अथांकुरार्पणदिनादष्टमे दिवसे दिवा।
दीक्षाग्रहणकल्याणं यथाविधि विधीयते।।1।।
तत्रादौ कार्यमार्येण, यागमंडलपूजनम्।
तदग्रन्यस्तपीठस्थ-जिनबिंबेऽधिरोप्यते।।2।।
भावतः प्रशमोदारसुखैकरसिकात्मता।
लौकांतिकागमस्तत्संस्तुतिनिष्क्रमणोद्यमः।।3।।
दीक्षामंडपवेद्यां तु दीक्षावृक्षनिवेशनम्।
स्नपनं पूजनं चानुलेपनं भूषणं विभोः।।4।।
श्रीवर्धमानमंत्रेण सप्तवाराभिमंत्रणम्।
योषिद्भ्यां सप्तभिर्वर्णपूरैरावर्तनं क्रमात्।।5।।
दानं जिनेन तद्दिव्यशिबिकारोहणं ततः।
तदा तेनोत्सवारोपः शिबिकानयनं क्रमात्।।6।।
नृपै£वद्याधरैर्देवैर्विभूत्या त्रिःपरीतितः।
दीक्षामंडपसंप्राप्तिः सत्पुण्याश्रमभावनाः।।7।।
इंद्रक्लप्तासनारोपस्तद्बिंबस्य निवेशनम्।
जिनदीक्षोचितद्रव्य-क्षेत्रादेः सन्निधापनम्।।8।।
जिनस्य दीक्षाग्रहणं, सहदीक्षितसंगतिः।
समर्चनं सुरेंद्रेण, केशसंपूजनादिकम्।।9।।
त्यक्तवस्त्रादिपूजादिः, सत्सामायिकनिष्ठता।
मनःपर्ययसंभूत्या, चतुज्र्ञानविभासिता।।10।।
भव्यैः सर्वैश्चतुर्वत-दीपावतरणार्चनम्।
तत्कल्याणक्रियोत्कृष्टतपोनुष्ठाननिष्ठता।।11।।
विसर्जनं निर्जराणाम-ध्यात्मध्यासनं विभोः।
शांतिधारा ततः शांति-बलिकर्मक्षमापणम्।।12।।
गमनाप्रच्छनं पश्चात्कृतकर्मफलार्थना।
अयं निष्क्रान्तिकल्याण-क्रियाक्रम इतीष्यताम्।।13।।
तत्रादौ मूलवेद्यां प्रतिष्ठायंत्राराधनां
निष्ठाप्य निष्क्रमणकल्याणमेवं विदध्यात्। तद्यथाः
अंकुरारोपण दिवस से आठवें दिन दिवस में दीक्षा कल्याणक विधि करें।
उसमें दीक्षा कल्याणक के प्रारंभ में ‘‘यागमंडल’’ पूजन करें।
उस यागमंडल के सामने सिंहासन के ऊपर जिनबिंब में ‘‘भावरूप शमभावना’’
विपुल आत्मा के आनंद में अनुरक्तपना की स्थापना करें।
पुनः लौकांतिक देवों का आगमन, उनके द्वारा की गई स्तुति, दीक्षा के लिए तीर्थंकर भगवान के निकलने का उद्यम, ये सब विधि करें।।1-3।। पुनः दीक्षा मंडप में दीक्षा वृक्ष की स्थापना, भगवान का स्नपन, पूजन व अनुलेपन विधि करें। ‘‘श्रीवर्धमान मंत्र’’ से सात बार अभिमंत्रित करके दो सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा सात वर्णपूर से आवर्तन विधि करें। अनंतर जिन भगवान द्वारा दानविधि कराकर जिनप्रतिमा को पालकी में विराजमान करें। तत्पश्चात् राजा, विद्याधर और देवों के द्वारा वैभवपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर वह पालकी दीक्षावन में ले जाई जावे।’’ पुण्यमयी बारह भावनाओं का चिंतवन, दीक्षावन में इन्द्र द्वारा बनाये हुए आसन पर प्रतिमा की स्थापना, जिनदीक्षा के योग्य ऐसे द्रव्य-क्षेत्र आदि की स्थापना, जिनेन्द्रदेव की दीक्षाविधि व उसी समय अन्य राजाओं की दीक्षा, इन्द्रों द्वारा जिनदेव की पूजा, लोच किये हुए केशों की पूजा, उनको रत्नपिटारे में रखकर क्षीरसमुद्र में ले जाकर डालना इत्यादि विधि करें। पुनः भगवान् द्वारा छोड़े गये वस्त्र-आभरण आदि की पूजा करंे। अनंतर भगवान दीक्षा लेकर ‘‘सामायिक संयम’’ में अर्थात् ध्यान में लीन हैं, तत्क्षण ही उन्हें चैथा मनःपर्यय ज्ञान प्रगट हो गया है, ऐसा दिखलाने हेतु भव्यों से चार बत्ती वाले दीपों से अवतरण विधि करावें। अनंतर भगवान उत्कृष्ट तपश्चरण में निमग्न हो गये हैं, ऐसी सूचना करके देवों का विसर्जन, भगवान को आत्मा में अधिवासित करके शांतिधारा, क्षमापण आदि विधि, जाने की आज्ञा मांगना, पश्चात् किये गये अनुष्ठान के फल की प्रार्थना करना, इस प्रकार निष्क्रमणकल्याण क्रिया का क्रम कहा गया है।। 4-13।। अब सर्वप्रथम मूलवेदी में प्रतिष्ठायंत्र की आराधना पूर्ण करके इस प्रकार निष्क्रमण कल्याण विधि करें तद्यथा- इसे ही दिखाते हैं
