
श्रीध्वजदंडमग्य्रं, प्रक्षाल्य सर्वौषधिमिश्रवार्भिः।
अश्वत्थकंकेलिदलौघभाजा, दर्भस्रजैनं परिवेष्टयामि।।11।।
(आगे का श्लोक पढ़कर व मंत्र बोलकर ध्वजदंड के ऊपर जो तीन कोकिला हैं उनके अग्रभाग में दर्भ की तुरा बांधे।
अनुष्टुपछंदः-
ध्वजदंडाग्रभागस्थ, कोकिलात्रयवर्तिनः।
वेणुदंडस्य तस्याग्रे, बध्नामि कुशकूर्चिकां।।12।।
ॐ ह्रीं दर्पमथनाय नमः। वेणुयष्ट्यग्रे कुशकूर्चस्थापनम् ।।
(तुरा-लंबी कूंची बांधे)
(आगे का श्लोक पढ़कर अनादिसिद्धमंत्र द्वारा ध्वजदंड का पंचामृत अभिषेक करें। पुनः ‘नीरजसे नमः’ आदि से अष्टद्रव्य चढ़ाकर ‘‘स्वच्छैस्तीर्थ………’ आदि बोलकर अघ्र्य चढ़ावें।)
ज्ञानशक्तिमयीं मत्वा, ध्वजदंडाग्रचूलिकां।
अनादिसिद्धमंत्रेण, पंचभिः स्नापयेऽमृतैः ।। 13 ।।
अनादिसिद्धमंत्रः ।
अनेन ध्वजदंडस्य पंचामृतस्नपनम् ।।
(इस मंत्र से पंचामृत अभिषेक करें)
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः ।
सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः।
धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः दण्डं ध्वजस्यार्चये। (अघ्र्य चढ़ावे)
(आगे का श्लोक बोलकर जहां ध्वजदण्ड स्थिर करना है, उस गड्ढे में दूब, दही और धान्य स्थापित करके अष्टद्रव्य से पूजा करके हिरण्य-सुवर्णयुक्त खीर वहां रखें पुनः ध्वजदण्ड वहां स्थापित करे।)
उपजाति-
विन्यस्य दूर्वादधिमिश्रधान्यं, भूम्यर्चनासंविधिना समच्र्य।
हिरण्ययुक्तं परमान्नमेतन्न्यसामि शस्ते ध्वजदंडगर्ते।। 14।।
ॐ नीरजसे नमः जलं। शीलगंधाय नमः गंधं। अक्षताय नमः अक्षतं। विमलाय नमः पुष्पं। परमसिद्धाय नमः चरुं। ज्ञानोद्योताय नमः दीपं। श्रुतधूपाय नमः धूपं। अभीष्टफलदाय नमः फलं। इति गर्तभूम्यर्चनम् । (गर्त भूमि की पूजा करें)
अथ हिरण्ययुक्तपरमान्नस्थापनम् । तदनंतरं ध्वजदंडस्थापनम् । दिक्पालादिक्षुद्रध्वजदंडस्थापनं च कर्तव्यम् । (नीरजसे नमः, शीलगंधाय नमः इत्यादि पढ़कर गड्ढे की भूमि का पूजन करें। सुवर्ण सहित खीर की स्थापना करें। अनंतर ध्वजदण्ड स्थापित करें और दिक्पाल आदि स्थापन एवं लघु ध्वजदण्ड भी स्थापित करें।
(आगे लिखे श्लोक को पढ़कर नीचे लिखित मंत्र से 108 बार जाप्य देवें।)
अष्टोत्तरशतवारं, संजप्यानादिसिद्धमंत्रेण।
अधिवासयेऽधिकद्र्धिं, सार्वं सर्वाण्हयक्षमिमम्।।15।।
(श्लोक पढ़कर पूर्वकथित अनादिसिद्ध मंत्र को बोलकर सर्वाण्हयक्ष का पंचामृत अभिषेक करें पुनः अघ्र्य चढ़ावें) यदि सर्वाण्हयक्ष का कपड़े आदि पर चित्र है तो उसे दर्पण में प्रतिबिंबित कर दर्पण का अभिषेक करें। यदि मूर्ति या यंत्र है तो उसी का अभिषेक करें।
बसंततिलका-
श्रीमज्जिताघजिनबिंबहटत्तिरीटं, सर्वज्ञयज्ञविधिरक्षणदक्षयक्षम् ।
पंचामृतैरमृतभव्यसुखार्थिभव्यमूर्धाभिषिक्तमभिषिक्तमिमं तनोमि।। 16।।
अनादिसिद्धमंत्रेण पंचामृतस्नपनम् । (चत्तारिमंगल…….बोलकर पंचामृत अभिषेक करें)
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः ।
सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः।
धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, यक्षं समभ्यर्चये।।
सर्वलोकशान्त्यर्थ इष्टप्रार्थना (अब सर्वाण्ह यक्ष के सामने आगे लिखे श्लोक व गद्यमंत्रों द्वारा, जो कि 51 हैं, उनको बोलते हुए विश्वशांति की प्रार्थना करें। इसमें जहां ‘देवदत्त’ शब्द है उस स्थान पर वहां जो यजमान है, उसका नाम लेवें।
या सामूहिक समाज के द्वारा कार्यक्रम आयोजित किया गया है तो उनके समूह को उच्चारित करें। उपस्थित यजमान व भक्तों पर पुष्पांजलि छोड़ते जावें। इन गद्य आशीर्वाद मंत्रों में कहा है कि इस यज्ञानुष्ठान के कर्ता भरत चक्रवर्तीवत्, श्रीरामचंद्र आदिवत् प्रभावशाली व प्रजापालक आदि होवें, सर्वविश्व में शांति होवे इत्यादि।)
अथ यक्षाग्रे सर्वलोकशांत्यर्थमिष्टप्रार्थनामालामंत्रघोषणम् ।
शार्दूलविक्रीडितं-
तीर्थेशा नवदेवता बहुविधाः, सर्वे जयाद्याः सुराः।
योगीन्द्रा महिताः त्रिषष्टिपुरुषा-स्तत्त्वप्रबोधादयः।
राज्ञोऽमात्यवरादिसर्वतनुभृद्वृन्दस्य राष्ट्रादिक-
स्यात्र्यादीन्परिहृत्य नित्यपरमानंदं विदध्युर्भृशं।।17।।
सब्रह्मवृद्धिर्भूयात् सद्धर्मवृद्धिर्भूयात् ।।
गद्य-ॐ जय जय जिनेश्वर विश्वगोचरानश्वरबोधैकस्वरूपपरमेश्वर, स्वस्तिश्रीमदनारतप्रणमनप्रवणाशेषशक्र- चक्रीश-चक्रेश्वर चक्रप्रकटमुकुटकोटीकुटीरनिकटतटघटनसमटदनल्पनिजप्रकाश-प्रचयप्रभावप्रहतारुणतरणिबिंबशुंभ- दाडंबरास्तोकस्तोत्रकौस्तुभप्रतिमानुत्तमानूत्नरत्नामलमरीचिप्रचयप्रसरण-
प्रसक्तरक्तीकृतप्रभाप्रकृष्टप्रसिद्धप्रशस्त- प्रभूतप्रातिहार्यप्रभृति-प्रशोभितपरिप्राप्तपरमाप्तपदसमासादितानंतज्ञानदर्शनवीर्यसुखात्मकपुरुश्रीमुखमुख्यगुणगणा- भिरामत्वामृतरामारमणप्रणद्धांहस्तमःµपटलनखकिरण-
