[[श्रेणी:03.तृतीय_अधिकार]] ==
जं किंचि वि चिंतंतो, णिरीहवित्ती हवे जदा साहू।
लध्दूणय एयत्तं तदाहु तं णिच्छयं झाणं।।५५।।
जब साधूजन एकाग्रमना, होकर जो कुछ भी ध्याते हैं।
वे इच्छारहित तपोधन ही, निज समरस आनंद पाते हैं।।
बस उसी समय निश्चित उनका, वह निश्चय ध्यान कहाता है।
वह ध्यान अग्निमय हो करके, सब कर्म कलंक मिटाता है।।५५।।
जब साधु एकाग्रता को प्राप्त होकर जिस किसी भी पदार्थ का चिंतवन करता हुआ इच्छा से रहित हो जाता है, उसी समय उन साधु का वह ध्यान निश्चय ध्यान कहलाता है। इस गाथा के प्रथम चरण में ध्येय का लक्षण है। द्वितीय चरण में ध्याता का लक्षण है। तृतीय चरण में ध्यान का लक्षण है और चतुर्थ चरण में नयविभाग को दिखलाया है।
ध्येय – ध्यान प्रारंभ करने की अपेक्षा से जो सविकल्प अवस्था है उसमें विषय-कषायों को दूर करने के लिए तथा चित्त को स्थिर करने के लिए पाँचों परमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होते हैं। फिर अभ्यास के मन से स्थिर हो जाने पर शुद्ध-बुद्ध अपना चिदानंद स्वरूप आत्मा ही ध्येय रहता है।
ध्याता – बहिरंग और अंतरंग परिग्रह से रहित निग्र्रंथ दिगम्बर मुनि ही निस्पृह वृत्ति वाले होते हैं। वे ही यहाँ ध्यान करने के पात्र ध्याता माने गये हैं। कदाचित् श्रावक और अविरत सम्यग्दृष्टि भी ध्याता होते हैं।
ध्यान – एकाग्रता को प्राप्त कर लेना, मन का पूर्वोक्त किसी एक विषय पर स्थिर हो जाना ही ध्यान है। ध्यान में ध्येय की एकता, तन्मयता, एकलीनता हो जाती है।
नयविभाग – यहाँ निश्चय शब्द से प्राथमिक शिष्यों की अपेक्षा व्यवहार रत्नत्रय के अनुवूâल निश्चयनय लेना तथा जो ध्यान सिद्धि कर चुके हैं ऐसे निष्पन्न योगी महामुनियों की अपेक्षा शुद्धोपयोग लक्षण वाला विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चय लेना है। पुनरपि परम ध्यान का लक्षण बताते हैं-
तुम कुछ भी तन की चेष्टा को, मत करो वचन भी मत बोलो।
मन से भी चिंतन कुछ न करो, जैसे होवे स्थिर हो लो।।
इस विध जब आत्मा-आत्मा में, स्वयमेव लीन हो जाता है।
तुम समझो जग में यही ध्यान, बस सबसे श्रेष्ठ कहाता है।।५६।।
तुम कुछ भी क्रिया मत करो, मत बोलो और मत कुछ सोचो, जिससे कि आत्मा स्थिर होकर आत्मा में ही रत हो जावे, बस यही परम उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है। कुछ भी चेष्टा करना काय की क्रिया है, बोलना वचन की क्रिया है और सोचना मन की क्रिया है। इन तीनों को रोक देने से आत्मा आत्मा में ही तन्मय हो जाता है, बस वही सर्वोत्कृष्ट ध्यान कहलाता है। यहाँ पर शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के मन-वचन-काय के व्यापार को मना किया है। यह तीन गुप्ति से सहित अवस्था महामुनियों के चतुर्थकाल में ही संभव है। आज तो अशुभ योग से मन को रोक कर शुभ में स्थिर कर लेना ही कष्टसाध्य है। इस निश्चय रत्नत्रय से परिणत महामुनियों के जो वीतराग परमानंद सुख प्रतिभासित होता है वही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है। उसके अनेक पर्यायवाची नाम हैं उनमें से कुछ नामों को यहाँ दिखाते हैं- वही शुद्धात्मा का स्वरूप है, वही परमात्मा का