अभीप्सितकार्य सिद्धिदायक
कल्याणमन्दिरमुदारमवद्य – भेदि – भीताभय – प्रदमनिन्दितमङ्घ्रिपद्मम्।
संसारसागर – निमज्जदशेष-जन्तु- पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य।।१।।
कुसुमलता छंद
पारस प्रभु कल्याण के मंदिर, निज-पर पाप विनाशक हैं।
अति उदार हैं भयाकुलित, मानव के लिए अभयप्रद हैं।।
भवसमुद्र में पतितजनों के, लिए एक अवलम्बन हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वन्दन है।।१।।
अन्वयार्थ – (कल्याणमंदिरम्) कल्याणकों के मंदिर, (उदारम्) उदार, (अवद्यभेदि) पापों को नष्ट करने वाले, (भीताभयप्रदम्) संसार से डरे हुए जीवों को अभयपद देने वाले, (अनिन्दितम्) प्रशंसनीय और (संसार सागर निमज्जत् अशेष-जन्तु-पोतायमानम्) संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए समस्त जीवों के लिए जहाज के समान (जिनेश्वरस्य) जिनेन्द्रभगवान के (अंघ्रिपद्मम्) चरण कमल को (अभिनम्य) नमस्कार करके।
ॐ ह्रीं भवसमुद्रतरणे पोतायमानकल्याणमंदिरस्वरूपाय श्रीपार्श्वनाथ-जिनेन्द्राय नम:।
यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशे:, स्तोत्रं सुविस्तृतमतिर्न विभुर्विधातुम्।
तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये।।२।।
सागर सम गंभीर गुणों से, अनुपम हैं जो तीर्थंकर।
सुरगुरु भी जिनकी महिमा को, कह न सके वे क्षेमंकर।।
महाप्रतापी कमठासुर का, मान किया प्रभु खण्डन है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है।।२।।
अन्वयार्थ – (गरिमाम्बुराशे:) गौरव के समुद्र (यस्य) जिन पार्श्वनाथ की (स्तोत्रम्) स्तुति, (विधातुम्) करने के लिए (स्वयं सुरगुरु:) खुद बृहस्पति भी (सुविस्तृतमति) विस्तृत बुद्धि वाले (विभु-) समर्थ (न ‘अस्ति’) नहीं हैं, (कमठस्मयधूमकेतो:) कमठ का मान भस्म करने के लिए अग्निस्वरूप (तस्य) उन (तीर्थेश्वरस्य) पार्श्वनाथ भगवान की (किल) आश्चर्य है कि (एष: अहम्) यह मैं (संस्तवनम्) स्तुति (करिष्ये) करूँगा।
अर्थ – हे विश्वगुणभूषण! कल्याणकों के मंदिर, अत्यन्त उदार, अपने और औरों के पापों के नाशक, संसार के दु:खों से डरने वालों के अभयप्रद, अतिश्रेष्ठ, संसार-सागर में डूबते हुए प्राणियों के उद्धारक, श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के चरण-कमलों को नमस्कार करके गंभीरता के समुद्र, जिनकी स्तुति करने के लिए विशालबुद्धि वाला देवताओं का गुरु स्वयं बृहस्पति भी समर्थ नहीं है तथा जो प्रतापी कमठ के अभिमान को भस्मीभूत करने के लिए धूमकेतु अर्थात् सपुच्छग्रह (पुच्छलतारा) रूप हैं, उन तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान का मुझ जैसा अल्पज्ञ स्तवन करता है, यह आश्चर्य है!।।१-२।।
ॐ ह्रीं कमठस्य धूमकेतूपमाय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नम:।
The poet declares his intention of praising Lord Parshvanatha Having bowed to the lotus feet of that Jineshvara (Tirthankar Lord Parshvanatha), who is the ocean of greatness. whom (even) the preceptor of Gops (Brihaspati) himself in spite of his supremely wide knowledge is unable to praise and who is a comet (or fire) in destroying the arrogance of Kamatha-the feet which are, the temple of bliss’ which are sublime, which can destroy sins and give safety to the terrified, which are faultless and (i.e. serva the purpose of) a life-boat for all beings sinking in the ocean of existence. I will indeed compose a hymn (in honour) of Him
जलभय-निवारक
सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृश: कथमधीश! भवन्त्यधीशा:।
धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवान्धो, रूपं प्ररूपयति किन किल घर्मरश्मे:?।।३।।
दिवाअन्ध ज्यों कौशिक शिशु नहिं, सूर्य का वर्णन कर सकता।
वैसे ही मुझ सम अज्ञानी, कैसे प्रभु गुण कह सकता।।
सूर्य बिम्ब सम जगमग-जगमग, जिनवर का मुखमंडल है।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है।।३।।
अन्वयार्थ – (अधीश!) हे स्वामिन्! (सामान्यत: अपि) सामान्य रीति से भी (तव) तुम्हारे (स्वरूपम्) स्वरूप को (वर्णयितुं) वर्णन करने के लिए (अस्मादृशा:) मुझ जैसे मनुष्य (कथम्) कैसे (अधीशा:) समर्थ (भवन्ति) हो सकते हैं? अर्थात् नहीं हो सकते। (यदि वा) अथवा (दिवान्ध:) दिन में अंधा रहने वाला (कौशिक शिशु:) उलूक का बच्चा (धृष्ट: अपि) ढीठ होता हुआ भी (किम्) क्या (घर्मरश्मे:) सूर्य के (रूपम्) रूप का (प्ररूपयति किल) वर्णन कर सकता है क्या?
