म. प्र. राज्य का धार जिला पुरातात्विक सामग्री से समृद्ध है। इसी कारण लार्ड कर्जन की प्रेरणा से १९०२ में धार संग्रहालय की स्थापना की गई थी। यही संग्रहालय वर्तमान में जिला पुरातत्व संग्रहालय धार के नाम से विख्यात है। यहाँ संग्रहीत १० अभिलिखित परमारकालीन जैन प्रतिमाओं का विवरण प्रस्तुत आलेख में अंकित है। जिला पुरातत्व संग्रहालय—धार वर्तमान मध्य प्रदेश का सबसे प्राचीन संग्रहालय है। प्राचीन धारा नगरी का पुरातत्वीय वैभव तो बहुत समय पूर्व से ही लोगों को ज्ञात था लेकिन इस नगरी में यहाँ के अवशेषों की खोज का इतिहास अधिक प्राचीन नहीं है। धार सियासय में महाराजा आनन्दराव पंवार तृतीय के शासन काल में इनके सद्प्रयत्नों से १८७२ से ही धार स्टेट के पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक सामग्री की खोज संबंधी कार्यवाही प्रारम्भ की गई। इन्हीं के समय महल की खुदाई करते समय १८७४ ईस्वी में कुछ कलाकृतियाँ एवं पुरातत्व अवशेष मिले थे। उन्हीं दिनों १८७५ ईस्वी में मोपावर ऐजेन्सी के पोलिटिकल एजेन्ट मेजर किकेड जब धार आये थे तब उनके द्वारा इन उपलब्धियों की खबर दी गई एवं उन्होंने स्वयं रुचि ली और अनेक कलाकृतियों का एक स्थान पर संग्रहीत किया गया। विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि किकेड के समय किये गये संग्रह में भोजशाला की प्रसिद्ध सरस्वती प्रतिमा भी थी। जिसे बाद में लंदन भेज दिया गया। मध्य भारत (सेन्ट्रल इंडिया) के तत्कालीन पोलिटिकल एजेंट केप्टन बार्नेट ने भी धार स्टेट की पुरातत्वीय एवं ऐतिहासिक सामग्री का अध्ययन एवं अनुक्रम रखने में विशेष रुचि ली और उनके सहयोग से धार रियासत के इतिहासकार राज्यरत्न पं. के. के. लेले ने कमाल मौला मस्जिद (भोजशाला) की शिलाओं पर अंकित अनेक शिलालेख खोज निकाले। पं. के. के. लेले की खोज तत्कालीन भारतीय पुरातत्व की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। डॉ. फ्यूरर बूलर, सर जे. ए. केम्पवेल, प्रो. पिशल व कीलहार्न, राय बहादुर हीरालाल ओझा, डॉ. डी. आर. भण्डारकर तथा हीरालाल जी आदि पुराविद् इस खोज से अत्यधिक प्रभावित हुए।
ई. सन् १८७४ में माऊ दाजी ने भगवान लाल इन्द्रजी को शिलालेख के छापे लेने के लिए धार भेजा। सन् १८७५ में डॉ. व्यूलर मैनेजर डॉ. फ्यूरर भी धार आए। ई. सन् १८९५ में सर जे. ए. वैâम्पवेल ने अपने सहायक पेजुल्ला खां को लेकर पुरात्तवीय खोज को देखने के लिए इस नगरी की यात्रा की इस प्रकार १८७२ में जिस पुरातत्वीय खोज का आरम्भ हुआ। वह सन् १९०० ई. तक पूर्णरूपेण चलती रही। पोलिटिकल एजेंट केप्टन बानेट ने (१९००-१९०४) धार और माण्डू पर अध्ययन करके परिचय पुस्तिका तैयार की। लार्ड कर्जन को पुरातत्व में विशेष अभिरुचि थी। उनकी प्रेरणा से एकत्रित की गई सामग्री को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से सितम्बर १९०२ में धार नगर में धार रियासत द्वारा जागरूकता का प्रदर्शन कर पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना की गई और उसी वर्ष जब कर्जन धारा नगरी आए तब उन्होंने यहाँ के अवशेषों और पुरातत्वीय खोजों के प्रति अपनी र्हािदक प्रसन्नता व्यक्त की। पुरातत्व संग्रहालय के प्रमुख धार रियासत के शिक्षा अधीक्षक श्री के. के. लेले बनाये गये। धार रियासत में संग्रहालय पुरातत्व विभाग की स्थापना के पश्चात पं. लेले