प्रशमसुखरसिकत्व की स्थापना के लिए प्रतिमा पर पुष्पांजलि छोडे़ं प्रत्याख्यानावृतीनां भवति हि तनुता स्वात्मदेहादिभेद-ज्ञानं व्याजंृभते यत्तदिह किमपि निध्याय बाह्यं निमित्तं।। संसारांगोपभोगत्रितयविषयनिर्वेगपुंजायमानः, सोत्कंठो भोक्तुमासीच्छमरसममृतं यः स एवैष देवः।।1।। प्रशमसुखरसिकत्वस्थापनार्थं जिनोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्। आगे का श्लोक बोलकर लौकांतिक देवों की स्थापना हेतु प्रतिमा पर पुष्पांजलि छोड़ेंµ लौकांतिकाः प्रवचनांबुधिपूर्णचंद्राः। चंद्रातपप्रसरभासुरदिव्यकायाः।। कायादिगोचरविरक्तिमथैधयन्तः। यंतोयमीशमिति तुष्टुवुरानमंतः।।2।। लौकांतिकदेवागमनस्थापनाय प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपेत्। अथ लौकांतिकदेवकृता स्तुतिः वसंततिलकाछंद – वद्र्धस्व जीव विजयस्व जिनेंद्र नंद। लोकत्रयोध्दरणधर्मधुरीण धीर।। अद्यैव नस्त्वमसि देव मतः स्वयंभू-र्निर्वाणमार्गकृतनिष्प्रतिघप्रयाण।।1।। अद्यातिदुर्लभविरक्त्यरुणोदयोऽभूत्, तेन त्वयि ध्रुवमुदेष्यति केवलार्कः। मिथ्यांधकारमिह नंक्ष्यति मंक्षु सर्वं, भव्यांबुजाकरमुपैष्यति पुण्यलक्ष्मीः।।2।। त्रैलोक्यदुर्जयतरं जय कर्मशत्रुं, त्वं दुश्चरं कुरु तपोमयमात्मयज्ञम्। वाक्यामृतेन परितर्पय सर्वलोकं, उत्साह एष सदृशो हि भवादृशानाम्।।3।। नित्यामृते सरसि निर्मलमुक्तिहंसी-संगोत्सवैः परमहंस सुखी भव त्वं। पंकाविले सविलये भवपल्वलेऽत्र, दुर्जीवनं क्व च भवान्क्व च शुभ्ररूपः।।4।। मालिनीछंद – समुदयजिनचंद्रा-र्हंत्यपूर्वाचलाग्रे, त्रिभुवनजनतारा-स्त्वां समावृत्य भान्तु। धवलय निजवाक्य-ज्योत्स्नया सर्वलोकं, परिहर निजपादात्-पापतापं जनानाम्।।5।। कुवलयमिह शीती-भूतमस्तु प्रसादा-त्तव नय बहुना, किं धर्मवाद्र्धिं समृद्धिं। अथ तव स निसर्ग प्रार्थनेनात्र नः किं। वयमिति हि नियोगादेव विज्ञापयामः।।6।। वसंततिलकाछंद – इत्थं सुर£षनुतमुक्तिपथप्रयाणे, देवासुरै£वहितनिष्क्रमणोत्सवे यः। वैराग्यतस्तृणकणावमतोद्धराज्यः, साक्षात्स एव जिनपुंगव एष बिंबः।।7।। निष्क्रमणकल्याणोपक्रमस्थापनाय चंदनलुलितपुष्पाक्षतं क्षिपेत्। दीक्षाकल्याणक की प्रारंभ क्रिया की स्थापना मंे प्रतिमा पर पुष्पांजलि छोड़ें अथ दीक्षावृक्ष स्थापनम् शाखाच्छायेन योऽसौ, हरति खलु सतां कर्मधर्मांशुतापम्। यः सौख्योदारसारं, फलति शुभफलं मोक्षनाकादिभेदम्।।8।। सेवन्ते यं तदर्थं, विबुधजनखगा यस्य चैवं प्रभावः। संगाज्जातोऽर्हतोऽस्य, त्रिभुवनमहितः सोऽस्तु दीक्षाद्रुमोऽयम्।।9।। ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं वृषभजिनस्य वटाख्यदीक्षावृक्ष! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं वृषभजिनस्य वटाख्यदीक्षावृक्ष! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं वृषभजिनस्य वटाख्यदीक्षावृक्ष! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
(इस मंत्र को पढ़कर दीक्षावृक्ष के ऊपर पुष्पांजलि छोड़ें। यहाँ जो विधिनायक हों उन तीर्थंकर का दीक्षा वृक्ष लावें और वही मंत्र में बोलें।) एवमजितादीनां तत्तद्दीक्षावृक्षाः योजनीयाः। (इसी प्रकार अजितनाथ आदि तीर्थंकरों के लिए उन-उनके दीक्षावृक्षों का मंत्र बोलना चाहिए।) अनेन विवक्षितजिनोचितदीक्षावृक्षस्थापनाय मूलवेद्याः पश्चाद्भागपरिकल्पितदीक्षाग्रहणमंडपस्थापितचित्रार्पितवृक्षेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। (उपर्युक्त मंत्र से ही जिन भगवान को विधिनायक बनाया है, उनका जो दीक्षावृक्ष है, उसकी स्थापना के लिए मूलवेदी के पीछे कल्पित किए गए दीक्षा ग्रहण मंडप में स्थापित चित्र में अर्पित वृक्ष में या उसी वृक्ष की शाखा को लेकर बनाए गए वृक्ष पर पुष्पांजलि छोड़ें।) ==
