भगवान महावीर के पश्चात् उनके प्रथम गणधर गौतम स्वामी ने दिव्यध्वनि को ग्रहण कर उसे ग्रंथरूप में निबद्ध किया। उसी श्रुत परम्परा को अनेक आचार्यों ने आगे बढ़ाया। उनमें आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का नाम ग्रंथ रचना में सर्वाधिक प्रचलित है। वे श्रमणसंस्कृति के उन्नायक कहे गये हैं। उनके अनेक नाम भी आते हैं-पद्मनंदी, वक्रग्रीव, गृद्धपिच्छाचार्य, एलाचार्य आदि। वर्तमान में भी उनके पश्चात्वर्ती साधुगण अपने को कुन्दकुन्दाम्नायी मानते हैं। तभी प्रशस्ति आदि में कुन्दकुन्दाम्नाये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे….. लिखा जाता है। इन्होंने ८४ पाहुड़ ग्रंथों की रचना की थी जिनमें से आज लगभग १२ रचनाएँ उपलब्ध हैं। समयसार, प्रवचनसार, नियमसार आदि आध्यात्मिक ग्रंथ माने जाते हैं, वहीं उन्हीं के ‘‘रयणसार’’ ग्रंथ में श्रावक धर्म और मुनिधर्म का निरूपण किया गया है। सम्यग्ज्ञान मोक्षप्राप्ति में कारण है, किन्तु सम्यग्ज्ञान और चारित्र को धारण किये बिना मोक्ष की सिद्धि नहीं हो समती। मोक्षमार्ग पर चलने के लिए श्रावक और मुनि को किस प्रकार अपने कर्तव्यों का पालन करना चािहए, इस पर प्रकाश डाला गया है। श्रावक धर्म और मुनिधर्म एक-दूसरे के पूरक माने गये हैं। पद्मपुराण ग्रंथ में कहा गया है-श्रावकधर्म मुनिधर्म का लघु भ्राता है।
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने गाथा नं. ११ में श्रावक और मुनि के आवश्यक कर्तव्य बताते हुए लिखा है-
दाणं पूजा मुक्खो, सावयधम्मो ण सावया तेण विणा।
झाणज्झयणं मुक्खं, जइधम्मं ण तं विणा तहा सोवि।।११।।
अर्थात् श्रावक के लिए दान और पूजा तथा मुनि के लिए ध्यान और अध्ययन ये दो मुख्य धर्म कहे हैं।
सम्यग्दर्शन संसार परिभ्रमण को कम करने वाला है और मिथ्यात्व चतुर्गति में भ्रमण करते हुए संसाररूपी समुद्र में डुबाने वाला है।
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने १६७ गाथाओं के माध्यम से, रत्नत्रय धारण कर किस प्रकार उसका पालन करना चाहिए, इस पूरे विषय को प्रतिपादित कर दिया है। ‘‘रयणसार’’ का अर्थ है जिसमें रत्नत्रयरूपी जो अमूल्य निधि है, उसका सार भरा है। श्रावक के लिए देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये षट्कर्म बताये हैं। पंचमकाल में मुनियों को भी धर्मध्यान ही हो सकता है अत: धर्मध्यान का अभ्यास करना श्रेष्ठ है।
गाथा नं. १५३ के हिन्दी पद्यानुवाद में श्रावक भी ५३ क्रियाएँ बताते हुए लिखा है-
अष्टमूलगुण बारह व्रत अरु, समता बारह तप धरना।
ग्यारह प्रतिमा दान चतुर्विध, अरु नित जलगालन करना।।
रात्रि न भोजन करे व समकित, ज्ञान चरित उर में धरना।
ये श्रावक की नित्य क्रियाएँ, त्रेपन नित पालन करना।।१५३।।
अंत में कहा गया कि वीतरागी मुनि ही मोक्षमार्ग के स्वामी हैं-
जिणलिंगधरो जोई, विराय सम्मत्त संजुदो णाणी।
परमोवेक्खाइरियो, सिवगई वहणायगो होई।।१६४।।
इस ग्रंथ का यही सार है कि सम्यक्त्व के बिना ज्ञानप्राप्ति, तपश्चरण, चारित्रधारण, सभी संसारभ्रमण में बीज के समान हैं। सम्यक्त्वहीन श्रावक और साधु दोनों ही आत्मा की सिद्धि में समर्थ नहीं हो सकते। सम्यक्त्व ही आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की सिद्धि में प्रबल कारण है अत: आचार्य ने कहा है कि अपने पद के अनुसार श्रावक और साधु समीचीन रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करेें, तभी कार्य की सिद्धि
इस ‘रयणसार’ ग्रंथ की गाथाओं का पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने सरस सरल भाषा में पद्यानुवाद किया है, जो प्राकृत भाषा में गाथा का अर्थ स्पष्ट नहीं जान सकते, उनके लिए यह अतीव उपयोगी ग्रंथ है-इसमें बीच-बीच के पदों में विभिन्न छंदों का प्रयोग किया है जो निम्न है-मुक्तक छंद, वीर, बसंततिलका, कवित्त, हरिगीतिका, रोला।
पूज्य अभयमती माताजी अपने समय का सदुपयोग ज्ञानार्जन एवं लेखनकार्य में करती हैं। उसी का प्रतिफल ‘‘रयणसार सरस काव्य पद्यावली’’ रचना है।
ग्रंथ का उपसंहार करते हुए कुन्दकुन्द आचार्य की प्राकृतगाथा को हिन्दी पद्य में अभयमती माताजी ने उसका भाव प्रस्तुत किया है कि-
रदि सज्जण पुज्जं ‘रयणसारग्रंथं’ णिरालसो णिच्चं।
जो पढइ सुणइ भावइ, पावइ सो सासयं गुणं।।१६७।।
यह ‘‘रयणसार’’ नामक सुग्रंथ, नित संतों द्वारा पूज्य रहे।
ऐसे सुग्रन्थ को जो मुनष्य, आलस तजकर प्रतिनित्य गहे।
अरु पढ़े सुने चिंतवन करे, नित इसके रूप प्रवृत्ति धरे।
वह अविनश्वर निज सिद्ध रूप, मय शाश्वत शिवसुख प्राप्त करे।।
अर्थात् इस ग्रंथ का अध्ययन कर जो मनुष्य इसमें कहे अनुसार प्रवृत्ति करेगा, वह अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करेगा।
वीर प्रभू से यही प्रार्थना है कि पूज्य माताजी स्वस्थ रहकर अपने संयमी जीवन का भलीभांति परिपालन करती रहें और भविष्य में भी हमें अपनी लेखनी से सरल-सरस साहित्य लेखन कर मार्गदर्शन प्रदान करती रहें।