राराजमानचारुचरणारविंदद्वंद्वबाभास्यमानभगवद्वृषभादि- महावीरपर्यंतस्याद्वादप्राज्यसाम्राज्यमूर्धाभिषिक्तातिरिक्तभक्तजनसमीहितसंपादकनिरस्तघातिचतुष्टयविशिष्टनित्यनिः- स्वेदनिर्मलत्वादिगण-जुष्टनिरतिशयपरमौदारिकशरीरविराजितावशुद्धबुद्धस्वरूपपरमेष्ठिपदद्र्धिप्रसिद्धसद्धर्मतीर्थकराः सद्धर्मश्रीबलायुरारोग्यैश्वर्यप्रमुखानि प्रयच्छन्तो भूयासुरश्रान्तम् ।। 1 ।।
निखिलप्रत्यवायमथनदक्षाक्षूणपवित्रचारित्रयानपात्रप्रपूर्णगुणदर्शनकर्णधारनिर्वाणद्वीपयायिसार्थवाहायितस्वार्थ- परार्थप्रतिपादनविशारदविशरारुशरीरादिविशीर्णममत्वसत्वसंघातदयाप्रभृतिचतुरशीतिलक्षगुणाधारमुनयः ऋष्यनगार- राजर्षिब्रह्मर्षिदेवर्षिपरमर्षिप्रभृतिविकल्प-विगताकल्पस्वल्पेतरगुणगौरवसमंवित पंचपंचाष्टाष्टप्रपंचत्रिसप्तभेदौषधि- तपोनिमित्तचारणज्ञानबलबुद्धिभेदद्र्धि-परिप्राप्तत्रिसंख्यान्यूननवकोटिमहर्षयः प्रसन्ना भूयासुरश्रान्तम् ।। 2 ।।
सर्वगीर्वाणोर्वीशदर्वीकरेशसार्वभौमसमाराधितपरमेश्वरपादारविंदद्वंद्वेंदिरायमाणमानसानाम् । शरणैषिसुजन- जनहंससंदोहवरशरण्यभूतमानसानां। परमशर्मावहार्हद्धर्मानेकविधप्रभावनप्रवीणानां। सकलमुमुक्षुवर्ग-संरक्षणसमुद्धरण- धुरीणानां। प्रशस्तसमस्तशास्त्रपारावारपारीणानां। प्रविमलनिजान्वयगगनांगणगगनमणिप्रायाणां। सार्थककविसार्थोप- लक्षितानेकप्रकारबिरुदावलिविराजमानानाम्। श्रीमतामाचार्यवर्याणां तपःप्राज्यसाम्राज्यं निष्प्रत्यूहेन प्रवद्र्धमानं भूयादश्रान्तम् ।। 3 ।।
सर्वतोनिवृत्तहिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहोग्रदीप्ततप्तमहद्घोरभेदतपस्तप्यमानोत्तमक्षमादिलक्षितमुमुक्षुवर्गो ज्ञानाराधन- प्रवीणो भूयादश्रान्तम् ।। 4 ।।
(अखिलजैनसमाजः1) सकलसमालोकनलोकाल्हादकबाल्हीकादिजातिजातां बरगंगारंगदुरुतरंगभंगुरगतिचतुरत- ममिहिरतुंगतुरंगतुलालंघनजांघिकहैरण्यकनिजोदार-परिष्कारपरिष्कृतानुषंगमंगलभूतपटुनटाध्यापकपदाध्यासकहेषिता- भिभूषिताजानेयजवनादिवाजिव्रातचटुलखरखुरपुटपृथुतररथयूथपत्तिप्रततिपदसंघटनसमुद्भूतान्तरीक्षव्याजृम्भमाण-
धूलिजालप्रलयविदधानानूनलक्ष्मभद्रभद्रजातीयजीमूताकारानुकारिगंधसिंधुरघटाकरतटविगलद्दानधारासंसेकसमुत्सर्पदमंद- गंधलोभाभिभ्रमद्भ्रमरमंजुगुंजनमंजुल-सेवासमसमागच्छद्भूप परस्परसंघर्षणप्रकर्षविस्रस्तरत्नावरंगवलिभासुरवराजिर- राजद्धवलिमप्रासाद-शिखरनिकरनिषण्णकलधौतविमलकलशजालाग्रसुघट्टनराजाह्वयमात्रावहद्विधुबिंबधिक्कारकारि- निष्प्रत्यूहेन प्रवद्र्धमानसप्तांगसंपन्नो भूयादश्रांतम् ।। 5 ।।
………….निजपराक्रमप्रभावावनताखिलराजमंडलानेकमंडनप्रभाद्विगुणीकृतसिंहासनप्रभाभिरामो भूयादश्रांतम् ।। 6 ।।
………..रामचंद्रवदखिललोकपरिपालनप्रवीणो भूयादश्रांतम् ।। 7 ।।
………..भरतराजवत्सकलदिङ्मण्डलविजयी भूयादश्रांतम् ।। 8 ।।
…………श्रेयांसवन्निःश्रेयसदाननिदानमहादानप्रसिद्धो भूयादश्रांतम् ।। 9 ।।
………..भुजबलकुमारवदवार्यभुजवीर्यो भूयादश्रांतम् ।। 10 ।।
………..ऽर्जुनवदनन्य-साधारणधनुर्विद्याविशारदो भूयादश्रांतम् ।। 11 ।।
………..जीवंधरवत्संगीतसाहित्यविद्याविशारदो भूयादश्रांतम् ।। 12 ।।
………..अक्षरलेख्यगणितगांधर्व-वेदांगकल्प-न्याय ज्योतिज्र्ञान-नष्टमुष्टिचिन्तनागंधयुक्तिवीणावेणु अन्तरीक्ष्ययान-नृत्यगीतवाद्य-भरतशास्त्र-आयुर्वेद-धनुर्वेदलक्षणलक्ष्यद्यूतभेशिल्पहस्तनैपुण्यतर्ककौटिल्याष्टां- गयोगहस्तितुरंगशिक्षाशालिहोत्र-शिक्षारत्नपरीक्षाभूपरीक्षाचित्रकर्मपत्रच्छेदनवात्स्यायनमर्दनशास्त्र अग्निस्तंभखङ्गस्तंभ सेनास्तंभइंद्रजालमहेंद्रजालस्पर्शवादरसवादखन्यवादबिलप्रवेश-शस्त्रशिक्षा-शास्त्रशिक्षाकूपशास्त्र-सूपशास्त्र-तटाकशास्त्र- सामुद्रिकलक्षणमहागमनदूरागमनपरकायप्रवेशआगमशिक्षाआत्मज्ञानस्वसमयपरसमय-अंगनिमित्ताख्यचतुःषष्टि- कलाकुशलो भूयादश्रांतम्।।13।।
देवदत्तमहाराजस्य अंतः पुरपुण्यस्त्रियो यशस्वतीसुनंदानंतमतीरेवतीप्रभावतीप्रभृतिप्रसिद्धपुण्यस्त्रीवद्रूपयौवन- विज्ञानशीलादिसकलगुणसंपन्नाःभूयासुरश्रान्तम् ।। 14 ।।
……….. पुत्रा लवांकुशवत्सकलशस्त्रशास्त्रवाहनारोहणादिसकलकलाकौशल्यनीतिपराक्रमसंपन्ना भूयासुरश्रांतम् ।। 15 ।।
सुदेशजसदाचारशुद्धबांधवाभिसंगतव्यसनविदूरप्रमादरहितसुजनजनाभिमतसत्कुलप्रसूतसर्वकर्माभिज्ञनीति- शास्त्राद्यशेषशास्त्रप्रवीणसर्वव्यवहारविशारदनिबिडतमस्वामिभक्तिप्रमुखगुणगरीयांसो दंडसनाथा भूयासुरश्रांतम् ।। 16 ।।
अहमहमिकाकृतनिजपतिपदनिर्मायसेवाभिसेवितनिर्मलधर्मनिर्मुक्तकर्माचारनियोजितानेकक्रियाचातुरी- विराजितकर्मप्रतिष्ठाधिष्ठितगरिष्ठा मंत्रिपुरोहितप्रमुखनिखिलराजसेवकवर्गाः त्रिवर्गसिद्धिवृद्धिप्रसिद्धिभाजो भूयासुरश्रांतम् ।। 17 ।।
उपासकवेदप्रतिपादितप्रकारयजनयाजनाध्यापनदानप्रतिग्रहानुग्रहप्रशस्तत्रिपंचाशत्क्रियाप्रवणत्रिकालसंध्योपासनजप- देवर्षिपितृतर्पणादिनित्यानुष्ठानतीर्थयात्राप्रतिष्ठाऽष्टमीचतुर्दश्याष्टान्हिकादिपर्वविशिष्टदानव्रतादिनैमित्तिकानुष्ठा- नगरिष्ठानुष्ठेयोभयकर्मकर्मठाः शर्मसंततिभाजो द्विजा भूयासुरश्रांतम् ।।18।।