चैबीस तीर्थंकरों के दीक्षावृक्ष एवं केवलज्ञान वृक्षों के नाम
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अनुष्टुप्छंद- वटः सप्तच्छदः सर्जो-ऽसनो महिला छसा-शिरीषो नागसर्जोऽथ, प्लक्षतिन्दुकपाटलाः।।1।। जंब्वश्वत्थकपित्थाश्च, नंदिकस्तिलकाम्रकौ। अशोकश्चंपकश्चापि, बकुलो वांसिको धवः।।2।। सालश्चैते जिनेन्द्राणां, दीक्षावृक्षाः प्रकीर्तिताः। एत एव बुधैज्र्ञेयाः, केवलोत्पत्तिशाखिनः।।3।। राज्यत्यागस्थापना उपजातिछंद – दृढोरुवैराग्यभरः स्वराज्यं, पुत्राय वा भूपतिसाक्षि दत्वा। यः क्षात्रधर्मं श्रितपंचभेदं, दिदेश साक्षाच्च स एष बिम्बः।।4।। स्वराज्यत्यागस्थापनाय प्रतिमोपरि पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। (अपने राज्य के त्याग की स्थापना के लिए प्रतिमा पर पुष्पांजलि छोड़ना) 108 कलशों से अभिषेक उपजातिछंद – दीक्षोद्यमं मोक्षसुखैकसक्तं, यं स्नापयांश्चक्रुरशेषशक्राः। समेत्य सद्यः परया विभूत्या, तं स्नापयाम्यष्टशतेन कुंभैः।।5।। प्रस्तावनाय पुष्पांजलिः नांदीमंगलादिनोक्तनित्यमहविधिना भूमिशोधनाद्याचमनान्तं विधिं विधाय जन्माभिषेकोक्ताष्टविधनीराजनाविधिं कृत्वाभ्यच्र्य उत्तुंगेत्यादिना दिक्पालानाहूय स्नपनविधिं विधाय एकादशमहामहं विदध्यात्। नांदीमंगल आदि में कथित नित्य अभिषेक विधि से भूमिशोधन विधि से लेकर आचमन अंत तक विधि करके पुनः जन्माभिषेक में कथित आठ प्रकार की नीराजनविधि को करके, पूजा करके पृष्ठ 45 से ‘‘उत्तुंगं’’ इत्यादि पाठ से दिक्पालों की आह्वानन- विधि करें, इस प्रकार स्नपनविधि करके एकादशप्रकारी पूजा करें जल से लेकर अघ्र्य तक नव एवं शांतिधारा- पुष्पांजलि तक एकादश प्रकारी पूजा कहलाती है। प्रतिमा के सर्वांग में गंधलेपन इन्द्रवज्राछंद – इंद्रो जिनेंद्रस्नपनावसाने, दिव्यांगरागेण यमालिलेप। कर्पूरकालागरुकुंकुमाढ्य-श्रीचंदनेनास्य समालभेंऽगम्।।6।। ॐ ह्रीं सहजसौगंध्यबंधुरांगस्य गंधलेपनं करोमि स्वाहा। (प्रतिमा के सर्वांग में गंधलेपन करना) वस्त्राभरण सहित थाल रखना उपेन्द्रवज्राछंद – विभूषयामास जगत्त्रयस्य, विभूषणं दिव्यविभूषणाद्यैः। पुरंदरोऽयं भगवज्जिनेंद्रं, स एव देवो जिनबिंब एषः।।7।। एतत्पठित्वा विविधवस्त्राभरणपूरितमंगलपात्रं जिनपीठाग्रे स्थापयेत्। (प्रतिमा के सामने वस्त्राभरण का थाल रखना) श्रीवर्धमानाव्हयदिव्यमंत्र – संजप्तपुष्पैर्जिनराजबिम्बं। निःशेषविघ्नप्रतिघातनार्थं, सप्तैव वारानधिवासयामि।।8।। ॐ णमो भयवदो वड्ढमाणस्स रिसिस्स जस्स चक्कं जलंतं गच्छइ, आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं जूये वा (जये वा) विवादे वा रणंगणे वा रायंगणे वा थंब्भणे वा मोहणे वा सव्वजीवसत्ताणं अपराजिदो भवतु मे रक्ख रक्ख स्वाहा। इति श्री वर्धमानमंत्रः।
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अथ वर्णपूरारात्रिक सप्तकम्
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(वर्णपूर तथा सात आरती अवतरणविधि)
(आगे के एक-एक श्लोक बोलकर दो-दो सौभाग्यवती स्त्रियाँ एक-एक थाल में सात-सात दीपक लेकर भगवान की अवतरणविधि करें तथा प्रतिमा के सामने अवतरणविधि से उतारकर रखती जावें)