के दोनों सहायकों श्री व्ही. के. लेले व मुंशी अब्दुल रहमान ने अनेक स्थलों एवं स्मारकों के सर्वेक्षण का कार्य सम्हाला। इसी तारतम्य में आनन्द हाई स्कूल में एक पुरातात्विक संग्रहालय की स्थापना की गई। उस समय इस संग्रहालय में हिन्दू व जैन कलाकृतियों के अलावा हिन्दू एवं मुस्लिम वास्तु विन्यास के प्रस्तर खंड, संस्कृत व पर्शियन के अभिलेख, सिक्के, पुस्तके तथा अन्य सामग्री को एकत्रित करके प्रर्दिशत किया गया था। स्कूल में सुविधा जनक स्थान न मिलने के कारण कालान्तर में इसे स्थानांतरित कर दिया गया तथा पूर्णत: व्यवस्थित रूप से कलाकृतियों का प्रदर्शन किया गया। धार रियासत की पुरातत्वीय शोध की परम्परा को प्रो. ए. डब्ल्यू वाकणकर डॉ. हर्षन वाकणकर एवं आर. के. देव आदि ने बड़े उत्साह के साथ आगे बढ़ाया। धार नगरी का पुरातत्व अत्यन्त प्राचीन है। ईस्वी सन् १९५६-५७ के डेक्कन कॉलेज (पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीटयूट) पूना के श्री ए. पी. खत्री को सर्वेक्षण के दौरान धार में ताम्राश्म युगीन सभ्यता के अवशेषों के साथ—साथ कुछ अत्यन्त सुन्दर चित्रित मृद भाण्ड भी प्राप्त हुए थे। वर्ष १९७७ में डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर को भी रोमन बुले और कुछ अन्य कुषाण कालीन अवशेष की प्राप्ति हुई। ये सारी उपलब्धियाँ इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि धार की धरती के नीचे भी पुरातत्वीय वैभव भरा पडा है। संग्रहालय में पाषाण प्रतिमाओं का विशाल संग्रह है, जिसमें से दस अभिलिखित जैन प्रतिमाओं का विवरण प्रस्तुत लेख में किया जा रहा है—
आदिनाथ
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में र्नििमत है। अब केवल पादपीठ शेष है। पादपीठ पर तीर्थंकर आदिनाथ का ध्वज लांछन वृषभ (बैल) का अंकन है। पादपीठ पर विक्रम संवत् १३३१ (ईस्वी सन् १२४७) का चार पंक्तियों का लेख उत्कीर्ण हैं, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख में प्रतिष्ठा करने वाला श्रावक का नाम अंकित है तथा वह संवत् १३३१ में प्रतिष्ठा कराकर इसे नित्य प्रणाम करता है। लेख का पाठ इस प्रकार है— सं. (संवत् ) १३३१ वर्षें……… प्रणमति नित्य श्री।।
पद्मप्रभ
छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (स. क्र. ८७१९) पद्मासन की मुद्रा में अंकित है। तीर्थंकर के सिर पर कुलतलित केश राशि लम्बे चाप, वअ पर श्री वत्स चिन्ह है। पादपाद अलंकृत है। संगमरमर पत्थर पर र्नििमत पर १००x७८x से. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वी शती ईस्वी का एक पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख में प्रतिमा पदमप्रभ तीर्थंकर की बताई गई है। लेख का पाठ इस प्रकार है— ………… श्री पदमप्रभ देव:।।
चन्द्रप्रभ
आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (स. क्र. ८४) पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में अंकित है। तीर्थंकर का वक्ष से ऊपर का भाग भग्र है। पादपीठ पर चन्द्रप्रभ का ध्वज लांछन अद्र्धचन्द्र का अंकन है। वेसाल्ट पत्थर पर र्नििमत पर ४र्० ६र्० २७ सेंमी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ईस्वी का एक पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख का पाषाण छिल गया है। लेख का पाठ इस प्रकार है— संवत् …………….. माघ ………….. र्य. …………