स्वरूप है, वही एकदेश में प्रगट रूप विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से निज शुद्ध आत्मा के अनुभव से उत्पन्न सुखरूपी अमृत जल के सरोवर में राग आदि मलों से रहित परमहंस स्वरूप है। यह एकदेश शुद्ध निश्चयनय सभी नामों के साथ संबंधित है, ऐसा समझना। वही परमब्रह्म स्वरूप है, वही परमविष्णु रूप है, वही परमशिव रूप है, वही परम बुद्ध स्वरूप है, वही परम निज स्वरूप है, वही परम निज आत्मा की उपलब्धि रूप है, वही सिद्ध स्वरूप है, वही निरंजन स्वरूप है, वही निर्मल स्वरूप है, वही स्वसंवेदनज्ञान है, वही परम तत्त्वज्ञान है, वही शुद्धात्म दर्शन है, वही परम अवस्था रूप है, वही परमात्मदर्शन है, वही परम तत्त्वज्ञान है, वही शुद्धात्मज्ञान है, वही ध्यान करने योग्य शुद्ध पारिणामिक भाव रूप है, वही ध्यानभावना रूप है, वही शुद्ध चारित्र है, वही अंतरंग तत्त्व है, वही परमतत्त्व है, वही शुद्ध आत्मतत्त्व है, वही परमज्योति है, वही शुद्ध आत्मा की अनुभूति है, वही आत्म प्रतीति है, वही आत्मसंवित्ति है, वही स्वरूप की उपलब्धि है, वही नित्य पदार्थ की उपलब्धि है, वही परमसमाधि है, वही शुद्धात्म पदार्थ के अध्ययनरूप है, वही परम स्वाध्याय है, वही निश्चय मोक्ष का उपाय है, वही एकाग्रचिंता निरोध है, वही परमबोध है, वही शुद्धोपयोग है, वही परमयोग है, वही भूतार्थ है, वही परमार्थ है, वही निश्चय पंचाचार है, वही समयसार है, वही अध्यात्मसार है, वही समता आदि छह आवश्यक स्वरूप है, वही अभेद रत्नत्रय स्वरूप है, वही वीतराग सामायिक है, वही परम शरण, परम उत्तम और परम मंगल है, वही केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, वही सकलकर्म के क्षय का कारण है, वही निश्चय चतुर्विध आराधना है, वही परमात्म भावना है, वही शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न सुख की अनुभूति रूप परमकला है, वही दिव्यकला है, वही परम अद्वैत है, वही परमामृत परमध्यान है, वही शुक्लध्यान है, वही रागादि विकल्प से रहित ध्यान है, वही निष्कल ध्यान है, वही परम स्वास्थ्य है, वही परम वीतराग है, वही परमसाम्य है, वही परमएकत्व है, वही परम भेदज्ञान है और वही परम समरसी भाव है, इत्यादि रूप से समस्त रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित परम आल्हादक सुख लक्षण ध्यान स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग को कहने वाले और भी बहुत से पर्यायवाची हैं। अभिप्राय यही है कि निश्चयरत्नत्रय, शुद्धोपयोग, परमसमाधि, निर्विकल्पध्यान, एकाग्रपरिणति और निश्चय मोक्षमार्ग ये सब एकार्थवाचक हैं। यह अवस्था सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होती है और बारहवें गुणस्थान में पूर्ण होती है पुन: तेरहवें गुणस्थान में इस शुद्धोपयोग का फल केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। इस निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति के लिए व्यवहार रत्नत्रय रूप निग्र्रंथ मुनियों की चर्या अनिवार्य है और जब तक उस चारित्र को नहीं ग्रहण कर सकते तब तक एकदेश चारित्ररूप अणुव्रत ग्रहण ही कर लेना चाहिए। यही मोक्षमार्ग में लगने का क्रम है।