आदी अक्षर ‘अ’ अंताक्षर, ‘ह’ इन दो को ले लेने में।
‘आ’ से लेकर ‘स’ पर्यंते, सब अक्षर आ जाते इनमें।।
अग्नी ज्वाला ‘र’ बीजाक्षर, ऊपर यह बिंदु सहित सुंदर।
‘अर्हं’ यह मंत्र बना सुंदर, यह मंत्र मनोमल शोधनकर।।१।।
ॐ अर्हंतों को नमस्कार, ॐ सिद्धों को द्वय नमस्कार।
सर्वसूरि को नमस्कार, ॐ पाठक गण को नमस्कार।।
ॐ सर्व साधु को नमस्कार, ॐ सम्यग्दृग् को नमस्कार।
ॐ शुद्ध ज्ञान को नमस्कार, ॐ चारित को द्वय नमस्कार।।२।।
इन अरहंतादि आठपद को, निज निज बीजाक्षर युत करके।
अठ दिश में स्थापन करते, ये लक्ष्मीप्रद हैं सुख करते।।
पहला पद शिर का रक्षक हो, दूजा मस्तक का त्राण करे।
तीजा पद दोनों दृग् रक्षे, चौथा पद नासा त्राण करे।।३।।
पंचम मुख का रक्षाकर हो, छट्ठा पद ग्रीवा को रक्षे।
सप्तम पद नाभी तक रक्षे, अष्टम पद पादों तक रक्षे।।
पहले प्रणवाक्षर ॐ पुन:, ‘ह’ को रकार औ बिंदु सहित।
दूजी तीजी पंचम छट्ठी, सप्तम अष्टम दशवीं द्वादश।।४।।
इन मात्रा युत करके पाँचों, पद के पहले पहले अक्षर।
फिर सम्यग्दर्शन ज्ञान और, चारित्र विभक्ती युत सुखकर।।
हो ह्रीं नम: बस इसविध से, अतिशायी मंत्र बना सुन्दर।
यह ऋषिमंडल स्तवनयंत्र का, मूलमंत्र है श्रेयस्कर।।५।।
नव बीजाक्षर युत सिद्धमंत्र, अष्टादश शुद्धाक्षर इसमें।
आराधक को शुभफलदायी, अति भक्ती से जपिये नित में।।
जंबूतरुधारी प्रथमद्वीप, यह लवणोदधि से वेष्टित है।
आठों दिश अधिपति अर्हदादि, इन आठ पदों से शोभित है।।६।।
इस जंबूद्वीप मध्य मेरू, जो लाखों कूटों से शोभे।
ऊपर ऊपर ज्योतिर्वासी, देवों के भ्रमणों से शोभे।।
इस पर स्थापित ह्रीं मंत्र, उस पर अर्हंत बिंब सुंदर।
उनको ललाट में स्थित कर, मैं नमूँ नित्य कर्माञ्जनहर।।७।।
अर्हंतदेव ये अक्षय हैं, निर्मल विशाल अज्ञानरहित।
निर्मान शांत इच्छाविरहित, शुभ सार सारतर और सात्विक।।
राजस कर्मारिनाश हेतू, तामस है विरस शुद्ध तैजस।
ज्योत्स्नासम साकार तथापी, निराकार औ सरस विरस।।८।।
पर उत्तम हैं उत्तमतर औ, उत्तमतम सर्वोत्तम इससे।
पर तथा परापर परातीत, पर का परपरापरं कहते।।
तनसहित सकल तनरहित निकल, संतुष्ट पूर्णभृत भ्रांतिरहित।
निर्लेप निरंजन निराकांक्ष, संशय विरहित क्षण भंगरहित।।९।।
ब्रह्मा ईश्वर औ बुद्ध शुद्ध, वे महादेव ज्योतीस्वरूप।
सब लोकालोकप्रकाशी हैं, अर्हंत जिनेश्वर चित्स्वरूप।।
जो सांत सरेफ बिंदुमंडित, चौथे स्वर से युत होता है।
वह ‘ह्रीं’ बीज ध्यानादि योग्य, अर्हंत नाम का होता है।।१०।।
वह श्वेत वर्ण है श्याम वर्ण, है लाल वर्ण औ नील वर्ण।
औ पीतवर्ण भी है उत्तम, सर्वोत्तम माना महावर्ण।।
इस ह्रीं बीज में स्थित हैं, निज निज वर्णों से युक्त सभी।
वृषभादि जिनेश्वर इस स्तोत्र में, संस्थित ध्यानयोग नित भी।।११।।
सित अर्धचंद्रसम नाद बिन्दु, नीली मस्तक है लालवर्ण।
सब तरफ हकार स्वर्णसम है, ईकार कहा है हरित वर्ण।।
इस तरह ‘ह्रीं’ है पंचवर्ण, उन उन वर्णों के तीर्थंकर।
उस उस थल में स्थापित कर, उन सबको नमन करो सुखकर।।१२।।
श्री चंद्रप्रभु औ पुष्पदंत, शशिसदृश नाद में स्थित हैं।
श्री नेमिनाथ औ मुनिसुव्रत, बिन्दू के मध्य विराजित हैं।।
