विद्वानों और नेतृत्व का मौन,कहीं समाज को तोड़ न दे !
मुझे आश्चर्य होता है, चींटी के प्राण बचाने वाले अहिंसक दिगम्बर जैन संत जब प्राचीन मंदिरों को बेरहमी से तोड़ते हैं और यह भी कारण स्पष्ट नहीं करते कि मंदिर क्यों तोड़े जा रहे हैं। तो एक सच्चे श्रावक के नाते वेदना होना स्वाभाविक है। कभी तर्क दिया जाता है कि वास्तु दोष है, इसलिए तोड़ा गया। मुझे आश्चर्य होता है कि जो अपने जीवन का वास्तु सुधारने के लिए निकले थे वे संत पुरातत्व से युक्त प्राचीन मंदिरों का वास्तु सुधारने के नाम पर तोड़ रहे हैं। कभी मंदिरों की दीवारें गिरती हुई नजर आती हैं और इसलिये उस आड़ में मजबूत मंदिरों को भी बुल्डोजर से गिरा दिया जाता है। और कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि शासन देवी देवताओं की मूर्ति मंदिर के बाहर हो, इसलिये मंदिर तोड़ रहे हैं। मैं कभी कभी सोचता हूँ, कि दिगम्बर संत के जीवन की किताब तो खुली किताब है।
वहाँ छिपा हुआ कुछ भी नहीं, जो है वो साफ है। जो अंदर है वो बाहर है। वहाँ अपने मतलब के लिए मौन होने की आदत उचित नहीं मानी जा सकती, और इसलिये जो भी कार्य किया जा रहा है, उसका कारण समाज के सामने स्पष्ट आ जाना चाहिए। इसमें छिपने या छिपाने जैसी कोई बात नहीं होती। मैं नहीं मानता कि कोई दिगम्बर संत के मन मे कुछ हो, वचन में कुछ हो और क्रिया में कुछ हो। मैं सच कहता हूँ कि पिच्छि कमण्डल धारी दिगम्बर संत के प्रति मेरी पूरी श्रद्धा है, और उनके लिए और कोई प्रश्न उठाता है तो मुझे पीड़ा भी होती है। दिगम्बरत्व की साधना साधारण बात नहीं है। मैं दिगम्बर मुद्रा को दुनिया का आश्चर्य मानता हूँ। संत बनाये नहीं जा सकते। वे तो पैदा होते हैं। मेरी मान्यता है, मेरा अपना सोच है कि ये सारी बातें स्पष्ट होनी चाहिए कि ये मंदिर लगातार क्यों तोड़े जा रहे हैं ? इस पर चिंंतन होना चाहिए। इस पर विद्वानों को, संतों को, आगम वेत्ताओं को और समाज के नेतृत्व को मौन तोड़कर चिंतन करना चाहिए। आगम में पुरातत्व के लिये जीर्णोद्धार का जिक्र है, नवनिर्माण का नहीं।
विशेष परिस्थितियों में यदि नवनिर्माण किया गया है तो एक दो मंदिरों में हो सकता है, दर्जनों मंदिर बुल्डोजर से तोड़ दें, यह कहाँ तक उचित हैं ? मैंने अभी चाँदखेड़ी से आये हुए दो चित्र जिसमें भट्टारकों के चरण चिह्न उखाड़ के फेके गये, मुझे प्राप्त हुए। उसका इतिहास भी प्राप्त हुआ जो इसी अंक में आगे छपा है। क्या नीयत है, इन सारी घटनाओं के पीछे। किसने तोड़े ? किसने तुड़वाये ? मैं इस चक्कर में पड़ना नहीं चाहता। पर इस पर चिंतन तो होना चाहिए। यदि ये किसी पंथ विशेष के प्रचार के लिए किया जा रहा है तो मैं इसे खतरनाक खेल मानता हूँ, जिससे समाज में पंथ विवाद की आग लग जायेगी और जो समाज को जला देगी। समाज टूट जायेगा, बिखर जायेगा और सारे, संत, नेतृत्व और विद्वान इस बात पर मौन भी रहे तो यह खतरा दिन ब दिन बढ़ता चला जायेगा, ऐसा मुझे लगता है। मुझे चिंता और भी सताती है, पुरातत्व को नष्ट करना, कानूनी अपराध है। और दिगम्बर संत यदि इसमें न्यायालयीन परिधि में यदि आते है, तो समाज की स्थिति बहुत खराब हो जाएगी, क्योंकि यह समाज मुट्ठीभर समाज है। जब शंकराचार्य पर न्यायालयीन कार्यवाही हो सकती है तो दिगम्बर संत पर भी हो सकती है, क्योंकि दिगम्बर जैन संत के लिए अलग से कानून नहीं है।
प्रबुद्ध श्रावकों से मेरा हाथ जोड़ कर निवेदन है कि वे कुछ भी करते रहें, पर कोई संत का नाम इस परिधि में ना आये, अन्यथा हमारे समाज की हालत खराब हो जायेगी। अभी अभी कुण्डलपुर के मंदिर के लिए निर्णय आया और हमने प्रचारित किया कि एक पक्ष जीत गया है। मैंने दिग्विजय नामक पत्रिका में पूरा निर्णय पढ़ा। मैंने भी छापा कि कुण्डलपुर के मंदिर के निर्माण की सारी बाधाएँ दूर हो गई हैं। किन्तु निर्णय पढ़ने के बाद लगा कि अभी भी कानूनी पहलू बाकी है। मैं खुद भी चाहता हूँ कि इस स्थिति में आने के बाद मंदिर बिना बाधा का पूरा बने। किन्तु लगातार यदि मंदिर तोड़े जा रहे हैं तो यह खतरे से खाली नहीं। और कल्पना कीजिए यदि कुण्डलपुर के केस में कदाचित विरुद्ध में निर्णय आता और किसी संत पर कोई कार्यवाही की संभावना बनती तो हमारी हालत क्या होती। इसलिये संतों को विवाद से दूर रखें, यह मेरा करबद्ध निवेदन है। संत साधक होते हैं सर्वज्ञ नहीं। कोई जरूरी नहीं कि उन्हें कानून का ज्ञान हो। साथ रहने वाले श्रावक को सावधान रहना पड़ेगा।
