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सुगंधदशमी काव्य कथा
January 28, 2020
कविताएँ
jambudweep
सुगंधदशमी काव्य कथा
श्री सुगंधदशमी पर्व की बंधू ! कथा बड़ी रोमांचक है |
काशी नगरी की रानी द्वारा, मुनि हिंसा का वर्णन है ||
इक बार नृपति श्री पद्मनाभ, रानी सह क्रीड़ा हेतु चले |
मासोपवासि मुनि दर्श द्वार पर मिले,नृपति मन कुमुद खिले ||१||
रानी को दे आदेश नृपति ने, कहा प्रिये! वापस जाओ |
आहारदान नवधाभक्ती से, देकर अतिशय फल पाओ ||
राजाज्ञा अरु विषयों में विघ्न समझ, इक क्रूर विचार किया |
दे कटुक तूमडी का अहार, रानी ने कैसा पाप किया ||२||
समता से ले आहार चले मुनि, उठी वेदना असह्य उन्हें|
ज्यों गिरे त्यों हाहाकार मचा,ले गए भक्त जिनमंदिर में ||
शीतोपचार का नहिं प्रभाव,बारह भावन चिन्तवन किया |
दुर्भाव नहीं आया मन में,सल्लेखन विधि से मरण किया ||३||
उठ गया करुण क्रन्दन नगरी में, रानी को था धिक्कारा |
यह समाचार सुन नृप ने उसको,तत्क्षण दण्डित करवाया ||
सब आभूषण उतरा क्रोधित हो, राजभवन से निकलाया |
गुरुनिंदा का प्रभाव देखो, रानी को कुष्ट निकल आया ||४||
निष्कासित रानी पश्चाताप की अग्नी में झुलसी और मरीन |
संक्लेश भाव से मरने से, तिर्यंच गती में भैंस हुई ||
प्यासी थी एक दिवस कीचड़ में फंसी तभी मुनि दर्श हुए |
दुर्भाव मुनी के प्रति आए,हो गई गधी वह मर करके ||५||
पुनरपि मुनि को लख लात मार,पापिनि मरकर शूकरी हुई |
फिर मरी साम्भरी बनी पुनः, चाण्डालिनि कन्या बन जन्मी ||
पैदा होते पितु मात मरे, दुर्गन्ध देह से आती थी |
इक योजन तक आती वह गंध, विपत्ती उस पर लाती थी ||६||
धक्के,गाली,पत्थर –डंडों की मार सहन वह करती थी |
करती थी करुण क्रन्दन पुनरपि कुछ धैर्य भी धारण करती थी ||
अब सुनो बन्धु ! कुछ पुण्य उदय से, इक मुनिवर के दर्श किये |
दुर्गन्ध सहन नहिं होने से,तब शिष्य ने गुरु से प्रश्न किये ||७||
उसकी रोमांचक गाथा सुन,बोला उपाय क्या अब गुरुवर |
जिनधर्म एक सब दुःख हरे, ऐसा बोले तब संतप्रवर ||
दुर्गन्धा अपने पूर्व जन्म का, वर्णन सुनकर सिहर उठी |
मैंने कैसा दुष्कृत्य किया,सोचा मन में बहु ग्लानि हुई ||८||
शुभ भाव से मरकर उज्जयिनी, नगरी में ब्राम्हण कुल पाया |
पर पापोदय से मात –पिता, मर गए पुनः था दुःख आया ||
थे पाप शेष अतएव देह, दुर्गन्ध कोस तक जाती थी |
दुर्गन्धा नाम की वह कन्या, नाना दुखों को पाती थी ||९||
इक समय नगर में शतक महामुनि, संघ पधारा पुण्य खिला |
नृप और प्रजा दर्शन हेतू जब, चले उधर का मार्ग लिया ||
लकड़ी का गठ्ठर रख कौतुकवश, दर्श किया उपदेश मिला |
मूर्छित होकर गिर गई अरे! ,कन्या को जातिस्मरण हुआ ||१०||
राजा ने कर सचेत पूछा, पुत्री ! क्या कारण मुझे बता |
तब दुर्गंधा ने रो-रोकर, अपनी सब पूरब कथा कहा ||
लोगों को अचरज हुआ तभी, मुनि बोले सच्ची घटना है |
सुन नर-नारी सिहरे बोले, गुरुहिंसा कभी न करना है ||११||
राजा ने कन्या के उद्धार, हेतु मुनिवर से प्रश्न किया |