श्री पद्मप्रभू औ वासुपूज्य, मस्तक के मध्य अधिष्ठित हैं।
श्री जिनसुपाश्र्व औ पाश्र्वनाथ, ईकार वर्ण के आश्रित हैं।।१३।।
सोलह तीर्थंकर शेष सभी, ह औ रकार में राजित हैं।
मायाबीजाक्षर ह्रीं मध्य, चौबीसों जिनवर आश्रित हैं।।
ये रागद्वेष औ मोह रहित, सब पाप रहित चौबिस जिनवर।
संपूर्ण लोक में भव्यों के, हेतू होवें वे नित सुखकर।।१४।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, सर्पों से मुझे न हो बाधा।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, गोहों से मुझे न हो बाधा।।१५।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, बिच्छू से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, नागिनी से हो न मुझे बाधा।।१६।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, काकिनी से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, डाकिनी से हो न मुझे बाधा।।१७।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, साकिनी से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, राकिनी से हो न मुझे बाधा।।१८।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, लाकिनी से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, शाकिनी से हो न मुझे बाधा।।१९।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, हाकिनी से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, भैरव से हो न मुझे बाधा।।२०।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, राक्षस से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, व्यंतर से हो न मुझे बाधा।।२१।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, भेकस से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, लीनस से हो न मुझे बाधा।।२२।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, ग्रहों से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, चोरों से हो न मुझे बाधा।।२३।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, अग्नी से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, सींगवालों से नहिं हो बाधा।।२४।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, दाढ़वालों से नहिं हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, पक्षी से हो न मुझे बाधा।।२५।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, दैत्यों से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, मेघों से हो न मुझे बाधा।।२६।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, सिंहों से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, सूकर से हो न मुझे बाधा।।२७।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, चीतों से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, हाथी से हो न मुझे बाधा।।२८।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, राजा से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, शत्रू से हो न मुझे बाधा।।२९।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, ग्रामिण से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, दुर्जन से हो न मुझे बाधा।।३०।।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, रोगों से मुझे न हो बाधा।
