*प्रभू के समवशरण में केवलज्ञान लक्ष्मी का वैभव देखकर, सौधर्म इंद्र ने अतिशय भक्तिभाव से १००८ नामोंसे वीतराग जिनेन्द्र भगवान की स्तुति की थी।
*उसी भावना को जिनसेन आचार्य जी ने सहस्रनाम स्तोत्र की रचना में व्यक्त किया है.
*इस स्तोत्र में कुल ३४ ( प्रस्तावना) + ११९ (१००८ नाम ) +१३ (समापना) = १६६ श्लोक है।
स्वयंभूवे नमस्त्युभ्यमुत्पाद्यात्मान मात्मनि।
स्वात्मनैव तथोद्भूत वृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये॥१॥
अर्थ : हे भगवन् ! आपने स्वयम् अपने आत्मा को प्रकट किया है, अर्थात् आप अपने आप उत्पन्न हुए हैं, इसलिए आप स्वयंभू कहलाते हैं ।
आपको आत्मवृत्ति अर्थात् आत्मा में ही लीन अथवा तल्लीन रहने योग्य चारित्र्य तथा अचिन्त्य महात्म्य की प्राप्ति हुई है, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।
नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभर्त्रे नमोस्तु ते ।
विदावरं नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ॥२॥
अर्थ – आप जगत के स्वामी हैं, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो, आप अंतरंग तथा बहिरंग दोनों लक्ष्मी के स्वामी हैं, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।
आप विद्वानों मे और वक्ताओं में भी श्रेष्ठतम है, इसलिये भी आपको मेरा नमस्कार हो।
कर्मशत्रूहणं देव मानमन्ति मनीषिणः।
त्वामानमन्सुरेण्मौलि-भा-मालाऽभ्यर्चितक्रमम्॥३॥
अर्थ- हे देव ! बुध्दिमान आपको कामदेव रूपी शत्रू का नाश करनेवाला मानते हैं, तथा इन्द्र भी अपने मुकुट मणिके कान्तिपुंज से आपके पादकमलों की पूजा करते हैं, अर्थात् उनके शीष आपके चरणो में झुकाकर आपको नमस्कार करते हैं, इसलिये आपको मेरा भी नमस्कार हो ।
ध्यान-द्रुघण-निर्भिन्न-घन-घाति-महातरुः।
अनन्त-भव-सन्तान-जयादासीदनन्तजित्॥४॥
अर्थ – आपने अपने ध्यानरूपी कुठार ( कुल्हाड़ी) से बहुत कठोर घातिया कर्मरूपी बडे वृक्षी को काट डाला है तथा अनन्त जन्म-मरणरूप संसार की संतान परंपरा को जीत लिया है इसलिये आप अनन्तजित कहलाते हैं ।
त्रैलोक्य-निर्जयाव्याप्त-दुर्दर्पमतिदुर्जयम्।
मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन! मृत्युंजयो भवान्॥५॥
अर्थ – हे जिन! तीनों लोकों का जेता होने का जिसे अत्यंत गर्व हुआ है, तथा जो अन्य किसी से भी जीता नहीं जा सकता ऐसे मृत्यु को भी आपने जीत लिया है इसलिए आप ही मृत्युंजय कहलाते हैं ।
विधूताशेष – संसार – बन्धनो भव्यबान्धव:।
त्रिपुराऽरि स्त्वमेवासि जन्म मृत्यु-जरान्तकृत्॥६॥॥
अर्थ – संसार के समस्त बंधनों का नाश करनेवाले आप, भव्य जीवों के बन्धू हैं । जन्म, मृत्यु और वार्धक्य रूपी तीनों अवस्थाओंका नाश करनेवाले भी आप ही हैं, अर्थात् आप ही त्रिपुरारि हैं ।
त्रिकाल- विषयाऽशेष तत्त्वभेदात् त्रिधोत्थितम्॥
केवलाख्यं दधच्चक्षु स्त्रिनेत्रोऽसि त्वमीशित:॥ ७॥
अर्थ- हे अधीश्वर, भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालो के समस्त तत्त्वों एवम् उनके तीनों भेदों को जानने योग्य केवलज्ञान रूप नेत्र आप धारण करते हैं, इसलिये आप ही त्रिनेत्र हैं ।
त्वामन्धकान्तकं प्राहु र्मोहान्धाऽसुर- मर्दनात्।
अर्ध्दं ते नारयो यस्मादर्धनारीश्वरोऽस्यत:॥८॥
अर्थ – आपने मोहरुपी अन्धासुर का नाश किया है, इसलिए आप अन्धकान्तक कहलाते हैं, आपने आठ मे से चार शत्रू ( अर्ध न अरि) का नाश किया है, इसलिये आपको अर्धनारीश्वर भी कहते हैं ।
शिव: शिवपदाध्यासाद् दुरिताऽरि हरो हर:।
शंकर कृतशं लोके शंभवस्त्वं भवन्सुखे॥९॥
