वर्तमान समय का मनुष्य भौतिकवाद की चकाचौंध में अत्यधिक लिप्त हो गया है। इस कारण उसे मानवता के मूल्यों का विस्मरण हो गया है। भगवान को स्मरण का प्रश्न ही नहीं। आत्मा और परमात्मा की चर्चा करना ही नहीं चाहता। इन्द्रियों की तृप्ति ही उसके जीवन का उद्देश्य बन चुका है। शरीर की सुख—सुविधा के लिए सामान के अंबार लग गये हैं लेकिन आत्मा प्यासी ही है। अतृप्त आत्मा जीवन में निर्भयता, संतोष, धैर्य, वीरता, प्रसन्नता तथा दिव्य प्रेम नहीं पैदा कर सकती। आत्मा का सिंचन जब तक परमात्मा की दिव्य शक्ति से न हो तब तक जीवन में विकास नहीं हो सकता।केवल भौतिक विकास अधूरा विकास है। किसी भी राष्ट्र की समृद्धि, शांति तथा प्रसन्नता के लिए राष्ट्रवासियों में भक्ति की भावना का होना आवश्यक है। राष्ट्रवासियों के हृदय में त्याग, वीरता, सात्विकता, राष्ट्र प्रेम का झरना बहना चाहिये। विषयी मनुष्य स्वार्थी होता है। जीवन के प्रति उसकी व्यापक दृष्टि नहीं होती। इसलिये वह ऐसा विचार भी नहीं कर पाता कि उसके सिर पर राष्ट्र का ऋण भी है। इस ऋण से उऋण होने के लिये उसे क्या करना चाहिये ? कैसे वह अपने राष्ट्र का हितकारी हो सकता है ? यदि सभी राष्ट्रवासी जीवन के प्रति व्यापक दृष्टि कोण रखें और स्वार्थ की भावना को छोड़कर तन,मन तथा धन से इसके विकास में लग जायें तो इस महान राष्ट्र की सभी समस्याओं का अंत एक साथ हो सकता है। जिस राष्ट्र में मनुष्य जन्म लेता है, शिक्षा ग्रहण करता है, जिसके अन्न से पलता है, ऊँचे पद को प्राप्त करता है उसका ऋणी ही तो है। इतनी गहरी सोच विषय भोगी की नहीं हो सकती। इसके लिये बुद्धि में विवेक तथा हृदय की निर्मलता की आवश्यकता होती है। जो मनुष्य हर समय अपने शरीर तथा संबंधियों के लिये ही चिंतित है वह निष्काम कर्म—योगी कैसे बन सकता है ? देह—धर्म का तो पालन कर सकता है लेकिन आत्मा और परमात्मा के दिव्य सिद्धान्त को कैसे समझ सकता है ? वह अपने परिवार की चिन्ता तो कर सकता है लेकिन अपने राष्ट्र के विशाल परिवार की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। ऐसी संकुचित दृष्टि से जीने वाला मनुष्य कर्मठ, धैर्यवान तथा शौर्यवान नहीं हो सकता। भौतिकता ने मनुष्य के जीवन से सात्विकता छीनकर उसे रजोगुण तथा तमोगुण की नकारात्मक ऊर्जा से भर दिया है। यही मनुष्य के पतन का कारण है। अब समाज का एक बड़ा भाग नकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है तो राष्ट्रवासी कैसे आनन्द प्रसन्न रह सकते हैं। मनुष्य ने शारीरिक शक्ति तथा बुद्धि के बल पर भौतिक स्तर पर अनेक सफलतायें प्राप्त की हैं। बड़ी—बड़ी सड़के, गगनचुम्बी भवन, चिकित्सा के उपकरण तथा औषधि प्रयोगशालायें, वायुयान, सुपर कम्प्यूटर, चन्द्र एवं मंगल ग्रहों की यात्रा इत्यादि अनेक उपलब्धियाँ मनुष्य के परिश्रम का ही परिणाम है। लेकिन भीतर से आत्मा की तुष्टि—पुष्टि के लिये कोई भी प्रयत्न नहीं होने से मनुष्य शुष्क तथा खोखला हो गया है। भौतिक उपलब्धियों के कारण वह अहंकार से भर गया। मैंने किया, मैंने पाया। वह यह विचार ही नहीं कर पा रहा कि उसकी हर उपलब्धि के पीछे उस सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, सर्वदृष्टा, सर्वनियंता का ही हाथ है। यदि वह शरीर में बल और बुद्धि में प्रखरता नहीं देता तो उपलब्धियाँ कैसे प्राप्त होतीं ? अत: उस परमसत्ता का अस्तित्व स्वीकार कर हर समय उसका धन्यवाद करे तो आत्मा की पुष्टि करके जीवन में संतुलन पैदा हो सकता है। भौतिक उपलब्धियाँ तो होनी ही चाहियें। क्योंकि भौतिक शरीर की भी अपनी आवश्यकतायें हैं। लेकिन केवल मात्र शरीर की आवश्यकता पूर्ति ही पूर्ण जीवन नहीं है। मानसिक चिन्ता कैसे दूर हो तथा मन में विकृतियाँ पैदा ही न हो। यह शरीर की आवश्यकताओं से भी अधिक महत्व का है । मन से स्वस्थ मनुष्य ही शरीर से सुखी होता है। मन से प्रसन्न व्यक्ति में कार्य क्षमता भी अधिक होती है। शरीर के पाँच तत्वों में कार्य की कुशलता तभी बढ़ती है जब उनमें आत्मा तथा परमात्मा की दिव्य ऊर्जा का पूर्ण रूप से संचार होता है। मनुष्य ने मन के पात्र को सांसारिक चकाचौंध से भर दिया है। इसमें दिव्य गुण के लिये स्थान खाली बचा ही नहीं। यदि वह शरीर द्वारा कोई धार्मिक अनुष्ठान करता भी है तो मायिक जगत की वस्तु पाने की इच्छा से। धन की वृद्धि हो, व्यापार चल जाये निर्वाचन या मुकदमा जीत जाये, ऊँचे पद की प्राप्ति हो जाये। प्रत्येक दिन नई इच्छा पैदा होती है। यदि धार्मिक अनुष्ठान करके इच्छा पूर्ति हो गई तब तो उसमें विश्वास बनता रहता है नहीं तो शुभ कृत्य से भी श्रद्धा उठ जाती है। मनुष्य को आज जिन भागों की प्राप्ति हो रही है वह उसके पूर्व जन्म में किये गये पुण्य कर्मों का फल है। पुरूषार्थ करते रहने से काम का फल तो मिलेगा ही। ऐसा तो अध्यात्मवाद का सिद्धान्त है। लेकिन आत्मा तथा परमात्मा में अपने आप को प्रतिष्ठित करने के लिये साधना के मार्ग पर चलना पड़ता है। विचार के जगत को छोड़कर महिमा के जगत में उतरना होता है। बुद्धि तथा हृदय में संतुलन बनाना होता है। सेवा, त्याग, विरक्ति को अपनाना पड़ता है। संसार के भोगों तथा संबंधियों से आसक्ति का त्याग करके आसक्ति भगवान में पैदा करनी होगी। इस प्रकार के साधनों द्वारा ही सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण का पात्र खाली करके उसमें दिव्य गुण भरा जा सकता है। दिव्य गुण वाले पात्र में ही भगवान की कृपा बरसती है और आत्मा की पुष्टि , तुष्टी और सन्तुष्टि होती है। मलिन मन के पात्र में दिव्य भगवान विराजमान नहीं हो सकते।