देवाधिदेव का जो समूह, उनके तन की सुन्दर आभा।
उससे सर्वांग ढका मेरा, सब जन से हो न मुझे बाधा।।३१।।
श्री गौतम गुरु की जो मुद्रा, उससे जग में श्रुत ज्ञान लाभ।
उनसे भी अधिक ज्योतिधारी, अर्हंत सर्व निधि ईश ख्यात।।
पातालवासि भावन व्यंतर, भूपीठवासि ज्योतिष सुरगण।
ये देव करें रक्षा मेरी, दिव के भी कल्पवासि सुरगण।।३२।।
जो अवधिज्ञान ऋद्धीयुत मुनि, जो परमावधि ऋद्धीयुत हैं।
वे मेरी रक्षा करें सर्वतरफी वे सभी दिव्य मुनि हैं।।
ॐ श्री ह्री धृति लक्ष्मी गौरी, चंडी सरस्वती जया अम्बा।
विजया क्लिन्ना अजिता नित्या औ मदद्रवा औ कामांगा।।३३।।
कामवाणा देवी सानंदा, सुरि नंदमालिनी औ माया।
मायाविनी रौद्री कलादेवि, कालीदेवी औ कलिप्रिया।।
जिनशासन रक्षाकत्र्री ये सब, महादेवियाँ हैं जग में।
ये मुझको कांती लक्ष्मी धृति मति, देवें क्षेम करें जग में।।३४।।
दुर्जन वेताल पिशाच भूत, औ क्रूर दैत्य गण हैं जितने।
देवाधिदेव के प्रभाव से, वे सब उपशांत रहें जग में।।
श्री ऋषिमंडल स्तोत्र दिव्य, यह गोप्य तथा अतिदुर्लभ है।
जगरक्षाकृत निर्दोष तीर्थकृत, वीरप्रभू से भाषित है।।३५।।
रणनृपदरबार अग्नि जल गज, औ दुर्ग सिंह के संकट में।
शमसान विपिन में मंत्र जाप्य, मनुजों का त्राण करे सच में।।
जो राज्यभ्रष्ट निज राज्य लहे, पदभ्रष्ट मनुज निज पद पाते।
इसमें संदेह नहीं लक्ष्मी से, च्युत निजलक्ष्मी भी पाते।।३६।।
भार्या अर्थी भार्या लभते, सुत अर्थी सुत को पा जाते।
स्तोत्र स्मरण मात्र से ही, धन अर्थी धन भी पा जाते।।
कांचन रूपा अथवा कांसे पर, लिखकर जो पूजे इसको।
उसके घर शाश्वत अष्टमहा, सिद्धी रहती है यह समझो।।३७।।
यह मंत्र भूर्जपत्रे पर लिख, मस्तक ग्रीवा या बाहू में।
जो धारे दिव्य यंत्र उसके, सब भय विनाश होते क्षण में।।
वह भूत प्रेत ग्रह यक्ष दैत्य, औ पिशाच गण के कष्टों से।
छुट जाता नहिं संशय इसमें, कफ वात पित्त के रोगों से।।३८।।
जो अधो मध्य औ ऊध्र्वलोक में, जिनप्रतिमाएँ शाश्वत हैं।
उनके दर्शन स्तुति वंदन से, जो फल वह स्तुति पठन का है।।
यह महास्तोत्र अति गोपनीय, जिस किसको नहिं देने का है।
मिथ्यादृष्टी को देने से, शिशुघात पाप पद पद पर है।।३९।।
आचाम्ल आदि तप कर चौबिस, जिनवर की पूजाविधि करके।
जप आठ हजार करे विधिवत्, सब कार्य सिद्ध होते उसके।।
जो प्रतिदिन प्रात: इसी मंत्र की, इक सौ अठ जप करते हैं।
उनके शरीर में व्याधि न हो, सुख संपत्ती वो लभते हैं।।४०।।
जो आठ मास तक नित प्रात:, इस महास्तोत्र को पढ़ते हैं।
वे निज में तेजपुंज अर्हंत, बिम्ब का दर्शन करते हैं।।
अर्हंतबिंब दर्शन होने पर, निश्चित ही सप्तम भव में।
वे मुक्तीपद पा लेते हैं, परमानंद संपति युत सच में।।४१।।
श्री गुणनन्दिमुनीन्द्रकृत, ऋषिमंडल स्तोत्र।
‘‘ज्ञानमती’’ मैं आर्यिका, किया पद्य स्तोत्र।।४२।।
स्तोत्र महास्तोत्र यह, सब स्तुति में सर्वोच्च।
स्मरण पठन और जाप से, जन हों अघ से मुक्त।।४३।।