प्रतिपक्षप्रतिक्षेपणदक्षाक्षूणस्वपररक्षकप्रेक्षावत्प्रमोदकसदुक्तियुक्तिसंयुक्ताः पृथ्वीप्रसिद्धलौकायतिकौलूक्यसेश्वरनिरीश्वर- भेदाकलनकापिलपूर्वमीमांसाविलंबिभाट्टप्रभाकरोत्तरमीमांसाविलम्बि वेदांतवैभाषिकसौत्रांतिकयोगाचारमाध्यमिकाख्य- चातुर्विध्यसहितसौगततार्किका-र्कसमाख्यार्हार्हतादिमतप्रथिततर्कातितर्कशास्त्रार्किकाः प्रतिव्यूढनित्याद्येकांतरूपमौढ्यानिर- वद्यस्याद्वादविद्याविदग्धा भूयासुरश्रांतम् ।। 19 ।।
मूलशास्त्रानुशास्त्रोपशास्त्रप्रभेदनिखिलशास्त्रागण्यनैपुण्यशब्दार्थालंकारसुकरदुष्करचित्रमार्गमाधुर्यार्यार्थव्यक्ति- प्रसादिगुणन्यूनातिरिक्तपुनरुक्तव्याघातादिदोषादिगतिख्याता ऋषभगताध्वानुविधायिश्राद्धभेदश्रावणसुधासार- वाग्गंुफभणितिभावप्रभावावभासिनः पौरस्त्यदाक्षिणात्यचक्रवर्तिनः कविजना भूयासुरश्रांतम् ।। 20 ।।
प्रवचनपारगामितामहाप्रातिभवाचोयुक्तित्वप्रभृतिनिजकौशल्यैर्वाग्मिगमकादयो निखिलजनमानसमलिम्लुचा भूयासुरश्रांतम्।। 21।।
तिथिवारक्र्षययोगकरणाख्यपंचांगसंशुद्धिनिर्दोषनक्षत्रायत्तलग्नहोराद्रेक्काणनवांशद्वादशांशत्रिंशांशाभिधान- षड्वर्गशुद्धिर्विविधभेदप्रभेदगोचरशुद्धिरुदर्कफलावगमनिमित्तनिमित्तशुद्धिरित्येवंविधपंचशुद्धिसमन्वितस्य मुहूर्तस्य परीक्षायामतिदक्षाः सकलपुरुषपरिषत्संपदापदवाप्तिपरिहारनिबंधनग्रहणग्रहचाराद्यविसंवादिनो गणितजातकविधानप्रश्न- भेदचातुर्विध्यज्योतिः शास्त्रापारावारपारगाः प्रतिविष्टनष्टमुष्टिचिंतामोघप्रतिपादनोत्पादि सकलजनचेतश्चमत्काराः कार्तांतिका भूयासुरश्रांतम् ।। 22 ।।
देशदोषशरीरप्रकृतिवयः सत्त्वाग्निदिनर्तुप्रभृतिकालाचरितरसनादिकादानचिकित्सादूतशकुननिमित्तमंत्रयंत्रादिसुपरि- बोधप्रज्ञानिरवद्यवैद्यसंप्रदायप्रतीताः कौशल्यसौशील्यनैराश्यनीरोगतादिगुणजुष्टाः कौसीद्यप्रमादादिव्यपेताः सुधावदमोघ- फलदायिभैषज्य-क्रियाप्रसिद्धाः प्रवचनप्रसिद्धपंचकोट्यष्टषष्टिलक्षनवनवतिसहस्रपंचशतचतुरशीतिप्रभेदोपलक्षित- विविधव्याधिप्रशमनप्रवीणाः चिकित्सिता भूयासुरश्रांतम्।।23।।
स्वर्गापवर्गसौख्यसंपादकचतुर्विधदानविधानाधिष्ठानां सिद्धपदाधिरोहरूपैकादशनिलयातिलालसानाम्। सागारधर्म- प्रणीतनिखिलगुणमणिरोहणधरणीधरायमानमानसानां। समस्तश्रावकजनानां स्वायुरारोग्यैश्वर्यप्रमुखैहिका-मुत्रिकाभ्युदया भूयासुरश्रांतम्।।24।।
पुण्यपण्यारामसरोवापीप्रपासत्रादिनिर्मापणक्रियानिरता निरंतरातिथिपूजासदाचारमाचरिष्णवः समस्तद्रव्य- समृद्धिसंपन्नाः निषिद्धक्रियाव्यावृत्तवार्तोपजीविनो वैश्या भूयासुरश्रांतम्।।25।।
भूवाहपाठकादिस्वकीयतत्पराः त्रिवर्णशुश्रूषाप्रवणाः शूद्रा भूयासुरश्रांतम्।।26।।
सम्यगागमप्रणीतनिजनिजविहिताचारपरायणाः समस्तसंपत्समेताः समस्तजातयो भूयासुरश्रांतम्।। 27 ।।
पात्रत्यागत्वगुणानुरागत्वसुपरिजनभोगत्वशास्त्रविग्रहबोद्धृत्वयोद्धृतानृशंस्यवचनस्तेयवर्जनपरयोषिन्निवृत्तिस्वरूप- पुरुषसाधारणलक्षणोपलक्षिताः सर्वे पुरुषा भूयासुरश्रांतम् ।।28।।
आसेचनकरूपाभिरामाः स्वानुरूपवरोपलंभाः पातिव्रत्यानुकूल्यकौलीन्यकौशल्यादिसुगुणसंपन्नाः कामिन्यो भूयासुरश्रांतम्।।29।।
देवगुरुमातापितृप्रभृतिभूयिष्ठभक्तिशक्तिसंयुक्तिसदुक्तिशस्त्रशास्त्रादिनैपुण्यागण्यपुण्यप्रभावातिशयकुलपवित्रीकरणदक्षाः पुत्रा भूयासुरश्रांतम्।।30।।
प्रफुल्लकमलविमलसलिलविलसत्सरोवरार्णःपरिपूर्णवापीकूपतटाकपल्वलादिप्रवद्र्धमानशाकटोöट्टा रामशालेयन- दीमातृकप्रभृतिप्रदेशसमूहघटोघ्नीघृष्टिप्रष्ठौहिकानैचिकीप्रमुखगोधनधोरणिकृत्स्नधान्यकुटंुबहिरण्यसंपद्राजितानि राष्ट्राणि भूयासुरश्रांतम्।।31।।
अशेषमनुष्याणां स्वर्गसौख्यानि देशा दिशंतो भूयासुरश्रांतम् ।।32।।
कामदुघोद्रिक्तसंपद्ग्रामपुरखेडखर्वडमटंबद्रोणमुखादिमंडितानि भूयासुरश्रांतम् ।।33।।
अवर्षातिवर्षमूषिकाशुकशलभस्वचक्रपरचक्राख्यसप्तेतिजातबाधाः प्रणष्टा भूयासुरश्रांतम् ।।34।।
सुकालवर्षानुकूलवातादिसंभवाशेषधान्यफलादिप्रवृद्धिपयःपयस्यादिसमृद्धिरत्नरिक्थवस्त्रशस्त्रशास्त्रादिलाभानुरूप- कुमारकुमारीपरिणीतिनीरोगतापरस्परमैत्री चेति सप्तसंपत्तयो भूयासुरश्रांतम् ।।35।।
क्वचित्कदाचित्कुतश्चित्कस्यचिदपि कांदिशीकत्वं प्रणष्टं भूयादश्रांतम् ।।36।।
शांतिकपौष्टिकप्रमुखषट्कर्मणां सकलयंत्रतंत्रादिविद्यानां संसिद्धयः साधकानां भूयासुरश्रांतम् ।।37।।
मुनिवर्यार्यिकाराजमंत्रिपुरोहितयाजकयष्ट्प्रभृतिनिखिललोकसमूहानां शांतिकांतिसिद्धिवृद्धितृष्टिपुष्टिक्षेमकल्याण- स्वायुरारोग्यादयो भूयासुरश्रांतम्।।38।।
हंतुकामरतिकामबलिकामशाकिनीप्रभृतिसर्वग्रहभयानि प्रध्वस्तानि भूयासुरश्रांतम्।।39।।