अर्थ – आप शिवपद अर्थात मोक्षनिवासी है इसलिये शिव कहे गये, पापोको हरने वाले है, इसलिये हर है, जगत का दाह शमनेवाले है इसलिए शंकर है और सुख उत्पन्न है, इसलिए शंभव कहे गये है।
वृषभोऽसि जगज्ज्येष्ठ: पुरु: पुरुगुणोदयै:।
नाभेयो नाभि सम्भूते रिक्ष्वाकु-कुल्-नन्दन:॥१०॥
अर्थ – आप जगतमे ज्येष्ठ है, इसलिएअ आप वृषभ है, आप संपुर्ण गुणोंकि खान होनेसे पुरु है, नाभिपुत्र होनेसे नाभेय, नाभि के काल मे होनेसे नाभिसमभूत, और इक्ष्वाकू कुल मे जन्म लेने कि वजह से आपको इक्ष्वाकू कुलनन्दन भि कहे जाते है।
त्वमेक: पुरुषस्कंध स्त्वं द्वे लोकस्य लोचने।
त्वं त्रिधा बुध्द-सन्मार्ग स्त्रिज्ञ स्त्रिज्ञानधारक:॥११॥
अर्थ- सब पुरुषोंमे आपही एक श्रेष्ठ है, लोगोंके दो नेत्र होने के कारण आप के दो रूप धारक है, तथा मोक्षके तीन मार्गके एकत्व को आपने जाना है, आप तीन काल एक साथ देख सकते है और रत्नत्रय धारक है, इसलिये आप त्रिज्ञ भि कहलाते है।
चतु:शरण मांगल्य – मूर्तिस्त्वं चतुरस्रधी।
पंचब्रह्ममयो देव पावनस्त्वं पुनीहि माम्॥१२॥
अर्थ – इस जगत् मे आपहि एक चार मांगल्योंका एकरुप है और आप चारो दिशाओंके समस्त पदार्थोंको एक् साथ जानते है, इसलिए आप चतुरस्रधी कहलाते है। आपहि पंच परमेष्ठीस्वरुप है, पावन करनेवाले है, मुझे भि पवित्र किजिए।
स्वर्गाऽवतारिणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नम:।
जन्माभिषेक वामाय वामदेव नमोऽस्तुते॥१३॥
अर्थ – आप स्वर्गावतरण के समय हि सद्योजात ( उसी समय उत्पन्न ) कहलाये थे और जन्माभिषेक के समय आप बहोतहि सुंदर दिख रहे थे, इसलिये हे वामदेव आपको नमस्कार हो।
सन्निष्कान्ता वघोराय, पदं परममीयुषे।
केवलज्ञान-संसिध्दा वीशानाय नमोऽस्तुते॥१४॥
अर्थ- दीक्षासमय मे आपने परम शान्तमुद्रा धारण कि थी, तथा केवलज्ञान के समय आप परमपद धारी होकर ईश्वर कहलाए, इसलिये आपको नमस्कार हो।
पुरस्तत्पुरुषत्वेन विमुक्त पदभाजिने।
नमस्तत्पुरुषाऽवस्थां भाविनीं तेऽद्य विभ्रते॥१५॥
अर्थ – अब आगे शुध्द आत्म स्वरुप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त होंगे, तथा सिध्द अवस्था धारण करनेवाले है, इसलिये हे विभो मेरा आपको नमस्कार है।
ज्ञानावरण- निर्हासा न्नमस्तेऽनन्तचक्षुषे।
दर्शानावरणोच्छेदा न्नमस्ते विश्वदृश्वने॥१६॥
अर्थ- ज्ञानावरण कर्म का नाश करनेसे आप अनन्तज्ञानी कहलाते है और दर्शनावरण कर्म के नाशक आप विश्वदृश्वा ( समस्त विश्व एक साथ देखने वाले) कहलाते है, इसलिए हे देव मेरा आपको नमस्कार है।
नमो दर्शनमोहघ्ने क्षायिकाऽ मलदृष्टये।
नम श्चारित्रमोहघ्ने विरागाय महौजसे॥ १७॥
अर्थ – आप दर्शन मोहनीय कर्म का नाश करने वाले तथा निर्मल क्षायिक सम्यकदर्शन के धारक है, आपने चारित्र्यमोहनीय कर्म का नाश किया है और वीतराग एवम् तेजस्वी है, इसलिए हे प्रभु मेरा आपको नमस्कार है।
नमस्तेऽ नन्तवीर्याय नमोऽ नन्त सुखत्मने।
नमस्ते अनन्तलोकाय लोकालोक वलोकिने॥१८॥
अर्थ – आप अनन्तवीर्यधारी, अनन्तसुखमे लीन तथा लोकालोक को देखने वाले हो, इसलिए हे अनन्तप्रकाशरूप मेरा आपको नमस्कार है।
नमस्तेऽ नन्तदानाय नमस्तेऽ नन्तलब्धये।
नमस्तेऽ नन्तभोगाय नमोऽ नन्तोप भोगिने॥१९॥
अर्थ – आपके दानांतरायकर्म का नाश हुआ है और अनन्त लब्धियोंके धारक है, आपका लाभ, भोग तथा उपभोग के अंतराय कर्म का भि नाश हुआ है इसलिए हे विभो आप अनन्त भोग तथा उपभोग को प्राप्त है, मेरा आपको नमस्कार है।
नम: परमयोगाय नम्स्तुभ्य मयोनये।
नम: परमपूताय नमस्ते परमर्षये॥२०॥
अर्थ – हे परम देव आप परमध्यानी है, आप ८४ लक्ष योनीसे रहित है, आप परमपवित्र है, आप परम ऋषी है, इसलिए मेरा आपको नमस्कार हो।
नम: परमविद्याय नम: परमतच्छिदे।
नम: परम तत्त्वाय नमस्ते परमात्मने॥२१॥