सुदुर्गमं मुक्तिपुरं त्रिलोकी-सारं सुखांभोधिमनन्यसाध्यम्। सद्यः प्रभो साधयितुं प्रवृत्त, तीर्थंकर त्वं विजयस्व देव।।1।। आत्यन्तिकीं दुःखनिवृत्तिरुच्चै-रनन्तमात्मोत्थसुखं च यत्र। तां दुर्लभा मुक्तिपुरीं प्रयातो, पंथाः शिवस्ते जिननाथ भूयात्।।2।। यस्यामुपाधेः परिहार सिद्धि-श्चैतन्यमात्रानुभवप्रवृद्धेः। प्रतिक्षणं सा मनसो विशुद्धि-रामुक्तिलाभादभिवद्र्धतां ते।।3।। यैर्भूषितस्यैव हि मुक्तिलक्ष्मी-र्वशं प्रयाति प्रणयेन देवम्। सम्यक्त्वमुख्याष्ट गुणाश्च तेऽमी, भवन्तु तेऽद्याभिमुखाः प्रसन्नाः।।4।। जिनप्रभो द्र्वादशभिस्तपोभिः, स्वमोघशस्त्रैरथ यं क्षतानाम्। कषायनाम्नां द्विषतां जयस्ते, भूयाच्च भूयो जितकर्मशत्रोः।5।। मुमुक्षवो ये सहदीक्षितास्ते, क्षमामया रक्षितजीवलोकाः। अपेक्ष्यमाणा भवदीयलक्ष्मी, मुपासतां त्वामुचितोपचारैः।।6।। स्रग्धराछंद- गुप्तिं गुप्तित्रयं तज्जिन तव तनुतां शर्म तन्वन्तु धर्माः। कर्मारातिप्रघातं दधतु समितयस्तुभ्यमभ्यर्हितास्ताः।। देवानुप्रेक्षणान्यक्षयपद-पथिका-भीक्ष्ण-रक्षां विदद्यु-। र्माभूत्पारीषहार्तिः सपदि भवतु ते मोक्षलक्ष्मी-विवाहः।।7।। गद्य-एतत्सप्तकं पठित्वा पृथक् पृथगेव कुल्ययोषिद्भ्यां वर्णपूरारात्रिकसप्तकमावत्र्य प्रतिमाग्रे निवेशयेत्।। इति वर्णपूरावर्तनम्।
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अथ दीक्षोन्मुखम्
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तीर्थंकरकृत महादान स्थापना
आगे का श्लोक व मंत्र बोलकर प्रतिमा के सामने पुष्पांजलि छोडें तथा भगवान ने दीक्षा के समय महादान किया था, ऐसी कल्पना करके एक थाल में रत्न भरकर प्रतिमा का स्पर्श कराके लोगों को बांट देवें।
उपजातिछंद – दीक्षोन्मुखस्तीर्थकरो जनेभ्यः, किमिच्छकं दानमहो ददौ यः। दानं च मुक्त्यंगमितीव वक्तुं, स एव देवो जिनबिम्ब एषः।।1।। निष्क्रमणादौ तीर्थकरकृतमहादानस्थापनाय प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपेत्। (आगे का श्लोक व मंत्र बोलकर पालकी पर पुष्पांजलि छोड़ें) उपजाति छंद – महीतलायातदिनेशबिंब-शंकावहादीप्रमणिप्रभाढ्या। जिनेन या श्रीशिबिकाधिरूढा, दिव्यात्र साक्षादियमस्तु सैव।।2।। दिव्यशिबिकास्थापनायात्र शिबिकायां पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। आगे का श्लोक व मंत्र पढ़कर प्रतिमाजी को पालकी में विराजमान करना। आपृच्छ्य बंधूनुचितं महेच्छः। किमिच्छकं दानविधिं विधाय। निष्क्रामति स्मावसथाध्वनो यः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।3।। ॐ ह्रीं अर्हं श्रीधर्मतीर्थाधिनाथ-भगवन्निह शिबिकायां तिष्ठ तिष्ठेति स्वाहा।
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शिबिकायां जिनप्रतिमां स्थापयेत्।
== आगे के श्लोक पढ़ते हुए प्रत्येक श्लोक में पुष्पांजलि क्षेपण करें
अनुव्रजत्सु क्षितिपालकेषु, समं समुत्थाय ससंभ्रमेषु। निष्क्रामति स्मावसथाध्वनो यः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।1।। महीमभिव्याप्य मरुद्विलोल-ध्वजव्रजेनुव्रजति स्वसैन्ये। निष्क्रामति स्मावसथाध्वनो यः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।2।। निरुध्दनिःशेषनभोंगणेषु, सुरासुरौघेषु पुरःसरेषु।। निष्क्रामति स्मावसथाध्वनो यः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।3।। अंभोधरव्रातगभीरनाद-दिव्येषु तूर्येषु पुरः ध्वनत्सु।। निष्क्रामति स्मावसथाध्वनो यः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।4।। अत्याहितं तन्वति चारु नृत्यं, आनंदयत्यप्सरसां समूहे।। निष्क्रामति स्मावसथाध्वनो यः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।5।। कलक्कणं गायति किंनराणां, गणे पुरस्तादपि मंगलानि।। निष्क्रामति स्मावसथाध्वनो यः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।6।।