अग्न्युत्पाताशनिपातवाताहतिप्रभृतिसमस्तबाधाः प्रणष्टा भूयासुरश्रांतम् ।।40।।
सर्वोपसर्गसर्वविघ्नसर्वाधिसर्वव्याधयो विलीना भूयासुरश्रांतम् ।।41।।
सर्वराजभयसर्वचोरभयसर्वमृगभयसर्वसर्पभयसर्वभयादिसर्वभयानि प्रणष्टानि भूयासुरश्रांतम्।।42।।
सर्वात्मघातपरघातप्रमुखानि क्रूरकर्माणि निरस्तानि भूयासुरश्रांतम् ।।43।।
सर्वनगरगजाश्वगोमहिषादिमार्यः प्रणष्टा भूयासुरश्रांतम् ।।44।।
सर्वसस्यधान्यवृक्षगुल्मलतापुष्पफलादिमार्यः प्रणष्टा भूयासुरश्रांतम् ।।45।।
सर्वदा सर्वेषां सर्वसंपदो भूयासुरश्रांतम् ।।46।।
अपारचातुरीविराजमानमानिनीमतल्लिकामार्जिताभिरुचिररुचिनानारंगवलिराजिताजिरसमुत्कीर्णसुरभिगंधपुष्पोपहार- प्रतिगृहकोणद्वारादिप्रदेशनिक्षिप्तधूपघटपटलदंदह्यमानधूमावलिव्याप्तदशदिशांतरालबहलपरिमलासक्तपरिगताखिल- धामांगमधुकरमंजुलारावच्छलस्तुतिशतमुखावशोभमानमणिकनकरवचितालंकृत शिखरनिकराग्रप्रणद्धवातांदोलित- ध्वजराजिसमाहूयमानवदागच्छद्भव्यसंदोहसमानीतसपर्याऽनेकवितानातिशयमुक्ताफलालंबिलंबूषादृष्टपूर्वनर्तनगानानून- मंद्रामंदजयजयारावनानोपकरण-घृणिगण देदीप्यमानाभ्यंतरप्रदेशाश्चैत्यालया भूयासुरश्रांतम्।।47।।
इह सकलचैत्यालया अकृत्रिमचैत्यालया इव स्वर्णमया रत्नमया ज्योतिर्मया भूयासुरश्रांतम्।। 48 ।।
नित्योत्सवमासोत्सवपक्षोत्सववर्षोत्सवप्रमुखोत्सवानां समृद्धयोऽर्हतां मंदिरेषु भूयासुरश्रांतम्।। 49।।
भगवज्जिनेश्वरप्रतिमाप्रतिष्ठामहोत्सवप्रारंभे विधीयमानध्वजारोहणमुहूर्तः सुमुहूर्तो भूयात् ।। 50।।
स जयतु जिनधर्मो यावदाचंद्रतारम् ।
व्रतनियमतपोभिर्वद्र्धतां साधुसंघः।
अहरहरभिवृद्धिं यांतु चैत्यालयास्ते।
तदधिकृतजनानां क्षेममारोग्यमस्तु।।51।।
(आगे का श्लोक बोलकर व मंत्र बोलकर बाजे बजाते हुए शुभ मुहूर्त में ध्वजारोहण करें। यहां ध्वजदण्ड में रत्नत्रय और ध्वज में केवलज्ञान का संकल्प है।)
बसंततिलका-
रत्नत्रयात्मकतयाभिमतेऽत्र दंडे, लोकत्रयप्रकृतकेवलबोधरूपम्।
संकल्प्य पूजितमिदं ध्वजमच्र्य लग्ने, स्वारोपयामि सति मंगलवाद्यघोषे।।52।।
सर्वाण्हयक्ष को अघ्र्य शार्दूलविक्रीडितं-
यज्जैनेन्द्रमहामहस्य सुतरा-माद्यं विधेयं मतं।
यज्जैनोत्सवसंदिदृक्षुजनसंघानक्षरावाहनम्।
यल्लोकाखिलदुःखहारिसुखसंतानैकसंपादकम्।
तच्चारोप्य महाध्वजं विधिकृते-नाघ्र्येण संभावये।।53।।
इति ध्वजारोहणविधानम्।। यह ध्वजारोहण विधि पूर्ण हुई।
गद्य-तदेवं ध्वजारोहणविधिं विधायानंतरं स्नातलंकृतकन्यकाभिर्मूलवेदीमुत्तरवेदीं संमाज्र्य समंत्रं प्रोक्ष्य पूतमृद्गोमयक्षीरवृक्षत्वक्कषायेण लेपयित्वा द्वारतोरणभांडोच्चयचंद्रोपकादिभिस्तद्योग्यपुरुषैरलंकारयेत्।।
(इस ध्वजारोहण विधि को करके इसके बाद स्नान करके जो वस्त्र-अलंकार आदि से सुसज्जित हैं, ऐसी कुमारी कन्याओं द्वारा मूलवेदी और उत्तरवेदी को सम्मार्जित कराके मंत्रों द्वारा प्रोक्षणविधि करके पवित्र मिट्टी, गोमय से क्षीरवृक्ष के चूर्ण या क्वाथ से वेदी का लेपन करावें, पुनः द्वार पर तोरण बांधें, मंगलघट तथा चंदोवा आदि से उन-उन कार्यों में कुशल व्यक्तियों द्वारा मंडप को सजावें।)
ॐ क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः। प्रोक्षणजलाभिमंत्रणम् (इस मंत्र से वेदी पर जल छिड़कें)
।। इति वेदीलेपविधानम्।।
गद्य-यद्यंकुराः सम्यगुत्पन्नास्तर्हि तस्मिन्नेव ध्वजारोहणदिने प्रागुक्तैर्मंगललोकोत्तमशरणार्हद्भट्टारकेत्यादिगद्यपद्यमंत्र- वाक्यैर्भगवतोंऽकुरार्चनविधिं विदध्यात्।। पुनः जो अंकुरें उत्पन्न हुए हैं, उसी ध्वजारोहण दिन के पहले कहे हुये ‘मंगल, लोकोत्तम, शरण अर्हद्भट्टारक’ इत्यादि गद्य-पद्य मंत्र वाक्यों से भगवान की अंकुरार्चन विधि करें।
प्रध्वस्ताशेषघातिप्रकटनिरवधिज्ञानदृग्वीर्यसौख्यः।
कल्याणैः पंचभेदैः प्रविलसति चतुस्त्रिंशतायातिशेषैः।।
तैरष्टप्रातिहार्यैस्त्रिजगदधिपतिर्यस्तमेनं जिनेंद्रं।
प्रोद्यत्पुण्यांकुरौघैरनघमिह यजेऽगण्यपुण्यांकुरार्थंम्।।54।।
गद्य-ॐ अथ प्रतिष्ठादिवसात् षष्ठेऽहनि दिवा ध्वजारोहणविधिं निष्ठाप्य, तद्रात्रौ श्रीबलिविधेरनंतरं विमलसलिलकलितकपिलगोमयेन ध्वजवेदीं प्रत्यंतभूभागं च सम्माज्र्य ध्वजपीठमलंकृत्य ध्वजमभ्यच्र्य श्रीविमानाभिमुखं सर्वाण्हयक्षप्रतिमां छत्रत्रयं च निधायाभ्यच्र्य। दिक्पालादिपरिवारध्वजदेवताः समाहूय।
अवभृथदिनावधिका अवस्थाप्य। तत्पीठेषु समभ्यच्र्य। महाध्वजदंडं तद्दक्षिणे पाश्र्वे स्थित्वा नवकलशैरभिषिच्य अभ्यच्र्य। ध्वजबहिर्भागे द्विद्रोणप्रमितान् सदर्भाक्षतशालीन् प्रस्तीर्य। तदुपरि भेरीशंखघंटादिवाद्यानि निधाय।
भूम्यर्चन- विधिनाभ्यच्र्य स्थित्वा, स्रक्चंदनवसनभूषणभूषितेन देवालयं परीत्य, जिनेश्वरं प्रणिपत्य, पुष्पांजलिं विकीर्य, तद्वाद्यानामग्रतो विमानाभिमुखं स्थितेन ताडकेन भेर्यादिवाद्यानि क्रमेण ताडयित्वा पुष्पांजलिपूर्वकं जयादिमालामंत्रमुद्घोष्योद्घोष्य, भूयो भूयो भेरीं ताडयित्वा पुण्याहमुद्घोष्य तांबूलगंधपुष्पाद्यैः सर्वान्जनान्संतर्पयामहे।।