अर्थ- आप केवलज्ञानधारी हो, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप सब परमतोंका नाश करनेवाले है,इसलिए आपको नमस्कार हो। आप परमतत्त्वस्वरूप अर्थात रत्नत्रय – रूप है तथा आप हि परम आत्मा है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
नम: परमरूपाय नम: परमतेजसे।
नम: परम मार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने॥२२॥
अर्थ- आप बहोत सुंदर रुप धारी परम तेजस्वी हो, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग-स्वरूप है तथा आप सर्वोच्चस्थान मे रहनेवाले परमेष्ठी है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
परमर्धिजुषे धाम्ने परम ज्योतिषे नम:।
नम: पारेतम: प्राप्त धाम्ने परतरात्मने॥२३॥
अर्थ- आप मोक्षस्थान को सेवन करनेवाले है, तथा ज्योतिस्वरुप है, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप अज्ञानरुपी तमांधकार के पार अर्थात परमज्ञानी प्रकाशरुप है तथा आप सर्वोत्कृष्ट है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
नम: क्षीण कलंकाय क्षीणबन्ध ! नमोऽस्तुते।
नमस्ते क्षीण मोहाय क्षीणदोषाय ते नम:॥२४॥
अर्थ- आप कर्म – रुपी कलंकसे रहित है, आप कर्मोके बन्धनसे रहित है, आप मोहनीय कर्म नष्ट हुए है तथा आप सब दोषोंसे रहीत है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
नम: सुगतये तुभ्यं शोभना गतिमियुषे।
नमस्तेऽ तीन्द्रिय ज्ञान् सुखायाऽ निन्द्रियात्मने॥२५॥
अर्थ – आप मोक्षगतिको प्राप्त है, इसलिए आप सुगति है, आप इन्द्रियोको से ना जाने जानेवाले ज्ञान-सुख के धारी है तथा स्वयं भि अतिन्द्रिय अगोचर है, इसलिए आपको नमस्कार हो।
काय बन्धन निर्मोक्षा दकाय नमोऽस्तु ते।
नमस्तुभ्य मयोगाय योगिना मधियोगिने॥२६॥
अर्थ – शरीर बन्धन नाम कर्मको नष्ट करने के कारण आप शरीर – रहित कहलाते है, आप मनवचकाययोगसे रहित है और आप योगियोंमेभि सर्वोत्कृष्ट है, इसलिए हे विभो आपको मेरा नमस्कार हो।
अवेदाय नमस्तुभ्यम कषायाय ते नम:।
नम: परमयोगीन्द्र वन्दिताङिंघ्र द्वयाय ते॥२७॥
अर्थ – तीनो वेदोंका नाश आपने दसवे गुणस्थान मे हि किया है, इसलिए आप अवेद कहलाते है, आपने कषायोंका भि नाश किया इसलिए आप अकषाय कहलाते है, परम योगीराज भि आपके दोनो चरणकमलो के नमन करते है, इसलिए हे प्रभो, मेरा भि आपको नमस्कार हो।
नम: परम विज्ञान! नम: परम संयम!।
नम: परमदृग्दृष्ट परमार्थाय ते नम:॥२८॥
अर्थ – हे परम विज्ञान प्रभू, हे उत्कष्टज्ञान धारी, हे परम संयमधारी आप परम दृष्टीसे परमार्थ को देखते है तथा जगत् कि रक्षा करनेवाले है, इसलिए मेरा आपको नमस्कार हो।
नम्स्तुभ्य मलेश्याय शुक्ललेश्यां शकस्पृशे।
नमो भव्येतराऽवस्था व्यतीताय विमोक्षिणे॥२९॥
अर्थ – हे परम देव! आप लेश्यांओसे रहित है, तथा शुध्द परमशुक्ल लेश्याके कुछ उत्तमअंश को स्पर्श करनेवाले है, आप भव्य अभव्य दोनो अवस्थाओंसे रहित है और मुक्तरूप है, इसलिए मेरा आपको नमस्कार है।
संज्ञय संज्ञि द्वयावस्था व्यतिरिक्ताऽ मलात्मने।
नमस्ते वीत संज्ञाय नम: क्षायिकदॄष्टये॥३०॥
अर्थ – आप संज्ञी भि नही है, असंज्ञी भि नही है, आप निर्मल शुध्दात्मा धारी है, आप आहार, भय, निद्रा तथा मैथुन इन् चारो संज्ञाओंसे रहित है और आप क्षायिक सम्यकदृष्टी भि है, इसलिए हे करुणानिधान, मेरा आपको नमस्कार हो।
अनाहाराय तृप्टाय नम: परमभाजुषे।
व्यतीताऽ शेषदोषाय भवाब्धे पारमीयुषे॥३१॥
अर्थ – आप आहार ना लेते हुए भि सदैव तृप्त रहते है, अतिशय कांतियुक्त हैअ, समस्त दोषोंसे मुक्त है, तथा संसाररूपी समुद्र के पार है, इसलिये आपको मेरा नमस्कार हो।
अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते स्तादजन्मने।
