(ज्ञानमती माताजी के प्रवचन)
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ।।
भगवन के नाम | शरीर की ऊँचाई |
श्री ऋषभदेव | ५०० धनुष प्रमाण थी। |
श्री अजितनाथ | की ४५० |
श्री संभवनाथ | की ४०० |
श्री अभिनंदननाथ | की ३५० |
श्री सुमतिनाथ | की ३०० |
श्री पद्मप्रभ | की २५० |
श्री सुपार्श्वनाथ | की २०० |
श्री चंद्रप्रभ | की १५० |
श्री पुष्पदंत | की १०० |
श्री शीतलनाथ | की ९० |
श्री श्रेयाँसनाथ | की ८० |
श्री वासुपूज्य | की ७० |
श्री विमलनाथ | की ६० |
श्री अनंतनाथ | की ५० |
श्री धर्मनाथ | की ४५ |
श्री शांतिनाथ | की ४० |
श्री कुन्थुनाथ | की ३५ |
श्री अरहनाथ | की ३० |
श्री मल्लिनाथ | की २५, |
श्री मुनिसुव्रत | की २० |
श्री नमिनाथ | की १५ |
श्री नेमिनाथ | की १० धनुष प्रमाण थी। |
श्री पार्श्वनाथ | के शरीर की ऊँचाई ९ हाथ |
श्री महावीर स्वामी | के शरीर की ऊँचाई ७ हाथ प्रमाण थी। |
दर्शनविशुद्धि – पच्चीस मल दोष रहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना।
विनयसंपन्नता – देव, शास्त्र, गुरू तथा रत्नत्रय का विनय करना।
शीलव्रतों में अनतिचार – व्रतों और शीलों में अतिचार नहीं लगाना।
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग – सदा ज्ञान के अभ्यास में लगे रहना।
संवेग – धर्म और धर्म के फल में अनुराग होना।
शक्तितस्त्याग – अपनी शक्ति के अनुसार आहार, औषधि, अभय और शास्त्रदान देना।
शक्तितस्तप – अपनी शक्ति को न छिपाकर अंतरंग-बहिरंग तप करना।
साधु समाधि – साधुओें का उपसर्ग दूर करना या समाधि सहित वीर मरण करना।
वैयावृत्यकरण – व्रती, त्यागी, साधर्मी की सेवा करना, वैयावृत्ति करना।
अर्हतभक्ति – अरिहंत भगवान की भक्ति करना।
आचार्य भक्ति – आचार्य की भक्ति करना।
बहुश्रुत भक्ति – उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना।
प्रवचन भक्ति – जिनवाणी की भक्ति करना।
आवश्यक अपरिहाणि – छह आवश्यक क्रियाओं का सावधानी से पालन करना।
मार्ग प्रभावना – जैन धर्म का प्रभाव फैलाना।
प्रवचन वत्सलत्व – साधर्मी जनों में अगाध प्रेम करना।