(प्रतिष्ठा दिवस से छह दिन पहले दिन में ध्वजारोहण विधि पूर्ण करके, उसी रात्रि में श्रीबलिविधि-पूजा करें, पुनः गोमय से ध्वजावेदी और उसके चारों तरफ के भाग को संमार्जित-लिप्त करके ध्वजपीठ को अलंकृत करके ध्वजा की पूजा करें, श्रीविमान-मंदिर के सामने सर्वाण्हयक्ष प्रतिमा और छत्रत्रय को रखकर पूजा करें।
दिक्पालादि परिवार, ध्वजदेवताओं का आह्नान करके ‘अवभृथ अभिषेक’ दिवसपर्यंत उनकी स्थापना करके उनकी पूजा करें। महाध्वजदंड के दाहिनी तरफ खड़े होकर नवकलशों से अभिषेक करके पूजा करें। पुनः ध्वजा के बाह्य भाग में दो द्रोण-8 किलो तंदुल फैलाकर उस पर दर्भ डालकर उसके ऊपर भेरी, शंख, घंटा आदि बाजे रखें।
अनंतर ‘भूमि अर्चन’ विधि से पूजा करके माला, चंदन, वस्त्र, अलंकार से भूषित होकर मंदिर की प्रदक्षिणा देकर जिनेंद्रदेव को नमस्कार करके पुष्पांजलि क्षेपण करें। पुनः उन बाजों के आगे और मंदिर के सामने खड़े होकर बाजे वालों से भेरी आदि बाजे क्रम से बजवावें। अनंतर पुष्पांजलि क्षेपण करते हुए ‘‘जयादिमालामंत्रों को’’ बोल-बोलकर पुनः पुनः भेरी बजवावें। बाद में पुण्याहमंत्र बोलकर तांबूल, गंध, पुष्प आदि से सभी आगंतुकजनों को प्रसन्न करे।) अब प्रयोगविधि दिखाते हैं
(आगे का श्लोक पढ़कर सर्वाण्हयक्ष को और मंदिर के सामने स्थित सर्वाण्हयक्ष की प्रतिमा को अघ्र्य चढ़ावें।)
उत्तुंगंशरदभ्रशुभ्रमुचितं, सद्विभ्रमं बिभ्रतम् । यो दिव्यद्विपमारुरोह शिरसि, श्रीधर्मचक्रं दधौ।। हस्ताभ्यामसितद्युतिं करयुगे-नान्येन बद्धांजलिम्। तं जैनाध्वररक्षणक्षममिमं, सर्वाण्हयक्षं यजे।।1।।
(सर्वाण्ह यक्ष के पास स्थापित तीन छत्र को अघ्र्य चढ़ावें।)
लोकत्रयैकाधिपतित्वचिन्हं, छत्रत्रयं मंगलवस्तुमुख्यम्। निवेशितं श्रीजिनवामभागे, यजामहे निर्मलवारिमुख्यैः।।2।।
(जल, चंदन आदि चढ़ावें)।
(आगे के 1-1 श्लोक व मंत्र पढ़कर दशदिक्पाल की पूजा करके अघ्र्य चढ़ावें।)
अनुष्टुप्छंदः-
प्रालेयशैलसंकाशं, समुत्तुंगमतंगजं।
आरूढमतिरूढश्री-बिडौजसमिहाव्हये।।1।।
भीषणाकारमेषाढ्यं, मेषोषितमुषर्बुधं।
तोषयामि समाहूय दोषापेतजिनाध्वरे ।। 2 ।।
तमालश्यामलोत्ताल-भैरवाकारसैरिभम्।
अधिश्रितमधिश्रीमच्छ्राद्धदेवं समाव्हये ।। 3।।
ऋक्षाकारस्वसात्कारी, रक्षोयानमधिष्ठितः ।
समाहूतः समायातु, यातुधानो जिनाध्वरे।। 4।।
स्फारदारुण-दंष्ट्राति-भीमेभमकरस्थितं ।
पाशपाणिं जिनाधीश-यज्ञे संशब्दयामहे ।। 5 ।।
गंगारंगत्तरंगौघ-गतितुंगतुरंगम।
आशुगाशु समागच्छ, यागे त्वामाव्हयेऽर्हतः ।। 6 ।।
नानारत्नमयोदार-श्रीविमानमधिश्रितं।
जिनराजाध्वरे राज-राजमाकारयामहे ।। 7 ।।
कैलासशैलतुंगांग-शाक्वरास्थितमीश्वरम् ।
आव्हयेऽनश्वरश्रीमज्जिनेश्वरमहामहे।। 8 ।।
धराधरोपमातुच्छ, कायकच्छपकस्थितम् ।
सर्पराजं समाहूय, तर्पयामि सपर्यया।। 9 ।।
सांद्ररुंद्रसटाटोप-मृगेंद्रगतमुज्ज्वलं।
चंद्रमाहूय सत्कुर्वे, जिनचंद्रमसो मखे ।।10 ।।
इंद्राग्निकालनिकषात्मजपाशिवायु-श्रीदेंदुशेखरफणाधरराजचंद्राः ।
साकं स्वकैरवभृथावधि तिष्ठतात्र, निःशेषविघ्नमपसारयताध्वरस्य।।11।।
(आगे के श्लोक मंत्र बोल-बोलकर श्री आदि आठ देवियों की पूजा करें)
अनुष्टुप्छंदः-
हेमसाद्भूतहिमवत्सरोवरसरोरुहे।
या वसेत्तडिदाभां तां, श्रीदेवीं बहुमानये।।1।।
अर्जुनात्मोर्जितमहाहिमवत्सरसोंबुजे ।
या समास्ते जपाभां तां, ह्रीं देवीमाव्हयामहे ।। 2 ।।
तपनीयमयोत्तुंग-निषधाद्रिसरोम्बुजे ।
वसन्तीं विद्युदुद्द्योतां धृतिदेवीं यजामहे ।। 3 ।।
वैडूर्यमयनीलाद्रिसरःसरसिजस्थितिम् ।
कार्तस्वरोज्ज्वलन्मूर्तिं कीर्तिदेवीं समर्चये ।। 4 ।।
रूप्यात्मरुक्मिसरसो-सरसीरुहवासिनीं ।
भास्वद्भर्मसमिद्धाभां, बुद्धिदेवीं यजामहे ।। 5 ।।
हेमात्मनः शिखरिणः, कासारकमलालयां।
कलधौतप्रभालक्ष्मीं लक्ष्मीदेवीं प्रसादये ।। 6 ।।
पुष्पास्यकलशां कंज-हस्तां शस्तविभूषणां ।
कनत्कनकसत्कांतिं शांतिदेवीमिहाव्हये ।। 7 ।।
सर्वमातृजिनाधीश, मातृसेवापरायणां।
निष्टप्ताष्टापदरुचिं, पुष्टिदेवीं प्रपूजये ।। 8 ।।
स्वागताछंदः-
सप्तमातर इति व्यपदेशं, या वहंति जिनमातृसमेताः।
श्र्यादयः षडपि ताः सुखपुष्टी, शांतिपुष्टिसहिता वितरंतु ।। 9 ।।
(दश प्रकार के चिन्हों से सहित दश ध्वजाओं को क्रम से दश दिशाओं में स्थापित करें। इन दशचिन्हों के नाम-माला, सिंह, कमल, वस्त्र, गरुड़, हाथी, बैल, चकवा, मयूर और हंस। ये दशों ध्वजायें क्रम से पांच वर्ण की मानी हैं।
उनके वर्ण-पीत, लाल, काली, हरी, श्वेत, नीली, काली, पंचवर्णी, पंचवर्णी और पंचवर्णी ऐसी ध्वजायें बनावें और क्रम से आगे के श्लोक व मंत्र बोल-बोलकर उन-उन दिशाओं में लगाते जावें। यहां अधर और ऊध्र्व दिशा के लिए ईशान से पूर्व के बीच को अधो दिशा और नैऋत्य तथा पश्चिम दिशा के बीच की दिशा को ऊध्र्व मानकर वहां-वहां लगाते हैं।