अमृत्यवे नमस्तुभम चलायाऽ क्षरात्मने॥३२॥
अर्थ – आप जन्म, बुढापा, मृत्युसे रहित है, अचल है, अक्षरात्मा है इसलिये हे तारक, मेरा आपको नमस्कार हो।
अलमास्तां गुणस्तोत्रम नन्तास्तावका गुणा।
त्वां नामस्मृति मात्रेण पर्युपासि सिषामहे ॥३३॥
अर्थ- हे त्रिलोकिनाथ! आपके अनंतगुण है अर्थात आपके सब गुणोंका वर्णन असंभव है, इसलिये केवल आपके नामोंका हि स्मरण करके आपकी उपासना करना चाहते है।
एवं स्तुत्वा जिनं देव भक्त्या परमया सुधी:।
पठेदष्टोत्तरं नाम्नां सहस्रं पापशान्तये॥३४॥
अर्थ – इस प्रकार उत्कृष्ट भक्तिपुर्वक जिनेन्द्र देव कि करके सुधीजन आगे आये हुए एक सहस्र ( १००८) नामोंको निरंतर पढे।
॥इति जिनसहस्रनाम प्रस्तावना॥
प्रथम अध्याय : –
॥ श्रीमदादिशतम ॥
प्रसिध्दाऽष्ट सहस्रेध्द लक्षणं त्वां गिरांपतिम् ।
नाम्नामष्टसहस्रेण तोष्टुमोऽभीष्टसिध्दये॥१॥
हे भगवन, हे भवतारक! आप समस्त वाणीयोंके स्वामी है, आपके एक हजार आठ लक्षण प्रसिध्द हैं, इसलिये हम भी अपनी शुभ और इष्ट सिध्दि के लिये एक हजार आठ नामोंसे आपकी स्तुति करते हैं ।
श्रीमान् स्वयम्भू र्वृषभ: शम्भव: शम्भू रात्मभू:।
स्वयंप्रभ: प्रभु र्भोक्ता विश्वभूर पुनर्भव:॥२॥
1. आप अनन्तचतुष्टयरूपी अन्तरंग तथा समवशरणरुपी बहिरंग लक्ष्मीसे सुशोभित है, इसलिए श्री- मान अर्थात श्री युक्त कहलाते है।
2. आप अनेक कारणोंसे स्वयंभू कहलाते है, जैसे आप अपने आप उत्पन्न हुए है, आप बिनागुरुके समस्त पदार्थोंके जानते है, आप अपने हि आत्मामे रहते है, आपने अपने आप हि स्वयम् का कल्याण किया हुआ है, आप अपने हि गुणोसे वृध्दीको प्राप्त हुए है, अथवा आप केवलज्ञानदर्शनद्वारा समस्त लोकालोक मे व्याप्त है, अथवा आप भव्य जीवोंको मोक्षलक्ष्मी देनेवाले है, अथवा समस्तद्रव्योंके समस्त पर्यायोंको आप जानते है, अथवा आप अनायास हि लोकशिखर पर जाकर विराज मान होते है।
3. आप वृष=धर्म से भा= सुशोभित है, इसलिये आप वृषभ है।
4. आपके जन्म से हि सब जीवोंको सुख मिलता है, अथवा आप सुखसे उत्पन्न हुए है, अथवा आप का भव, शं=अत्युत्कृष्ट है, इसलिए आप शंभव = संभव कहलाते है।
5. आप मोक्षरुप परमानंद सुख देने वाले है, इसलिए शंभु कहलाते है।
6. आप अपने आत्मा के द्वारा कृतकृत्य हुए है, अथवा आप शुध्द-बुध्द चित् चमत्कारस्वरुप आत्मा मे हि सदैव रहते है, अथवा ध्यान के द्वारा योगीयोंकि आत्मा मे प्रत्यक्ष इसलिए आप आत्मभू कहे जाते है।
7. आपको देखने के लिये प्रकाश की जरूरत नही अर्थात् आप स्वयम् ही प्रकाशमान हैं, आप स्वयम् की प्रभा मे दृग्गोचर होते हैं, इसलिए आप स्वयंप्रभ कहे जाते हैं ।
8. आप सबके स्वामी है, इसलिए प्रभू हो।
9. परमानंदस्वरूप सुखका उपभोग करनेवाले है इसलिए भोक्ता हो।
10. आप समस्त विश्व मे व्याप्त है, या प्रकट है और उसे एक साथ जानते भी हैं, इसलिए विश्वभू हो।
11. आपका जन्ममरणरूपी संसार शेष नहीं है, अर्थात् आप फिरसे जन्म नही लेंगे, इसलिए अपुनर्भव भि है।
विश्वात्मा विश्व लोकेशो विश्व तश्च क्षुरक्षर:। विश्वविद् विश्व विद्येशो विश्व योनिर नश्वर॥३॥
12. जैसा कोई अपने आप को जानता हो, वैसेहि आप विश्व को जानते है, अथवा आप विश्व अर्थात केवलज्ञानस्वरुप है, इसलिए आप विश्वात्मा कहे जाते है।
13. समुचे विश्वके समस्त प्राणीयोंके आप स्वामी अर्था इश है, इसलिए आप विश्वलोकेश के नामसे जाने जाते है।
14. आपके केवलज्ञान् रुपी चक्षु समस्त विश्व को देख सकते है, इसलिए आप विश्वतचक्षु है।
15. आप कभी नाश होनेवाले नही है, इसलिये आप अक्षर है।
16. संपुर्ण विश्व आप को विदित है, आप उसे संपुर्ण तरह से जानते है, इसलिये आप विश्ववित है।