एवं पद्यषट्क पठित्वा जिननिष्क्रमणावसरमहोत्सवस्थापनाय प्रतिमाग्रे पृथक् पृथक् पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। आगे का श्लोक बोलकर राजागण पालकी को सात पैंड तक ले जावें
उपजातिछंद – यदाश्रितां श्रीशिबिकां धुरीणाः, स्कंधे समारोप्य पदानि सप्त। जग्मुः पृथिव्यां प्रथमं नरेन्द्राः, स एव देवो जिनबिम्ब एषः।।1।। नरेन्द्रोढशिबिकास्थितजिनस्थापनाय प्रतिमाग्रे पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। आगे का श्लोक बोलकर विद्याधरगण सात पैंड तक पालकी लेकर चले- यदाश्रितां श्रीशिबिकां धुरीणाः, स्कंधे समारोप्य पदानि सप्त। जग्मुः पृथिव्यामथ खेचरेन्द्राः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।2।। विद्याधरराजोढशिबिकास्थितजिनस्थापनाय प्रतिमाग्रे पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।। अपरेऽपि केचिद्भव्याः शिबिकां धृत्वा सप्तपदानि गच्छेयुः।। आगे का श्लोक बोलकर इन्द्रगण पालकी लेकर तपोवन में पहुँचें- यस्य प्रभोः श्रीशिबिकां प्रमोदात,स्कंधे समारोप्य वियत्पथेन। तपोवनं निन्युरथामरेंद्राः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।3।। सुरेंद्रोढशिबिकास्थितजिनस्थापनाय प्रतिमाग्रे पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।। इंद्राः स्वयमेव शिबिकां धृत्वा दीक्षामंडपं गच्छेयुः। एवं विनिष्क्रम्य यमाससाद, पुण्याश्रमं तीर्थकरः प्रशान्तः। स एव चायं जिनमंडपोस्तु, श्रीमूलवेद्यां विहितप्रतीच्यां।।4।। तपोवनपुण्याश्रमस्थापनाय दीक्षाग्रहणमंडपे पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।। तपोवन के पुण्याश्रम की स्थापना के लिए दीक्षामंडप में पुष्पांजलि क्षेपण करें। स्वचित्तकल्पे विपुले विशुद्धे, शिलातले यत्र तु चंद्रकान्ते। सुरेन्द्रकल्पे भगवान्निविष्टस्तदेव पीठं दृढमेतदस्तु।।5।। सुरेन्द्रविरचितचंद्रकांतशिलास्थापनाय तन्मंडपमध्यस्थापितपीठेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। इन्द्र द्वारा बनाई गई चन्द्रकान्त शिला की स्थापना के लिए मंडप में स्थापित आसन पर पुष्पांजलि छोडे़ं। आगे का श्लोक व मंत्र पढ़कर संगमरमर पत्थर की शिला पर प्रतिमा को स्थापित करेंµ उदङ्मुखः पूर्वमुखोथवा यो, निविष्टवान्पूतशिलोपरिष्टात्। प्रव्रज्यया निर्वृतिसाधनोत्कः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।6।। ॐ ह्रीं श्रीं धर्मतीर्थाधिनाथ भगवन्निह सुरेन्द्रविरचितचंद्रकांतशिलातले तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा। इति प्रतिमास्थापनम्।।
आगे का श्लोक पढ़कर दीक्षोचित द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सामग्री की स्थापना के लिए मंडप में चारों तरफ पुष्पांजलि छोड़ें
तपोवनं यत्तदिहास्तु दीक्षा-वृक्षोऽपि सोयं च शिलापि सेयं। स पुण्यकालोऽप्ययमेव यद्यद्-दीक्षोचितं तत्तदिहास्तु सर्वं।।7।। दीक्षोचितद्रव्यक्षेत्रकालभावसामग्रीस्थापनाय समंतात्पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।