आर्याछंदः-
मालाहरिकमलांबरगरुडेभगवेशचक्रशिखिहंसैः।
उपलक्षितध्वजानि न्यसामि दशदिक्षु पंचवर्णानि।। पुष्पांजलिः ।।
(पुष्पांजलि क्षेपण करें)
अनुष्टुप्छंदः-
पीतप्रभाव्हया देवी, पीतवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, पूर्वस्यां दिशि तिष्ठतु।।1।।
पद्माख्यदेवी पद्माभा, पद्मवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, आग्नेय्यां दिशि तिष्ठतु।।2।।
सा मेघमालिनी कृष्णा, कृष्णवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, अपाच्यां दिशि तिष्ठतु।।3।।
हरिन्मनोहरा देवी, हरिद्वर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, नैऋत्यां दिशि तिष्ठतु ।।4।।
श्वेताभा चंद्रमालेयं, श्वेतवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, प्रतीच्यां दिशि तिष्ठतु।।5।।
नीलाभा सुप्रभा देवी, नीलवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, वायव्यां दिशि तिष्ठतु।।6।।
श्यामप्रभा जयादेवी, श्यामवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्या-मुदीच्यां दिशि तिष्ठतु।।7।।
विजया पंचवर्णाभा, पंचवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, ईशान्यां दिशि तिष्ठतु।।8।।
विजया पंचवर्णाभा, पंचवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्या-मधरादिशि तिष्ठतु।।9।।
विजया पंचवर्णाभा, पंचवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्या-मूध्र्वायां दिशि तिष्ठतु।।10।।
इति पंचवर्णपताकार्चनम् ।। (पंचवर्ण ध्वजार्चन विधि पूर्ण हुई)
(ध्वज की अग्रभूमि में चार कोनों में चार कलश या मध्य कलश समेत पांच कलश स्थापित करें।)
शार्दूलविक्रीडितं-
संस्थाप्याननवारिपूर्णकलशान्पद्मापिधानाननान् ।
प्रायो मध्यघटान्वितानुपहितान्सद्गंधचूर्णादिभिः।
द्रोणांभः परिपूरितांश्चतुरशः, कोणेषु यज्ञक्षितेः।
कुंभान्न्यस्य समंगलेषु निदधे, तेषु प्रसूनं वरम्।।1।।
स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः ।
सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः।
धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः कुंभान्समभ्यर्चये।।
(कलशार्चनम्) (पूर्वकथित अघ्र्य श्लोक पढ़कर मंत्र बोलकर कलशों को अघ्र्य चढ़ावें)
(आगे का श्लोक व मंत्र पढ़कर ध्वजदण्ड की पूजा करना।)
उपजातिछंद-
संकल्प्य रत्नत्रयरूपमेतत्स्वेष्टार्थमूलं ध्वजदंडमूलम् ।
संस्नापयेऽहं नवचारुकुंभै-रनादिसिद्धाव्हयदिव्यमंत्रैः।। 1।।
ॐ णमो अरिहंताणं।
णमो सिद्धाणं।
णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं।
णमो लोए सव्वसाहूणं।
चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलम्। सिद्ध मंगलं। साहु मंगलं। केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं।
चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा। सिद्ध लोगुत्तमा। साहु लोगुत्तमा। केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि। सिद्ध सरणं पव्वज्जामि। साहुसरणं पव्वज्जामि। केवलिपण्णत्तो धम्मोे सरणं पव्वज्जामि।
प्रोद्गंधिगंधैः सितैः।
सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।।
हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः।
धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, दण्डं ध्वजस्यार्चये ।।2।।
इत्यादि ध्वजदंडस्यार्चनम् ।।
(भूमि में धुले चावल फैलाकर उन पर वाद्य रखें।)
उपजातिछंद-
ध्वजस्य दंडाद्बहिरत्र भूमौ, द्विद्रोणशालीनभितः प्रसार्य।
भेर्यादिवाद्यं विनिवेशयामि, सदर्भपुष्पाक्षतकांस्तदग्रे।।3।। वाद्यस्थापनम्।।
(आगे का श्लोक बोलकर पुनः नीरजसे नमः’ आदि मंत्रों द्वारा वाद्यों की पूजा करें। वास्तव में भगवान के कल्याणक आदि महोत्सवों में ये बाजे बजाये जायेंगे अतः इनकी पूजा की जाने का यहां कथन है।)
वार्दर्भगंधैः सुमनोक्षतौघैः, दीपैश्च धूपैरमृतोपमान्नैः।
वाद्यानि भेरीप्रमुखानि जैन-यज्ञांगभूतानि समर्चयामि।।4।।
हौं नीरजसे नमः जलं । शीलगंधाय नमः गंधं। अक्षताय नमः अक्षतान्। विमलाय नमः पुष्पं। परमसिद्धाय नमः चरुं। ज्ञानोद्योताय नमः दीपं। श्रुतधूपाय नमः धूपं। अभीष्टफलदाय नमः फलं। इति वाद्यानामर्चनम् ।। (पूर्वोक्तमंत्रों से अष्टद्रव्य चढ़ावें)
(आगे के श्लोकों को पढ़कर क्रम-क्रम से बाजे बजवावें।) (इन श्लोकों का भावार्थ यह है कि स्वर्ग से तीर्थंकर के आगमन के समय देवों ने जो बाजे बजाये थे, क्या ये बाजे ही स्वर्ग से लाये गए हैं? अथवा विरक्त हुए तीर्थंकर देव ने दीक्षावधू का जब वरण किया था-जब दीक्षा ली थी, उस समय देवों ने जो बाजे बजाये थे, क्या यह उन्हींह्रीं बाजों की ध्वनि है?