17. विश्व कि समस्त विद्याए आपको अवगत है, अथवा सकल विद्याओंके आप ईश्वर है, अथवा आप सुविद्य गणधरादियोंके स्वामी है, इसलिये आप विश्वविद्येश कहे जाते है।
18. सभी पदार्थोंका ज्ञान देने वाले है, इस अभिप्रायसे आप समस्त पदार्थोंके जनक है, इसलिए विश्वयोनि कहे जाते है।
19. आपके स्वरुप का कभी विनाश नही होगा इसलिए हे दयानिधान आप अविनश्वर भि कहे जाते है।
विश्वदृश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचन:। विश्वव्यापी विधिर्वेधा शाश्वतो विश्वतोमुख:॥४॥
20. समस्त लोकालोक को देखनेसे आप विश्वदृश्वा कहलाते है।
21. आप केवलज्ञान के द्वारा समस्त जगत् मे व्याप्त है, तथा आप जीवोंको संसारसे पार कराने समर्थ है तथा परम् विभुति युक्त है, इसलिए आप विभु कहे जाते है।
22. करुणाकर होनेसे आप सब जीवोंकि रक्षा करते है, तथा चतुर्गति के जिवोंका परिभ्रमणसे मुक्ति दाता है, इसलिए आप धाता कहे जाते है।
23. जगतके स्वामी होनेसे आप विश्वेश है।
24. आप के उपदेश द्वारा हि सब जीव सुख कि प्राप्ति का उपाय अर्थात मोक्षमार्ग देख पाते है, इसलिए आप विश्वलोचन कहे जाते है।
25. समुद्घघात के समय आप के आत्मप्रदेश समस्त लोक को स्पर्श करते है, तथा केवलज्ञान से तो आप समस्त विश्व मे प्रत्यक्ष रहनेसे आप विश्वव्यापी कहे गये है।
26. मोहांधकार को नष्ट करनेवाले है, इसलिए विधु कहे गये है।
27. धर्म के उत्पादक रहने से आप वेधा कहलाते है।
28. आप नित्य है, सदैव है, विद्यमान है, आप का नाश नही हो सकता है, इसलिये शाश्वत कहलाते है।
29. जैसे समवशरण मे आपके मुख चारो दिशाओंमे दिखते है, तथा आपका समवशरण मे दर्शनमात्र जीवोंके चतुर्गति के नाश का कारण बनता है, अथवा जल (विश्वतोमुख) के समान कर्मरुपी मल को धोनेवाले है, इसलिये आप विश्वतोमुख कहे जाते है।
विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमुर्ति र्जिनेश्वर:। विश्वदृग् विश्व भूतेशो विश्वज्योति रनीश्वर:॥५॥
३०. आपके अनुसार कर्महि संसार अर्थात विश्व चलनेका कारण है, तथा आपने विश्व को उपजिवीका के लिए छ्ह कर्मोंका उपदेश दिया, इसलिए आप विश्वकर्मा कहे गये।
३१. आप जगत् के समस्त प्राणियोमें ज्येष्ठ ( ज्ञानसे, ज्ञानवृध्द ) है, इसलिए जगज्ज्येष्ठ कहे जाते है।
३२. आपमे हि समस्त विश्व के ज्ञान कि प्रतिमा अर्थात मूर्ती है, इसलिए आप विश्वमूर्ती कहे गये है।
३३. समस्त अशुभकर्मोंका नाश करनेकि वजह से ४ से १२ गुणस्थान वाले जीवोंको जिन कहते है आप इन सब जिनोंकेभि ईश्वर है, इसलिये आप जिनेश्वर कहे जाते है।
३४. समस्त जगत् को एक साथ देखनेसे विश्वदृक् हो।
३५. सब भूत के ईश्वर होनेसे ( सर्व प्राणीयोंके) तथा सर्व जगत् कि लक्ष्मीके ईश होनेसे आप विश्वभूतेश कहे जाते हो।
३६. जगत्प्रकाशी आप विश्वज्योति भि कहे जाते है।
३७. आप के कोई गुरू तथा स्वामी नही है, इसलिये आप अनीश्वर भि कहे जाते है।
जिनो जिष्णु रमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पति:।अनंत जिद चिन्त्यात्मा भब्य बन्धुरऽ बन्धन:॥६॥
३८. आपने कर्म शत्रु तथा कषायोंको जित लिया है, इसलिये आप “जिन” है।
३९. आप विजयी है, इसलिए आप “जिष्णु” है।
४०. आप के आत्मा कि कोई सिमा नही, इसलिये आप “अमेयात्मा” भि कहे जाते है।
४१. आप समस्त विश्व के आराध्य है, इस लिये ” विश्वरीश” है।
४२. जगत के भि स्वामी है, इसलिए “जगत्पति” है।
४३. मोक्ष मे बाधा लाने वाले ग्रह अनंत पर विजयी होने से, तथा अनंतज्ञान को पाने से, आप “अनंतजित” भि कहलाते है।
४४. आप मे आत्मा का यथार्थ स्वरुप क्या होगा इसकि कल्पना तथा चिंतन करना कि अन्य प्राणियोंमे नही है, इसलिए हे प्रभू, आप “अचिन्त्यात्मा ” हो।