इस बारे में आचार्यश्री विद्यानंदजी महाराज, गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी का स्टेटमेण्ट मैंने टी.वी. पर सुना। उन्होंने कहा प्राचीन मंदिरों का जीर्णाद्धार होना चाहिए, नवनिर्माण नहीं। मैं अन्य संतों से भी निवेदन करता हूँ कि संत किसी का विरोध न करें, किन्तु अपना मन्तव्य आगम के आधार पर न दें, विद्वान इस पर गोष्ठी भी न करें, चर्चा भी न करें और नेतृत्व भी अपने विचार प्रकट न करें, और सब हाथ उठाते रहें, तो भविष्य खतरे से खाली नजर नहीं आता। भविष्य मुझे अंधकारमय नजर आता है। मैं विरोध करने का नहीं कहता। मैं समर्थन करने का भी नहीं कहता। पर चिंतन ही बंद हो जाये, संत, नेतृत्व और विद्वान समाज में घट रही घटनाओं पर चिंतन भी न करें, और मौन हो जायें तो स्थिति क्या बनेगी ? कैसा प्रबुद्ध समाज है ये ? मौन सब मर्जों की दवा नहीं। आवश्यकताअनुसार विनम्रता और श्रद्धा के साथ अपने मन्तव्य को प्रकट करना अनिवार्य है और यह हमारी नैतिक आध्यात्मिक और सामाजिक जवाबदारी भी है, अन्यथा आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी।
यदि शासन देवी देवताओं की मूर्तियाँ हटाने का यह इस आड़ में उपक्रम है तो यह मान कर चलिए कि प्राचीन मूर्तियों में शासन देवी देवता उत्कीर्ण हैं, कितनी मूर्तियाँ हटाओगे, कब तक हटाओगे, जिंदगी बहुत छोटी है और समाज में इससे आपस में वैमनस्य फैलेगा, इसकी कल्पना हम नहीं कर सकते और इसलिये अपने मौन पर विचार करना चाहिए। अपने पंथ का प्रचार करने के लिये सभी स्वतंत्र हैं। हम बिना मंदिरों को तोड़े भी जाग्रति पैदा कर सकते है। कानजी स्वामी श्वेताम्बर समाज से आये और पूरे देश में शास्त्र स्वाध्याय की जो वैचारिक क्रांति उन्होंने पैदा की, कई पीढ़ी के संत और विद्वान मिलकर भी दिगम्बर जैन समाज में वह क्रांति पैदा नहीं कर सके। तो आप भी अपनी परंपरा को प्रचारित करें। इसमें कोई आपत्ति नहीं। अपने पंथ का प्रचार होना चाहिए। किन्तु दूसरे पंथ का तिरस्कार करने का अधिकार नहीं है। और पुरातत्व में तोड़ फोड़ कानूनी अपराध है, बचा जाना चाहिए तथा कम से कम संतों को तो इस सारे विवादों से दूर रखा जाना चाहिए। मुझे यह भी आश्चर्य होता है कि निर्विकल्प दशा को प्राप्त करने के लिये दिगम्बर मुद्रा संत धारण करते हैं और प्रोजेक्ट के निर्माण के लिए विकल्प की ओर बढ़ते हैं।
संत साधक हैं, सर्वज्ञ नहीं, वे मनुष्य हैं, विकल्प आये बिना रहेंगे नहीं। जब तक प्रोजेक्ट अधूरे हैं, विकल्प आते रहेंगे और बार-बार उसके लिये धन एकत्रित करना होगा। दिगम्बर मुद्र श्रद्धालुओं के माध्यम से पैसा एकत्रित करने का साधन बने, यह कहाँ तक उचित है, इस पर भी चिंतन होना चाहिए। मैं सही हूँ, ऐसा दावा मैं नहीं करता। गलती हो तो माफी भी चाहता हूँ, किन्तु यह सब देखकर और अधूरे प्रोजेक्ट देखकर जो कि करोड़ों की लागत के हैं, कल कई करोड़ के हो जायेंगे, मन को पीड़ा होती है। यह मेरे विचार नहीं हैं, यह प्रबुद्ध जो किनारे खड़े होकर सारी चर्चा करते हैं, उसका निष्कर्ष है। एक पत्रकार के नाते मेरा फर्ज है कि जो देख रहा हूँ समाज को सावधान करूँ। सफलता कम मिलती है या ज्यादा, इसकी चिंता नहीं। बिना करे भी लोग मर रहे हैं, हम कुछ अच्छा करके अपना जीवन पूरा करें, यही कामना है। गलती हो तो क्षमा चाहता हूँ और अच्छा लगे तो स्वीकार करें, किन्तु इस चातुर्मास में श्रावक, नेतृत्व, संत एवं विद्वान मिलकर गोष्ठी अथवा चिंतन अवश्य करें। यही मेरी कामना है। नहीं तो मौन समाज के भविष्य को अंधकारमय बना देगा।