येन स्वयंबोधमयेन लोका आश्वासिता: केचन वित्तकार्ये।
प्रबोधिता: केचन मोक्षमार्ग तमादिनाथं प्रणमामि नित्यम्।।१।।
जिन्होंने स्वयं उत्पन्न हुए अपने ज्ञान से किन्हीं को आजीविका में लगाकर आश्वस्त किया और किन्हीं को मोक्षमार्ग में प्रबुद्ध किया उन आदिनाथ जिनको मैं सदा नमस्कार करता हूँ।।१।।
इन्द्रादिभि: क्षीरसमुद्र-तोर्ये: संस्नापिता मेरुगिरौ जिनेन्द्र:।
य: कामजेता जन-सौख्यकारी तं शुद्ध-भावादजितं नमामि।।२।।
काम को जीतने वाले और प्राणीमात्र को सुख प्रदान करने वाले जिन इन्द्रादिकों ने क्षीरसमुद्र के जल से मेरु पर्वत पर जिनेन्द्रदेव का अभिषेक किया उन अजितनाथ जिनको शुद्ध भावों से मैं नमस्कार करता हूँ।।२।।
ध्यान-प्रबंध-प्रभवेन येन निहृत्य कर्म-प्रकृति: समस्ता:।
युक्ति-स्वरूपां पदवीं प्रपेदे तं संभवं नौग्नि महानुरागात्।।३।।
जिन्होंने सतत ध्यान के प्रभाव से सम्पूर्ण कर्म-प्रकृतियों को नष्ट कर मोक्षपद प्राप्त किया उन संभवनाथ जिनको मैं बड़े अनुराग से नमस्कार करता हूँ।।३।।
स्वप्ने यदीया जननी क्षपायां गजादि-बन्ह्यन्तमिदं ददर्श।
यत्तात इत्याह गुर: परोऽयं नौमि प्रमोदादभिनन्दनं तम्।।४।।
जिनकी माता ने रात्रि में हाथी से लेकर अग्नि तक सोलह स्वप्न देखे और जिनके पिता ने जिन्हें उत्कृष्ट गुरु बतलाया उन अभिनंदन जिनको मैं प्रमोदपूर्वक नमस्कार करता हूँ।।४।।
कुवादि-वादं जयता महान्तं नय-प्रमाणैर्वचनैर्जगत्सु।
जैन मतं विस्तरितं च येन तं देव-देवं सुमतिं नमामि।।५।।
जिन्होंने नय और प्रमाणसंगत वचनोें से कुवादियों के बड़े-बड़े वादों पर विजय प्राप्त कर तीनों लोकों में जैनधर्म का विस्तार किया उन देवों के देव सुमति जिनको मैं नमस्कार करता हूँ।।५।।
यस्थावतारे सति पितृधिष्णये ववर्ष रत्नानि हरेर्निदेशात्।
धनाधिप: षण्णव-मासपूर्व पद्मप्रभं तं प्रणमामि साधुम्।।६।।
जिनके जन्म से पूर्व पन्द्रह महीने तक पिता के प्रांण में इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने रत्नों की वर्षा की उन साधू पद्मप्रभु जिनको मैं नमस्कार करता हूँ।।६।।
नरेन्द्र सर्पेश्वर-नाकनाथै र्वाणी भवन्ती जगृहे स्वचित्ते।
यस्थात्मबोध: प्रथित: सभायामहं सुपाश्र्वे ननु तं नमामि।।७।।
जिनके दिव्यध्वनि को नरेन्द्र, धरणेन्द्र और देवेन्द्रों ने अपने चित्त में धारण किया और जिनका आत्मबोध सभा में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ, उन सुपाश्र्व जिनको मैं नमस्कार करता हूँ।।७।।
सत्प्रातिहार्यातिशय-प्रपन्नो गुणप्रवीणो हत-दोष-संग:।
यो लोक-मोहान्ध-तम: प्रदीपश्चन्द्र प्रभं तं प्रणमामि भावात्।।८।।
जो सुंदर आठ प्रातिहार्यरूप अतिशयों को प्राप्त हुए, जो गुणों में प्रवीण है, जो अट्ठारह दोषों से रहित हैं ओर जीवों के मोहरूपी अंधकार को दूर करने के लिए दीपक के समान हैं, उन चन्द्रप्रभु जिनको भावपूर्वक मैं नमस्कार करता हूँ।।८।।
गुप्तित्रयं पञ्च महाव्रतानि पञ्चोपदिष्टा: समितिश्च येन।