(प्रतिमा के मस्तक पर गीली घिसी हुई केशर लगाकर कुछ सूखी केशर लगा देते हैं पुनः उन्हें क्रम से मध्य में, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर की केशर निकाल देते हैं, यही प्रतिमा की केशलोच क्रिया है। अनंतर प्रतिष्ठाचार्य प्रतिमा के वस्त्र-आभूषण निकाल कर सामने रखे हुए स्वर्ण या चांदी के थाल मेंं रख देते हैं। केश भी स्वर्ण डिब्बी में रख देते हैं पुनः प्रतिमाजी के पास पिच्छी और कमंडलु रख देते हैं, यही परंपरा है।) यहाँ श्लोक में भगवान के दाहिने हाथ में बंधे हुए कंकण को खोलने का मंत्र दिया है अतः आगे का श्लोक पढ़कर सारी विधि करना है-
यः सर्वसिध्दान्प्रणिपत्य केशा-नुत्पाट्य दिव्यांबरमाल्यभूषाः। त्यक्त्वा प्रवव्राज निजात्मलब्ध्यै, स एव देवो जिनबिंब एषः।।8।। ॐ नमो भगवतेऽर्हते सद्यःसामायिकप्रपन्नाय कंकणमपनयामि स्वाहा। कंकणमपनीय दीक्षास्थापनाय प्रतिमोपरि पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। प्रतिमा के कंकण को खोलकर दीक्षा की स्थापना के लिए प्रतिमा पर पुष्पांजलि छोड़ें। आगे का श्लोक बोलकर अन्य प्रतिमाओं पर पुष्पांजलि छोड़ें- ये क्षत्रिया मोक्षमपेक्ष्य दीक्षा-मक्षार्थकांक्षाक्षपणां क्षमाढ्यां। दीक्षाक्षणे ते जगृहु£जनस्य, मुमुक्षवोऽमी स्युरिह प्रतीक्ष्याः।।9।। तीर्थकृता सह दीक्षितमुमुक्षुगणस्थापनाय तत्समीपस्थापितासु अन्यासु प्रतिष्ठेयप्रतिमासु पुष्पाणि क्षिपेत्। अथासिधाराव्रतमद्वितीयं, निर्वाणदीक्षाग्रहणं दधानम्। यमर्चयामासुरशेषशक्रास्तमर्चयामो जगदर्चनीयम्।।10।। पूजावसरप्रार्थनापूर्वक पुष्पांजलिः।
पूजा में जो विधिनायक प्रतिमा हैं, उनके नाम से जलादि चढ़ावें- जैसे-ऋषभदेव मुनीन्द्राय जलं इत्यादि। ==
अथ पूजा
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सारशांतरसनिजतात्मवत्त्वत्पदाग्रप्रति तेन वारिणा। तीर्थकृन्मुनिललाम तावकं, यायजीमि पदपंकजद्वयम्।।1।। ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकर ऋषभदेव मुनींद्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा। सद्गुणप्रणुतचंदनेन ते, की£तवत्सकलतोषपोषिणा। तीर्थकृन्मुनिललाम तावकं, यायजीमि पदपंकजद्वयम्।।2।। ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकर ऋषभदेव मुनींद्राय गंधं निर्वपामीति स्वाहा। त्वन्मुखेन्दुभजनार्थमागतै-र्भत्रजैरिव वलक्षकाक्षतैः। तीर्थकृन्मुनिललाम तावकं, यायजीमि पदपंकजद्वयम्।।3।। ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकर ऋषभदेव मुनींद्राय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। सुप्रसादसुकुमारतादिभिस् -त्वद्वचोभिरिव नव्यपुष्पकैः। तीर्थकृन्मुनिललाम तावकं, यायजीमि पदपंकजद्वयम्।।4।। ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकर ऋषभदेव मुनींद्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। चारुणार्थचरुणामृतांशुवद्-व्यंजनैरपि तदंकशंकिभिः। तीर्थकृन्मुनिललाम तावकं, यायजीमि पदपंकजद्वयम्।।5।। ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकर ऋषभदेव मुनींद्राय चरुं निर्वपामीति स्वाहा। धर्मदीपक न ते वयं समा, भक्तुमित्थमितवत्प्रदीपकैः। तीर्थकृन्मुनिललाम तावकं, यायजीमि पदपंकजद्वयम्।।6।। ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकर ऋषभदेव मुनींद्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। सेव्यपाद नपथेध्दभंगवत्-स्यान्मतोपमसुधूपधूमकैः । तीर्थकृन्मुनिललाम तावकं, यायजीमि पदपंकजद्वयम्।।7।। ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकर ऋषभदेव मुनींद्राय धूपंं निर्वपामीति स्वाहा। नम्रभव्यसुकृतानुकारिभिः, सारभूतसहकारकादिभिः। तीर्थकृन्मुनिललाम तावकं, यायजीमि पदपंकजद्वयम्।।8।। ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकर ऋषभदेव मुनींद्राय फलम् निर्वपामीति स्वाहा। मालिनी छंद- गुणमणिगणसिंधून्, भव्यलोकैकबंधून्। प्रकटितजिनमार्गान्-ध्वस्तमिथ्यात्वमार्गान्।। परिचितनिजतत्वान्-पालिताशेषसत्वान्।। शमरसजितचंद्रा-नघ्र्ययामो मुनीन्द्रान्।।9।। ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकर ऋषभदेव मुनींद्राय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
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नमस्कार करना
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स्रग्धरा छंद- श्रीमद्बोधत्रयाढ्य! प्रविमलचरित! स्वात्मसद्ध्याननिष्ठ!। स्याद्वादांभोजभानो! त्रिजगदुपकृतिव्यग्रयोगीश्वर! त्वाम्।। अघ्र्यं चानघ्र्यनानाविधविधिविहितं द्रव्यमुध्दार्य वर्यं। प्रेक्षिप्योदारपुष्पांजलिमलिकलितं भूरिभक्त्या नमामः।।10।। भगवान को साष्टांग नमस्कार करना। केशों पर पुष्पांजलि उपजातिछंद- यस्य प्रभोः केशकलापमिंद्रः, संपूज्य निक्षिप्य च रत्नपात्रम् । निक्षेपयामास पयःपयोधौ, स एव देवो जिनबिंब एषः।।1।। भगवत्केशकलापस्येंद्रकृतार्चनरत्नपात्रस्थापनक्षीराब्धिनिक्षेपणस्थापनाय प्रतिमाग्रप्रदेशे पुष्पाक्षतं क्षिपेत्।। भगवान के केशलोच के केशों पर पुष्पांजलि क्षेपण करना। भगवान के वस्त्रादि पर पुष्पांजलि येनामरेन्द्रो गुणभूषणेन, त्यक्तानि दिव्यांबरभूषणानि। इयाज चिक्षेप च नंदनादौ, स एव देवो जिनबिंब एषः।।2।। जिनपरित्यक्तवस्त्रभूषणानामिंद्रकृतार्चननंदनादिदिव्यस्थानस्थापनरूपसंकल्पेन विमुक्तकंकणेषु पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। भगवान के उतारे गये वस्त्र-आभरण, कंकण पर पुष्पांजलि छोड़ना। प्रतिमा पर पुष्पांजलि उपजातिछंद- यः सर्वसावद्यनिवृत्तिरूपं, चारित्रमाद्यं विगतप्रमादम् । आसेदिवान्सिद्धगुणानुरक्तः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।3।। सामायिकचारित्रातिशयस्थापनाय प्रतिमोपरि पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। सामायिकचारित्र अतिशय स्थापना के लिए प्रतिमा पर पुष्पांजलि छोड़ना। चार बत्ती वाला दीप उतारना यदा तु सामायिकमाप वृत्तं, तदा मनःपर्ययतुर्यबोधम्। अतश्चतुज्र्ञानविराजितो यः, स एव देवो जिनबिंब एषः।।4।। मतिश्रुतावधिमनःपर्ययाख्यज्ञानचतुष्टयस्थापनाय चतुर्वतदीपावतरणं विदध्यात्। भगवान चार ज्ञान सहित हैं, ऐसा प्रगट करते हुए चार बत्ती वाले दीपक से अवतरण विधि करना। नमस्कार करना नमोस्तु ते स्वानुभवैकतान! नमोस्तु सामायिकवृत्त तुभ्यम्। नमोस्तु ते बोधचतुष्टयाढ्य! नमोस्तु ते कायममत्वमुक्त!।।5।। इदमुक्त्वा इंद्रः पंचांगप्रणामं कुर्यात्। ततो यष्ट्रप्रभृतिभव्यजनास्तां प्रतिमां विविधार्चनैरभ्यच्र्य चतुर्वर्तिदीपावतरणं कृत्वा पंचांगप्रणामं कुर्यात्। सभी लोग भगवान को पंचांग नमस्कार करें। सभी साधुवर्ग भक्तिपाठ करें सिद्धचारित्रयोगीश-शांतिभक्तीः ससंघकाः। दीक्षाग्रहणकल्याण-क्रियाः कुर्वन्तु याजकाः।।