४५. आप सब जीवोंपर बन्धुसमान करुणा रखते है, इसलिये आप “भव्यबन्धू “कहलाते है।
४६. मोक्ष जाने से रोकनेवाले घातिया कर्मोसे जो इतर प्राणी बंधे हुए है, वैसे आप बंधे हुए नही है, इसलिये आप “अबन्धन ” भि कहे जाते है।
युगादि पुरुषो ब्रह्मा पंच ब्रह्म मय: शिव:। पर: परतर: सूक्ष्म: परमेष्ठी सनातन:॥७॥
४७. कर्मभूमीमे पुरुषार्थ करना होता है, और आप कर्मभूमी के प्रारंभ अर्थात उस धारणा से युग के प्रारंभ मे उत्पना हुए है, इसलिए आप ” युगादिपुरुष” कहलाते है।
४८. आपसे हि यह विश्व बढा है इसलिये आप “ब्रह्मा” कहे जाते है।
४९. आप अकेलेहि पंच परमेष्ठीस्वरुप है, इसलिये आप “पंचब्रह्म” कहे जाते है।
५०. आप परम शुध्द है, इसलिये “शिव” भि कहे जाते है।
५१. आप जीवोंको संसार के पार मोक्षतक पहुंचाते है, इसलिए ” पर ” हो।
५२. किसी भि धर्मोपदेशकसे श्रेष्ठ होनेसे “परतर” कहे जाते है।
५३. आप प्रथम चारों ज्ञानोंसेभि नहि जाने जा सकते है और मात्र केवलज्ञान हि आपके यथार्थ स्वरुप का ज्ञान दे सकता है, इस वजह से “सूक्ष्म” कहलाते है।
५४. आप परम स्थान मोक्षमे स्थित है, इसलिए “परमेष्ठी ” भि कहे जाते है।
५५. आप चिरंतन नित्य सत्यस्वरुप है, इसलिये “सनातन” भि कहे जाते है।
स्वयं ज्योति रजोऽ जन्मा ब्रह्म योनिरऽ योनिज। मोहारि विजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वज:॥८॥
५६. आपको देखनेकेलिये प्रकाश कि जरुरत नहि है, क्योंकि आप स्वयं हि प्रकाशरूप है, इसलिए “स्वयंज्योति” कहे जाते है।
५७. आप फिरसे उत्पन्न नहि होगे, इसलिए “अज” कहे जाते है।
५८. आप अभि फिर शरीर धारण नही करेंगे, इसलिए “अजन्म” कहलाते है।
५९. ब्रह्म अर्थात सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र्य आपसे उत्पन्न होता है, इसलिए “ब्रह्मयोनि” कहे जाते है।
६०. ८४ लाख योनियोंसे रहित होके आप मोक्षालय मे उत्पन्न होते है, इसलिये ” अयोनिज ” अथवा जब आप सिध्दशीला पर उत्पन्न होंगे, तो आपका जन्म योनिसे नही अपितु ८४ लाख योनिसे रहित होनेसे वहाँ हुआ है।
६१. सबसे बडा शत्रुकर्म मोह पर विजय पानेसे आप “मोहारिविजयी” कहे जाते है।
६२. आपने कर्मरिपुओंको परास्त कर विजय पायी है, इसलिये आप” जेता” कहलाते है।
६३. आप जहा जहा जाते है, विहार करते है, धर्मचक्र सदैव आपके सामने चलते रहता है, अर्थात आप धर्म के चक्र को सब जगह साथ लेकर चलते है इसलिएअ आप “धर्मचक्री” नामसे भि जाने जाते है।
६४. आपकि उत्तम धर्मध्वजा सब प्राणियोंपर दया करने का संदेश देती है, दया भावना सिखाती है, इसलिये आप “दयाध्वज” भि कहे जाते है।
प्रशान्तारि रनन्तात्मा योगी योगीश्वराऽ र्चित:। ब्रह्म विद् ब्रह्म तत्वज्ञो ब्रह्मोद्या विद्यतीश्वर: ॥९॥
६५. आपने कर्मरुपीशत्रुओंके शान्त किया है, अथवा आपके कर्मशत्रू शांत हुए है, इसलिये आप “प्रशान्तारि” कहलाते है।
६६. आपके आत्मा मे अनंत गुण है और आपके आत्मा का नाश कभी नही होगा, अथवा आपकि आत्मा अनंतकाल तक यथास्थित रहेगी इसलिये आप “अनन्तात्मा” कहे जाते है।
६७. योग कर्म के आस्रव का कारण है, उस योगका हि आपने निरोध किया है, इसलिए आप ” योगी” कहलाते है।
६८. गणधरादि योगीश्वर भि आप कि पूजा अर्चना करते है, इसलिये आप “योगीश्वराऽर्चित” भि कहे जाते है।
६९. आत्मा का यथार्थ स्वरूप जानते है, इसलिये “ब्रह्मवित्” है।
७०. ब्रह्म के उत्पत्ती कारण जानके कामदेव का नाश करने कि वजहसे आप ” ब्रह्मतत्वज्ञ” है।
७१. आत्मा के समस्त तत्त्वोंको अर्थात आत्मविद्या जानने के कारण “ब्रह्मोविद्यावित्” है।
७२. रत्नत्रय को सिध्द करने वाले यतियोंमेभि आप श्रेष्ठ रहनेसे “यतीश्वर” भि कहलाते है।
