जन्म भूमि | सिहपुरी (जिला-वाराणसी) उत्तर प्रदेश | प्रथम आहार | सिद्धार्थ नगर के राजा नंद द्वारा (खीर) |
पिता | महाराजा विष्णुमित्र | केवलज्ञान | माघ कृ. अमावस |
माता | महारानी नन्दा | मोक्ष | श्रावण शु. १५ |
वर्ण | क्षत्रिय | मोक्षस्थल | सम्मेद शिखर पर्वत |
वंश | इक्ष्वाकु | समवसरण में गणधर | श्री कुन्थु आदि ७७ |
देहवर्ण | तप्त स्वर्ण सदृश | मुनि | चौरासी हजार (८४०००) |
चिन्ह | गैंडा | गणिनी | आर्यिका धारणा |
आयु | चौरासी (८४) लाख वर्ष | आर्यिका | एक लाख बीस हजार (१२००००) |
अवगाहना | तीन सौ बीस (३२०) हाथ | श्रावक | दो लाख (२०००००) |
गर्भ | ज्येष्ठ कृ. ६ | श्राविका | चार लाख (४०००००) |
जन्म | फाल्गुन कृ. ११ | जिनशासन यक्ष | कुमार देव |
तप | फाल्गुन कृ. ११ | यक्षी | गौरी देवी |
दीक्षा -केवलज्ञान वन एवं वृक्ष | मनोहर उद्यान एवं तुुंबुरू वृक्ष |
पुष्करार्धद्वीपसम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र के सुकच्छ देश में सीता नदी के उत्तर तट पर क्षेमपुर नाम का नगर है। उसमें नलिनप्रभ नाम का राजा राज्य करता था। एक समय सहस्राम्रवन में श्री अनन्त जिनेन्द्र पधारे। उनके धर्मोपदेश से विरक्तमना राजा बहुत से राजाओं के साथ दीक्षित हो गया। ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके समाधिमरणपूर्वक अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में अच्युत नाम का इन्द्र हुआ।
इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सिंहपुर नगर का स्वामी इक्ष्वाकुवंश से प्रसिद्ध ‘विष्णु’ नाम का राजा राज्य करता था। उसकी वल्लभा का नाम सुनन्दा था। ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी के दिन श्रवण नक्षत्र में उस अच्युतेन्द्र ने माता के गर्भ में प्रवेश किया। सुनन्दा ने नौ मास बिताकर फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन तीन ज्ञानधारी भगवान को जन्म दिया। इन्द्र ने उसका नाम ‘श्रेयांसनाथ’ रखा।
किसी समय बसन्त ऋतु का परिवर्तन देखकर भगवान को वैराग्य हो गया, तदनन्तर देवों द्वारा उठाई जाने योग्य ‘विमलप्रभा’ पालकी पर विराजमान होकर मनोहर नामक उद्यान में पहुँचे और फाल्गुन शुक्ल एकादशी के दिन हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। दूसरे दिन सिद्धार्थ नगर के नन्द राजा ने भगवान को खीर का आहार दिया।
छद्मस्थ अवस्था के दो वर्ष बीत जाने पर मनोहर नामक उद्यान में तुंबुरू वृक्ष के नीचे माघ कृष्णा अमावस्या के दिन सायंकाल के समय भगवान को केवलज्ञान प्रगट हो गया। धर्म का उपदेश देते हुए सम्मेदशिखर पर पहुँचकर एक माह तक योग का निरोध करके श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन भगवान श्रेयांसनाथ नि:श्रेयसपद को प्राप्त हो गये।