-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती
अन्न का हर दाना, शालिधान्य नहीं होता।
हर मानव का बना इंसान नहीं होता।।
प्रत्येक व्यक्ति का खजाना पुण्यवान नहीं होता।
ऐसे ही बंधुओं! तुम्हें भी ध्यान रखना है,
हर पर्वत के पाषाण का दाना भगवान नहीं होता।।
कविता
जरा सोचो बनी कैसे ऋषभगिरि पर ऋषभ प्रतिमा।
जहाँ पर मार्ग, भी दिखता न था, वहाँ बन गई प्रतिमा।।१।।
कहानी यह है चेतन और अचेतन तीर्थ मिलने की।
परस्पर वार्ता दोनों की, हो गई दिल से मिलने की।।२।।
कहा चैतन्य तीरथ ज्ञानमती, माता ने पर्वत से।
तुम्हें चैतन्य निधि दूँगी, बात यदि तुम करो मुझसे।।३।।
फुला छाती कहा तब मांगी-तुंगी की पहाड़ी ने।
हे माँ! कब से खड़ा हूँ मैं तुम्हारी इन्तजारी में।।४।।
अगर तुम कह दो तो, दिल चीर कर तुमको दिखा दूँ मैं।
कहो माँ तो तुम्हारी आज्ञा पर, दौलत बिछा दूँ मैं।।५।।
करोड़ों साल से मैं इक तपस्वी बन खड़ा तो हूँ।
कोटि निन्यानवे मुनियों की साक्षी बन खड़ा तो हूँ।।६।।
अचेतन तीर्थ की अन्तर्ध्वनि सुन ज्ञानमती माँ ने।
नमन कर सिद्धभूमी को, विचारा ज्ञानमती माँ ने।।७।।
कहा पाषाण से माँ ने तुम्हें मैं वन्दना करती।
तुम्हारे गर्भ के अंदर, मुझे इक मूर्ति है दिखती।।८।।
अगर छेनी हथौड़े की चोट सह लोगे हे पर्वत!
तो सच समझो तुम्हारे में ही प्रगटेंगी ऋषभ मूरत।।९।।
हुआ सहमत तभी पर्वत, कहा यह सब मैं सह लूँगा।
तुम्हारी कल्पना की मूर्ति, हे माँ! मैं तुम्हें दूँगा।।१०।।
सुनो भाई! यह एग्रीमेंट भावात्मक हुआ जबसे।
जुड़ा संबंध दोनों का, तभी सन् उन्निस सौ छ्यानवे से।।११।।
बहुत पर्वत हैं दुनिया में, बहुत नदियाँ व सागर हैं।
बहुत गंभीर गहरे और, लहरों युत समन्दर हैं।।१२।।
मगर पर्वत हिमालय और नील नदि सम न है शानी।
नही है किसी समन्दर में, प्रशांत महासागर सा पानी।।१३।।
आज के आधुनिक विज्ञान ने इनको भी नापा है।
इनकी ऊँचाई लम्बाई व गहराई को मापा है।।१४।।
हिमालय साढ़े आठ हजार किलोमीटर से भी ऊँचा।
नील नदि लम्बाई का प्रमाण छह हजार किलोमीटर में पहुँचा।।१५।।
सभी सागर की गहराई व क्षेत्रफल से भी ज्यादा।
विश्व के इक प्रशांत महासागर का है, क्षेत्रफल ज्यादा।।१६।।
एशिया नाम का महाद्वीप, द्वीप सबसे बड़ा माना।
पाँच करोड़ वर्ग किलोमीटर तक फैला इसे माना।।१७।।
किन्तु वृषभेश के आदर्श, हिमालय से भी ऊँचे हैं।
इनकी दिव्यध्वनि वाणी, नील नदि से भी लम्बी है।।१८।।
इनकी यशकीर्ति के सम्मुख न कोई द्वीप टिक सकते।
प्रभु के दिल की गहराई में, सब सागर समा सकते।।१९।।
तभी इनके निकट आकर, सभी के काम बनते हैं।
ये सूरज सम दमकते हैं, ये चन्दा सम चमकते हैं।।२०।।
हे भव्यात्माओं! देखो जब चोट झेली है पर्वत ने।
शिल्पियों ने गढ़ी प्रतिमा, बड़ी मुश्किल से पर्वत में।।२१।।
तुम्हीं सब से मिली अर्थाञ्जलि इसमें लगाई है।
रवीन्द्रकीर्ति जी स्वामी ने मातृभक्ति दिखाई है।।२२।।
यह दुनिया की धरोहर है, और भारत की गरिमा है।
वीतरागी छवी से युक्त, तीर्थंकर की प्रतिमा है।।२३।।
यह स्टेचू ऑफ अहिंसा नाम से पहचानी जाएगी।
‘‘चंदनामती’’ यही प्रतिमा अखण्डित मानी जाएगी।।२४।।
गिनीज बुक वल्र्ड के रेकार्ड में, हुई दर्ज यह प्रतिमा।
प्रथम भारत की जिनप्रतिमा, बन गई देश की गरिमा।।२५।।