शान्तिनाथ
सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ की प्रतिमा बदनावर जिला धार से प्राप्त हुई है। (स. क्र. ४२-६९) तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित है। तीर्थंकर प्रभामण्डल, लम्बे कर्ण चाप, वक्ष पर श्रीवत्स से सुसज्जित है। पादपीठ पर दोनों ओर चंवरधारी शिल्पांकित हैं। इनके एक हाथ में चंवर दूसरा हाथ कट्टया वलम्बित है। वैमुकबुट, कुण्डल, हार, मेखला आदि आभूषणों से सुसज्जित है। पादपीठ पर तीर्थंकर शांतिनाथ का ध्वज लांछन हिरण का रेखांकन है। काले पत्थर पर र्नििमत १२र्५ ६र्१ ३० सें. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर विक्रम संवत् १३३२ (ईस्वी सन् १२७५) का दो पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है। जिसकी लिपि नागरी, भाषा संस्कृत है। लेख में इस प्रतिमा की संवत् १३३२ में प्रतिष्ठा कराने वाले उसे नित्य प्रणाम करते हैं। लेख का पाठ इस प्रकार है— (संवत् ) १३३२ वर्षे………… …….एत (एते) प्रणम (म) ति नित्यं।
शान्तिनाथ
तीर्थंकर शांतिनाथ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है (सं. क्र. ८५)। कायोत्सर्ग मुद्रा में शिल्पांकित है,किन्तु दोनों हाथ भग्र है। तीर्थंकर के सिर पर कुन्तलित केश, लम्बे कर्णचाप व वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है। दोनों और चंवरधारी खड़े हैं, जो एक हाथ में चंवर दूसरा हाथ कट्यावलाम्बित है। ग्रेनाईट पत्थर पर र्नििमत १२र्० े ४र्० े २४ से. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ईस्वी का एक पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत हैं लेख में माथुरान्वय के आचार्य माधव चन्द्र संवत् ……..माघ वदि पंचमी को प्रतिष्ठा सम्पन्न करके प्रतिमा की वन्दना करते हैं। लेख का पाठ इस प्रकार है— ……..माघ वदि ५ माथुर …….. (अन्वये) प्रणमति आचार्य माधवचंद्रो।
मुनिसुव्रतनाथ
बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। पद्मासन मुद्रा में र्नििमत तीर्थंकर का पादपीठ ही है। पाषाण पर (ईस्वी सन् ११६६) का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नगरी भाषा संस्कृत है। लेख में हजार संख्यक अंक का पाषाण खंडित हो गया है, इसमें सवंत् १२२३ माघ सुदि सप्तमी को प्रतिष्ठा कराकर प्रतिष्ठाकारक नित्य प्रणाम करता है। लेख का पाठ इस प्रकार है—संवत् (१) २२३ वर्षे माघ सुदि ७ …….प्रणमति नित्यं। तीर्थंकर—लांछन विहीन तीर्थंकर की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. ७२) पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में तीर्थंकर प्रतिमा के सिर पर कुन्तलित केश, लम्बे कर्ण चाप, वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है। संगमरमर पत्थर पर र्नििमत ११र्० ८र्९ ५० सें. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ईस्वी का लेख उत्कीर्ण है। जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख का पाठ इस प्रकार है। ………..आचार्य प्रणमति………
तीर्थंकर
यह तीर्थंकर प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. ७७) पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में है। तीर्थंकर का सिर व हाथ भग्र है। पत्थर पर र्नििमत ६र्० ३र्० ५३ सें. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ईस्वी का लेख उत्कीर्ण है जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख का वाचन इस प्रकार है।
