विचार की दृष्टि से जिनवाणी विज्ञान है और आचार की दृष्टि से आत्म विकास का मार्ग। जाति, व्यक्ति, सम्प्रदाय आदि संकीर्ण विचारों से परे भगवान् महावीर ने Science of Creation and Spiritual Evoluation का विकास जनकल्याण हेतु किया ‘नानस्स सारो आसरो’ के उद्घोष के साथ सर्वदर्शी सर्वज्ञ भगवान महावीर ने सहस्रों वर्ष पूर्व मानव समाज को संदेश दिया – ‘उप्पने ईवा विग्नेईवा, ध्रुवेई वा’ इस संसार का सत् है। भगवान के इन शब्दों में ज्ञान और साधना का इतना गूढ़ और गंभीर संदेश था कि गणधरों ने चौदह पूर्वों की रचना कर डाली। साथ में यथार्थता, तथा प्राकृतिक नियमों पर आधारित एक ऐसे धर्म की स्थापना हो गयी जिसमें जन्म-मृत्यु, सुख-दु:ख, आदि मानवीय समस्याओं का समाधान ईश्वर द्वारा न होकर स्वयं मनुष्य द्वरा किया जाता है। ईसा की सोलहवीं शताब्दी में युरोप में भगवान महावीर के इस निमय को Law of Conservation of Mass and Energy के नाम से प्रस्तुत कर आधुनिक विज्ञान की नीव रख दी। इसी नियम के कारण वैज्ञानिक युरोप में औद्योगिक क्रांति लाने में सफल हो गये। इस प्रकार विज्ञान के वास्तविक संस्थापक भगवान महावीर हैं, परन्तु पश्चिम जगत के साथ-साथ भारतीय भी इस ऐतिहासिक तथ्य से अनभिज्ञ हैं। भगवान महावीर विश्व के प्रथम वैज्ञानिक हैं जिन्होंने उद्घोष किया, ‘विश्व ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है। जीव-अजीव द्रव्यों की एक प्राकृतिक शाश्वत परन्तु परिवर्तनशील व्यवस्था है।’ वर्तमान में वैज्ञानिक भी कहते हैं विश्व ईश्वर की कृति नहीं है अपितु परमाणु (एटम) और उर्जा (Energy) का समूह है जिसे वैज्ञानिक मैटर भी कहते हैं। संसार के जड़ और चेतन स्वरूप का अध्ययन कर सर्वज्ञ प्रभु ने वर्तमान अंतरिक्ष विज्ञान, पदार्थ विज्ञान, परमाणु विज्ञान, कर्म विज्ञान आदि के मूल सिद्धान्तों की घोषणा की। सर्वज्ञ देव ने कोई वैज्ञानिक प्रयोग (Scientific Experiment) नहीं किये परन्तु उन्होंने आत्मिक और बौद्धिक चिन्तन द्वारा निरपेक्ष सत्य (Absolute Truth) का अनुभव किया। आत्मिक और बौद्धिक चिंतन वर्तमान विज्ञान में Thought Experiment के नाम से जाने जाते हैं, जिसका प्रयोग कर आईन्स्टाईन ने सापेक्षता के सिद्धान्त की पुष्टि की। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दि में वैज्ञानिकों ने महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों की पुन: खोज की और आईन्स्टीन, बोहर, हायझेन बर्ग, मैक्स बार्न, डीब्रोली जैसे अनेक वैज्ञानिक ई० सन् १९८५ के बाद नोबल पुरस्कार से सम्मानित किये गये। जिनवाणी में सत् का प्रतिपादन है और यही ‘सत्’ आज का विज्ञान है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों में सैखान्तिक और वैचारिक मतभेद नहीं है। मतभेद है आचार संहिता में। यदि जिनवाणी को विज्ञान के आलोक में ग्रहण किया जाए तो दोनों सम्प्रदायों के विचार-आचार में मैतक्य स्थापित हो सकता है। जिनवाणी के वैज्ञानिक स्वप का परिचय इस व्याख्यान में दिया गया है। भगवान महावीर की वैज्ञानिकता इन तथ्यों से सिद्ध होती है-
(१)आकाश, लोक और आलोक की जैन मान्यता एवं वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित क्रमश: Cosmic Space Observable Space और Empty Space में पूर्ण समानता है।