मुनि ने सुगंधदशमी व्रत, करने का उसको उपदेश दिया ||
भादों शुक्ला पंचमि तिथि से, दशमी तक कुसुमांजलि करना |
पंचमि,दशमी को निराहार रह, दस पूजा दस जप करना ||१२||
दस वर्ष पूर्ण कर उद्द्यापन में, दस वस्तू का दान करो |
मुनि और आर्यिका आदिक को, भी चतु प्रकार का दान करो ||
तब प्रजा नृपति अरु दुर्गन्धा ने, व्रत ले विधिवत पाला था |
आर्यिका सन्निधी में कन्या ने ,मरण समाधी पाया था ||१३||
इस व्रत का कथानक गौतम स्वामी, ने श्रेणिक को बतलाया |
घटना यह चौथे काल की है, तब से महात्म्य इसका गाया ||
है कनकपुरी नगरी जिसमें ,जिनदत्त श्रेष्ठी रहते थे |
धार्मिक वृत्ती,हर भौतिक सुख,संतान के सुख से वंचित थे ||१४||
अब पुण्य उदय उनका आया,कन्या ने इन घर जन्म लिया |
पा तिलकमती कन्या को उनका, गृहउपवन अब महक उठा ||
आती शरीर से मधुर सुगंधी,दूज के चंदा सदृश बढ़ी |
पर पूर्वोपार्जित पाप शेष ,वह मातृ वियोग से दुखी हुई ||१५||
हो कामदेव के वशीभूत, पितु ने ब्याहा था बन्धुमती |
सौतेली मां का जो वर्णन,जीवंत कथानक बंधु बनी ||
आगे उस बंधुमती से, तेजमती कन्या ने जन्म लिया |
दे तेजोमति को लाड बहुत अब, तिलकमती को दुःख दिया ||१६||
जिनदत्त सेठ ने यह लख दो, दासी को सेवा में रखा |
पर तीव्र कर्म की गति सम्मुख, पुरुषार्थ व्यर्थ भी हुआ अहा ||
यौवनवस्था में उस सुन्दर, कन्या की सुख बेला आई |
पर राजाज्ञा से सेठ रत्न, लाने के हेतु चला भाई ||१७||
पत्नी से बोला मैं विदेश, जाता हूँ ध्यान सदा रखना |
नहिं करना इंतजार दोनों, पुत्री का पाणिग्रहण करना ||
अब सेठानी हो अधिक क्रूर, उसको अति पीड़ा देती थी |
जब ब्याह हेतु वर आते, तेजमती की चर्चा करती थी ||१८||
नहिं कोई टिका तब बंधुमती, तिरियाचरित्र को दिखलाती |
छल से दिखलाकर तिलकमती, तेजोमति ब्याह वो रचवाती ||
यह बात इस तरह हुई बंधु !, हम अब तुमको बतलाते हैं |
सर्वत्र तिलकमति ब्याह की चर्चा, जन-जन खुशी मनाते हैं ||१९||
मंगल स्नान करा, वस्त्राभूषण से उसे सजाया था |
बारात समय शमशान भूमि ले, जाकर उसे बिठाया था ||
चहुँ ओर दीप को जला कहा, वर तेरा यहीं पे आता है |
शुभ लग्न में उसकी जगह, तेजमति का विवाह हो जाता है ||२०||
संयोग देखिये उसी रात्रि, निज महल खड़ा नृप नगरी का |
शोभा को देख रहा उस क्षण, शमशान भूमि में ज्यों देखा ||
सोचा सुरकन्या या जोगन, उस ओर चला तलवार लिए |
कन्या को लख पूछे राजा, किस हेतु कदम इस ओर बढ़े ||२१||
कन्या बोली मम पितु को नृप ने, रत्न हेतु बाहर भेजा |
सौतेली मां ने ब्याह समय, धोखे से मुझे यहाँ छोड़ा ||
बोली वर तेरा यहीं मिलेगा, किन्तु न कोई आया है |
प्रातः मालूम पड़ेगा मां ने, क्या गुल वहाँ खिलाया है ||२२||
सुन तिलकमती की कथा, भूपती बोले हे मृगनयनी सुन |
यदि बात यही मुझसे विवाह कर, तिलकमती सिर झुका मौन ||
आ गया पुण्य का प्रबल योग, राजा ने तुरत विवाह किया |
संसार में पुण्य पाप का बंधू, अतिशय है माहात्म्य कहा ||२३||
रात्री के सघन अँधेरे में नहिं, पति को वह पहचान सकी |