अर्थ – हे सप्तभयविनाशक देव! आपके गुणों का सामान्यरूप से भी वर्णन करने के लिए हम सरीखे मन्दबुद्धि वाले पुरुष कैसे समर्थ हो सकते हैं? अर्थात् नहीं हो सकते। जैसे जिसे दिन में स्वयं नहीं सूझता ऐसा उलूक (उल्लू) पक्षी का बच्चा ढीठ होकर भी क्या सूर्य के जगमगाते बिम्ब का वर्णन कर सकता है? अर्थात् कदापि नहीं कर सकता।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्याधीशाय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नम:।
He points out his incompetency to under take such a work.
Oh Lord ! how can persons like us succeed in giving even a general outline of Thy nature? Is indeed a young-one of an owl blind by day capable of describing the orb of the hot-rayed one (sun). however presumptuous it may be?
असमयनिधन-निवारक
मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ! मत्र्यो, नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत।
कल्पान्त-वान्त-पयस: प्रकटोऽपि यस्मा- न्मीयेत केन जलधे-र्ननु रत्नराशि:?।।४।।
प्रलय अनंतर स्वच्छ सिन्धु में, भी ज्यों रत्न न गिन सकते।
वैसे ही तव क्षीणमोह के, गुण अनंत नहिं गिन सकते।।
उनके क्षायिक गुण कहने में, पुद्गल शब्द न सक्षम हैं।
ऐसे पारस प्रभु के पद में, शीश झुकाकर वंदन है।।४।।
अन्वयार्थ – (नाथ!) हे पाश्र्वनाथ! (मत्र्य:) मनुष्य (मोहक्षयात्) मोहनीय कर्म के क्षय से (अनुभवन् अपि) अनुभव करता हुआ भी (तव) आपके (गुणान्) गुणों को (गणयितुम्) गिनने के लिए (नूनम्) निश्चय करके (न क्षमेत) समर्थ नहीं हो सकता है। (यस्मात्) क्योंकि (कल्पान्तवान्तपयस:) प्रलय काल के समय जिसका जल बाहर हो गया है, ऐसे (जलधे:) समुद्र की (प्रकट: अपि) प्रकट हुई भी (रत्नराशि:) रत्नों की राशि (ननु केन मीयेत) किसके द्वारा गिनी जा सकती है?
अर्थ – हे अनन्तगुणनिधान! जैसे प्रलयकाल के समय सब पानी निकल जाने पर भी साफ दिखने वाले समुद्र के रत्नों की गणना नहीं हो सकती है, वैसे ही मोहाभाव से प्रतिभासमान आपके गुणों की गिनती भी किसी भी मनुष्य द्वारा नहीं हो सकती, क्योंकि आपके गुण अनन्तानन्त हैं।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वपीड़ानिवारकाय श्रीपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय नम:।
He suggests that even the omniscient cannot enumerate Thy virtues
Oh Lord ! a mortal is surely incapable of counting Thy merits, in spite of his realizing them, owing to the annihilation of his infatution,(for) who can measure the heap of jewels, though obvious, in the ocean emptied of waters at the time of the destruction of the universe ?