शुध्दो बुध्द: प्रबुध्दात्मा सिध्दार्थ: सिध्द शासन:। सिध्द: सिध्दान्त विद्ध्येय: सिध्द साध्यो जगध्दित: ॥१०॥
७३. जब कषाय खत्म हो जाते है, तब शुध्दावस्था प्राप्त होती है, इस वजहसे आप “शुध्द” कहे जाते है।
७४. सब जानने से आप “बुध्द” हो।
७५. आत्मा का स्वरुप जानने से “प्रबुध्दात्मा” हो।
७६. चारो पुरुषार्थ ( धर्म अर्थ काम मोक्ष) को सिध्द करनेसे अथवा सिध्दत्व (मोक्ष) हि एकमात्र उद्देश होनेसे, अथवा सात तत्व तथा नौ पदार्थोंकि सिध्दता करनेसे तथा रत्नत्रय् सिध्द करने के कारण से आप “सिध्दार्थ” कहलाते है।
७७. आपका शासन हि एक मात्र एकमेव है यह सिध्द होनेसे आप ” सिध्दशासन” कहलाते है।
७८. आपने कर्मोंका नाश करके “सिध्द” कहलाते है।
७९. द्वादशांगसिध्दांतोंमे पारंगत होने से आप ” सिध्दांतविद्” है।
८०. योगी लोगोंके ध्यान का विषय होनेसे आप “ध्येय” कहे जाते है।
८१. आप सिध्द जाति के देवोंद्वारा पुजे जाने से ” सिध्यसाध्य” कहे जाते है।
८२. आप समस्त जगत के हितैषी है, उपकारक है इसलिये आप “जगध्दित्” कहलाते है।
सहिष्णु रच्युतोऽ नन्त: प्रभ विष्णु र्भवोद्भव:। प्रभूष्णु रजरोऽ जर्यो भ्राजिष्णुर्धी श्वरोऽ व्यय: ॥११॥
८३. आपने परिषह समभावसे सहन किये है, इसलिये “सहिष्णु” कहलाते है।
८४. आप आत्मस्वरुपसे अथवा स्वयंलीन रहनेसे कभि च्युत् नही होते इसलिये “अच्युत” कहलाते गये है।
८५. आपके गुण गिने नही जाते, अर्थात आपके गुणोका अंत नही इसलिए “अनंत” कहे गये है।
८६. आप प्रभावी है, शक्तिशाली है इसलिए “प्रभविष्णु” के नामसे जाने जाते है।
८७. इस जन्म मे आप मोक्ष प्राप्त करेंगे अर्थात आपके सर्व भवोंमे यह भव उत्कृष्ट है, इसलिए आपको “भवोद्भव” कहा जाता है।
८८. शतेंद्र के प्रभु होने का आपका स्वभाव है, इसलिए आप “प्रभूष्णु” है।
८९. आप अनंतवीर्य है, इसलिये आप वृध्द नही होंगे, इसलिये आपको” अजर” कहा गया है।
९०. आपकि मृत्यु अथवा अंत नही होगा इसलिये “अजर्य” हो।
९१. आप करोडो सूर्योंके एकत्रित आभा से अधिक कांतिमान है, इसलिये “भ्राजिष्णु” हो।
९२. पुर्ण ज्ञान के अधिपति होनेसे “धीश्वर” हो।
९३. आप कभी समाप्त नही होते, अर्थात कम अधिक भि नही होंगे अर्थात आप का व्यय नही होगा इस कारण से आप “अव्यय” भि कहे जाते है।
विभाव सुर सम्भूष्णु: स्वयं भूष्णु: पुरातन:। परमात्मा परंज्योति स्त्रि जगत्परमेश्वर: ॥१२॥
९४. आप कर्म को जलाने वाले तेजसे अथवा मोहांधकार को नष्ट करनेवाले सूर्यसे अथवा धर्मामृत वर्षा करनेवाले चंद्र से अथवा रागद्वेषरूपी विभाव परिणाम नाश करनेसे अर्थात अनेक कारणोंसे “विभावसु” कहे जाते है।
९५. आपके स्वभावमे अब संसारमे उत्पन्न होना नहि है, इसलिये “असंभूष्णु” कहलाते है।
९६. आप अपने आप हि प्रकाशीत हुए है, अर्थात प्रकट हुए है, इसलिये आप “स्वयंभूष्णु” कहे जाते है।
९७. अनदि सिध्द होनेसे “पुरातन” हो।
९८. आत्मा के परमोत्कृष्ट होने से “परमात्मा” हो।
९९. मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाले होनेसे “परमज्योती” हो।
१००. तीनो लोक के स्वामी होनेसे आप “त्रिजगत्परमेश्वर” भि कहे जाते है।
॥इति श्रीमदादिशतम्॥
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द्वितीय अध्याय : – ॥ दिव्यादिशतम ॥
== दिव्यभाषापतिर्दिव्य: पूतवाक्पूतशासन:। पूतात्मा परमज्योतिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वर॥१॥
१०१. आपके लिए देव भाषा का अतिशय है, इस वजह से आप “दिव्यभाषापति” कहलाते है।
१०२. मनोहारि तथा स्वयंप्रकाशित होनेसे “दिव्य” कहे जाते है।
१०३. आपके वाणी मे कोई भि दोष नही है, इससे आप “पूतवाक्” हो।
१०४. आपका शासन निर्दोष है, इससे “पूतशासन” भि कहे जाते है।