6।। सभी साधुवर्ग भगवान के तपकल्याणक में सिद्ध, चारित्र, योगि, शांति और समाधिभक्तियां पढ़ें। उसकी विधिµ नमोस्तु भगवद्वृषभदेवदीक्षाकल्याणकक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। णमोकार मंत्र, चत्तारि मंगल आदि सामायिक दंडक पढ़कर 9 बार महामंत्र का 27 उच्छ्वास में जाप्य, पुनः थोस्सामि स्तव पढ़कर लघु सिद्धभक्ति पढें़। ऐसे ही सिद्धभक्ति आदि सभी भक्तियाँ पृष्ठ 195-196 से पढ़ें तथा योगिभक्ति इस प्रकार है- योगिभक्ति योगीश्वरान् जिनान् सर्वान्, योगनिर्धूतकल्मषान्। योगैस्त्रिभिरहं वंदे, योगस्कन्ध-प्रतिष्ठितान्।। इच्छामि भंते ! योगिभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं। अड्ढाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु आदावण-रूक्खमूल-अब्भोवास-ठाणमोणवीरासणेक्कपास-कुक्कुडासण-चउत्थ-पक्ख-खवणादिजोगजुत्ताणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं। प्रतिमा पर पुष्पांजलि यः स्वं परं साधु तथैव जानन्-नुग्रैस्तपोभिस्तु हठाद्विपाकम्। नीत्वांशतः शातयति स्म पापं, तस्मै नमो घोरतपोजुषेऽस्मै।।1।। आमुक्ति वर्धेत यथा तथैव, पपौ विशुद्धिप्रभवं प्रभूतं। स्वसंविदानंदसुधारसं यः, तस्मै नमो घोरतपोजुषेऽस्मै।।2।। एतद्द्वयं पठित्वा विशिष्टतपोनुष्ठाननिष्ठाप्रतिष्ठार्थं प्रतिमोपरि पुष्पाक्षतं क्षिपेत्। उपर्युक्त दो श्लोक पढ़कर भगवान ने विशिष्ट तप का अनुष्ठान किया है, ऐसी स्थापना करते हुए प्रतिमा पर पुष्पांजलि छोड़ें। विसर्जन विधिः सर्वे देवाः समाहूताः, शिष्टार्हत्प्रभुपूजने। इष्टमस्माकमापाद्य, तुष्टा यांतु यथाक्रमम्।।3।। ॐ जिनपूजनार्थं समाहूता देवाः सर्वे विहितमहामहाः स्वस्थानं गच्छत गच्छत जः जः जः। इति विसर्जनमंत्रोच्चारणेन यागमंडले पुष्पांजलिं विकीर्य देवान्विसर्जयेत्। पुष्पांजलि क्षेपण करते हुए विसर्जन करना। परमात्मा का ध्यान प्रक्षीणदोषमलमिद्धनिजप्रकाशं। लोकैकभूषणमहो निजदिव्यरत्नम्। मुक्तिश्रियः सपदि संवदनं विधातुं। पूज्यं प्रपूज्य हृदये निदधे भवन्तं।।4।। अनेन परब्रह्माध्यात्ममध्यासयेत्। (परमात्मा का ध्यान करना या 9 बार महामंत्र पढ़ना।) शांतिधारा यो लौकैकशिखामणिर्यमनिशं, ध्यायन्ति योगीश्वराः। येनादर्शि समस्ततत्त्वममरा, यस्मै नमस्कुर्वते।। यस्मान्नास्त्यपरो हितस्त्रिजगते, यस्यैव युक्ताप्तता। यस्मिन्केवलबोधभानुरुदितः, सोव्याज्जिनोयं जगत्।।5।। ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं नमः परमशांताय सर्वलोकैकशांतिर्भवतु स्वाहा। शांतिधारा।। (शांतिधारापूर्वक शांतिपाठ करना।) मंडप या मंदिर की तीन प्रदक्षिणा देना अर्चामग्रे प्रनृत्यत्कलशयुतवधूमग्रभृंगारनिर्यद् – वार्धारापूतधात्रीं बहुतरविभवामादरेणानुयाताः। सर्वाशाः पूरयंतो बलिमनुमुखराः सर्वधान्यैश्च लाजैः। सत्पुष्पैरक्षतौघै£जननिलयमिमे त्रिः परीयाम शान्त्यै।।6।। ॐ अर्हद्भ्यो नमः। क्षमायाचना व नमस्कार प्रमादाज्ज्ञानदर्पाद्यै-£वहितं विहितं न यत्। जिनेद्रास्तु प्रसादात्ते सकलं सकलं च तत्।।7।। क्षमापण पूर्वकं पंचांगप्रणामः ।। मोहध्वान्तविदारणं। भूयात्पुनर्दर्शनम्। इति गमनापृच्छनम्।। इत्थं सौधर्मशक्रप्रभृति सुरवरा यां जिनेन्द्रस्य साक्षात्। चक्रुर्दीक्षाग्रहाख्योत्सवविषयमहाश्चर्यकल्याणपूजाम्। तामारोप्यात्र बिम्बे विधिवदिहकृता शक्तितो भूरि भक्त्या। भुक्त्यै मुक्त्यै च यष्ट्रप्रभृति तनुभृतामस्तु कल्याणपूजा।।8।। इष्टप्रार्थनाय पुष्पांजलिः।। इत्थं निधत्ते जिनपुंगवस्य, निष्क्रान्तिकर्मोत्सव संविधिं यः। निष्क्रान्तिकर्मोत्सवमाशु यास्यत्, यमुत्र नूनं स हि धर्मनेमिः।।9।। इत्यर्हत्प्रतिष्ठासारसंग्रहे नेमिचंद्रदेवविरचिते प्रतिष्ठातिलकनाम्नि निष्क्रमणकल्याण- विधिर्नाम दशमः परिच्छेदः।