राजा से परिचय मिला नहीं, अब सूर्य की किरणें प्रगट हुईं ||
जब जाने हेतु उठे भूपति तब, तिलकमती ने हाथ पकड़ |
बोली हे नाथ कहाँ जाते हो, सर्प समान मुझे डंसकर ||२४||
नृप बोले गोप नाम मेरा, मैं अभी मेरे घर जाता हूँ |
घर जाओ प्राणप्रिये ! अब मैं, हर रात्रि तेरे घर आता हूँ ||
उस ओर बन्धुमति बिलख-बिलख, कन्या को दोषी ठहराती |
पुरवासी सह शमशान भूमि में, पहुँच उसे लांछित करती ||२५||
तब तिलकमती ने कहा मात, तुमने ही यहाँ बिठाया है |
इक गोप ने आकर रात्री में, मुझसे यहिं ब्याह रचाया है ||
सर्वत्र नगर में तरह-तरह की, चर्चा घर-घर में होती |
कोई सेठानी को क्रूर कहे, कोई कन्या को कहता दोषी ||२६||
राजा प्रतिरात्री तिलकमती, पत्नी के पास में आता था |
प्रेमानुराग से कन्या का, सौंदर्य वृद्धि को पाता था ||
यह लख विद्वेषी मां बोली, तेरा पति भेंट नहीं लाता |
पिंडार पती से मंगा बुहारी, परिचय जिससे मिल जाता ||२७||
नृप ने दो रत्नजडित बुहारि. अरु रत्नाभूषण उसे दिया |
पतिदेव चरण प्रक्षालन कर, कन्या ने उसको ग्रहण किया ||
लख राजचिन्ह ईर्ष्यालु मात, बोली तेरा पति चोर अरे !
जल्दी उतार इन सबको नृप, कहिं मृत्युदंड हमको ना दे ||२८||
आ गए सेठ वापस तब उसने, पूरी कथा सुनाई थी |
जिनदत्त भी शंकित हुए नृपति को, जा सब वस्तु दिखाई थी ||
नृप समझ गए मुस्काए और, बोले पुत्री से पता करो |
पुत्री बोली मैं चरण पखारूँ, तभी आप सब जान सको ||२९||
नृप ने युक्ती दी भोज करो, अतिथीगण को आमंत्रण दो |
तब सत्य कथानक पता लगेगा, राजश्रेष्ठि मत चिंतित हो ||
में भी तुम घर में भोजन हेतू, आऊंगा नृप बोल पड़े |
तब दिया सभी को आमंत्रण, सब प्रीतिभोज के हेतु चले ||३०||
राजा ने तिलकमती की आँखों, में पट्टी बंधवाई थी ||
फिर चरण धुलो सबके श्रेष्ठी, से आज्ञा यह दिलवाई थी |
क्रम-क्रम से कन्या पैर धुले यह नहीं–नहीं कहती जाती ||
ज्यों ही राजा के पैर धुले, है चोर यही कह शर्माती ||३१||
डर के मारे कांपा श्रेष्ठी, कन्या ने क्या यह कह डाला |
सब अतिथि हँसे नृप को भड़का, कहते कर दो दण्डित बाला ||
देखा विचित्र माहौल तभी, राजा बोले मैं चोर वही |
फिर पूरी घटना बतलाई, तब बन्धुमती की पोल खुली ||३२||
श्रेष्ठी के अविरल अश्रु बहे, सांसारिक रीति निभाई थी |
नृप संग किया था पाणिग्रहण, कन्या की करी बडाई थी ||
कन्या की पुण्य प्रशंसा अरु, सेठानी की निंदा फैली |
दण्डित कर श्रेष्ठी मुंह काला कर,भ्रमण कराएं गली-गली ||३३||
सुन यह रोमांचक कथा बन्धु, शिक्षा हर इक को लेना है |
गुरुनिन्दा, गुरुहिंसा आदिक, दुष्कृत्य कभी नहीं करना है ||
गुरुनिंदा का दुष्फल देखो, रानी श्रीमति हर भव पाती |
जब किया गुरूभक्ती उसकी, कीर्ती चहुँओर बिखर जाती ||३४||
गुरु ही वो अकारण बंधू हैं ,जो भव से पार लगाते हैं |
जीवन में हितकर सच्चा मारग, गुरुजन ही दिखलाते हैं ||
कर नमन गुरू के चरणकमल, ‘इंदू ‘ने कथा समाप्त किया |
हो सदा भावना पावन तो, मिल जाएगी इक दिन सिद्धिप्रिया ||३५||
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