अथवा जिस समय तीर्थंकर भगवान का सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेक हुआ था, उस समय देवों ने जो बाजे बजाये थे, क्या यह ह्रीं बाजों का घोष है? इत्यादि आशंका हो रही है, इस प्रकार के बाजों से मैं भगवान के श्रीचरणों की पूजा करता हूँ।
नंदीश्वर द्वीप में भगवान की पूजा के लिए जाते समय देवगण जो सुंदर बाजे बजाते हैं, क्या उन्हींह्रीं की यह ध्वनि है? जिनेंद्रदेव ने जब समवसरण में श्रीविहार किया था, उस समय देवों ने जो साढ़े बारह करोड़ मंगलवाद्य बजाये थे, क्या ह्रीं का यह उद्घोष है? इत्यादि अनेक प्रकार की कल्पना करते हुए हम इन बाजों को बजाकर भगवान के श्रीचरणों की पूजा करते हैं।
अथवा जिनेंद्रदेव का जब मेरु पर्वत पर जन्माभिषेक हुआ था, उस समय वह अभिषेक का जल उछलकर जमीन पर पड़ते हुए गंगानदी जैसा कलकल रव कर रहा था क्या यह उसी समय की मंगलध्वनि है? ऐसी कल्पना करते हुए हम इन वाद्यों से भगवान के श्रीचरणों की पूजा करते हैं।)
शार्दूलवि.-
किं स्वर्गाज्जिनपागमे सुरवरै-रानीततूर्यस्वरः।
किं नीरागजिनस्य निष्क्रमवधू-पाणिग्रहे घोषणा।
किं मेरावमरेन्द्रजैनजनन-स्नाने सुरातोद्यसं-पन्नोद्घोष इतीह शंकितरवै-र्वाद्यैर्जिनांघ्री यजे।।1।।
किं सर्वीयजनस्य दुंदुभिरधो, निर्वाणयोषिद्युतेः।
किं नंदीश्वरभूत्रिमाससुरराड्-विश्वेशपूजारवः।
किं कैवल्यरमायुतौ जिनपतौ, वृंदारकातोद्यसं-पन्नोद्घोष इतीह शंकितरवै-र्वाद्यैर्जिनांघ्री यजे।।2।।
किं नाथस्य महाविहारसमये, प्रस्थानभेरीरवः ।
किं मुन्यादिगणावृतातिविलसत्सर्वेशदिव्यध्वनिः।
किं मेरोर्जिनजन्ममज्जनपयो-भूपातजातो वियद् । गंगाघोष इतीह शंकितरवै-र्वाद्यैर्जिनांघ्री यजे।।3।।
अथैकैकमुक्त्वा प्रत्येकं वाद्यमुद्घोषयेत् ।। (एक-एक पद्य बोलकर प्रत्येक बाजे बजवावें)
(अब आगे के बाईस श्लोकों को क्रम से बोलते हुए उन-उन महान पुरुष आदि को यहां बुलाकर विराजमान करें। एक-एक श्लोक बोल-बोलकर पुष्पांजलि क्षेपण करते जावें)
अथ द्वाविंशत्याशिषः श्रीमज्जिनेन्द्रा हतमोहतंद्राः, सुरेन्द्रसंपादितदिव्यपूजाः।
फणीन्द्रयोगीन्द्रनुतप्रभावाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवंतु।।1।।
लब्धात्मलाभा निजसौख्यसिद्धा, ये शुद्धबुद्धाः सुनयादिसिद्धाः।
सिद्धाः समृद्धाः सुगुणैरनन्तैः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवंतु।।2।।
ये पंचभेदांचितपुण्यचर्या-माचारयंति स्वयमाचरन्तः।
आचार्यवर्याश्च परान्पदार्थाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।3।।
येऽध्यापयंति स्वमतप्रसिद्धं, विशुद्धशास्त्रं विनयाद्विनेयान्।
सर्वेप्युपाध्यायपदं प्रपन्नाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।4।।
सर्वंसहा वर्जितसर्वसंगा, ये सर्वदा ध्यानकृतावधानाः।
सर्वद्र्धयः सर्वगुणाश्च सार्वाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु ।।5।।
ये मंगलत्वेन मताश्चतुर्धा, लोकोत्तमा ये च चतुः प्रभेदाः।
शरण्यभूताश्च चतुर्विधा ये, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।6।।
लोकत्रयापादितसत्सपर्याः, पर्यंतयाताप्रतिमप्रभावाः।
भावाधिरूढा नवदेवता याः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।7।।
जयं जनानां ध्रुवमावहन्त्यो, जयोर्जिता निर्जितवैरिवर्गाः।
जयादिदेव्यो जिनपादभक्ताः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।8।।
विद्याख्यकैवल्यविबोधरक्ता, विद्याविभूत्यादिवरप्रदानाः।
विद्यादिदेव्यो विविधप्रभावाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।9।।
विश्वेश्वरा विश्वजगत्सवित्र्यः, पूज्या महादेव्य इति प्रतीताः ।
जिनाम्बिका यास्त्रिजगज्जिनाम्बाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।10।।
चतुर्णिकायप्रभवामरेन्द्रा, जिनेन्द्रसेवाप्रसितांतरंगाः।
प्रभूतभूतिद्युतिसौख्यबोधाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।11।।
तिथिप्रवृत्याहितलोकयात्रास्तिथौ तिथौ सौख्यकराः प्रसन्नाः।
तिथीश्वरा यक्षमुखप्रतीक्ष्याः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।12।।
मेरुं परीत्यैव चरन्ति नित्यं, ये निग्रहानुग्रहदा नृलोके ।
अवस्थिता ये बहिरर्कमुख्याः,स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।13।।
यक्षाव्हया रक्षितधर्ममार्गा, ये गोमुखाद्यास्त्रिगुणाष्टसंख्याः।
संख्यावतामिष्टफलप्रदानाः,स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।14।।
यक्ष्यः सपक्षीकृतभव्यलोका, लोकाधिकैश्वर्यनिवासभूताः ।
भूतानुकंपादिगुणानुमोदाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।15।।
कुलाचलाग्रोरुसरोनिवासाः, श्रीमुख्यदेव्यो जिनमातृसंज्ञाः।
सामानिकादित्रिदशैर्वृता याः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।16।।
दिक्पालकाः पालितसर्वकाष्ठाः, काष्ठां परां येऽधिगता महिम्नाम्।
सन्मंत्रनिघ्ना हतसर्वविघ्नाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।17।।
जिनेन्द्रदौवारिकतां प्रपन्नाः, सुरेन्द्रसम्मानितलोकपालाः।
सोमादयो ये क्षपितान्तरायाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।18।।
विरोधिनां वै विजये विदग्धाः, दुग्धोदगौरामितकीर्तिकान्ताः।
यक्षेश्वरा ये विजयादिसंज्ञाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।19।।
प्रभावयंत्यो मतमार्हतं याः, प्रभापरीतोज्ज्वलदिव्यदेहाः।
प्रभादिदेव्यो ध्वजमावहन्त्यः,स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।20।।
चक्रादिदिव्यायुधसन्निविष्टाः, पौलोमिकाद्यष्टविशिष्टदेव्यः।
शिष्टात्मनामिष्टफलप्रदानाः, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।21।।
द्वीपाधिपा दीव्यदनावृताद्याः, समुद्रनाथा अपि ये परे च ।
गंगादिदेवीनिवहाश्च सर्वे, स्वागत्य ते सन्निहिता भवन्तु।।22।।
(प्रथम श्लोक में अरहंतदेव के लिए प्रार्थना की है कि आप यहां सम्यक् प्रकार से आकर विराजमान होवें। पुनः सिद्धों को, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को बुलाकर विराजमान होने को कहा है ।। 1 से 5 ।।