(२)द्रव्य सत्ता, द्रव्यों की नित्यता, अनित्यता, गुण-लक्षण द्रव्यों का परमाणु और प्रदेश स्वरूप, स्कन्ध, स्कन्ध निर्माण के नियम आदि विषयों पर भी दोनों में मैतक्य है।
(३) परमाणु और चेतन तत्त्व जीव-अजीव पदार्थों का निर्माण ‘उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य’ सिद्धान्त के अनुसार वैसे ही करते हैं जैसे Atom और Energy विज्ञान के Law of Conservation of Mass and Energy के अन्तर्गत करते हैं।
(४) द्रव्यों के अस्तिकाय, परमाणी औश्र प्रदेश स्वरूप का कथन कर भगवान महावीर ने Dual Nature of Matter का सिद्धान्त और क्वांटम थ्यौरी की नींव रख दी।
(५) महावीर का परमाणु विज्ञान का ‘क्वांटा’ है, अष्टस्पर्शी परमाणु एटम है और चर्तुस्पर्शी कार्मण परमाणु विज्ञान का फोनान (Phonon) है।
(६) स्कंध निर्माण का ‘परमाणु-परमाणु’ बंध और जीव उत्पत्ति का ‘परमाणु-प्रदेश’ बंध वैज्ञानिक अवधारणा से भिन्न नहीं है।
(७) भगवान महावीर ने जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया जीव-विज्ञान की अवधाराा के अनुरूप प्रस्तुत की है।
(८) भगवान महावीर का पुरुषार्थ द्वारा एकेन्द्रिय जीव का पंचेन्द्रिय जीव तक के विकास का सिद्धान्त डार्विन के सिद्धान्त से भिन्न नहीं है। भिननता विकास के उद्देश्य में है। जैन अवधारणानुसार इस विकास का उद्देश्य आत्म का चौदह गुण स्थान तक का विकास है। परन्तु डार्विन के अनुसार शरीर विकास का उद्देश्य विपरीत परिस्थितियों में जीवित रहना है। इसलिए डार्विन के सिद्धान्त को Survival of the Fittest का सिद्धान्त भी कहा जाता है।
(९) पाश्चात्य संस्कृति में ‘‘मोक्ष और केवलज्ञान’ अपरिचित शब्द है। भगवान महावीर के अनुसार केवलज्ञान जीव की वह अवस्था है जिसमें चेतना का स्तर इतना ऊँचा होता है कि वह ‘निरपेक्ष और सापेक्ष सत्’ दोनों का अनुभव कर सकता है। ‘परमाणु और चेतन’ संसार का निरपेक्ष ‘सत्’ है जो केवल सर्वज्ञ देख पाते हैं। मनुष्य तो नश्वर संसार को देख पाता है और द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार ‘सत्’ का अनुभव करता है।
(१०) ई. सन् २०१० के पश्चात वैज्ञानिक जगत में व्याकुम क्वांटम फील्ड और गाड पार्टिकल, युनिवर्सल कानशियसनेस (Universal Consiousness) अथवा Biocentrism और Spiritual Evolution का सिद्धान्त है। उपरोक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि भगवान महावीर ने भौतिक और जीव विज्ञान के सिद्धान्तों की खोज की और उन्हें ‘मोक्षमार्ग’ के रूप में जन समुदाय के सम्मुख प्रस्तुत किया। महावीर के विज्ञान और आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्तों में जो भेद दिखाई देता है, उसका मुख्य कारण रेफरेन्स सिस्टम का है। महावीर ने ‘आत्मा’ को केन्द्र बिन्दु या रेफरेन्स पाइंट मानकर ‘सत्’ का प्रतिपादन किया है। वैज्ञानिक परमाणु को रेफरेन्स पाइन्ट मानकर सिद्धान्तों का कथन करते हैं। अत: सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित सत् निरपेक्ष है और वैज्ञानिक सिद्धान्त सापेक्ष है। आइन्स्टाईन इसे Theory of Relativity कहते हैं।