१०५. आपका आत्मा पवित्र होनेसे तथा आप भव्यजीवोंके आत्मा के पवित्र करनेवाले रहनेसे “पूतात्मा” है।
१०६. आपका केवलज्ञानरूपी तेज सर्वोत्कृष्ट होनेसे आप ” परमज्योति” कहे जाते है।
१०७. धर्म के अधिकारी होनेसे “धर्माधक्ष्य” कहे जाते है।
१०८. इन्द्रियोंके निग्रह करने के कारण अथवा इंद्रियोंके दमन करने से आप “दमीश्वर” है।।
श्रीपति र्भगवान अर्हन्नरजा विरजा: शुचि:। तीर्थकृत् केवलीशान: पूजार्ह स्नातकोऽ मल:॥२॥
१०९. मोक्षादि लक्ष्मीके स्वामी होनेसे ” श्रीपति ” हो।
११०. महाज्ञानी होने से “भगवान्” है।
१११. सबके आराध्य होनेसे “अर्हन्” है।
११२. कर्मरुपी कलुषरहित होनेसे “अरजा” है।
११३. आप जीवोंका कर्ममल रज दूर करनेवालेसे “विरजा” कहे जाते है।
११४. आप बाह्यंतर ब्रह्म पालन करनेसे तथा बाह्य मलमूत्र, मोहरहित होनेसे “शुचि” है।
११५. आप धर्मतीर्थ के प्रवर्तक रहनेसे “तीर्थकृत्” कहलाते है।
११६. आप केवलज्ञानीहोनेसे “केवली” है।
११७. सबके ईश्वर होनेसे “इशान” हो ।
११८. आठ प्रकारकि पूजा अर्थात अर्घ्य के योग्य होनेसे “पूजार्ह” हो।
११९. सम्पूर्ण ज्ञान के धारक होने “स्नातक” हो ।
१२०. धातू उपधातू के रहीत होने से आप “अमल” कहे जाते है।
अनंतदिप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयंबुध्द: प्रजापति:। मुक्त: शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वर:॥३॥
१२१. आपके शरीर तथा ज्ञान दोनो कि दिप्ती अनंत है, इसलिए आप “अनंतदिप्ति” कहे जाते है।
१२२. आप शुध्द ज्ञानस्वरुप आत्मा के धारि है, इसलिये आपको “ज्ञानात्मा” कहा जाता है।
१२३. आपके मोक्षमार्ग मे स्वयं हि प्रेरित् हुए है, अर्थात आपने गुरु के बगैर हि ज्ञान कि प्राप्ति स्वयं चिंतन से कि है, इसलिये आप “स्वयंबुध्द” है।
१२४. आप तीन लोकोके जीवोको उपदेश देते है, तथा तीन लोक के स्वामी है, इसलिये आप “प्रजापति” है।
१२५. आपने घातिया कर्मोसे अर्थात पुन्: संसार भ्रमण से मुक्ति पायी है, इस कारण से आप “मुक्त” है।
१२६. अनंतवीर्य के धारी होने से “शक्त” है।
१२७. दु:ख अथवा कर्म बाधासे रहित होनेसे “निराबाध” हो।
१२८. शरीर तो आपका अब मात्र नाम के लिये, अर्थात कोई भि शरीर के वजहसे होनेवाला परिषह आपका नही होने से “निष्कल” के नामसे अर्थात जिनका पार्थिव नही होता ऐसेभि जाने जाते है।
१२९. त्रिलोकिनाथ होने से “भुवनेश्वर” कहे जाते है।
निरंञ्जनो जगज्ज्योति र्निरुक्तोक्ति र्निरामय:। अचल स्थिति रक्षोभ्य: कूटस्थ स्थाणु रक्षय:॥४॥
१३०. कर्मरूपी कलुष अर्थात अञ्जन के रहित होनेसे “निरञ्जन” हो।
१३१. जग के लिये आप ज्ञान कि ज्योति है, जो समस्त जीवोंके लिये मार्गप्रकाशक है, इसलिये “ज अगज्ज्योति” हो।
१३२. आपके वचनोके विरुध्द कोई प्रमाण नहि, कोई उक्ति आपके वचन को परास्त नही करती, इसलिये “निरुक्तोक्ति” हो।
१३३. रोग व घर्म ना होने से “निरामय” हो।
१३४. आप अनंत काल बीतने पर भि कायम, अचल रहते है, आप कालातित है इसलिये ” अचलास्थिती” है।
१३५. आप क्षोभरहित है, अर्थात आपकि शांति अभंग है, आप अनाकुल है इसलिए आपको “अक्षोभ्य” कहा जाता है।
१३६. सदा नित्य रहनेसे, लोकाग्रमे विराजमान रहनेसे आपको “कूटस्थ” कहा जाता है।
१३७. आपके गमनागमन का कोई हेतु नही, कारण नही, आप सदैव स्थिर है, इसलिये “स्थाणु” है।
१३८. क्षयरहित होनेसे, या हीनाधिक ना होनेसे आप “अक्षय” है।
अग्रणी ग्रामणी र्नेता प्रणेता न्याय शास्त्रकृत्। शास्ता धर्मपति र्धर्म्यो धर्मात्मा धर्म तीर्थकृत्॥५॥
१३९. आपसे हि तीर्थ शुरु होता है, अर्थात आप तिनो लोकोंमें मुख्य होनेसे “अग्रणी” हो।
१४०. गणधरोंके के मुख्य होनेसे “ग्रामणी” हो।
१४१. अग्र मे रहकर प्रजा को धर्म मार्ग पर चलानेसे “नेता” हो।