चार मंगल, चार लोकोत्तम और चार शरणभूत को यहां आकर विराजमान होने को कहा है। नवदेवता-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य, चैत्यालय इन को विराजमान होने को कहा है।। 6 से 7 ।।
पुनः जयादिदेवी, विद्या आदि देवी, जिनमाता, इनको बुलाकर विराजमान किया है। इसके बाद चतुर्णिकायदेवेन्द्र, तिथीश्वर, ज्योतिर्वासीदेव, चैबीस यक्ष, चैबीस यक्षिणी, श्री- आदि देवियां, दिक्पाल, सोमादि लोकपाल और विजय आदि को बुलाकर उन्हें विराजमान होने को कहा है।। 8 से 19 ।।
पुनः प्रभा आदि ध्वजदेवता, चक्रादिदिव्यआयुधों की रक्षा करने वाली पौलोमी आदि देवियां, द्वीपों के अधिपति, अनावृत यक्ष आदि, समुद्रों के अधिपति और गंगा आदि देवियों का स्वागत किया है।। 20-21-22।।
पुष्पांजलिः।। ‘
स्रग्धराछंद-
श्रीपादन्यासमत्राचरत जिनमतोद्योतनार्थं मुनीन्द्राः।
कल्पेन्द्रा विक्रियांगैरिह समुपगता विघ्नशांतिं कुरुध्वम्।
यो भित्वा घातिकर्माचलमखिलजगज्ज्योतिराप्य प्रणेता।
श्रेयोमार्गस्य सोयं जिनविभुरलमाराध्यतेभ्यच्र्य सिद्धान्।।23।।
प्रभावकसिंहसान्निध्यविधानाय समंतात्पुष्पाक्षतं विदध्यात् ।। (पुष्पांजलि क्षेपण करें)
(पुनः कहते हैं कि हे महामुनियों ! जिनमत की प्रभावना करने के लिए आप यहां आकर विराजो । हे स्वर्गों के इन्द्रराज ! आप यहां आकर इस यज्ञ के सर्व विघ्नों को दूर करो। सिद्धों की पूजा करके मैं जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, ऐसे अर्हंतों की आराधना करता हूँ।) आगे का श्लोक बोलकर चारों तरफ पुष्पांजलि क्षेपण करें।
शार्दूलविक्रीडितं-
आर्याः पोषयताशिषद्र्धिकलिताः, सप्तापि हुत्वार्चिताः।’
देवा विघ्ननिवारणेन निखिलाः स्वस्वायुधाद्यन्विताः।
स्थानस्थाश्च सुरर्षयस्तुत मुदा, सर्वेऽहमिंद्रास्तथा।
श्रद्धत्तार्यजनाश्च पंच सदयं, यागं मया प्रस्तुतम्।।24।।
त्रिभुवनधार्मिकाध्येषणाय समन्तात्पुष्पाक्षतं क्षिपेत् ।। (चारों तरफ पुष्पांजलि क्षेपण करें)
(पुनः आगे के कहे श्लोकों को पृथक्-पृथक् बोलकर पुष्पांजलि क्षेपण करके वादकों से भेरी बजवावें। इसमें आठ दिशाओं के क्रम से आठ श्लोक हैं और उनके साथ वादकों द्वारा बजाने वाली ध्वनि के अक्षरों का उच्चारण कराया गया है। मंदिर के या मंडप के चारों तरफ फेरी लगाते हुये आठों दिशाओं में क्रम-क्रम से श्लोक व वाद्य अक्षर बोल-बोलकर भेरी बजवाना चाहिए।)
वक्ष्यमाणैतान् श्लोकानुक्त्वा पृथक्पृथक्पुष्पांजलिं
स्वयं विकीर्य ताडकेन भेरीं ताडयेत् ।।
सर्वत्र च ब्रह्मपदे निषण्णो, ब्रह्मावृतो वास्तुसुरैरशेषैः।
अर्हत्प्रभोरध्वरमंडपेऽस्मिन्, समागतः सन्निहितोऽस्तु सद्यः।।1।। (पूर्व दिशा में)
इदमुक्त्वा पूजकाचार्यः पुष्पांजलिं प्रयुंजीत ।। (पद्य बोलकर विद्वान् पूर्व दिशा में पुष्पांजलि क्षेपण करे)
जयति वंद्यं त्रिदशपतिनुतं मंडलीकमुकुटसंबंधविलसन्मणिगणमंडलितकिरणसंगकृतपरिधिबंधम्। पदयुगलम्। लपदुरंतं सुबहुभवनिबंधं सकलदुरितवृंदं क्षपयितुं प्रभवदंचम् । चरणरुचिविटंकं शिवसुपथमलंघ्यं च जिनपतेः ।। इदं वाक्यं वादको वादयेत् ।। एवमुत्तरत्रापि ।।
ऐरावणं वारणरत्नरूढं, आरूढवान्वज्रकरः सुरेन्द्रः।
अर्हत्प्रभोरध्वर मंडपेस्मिन्, समागतः सन्निहितोऽस्तु सद्यः।।2।। (आग्नेय दिशा में)
गगदुग गगदुग डर्गंडर्गण घटिमघल घटितवृद्धम् । घ्रीचतुघ्रीचतुरूपारूपारेकतटा। एकस्तटिमटि क्रमतटविकट क्रमतटविकट तटे। (वाद्य बजावें) सततं सततं सद्योजातं। वामनघोरस्तत्पुरुषाभाभागम् ।। बलिशुभयं स्त्रैस्त्रैमस्त्रैविकले।
स धर्मराजो महिषाधिरूढो, दंडायुधो दंडितवैरिवर्गः।
अर्हत्प्रभोरध्वर मंडपेऽस्मिन्, समागतः सन्निहितोऽस्तु सद्यः ।। 3 ।। (दक्षिण में)
विप्रवंतु स्तुतिस्पृष्टदक्षस्मकदलिप्रवृक्षस्य रसभे ।। (वाद्य बजावें)
ऋक्षाधिरूढःक्षपितांतरायो, रक्षःपतिर्मुग्दरभीकरास्त्रः।
अर्हत्प्रभोरध्वरमंडपेऽस्मिन्, समागतः सन्निहितोऽस्तु सद्यः ।। 4 ।। (नैऋत्य में)
कल्पवृक्षदर्शनमर्दतं निर्जपरमस्तुत्यकमले । (वाद्य बजावें)
पाशी करिप्राङ्मकराधिरूढो, विघ्नापहारी फणिपाशपाणिः ।।
अर्हत्प्रभोरध्वरमंडपेऽस्मिन्, समागतः सन्निहितोऽस्तु सद्यः।।5।।(पश्चिम में)
कस्तवंत यदि विस्पृशभ्यत्यजगगं जिनस्यार्घममृतम् ।। (वाद्य बजावें) ‘
रंगत्तरंगाभतुरंगरूढः, समीरणो दारुणभूरुहास्त्रः।
अर्हत्प्रभोरध्वरमंडपेऽस्मिन्, समागतो सन्निहितोऽस्तु सद्यः ।। 6 ।।
युशयुशकमल रक्षशुष्कभभवति यिमुदि द्धिज्जगसा ।। (वाद्य बजावें)
समाश्रितः पुष्पकसद्विमानं, कुबेरवीरो विधृतोग्रशक्तिः ।
अर्हत्प्रभोरध्वर मंडपेऽस्मिन्, समागतो सन्निहितोऽस्तु सद्यः ।। 7।।
नृत्तानंदं नेदानंदं निर्मलनिर्मल दंडं ।। (वाद्य बजावे)
कैलासशैलोपमशाक्वरस्थो, महेश्वरः शूलधरस्त्रिनेत्रः।
अर्हत्प्रभोरध्वरमंडपेऽस्मिन्, समागतो सन्निहितोऽस्तु सद्यः ।। 8 ।। (ईशान में)
दंतमदन्तं क्रमतटमृककट झर्झरीमंतलि झल्लरि काकिणभेदुंदुंभि हेहं नद्र्धम् ।। (वाद्य बजावें)
(पुनः आगे का ‘स जयतु’ इत्यादि श्लोक बोलकर मंडप में सर्व तरफ पुष्पांजलि क्षेपण करें। अनंतर पुण्याहवाचन बोलकर सर्वजनों को तांबूल, गंध, पुष्पादि से संतर्पित करें या समयोचित लोगों को फलादि देकर प्रभावना ।
स जयतु जिनधर्मो यावदाचंद्रतारं, यमनियमतपोभिर्वद्र्धतां साधुसंघः।।
अहरहरभिवृद्धिं यांतु चैत्यालयास्ते, तदधिकृतजनानां क्षेममारोग्यमस्तु।।9।।
अनेन मंडपांतः समन्तात्पुष्पाक्षतं क्षिपेत् पुष्पांजलिं च विकिरेत्।। ततः पुण्याहमुद्घोष्य तदनंतरं सर्वान् जनान् तांबूलगंधपुष्पाद्यैः संतर्पयेत्। इति भेरीताडनविधानम् ।।
इति ध्वजारोहणविधिं सभेरी-संताडनं यो विदधाति भव्यः।
स मोक्षलक्ष्मीनयनोत्पलानां, नक्षत्रनेमित्वमुपैति नूनम् ।। 10 ।।
इस प्रकार जो भव्य ध्वजारोहण विधि और भेरीताडनविधि को करते हैं, वे मोक्षलक्ष्मी के नेत्रकमलों को प्रफुल्लित करने के लिए चंद्रमा के समान हो जाते हैं।
इत्यर्हत्प्रतिष्ठासारसंग्रहे नेमिचंद्रदेवविरचिते प्रतिष्ठातिलकनाम्नि ध्वजारोहणविधिर्नाम पंचमः परिच्छेदः।
इस प्रकार श्री नेमिचंद्रदेवविरचित ‘प्रतिष्ठातिलक’ नाम के अर्हत्प्रतिष्ठासारसंग्रह स्वरूप ग्रंथ में ध्वजारोहणविधि को कहने वाला यह पांचवाँ परिच्छेद पूर्ण हुआ।