प्रणाम यो द्वादशधा तपांसि तं पुष्पदन्तं प्रणमामि देवम्।।९।।
जिन्होंने तीन गुप्ति, पाँच महाव्रत, पाँच समिति और बारह तपों का उपदेश दिया उन पुष्पदंत जिनको मैं नमस्कार करता हूँ।।९।।
ब्रह्म-व्रतान्तो जिननायकेनोत्तम-क्षमादिर्दशधापि धर्म:।
येन प्रय मुक्तो व्रत-बंध-बुद्धया तं शीतलं तीर्थंकरं नेमामि।।१०।।
जिन-जिन नायक ने व्रत परम्परा को बुद्धि से उत्तम क्षमा से लेकर उत्तम ब्रह्मचर्यपर्यन्त दश धर्मों का उपदेश दिया, उन शीतलनाथ तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूँ।।१०।।
गणै जनानंदकरे धरान्ते विध्वस्त-कोपे प्रशमैकचित्ते।
ये द्वादशाङ्गं श्रुतमादिदेश श्रेयांसमानौमि जिनं तमीशम्।।११।।
जिन्होंने क्षमाशिल, शान्तचित्त और संसार के प्राणियों को आनंद देने वाले गणधरों की द्वादशांग श्रुत का उपदेश दिया उन श्रेयांसनाथ जिनेश को मैं नमस्कार करता हूँ।।११।।
मुक्तङ्गनाया रचिता विशाला रत्नत्रयी-शेखरता च येन।
यत्कण्ठमासाद्य बभूव श्रेष्ठां तं वासुपूज्यं प्रणमामि वेगात्।।१२।।
जिन्होंने मुक्तिरूपी वधू के लिए विशाल रत्नत्रय रूपी मुकुट का निर्माण किया और मुक्तिरूपी वधू जिनके कण्ठ से लगकर श्रेष्ठ हो गयी उन वासुपूज्य जिनको मैं सम्भ्रम के सात नमस्कार करता हूँ।।१२।।
ज्ञानी विवेकी परमस्वरूपी ध्यानी व्रती प्राणिहितोपदेशी।
मिथ्यात्वघाती शिवसौख्यभोजी बभूव यस्तं विमलं नमामि।।१२।।
जो ज्ञानी, विवेकवान् उत्कृष्ट आत्मस्वरूप के धारी, ध्यानी व्रती, प्राणियों के हितोपदेशक, मिथ्यात्व को नष्ट करने वाले और मोक्षसुख के भागी हुए उन विमल जिनको मैं नमस्कार करता हूँ।।१३।।
अभ्यन्तरं ब्राह्ममनेकधां य: परिग्रहं सर्वमपाचकार।
यो मार्गमद्दिश्य हितं जनानां वन्दे जिनं तं प्रणमाम्यनन्तम्।।१४।।
जिन्होंने सब जीवों के हित के मार्ग को लक्ष्यकर आभ्यन्तर और बाह्य अनेक प्रकार के सब परिग्रह का त्याग किया अनन्तनाथ जिनको मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ।।१४।।
साद्धं पदार्थां नव सप्त सत्वै: पञ्जास्तिकायाश्च न कालकाया:।
षड्द्रव्यनिर्णीतिरलोकयुक्तिर्येनोदिता तं प्रणमामि धर्मम्।।१५।।
जिन्होंने नौ पदार्थों के साथ सात तत्त्व, पाूंच अस्तिकाय, कायरहित काल द्रव्य इस प्रकार सब मिलाकर छह द्रव्य और आलोाकाश की युक्ति का कथन किया, उन धर्मजिनको मैं प्रणाम करता हूँ।।१५।।
यश्चक्रवर्ती भुवि पंचामोऽभूच्र्छाननन्दनो द्वादशको गुणानाम्।
निधि-प्रभु: षोडशको जिनेन्द्रस्तं शान्तिनाथं प्रणमामि मेदात्।।१६।।
जो लोक में अनेक गुणों और निधियों के स्वामी पाँचवें चक्रवर्ती हुए, बारहवें कामदेव हुए और सोलहवें तीर्थंकर हुए उन शांतिनाथ जिनको मैं पद के अनुसार पृथक्-पृथक् नमस्कार करता हूँ।।१६।।
प्रशंसितो यो न बिभर्ति हर्ष विरोधितो यो न करोति रोषम्।
शील-व्रताद् ब्रह्मपदं गतो यस्तं कुंथुनाथं प्रणमामि हर्षात्।।१७।।