श्री लाट वागर संघे पंडिताचार्य श्री कलवडा:।।
श्री गर्दनीय गेसवादि ल चुतऊ आके प्रणमति नित्यं।
तीर्थंकर
यह तीर्थंकर प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (स. क्र. ९०) स्तम्भ युक्त गवाच्छ के अंदर तीर्थंकर अंकित है। सिर पर कुन्तलित केश, लम्बे कर्ण चाप, वक्ष पर श्रीवत्स है। दांयी तरफ मकर व्याल व बायी तरफ िंसह व्याल का अंकन है। काले पत्थर पर र्नििमत २र्५ ३र्३ १६ सें. मी. आकर की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ईस्वी का एक पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है, जिसका अंतिम अंश मात्र सुरक्षित है। शेष लेख भाग का पाषाण टूट गया है, लेख की लिपि, नागरी, भाषा संस्कृत है। लेख का पाठ इस प्रकार है— ………प्रणमति नित्यं।
तीर्थंकर के पैर
तीर्थंकर प्रतिमा के पैर से संबंधित शिल्पखंड धार से प्राप्त हुआ है। (सं. क्र. ८१) इस प्रतिमा की केवल जंघा एवं आसन मात्र शेष है। काले पत्थर पर र्नििमत ७र्८ े ५र्६ े १७ से. मी. आकार की प्रतिमा पर लगभग १२ वीं शती का एक पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत हैं लेख में केवल िंलगसुत पंडिताचार्य पढ़ा जा सका है। लेख का पाठ इस प्रकार है— ………पंडिताचार्य िलग सुत ……….. धार संग्रहालय में सुरक्षित अभिलेखित परमार कालीन प्रतिमाएँ काफी महत्वपूर्ण है। इन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों से प्राचीन धारा नगरी एवं निकटवर्ती बदनावर प्राचीन वर्धमानपुर में परमार काल में जैन र्मूितकला एवं जैन धर्म के प्रसार प्रचार पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है।
संदर्भ सूची—
१. Report on Arcaeological work in Dhar State, 1902-03
२. लन्दन में इस प्रमिता की सर्वप्रथम पहिचान राय बहादुर के. एन. दीक्षित ने की थी। कलकत्ता से प्रकाशित रूपम प्रत्रिका (१९२४ पृष्ठ ३ पर) में उन्होंने उसका परिचय भी छपवाया।
३. Epigraphia India, जिल्द ३ पृष्ठ ९६।
४. Indian Archaeoclogy : A Reviwe,१९५६-५७ पृष्ठ ९—१०।
५. चन्द्रवंशी डी. एन. िंसह, जिला संग्रहालय धार, Malwa through the Ages (एम. डी. खरे द्वारा सम्पादित) भोपाल ४४—४५।
६. जैन कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’, भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ परिचय: मध्यप्रदेश १३ वीं शती ईस्वी तक, दिल्ली २००१, पृ. २८७, क्र. २८०।
७. पाठक नरेश कुमार, ‘मध्य प्रदेश का जैन शिल्प’, इन्दौर २००१, पृष्ठ ४२
८. जैन कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २४२-४३ क्रमांक २३३
९. पाठक नरेश कुमार, पृष्ठ ४२ एवं जैन कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २४२ क्रमांक २३२
१०. जैन कस्तूरचन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २८८ क्रमांक २८१ एवं पाठक नरेश कुमार , पृष्ठ ४२
११. पाठक नरेश कुमार, पृष्ठ ४३ एवं जैन कस्तूरचन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २४१ क्रमांक २३०
१२. जैन कस्जूर चन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ १९२ क्रमांक १७८ एवं पाठक नरेश कुमार, पृष्ठ ४२
१३. पाठक नरेश कुमार, पृष्ठ ४४ एवं जैन कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २३९ क्रमांक २२७