नमूँ प्रथम आदीश को,जग के तारणहार
इस युग में मुनि परम्परा,जिनने की साकार ||१||
अंतिम प्रभु महावीर को,करूं ह्रदय में धार
वर्तमान शासनपती , देवें सौख्य अपार ||२||
केवलज्ञान महान जो, लक्ष्मी त्रय जग मान्य
अणु सम है त्रैलोक्य जहां,उसको नम्र प्रणाम ||३||
जो कैवल्यरमा प्रगटाती ,ऐसी लक्ष्मी मन को भाती ||१||
लोक अलोक सभी झलके है,जिसकी चाह सभी करते हैं ||२||
साधूजन जब करें तपस्या,दिव्य ज्ञान तब उनको प्रगटा ||३||
पञ्चकल्याणक में इक यह है , तीर्थंकर प्रभु को प्रगटे है ||४||
चार घातिया कर्म नशाते, तब अरहंत परम पद पाते ||५||
दर्श ज्ञान सुख वीरज प्रगटे ,धनपति समवसरण हैं रचते ||६||
उस लक्ष्मी में सभी ऋद्धियाँ ,आगे-आगे सर्व सिद्धियाँ ||७||
भूत भविष्यत वर्तमान सब ,गुण पर्याय सभी दिखते क्षण ||८||
दर्पण सम जो ज्ञान प्रगटता,तीन लोक प्रतिबिम्ब सा दिखता ||९||
नहिं पंचेन्द्रिय मन न सहायक, एक अकेला कहें शास्त्र सब ||१०||
शाश्वत सौख्य की खान एक है, चमत्कार इसके अनंत हैं ||११||
केवलज्ञान के अगणित गुण हैं,वर्णन में कोई ना सक्षम है ||१२||
गणधर गुरु शारद माँ गाते, फिर भी कीर्ति नहीं कह पाते ||१३||
अद्भुत समवसरण जिनवर का,क्या अनुपम वहाँ वैभव होता ||१४||
धनपति खुद रचना करता है,पुनः देख विस्मित होता है ||१५||
मुक्तिसहेली देने वाली, ये महान लक्ष्मी सुखकारी ||१६||
जिनवर प्रभु के संग में रहती, समवसरण में आगे चलतीं ||१७|
जब तीर्थंकर गर्भ में आते, माँ को दिव्य स्वप्न दिख जाते ||१८||
उन सोलह स्वप्नों के अंदर,एक स्वप्न लक्ष्मी का प्रियवर ||१९||
गज अभिषेक करें कलशों से,स्वप्न मनोरम अद्भुत फल दे ||२०||
मूर्ति आपकी अति मनहारी, भक्त सदा माँ पर बलिहारी ||२१||
श्री अरिहंत देव मस्तक पर, हो दरिद्रता दूर नमन कर ||२२||
दीपावलि दिन जब संध्या हो,भक्ति भाव से तब पूजा हो ||२३||
भक्त मनौती एक मनाते, धन व धान्य समृद्धी पाते ||२४||
आर्थिक संकट सभी विनशता,इच्छित फल वो निश्चित लभता ||२५||
कर अभिषेक और नित पूजन, पूर्ण मनोरथ जो चाहे मन ||२६||
नाना अलंकार जो करता, लक्ष्मी का भंडार वो भरता ||२७||
द्वय प्रकार की लक्ष्मी जग में ,पूर्ण सत्य हैं शास्त्र वचन ये ||२८||
इक लौकिक लक्ष्मी कहलाती, जो सबमें खुशहाली लाती ||२९||
विश्व हो या परिवार देश हो, पूर्ण सुखी धन वैभवयुत हो ||३०||
सबकी नित्य कामना होती ,लक्ष्मी भक्ति भरे मन ज्योती ||३१||
दूजी लक्ष्मी आध्यात्मिक कहलाती,जिसकी प्राप्ती बहुत कठिन है ||३२||
सर्वप्रथम साधूपद धारण, कर उग्रोग्र तपस्या हर क्षण ||३३||
अष्ट कर्म में चार घातिया, जिनने प्राप्ती बहुत कठिन है ||३४||
वे ही इस लक्ष्मी को पाते, क्रमशः सिद्धशिला पर जाते ||३५||
पुनरागमन वहीं होता है, पूर्ण सुखी वह भवि होता है ||३६||
दोनों लक्ष्मी हैं सुखदायी, पुण्य करो पाने हित भाई ||३७||
भक्ति भक्त को इच्छित फल दे,पुनि कैवल्यरमा भी परणे ||३८||
हे माता ! तव द्वारे आया, इच्छा यही एक मैं लाया ||३९||
श्री कैवल्यरमा मिल जावे, जिससे फेर न भव में आवें ||४०||
‘इंदु’ चाह उस लक्ष्मि की, अतः करूं प्रभु ध्यान
वह महान लक्ष्मी मिले, जो दे केवलज्ञान ||१||
पूर्ण अकिंचन मैं बनूँ , मिले सिद्धस्थान
फेर न भव में भ्रमण हो, आत्मा का कल्याण ||२||