प्रशंसा करने पर जिन्हें हर्ष नहीं होता, निंदा करने पर जो रोष नहीं करते और जो शीलव्रतों का पालन कर ब्रह्म-(मोक्ष) पद को प्राप्त हुए हैं, उन कुंथुनाथ जिनको मैं बड़े हर्ष के साथ प्रणाम करता हूूँ।।१७।।
न संस्तुतो न प्रणत: सभायां य: सेवितोऽन्तर्गण-पूरणाय।
पदच्युतै:, केवलिभिर्जिनस्य देवाधिदेवं प्रणमाभ्यरं तम्।।१८।।
जिन-जिनदेव की सभा में अविनाशी पद प्राप्त केवली जिन्हें न नमस्कार करते थे और न जिनकी स्तुति करते थे किनतु अन्तर्गण की पूर्ति के लिए जो उनके द्वारा आदर प्राप्त करते थे उन देवाधिदेव अरनाथ जिनको मैं नमस्कार करता हूँ।।१८।।
रत्नमयं पूर्व-भवान्तरे यो व्रतं पवित्रं कृतवानशेषम्।
कायेन वाचा मनसा विशुद्धया तं मल्लिनाथं प्रणमामि भक्त्या।।१९।।
जिन्होंने पूर्व भव में विशुद्ध मन, वचन और काय से पवित्र रत्नत्रय व्रत का पूरी तरह पालन किया उन मल्लिनाथ जिनको मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ।।१९।।
ब्रुवलम: सिद्ध-पदाय वाक्यामित्यग्रहीद्य: स्वयमेव लोचम्।
लोकान्तिकेभ्य: स्तवनं निशम्य वन्दे जिनेशं मुनिसुव्रतं तम्।।२०।।
जिन्होंने लोकान्तिक देवों के द्वारा की गई स्तुति को सुनकर ‘नम: सिद्धेभ्य:’ कहकर स्वयं ही केश-लोंच किया उन मुनिसुव्रत जिनको मैं नमस्कार करता हूँ।।२०।।
विद्याव्रते तीर्थकराय तस्मादाहारदानं ददतो विशेषात्।
गृहेनृपस्याजनि रत्नवृष्टि: स्तौमि प्रणामानमिं तम्।।२१।।
चार ज्ञानधारी जिन तीर्थंकर देव को दान देते हुए राजा के घर में रत्नवृष्टि हुई, उन नमि जिनकी समग्र रूप से और पृथक् रूप से मैं स्तुति करता हूँ।।२१।।
राजीमतीं य: प्रविहाय मोक्षे स्थितिं चकारापुनरागमास।
सर्वेषु जीवेषु दयां दधानस्तं नेमिनाथं प्रणमामि भक्त्या।।२२।।
सर्पाधिराज: कमठारितो यैध्र्यान-स्थितस्यैव फणावितानै:।
यस्योपसर्गं निर वर्तयन्तं नमामि पाश्र्व महतादरेण।।२३।।
ध्यान में बैठे हुए जिनके ऊपर पूर्व जन्म के बैरी कमठ के द्वारा किये गये उपसर्ग को धरणेन्द्र ने ऊपर फण फैलाकर दूर किया उन पाश्र्व जिनको बड़े आदर के साथ मैं प्रणाम करता हूँ।।२३।।
भवार्णवे जन्तुसमूहमेनमाकर्षयामास हि धर्म-पोतात्।
मज्जन्त मुद्वीक्ष्य य एनसापि, श्रीवद्र्धमानं प्रणमाम्यहं तम्।।२४।।
पाप के कारण संसार-समुद्र में डूबते हुए प्राणिसमूह को देखकर जिन्होंने धर्मरूपी पोत के सहारे बाहर निकाल लिया, उन वद्र्धमान जिनको मैं नमस्कार करता हूँ।।२४।।
यो धर्म दशधा करोति पुरुष: स्त्री वा कृतोपस्कृतं।
सर्वज्ञ-ध्वनि-संभवं त्रिकरण-व्यापार-शुद्ध्यानिशम्।।
भव्यांना जयमालया विमलया पुष्पांजलिं दापयन्।
नित्यं स श्रियमातनोति सकलां स्वर्गापवर्ग-स्थितिम्।।२५।।
जो पुरुष या स्त्री भव्य पुरुषों के द्वारा किये गये विमल गुणानुवाद के साथ पुष्पांजलि समर्पण करता हुआ शुद्ध मन, वचन और काय से प्रतिदिन सर्वज्ञ भाषित दश प्रकार के धर्म का आदरपूर्वक पालन करता है, वह सदा स्वर्ग और अपवर्गरूप लक्ष्मी का विस्तार करता है।।२५।।