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अयोध्या
चौबीस तीर्थंकर वंदना B
July 20, 2017
जिनेन्द्र भक्ति
jambudweep
चौबीस तीर्थंकर वन्दना
आवो हम सब करें वंदना, चौबीसों भगवान की।
तीर्थंकर
बन तीर्थ चलाया, उन अनंत गुणवान की।।
जय जय जिनवरं-४
आदिनाथ
युग आदि
तीर्थंकर
,
अजितनाथ
कर्मारि हना।
संभवजिन
भव दु:ख के हर्ता,
अभिनंदन
आनंद घना।।
सुमतिनाथ
सद्बुद्धि प्रदाता,
पद्मप्रभु
शिवलक्ष्मी दें।
श्री सुपाश्र्व
यम पाश विनाशा,
चन्द्रप्रभू
निज रश्मी दें।।
केवलज्ञान
सूर्य बन चमके, त्रिभुवन तिलक महान की।। तीर्थं.।।१।।
जय जय जिनवरं-४
पुष्पदंत
भव अंत किया है,
शीतल
प्रभु के वच शीतल।
श्री श्रेयांस
जगत हित कर्ता,
वासुपूज्य
छवि लाल कमल।।
विमलनाथ
ने अघ मल धोया, जिन
अनंत
गुण अन्तातीत।
धर्मनाथ
वृषतीर्थ चलाया,
शांतिनाथ
शांतिप्रद ईश।।
शांतीच्छुक जन शरण आ रहे, ऐसे करुणावान की।।तीर्थं.।।२।।
जय जय जिनवरं-४
कुंथुनाथ
करुणा के सागर,
अर
जिन मोह अरी नाशा।
मल्लिनाथ
यममल्ल विजेता,
मुनिसुव्रत
व्रत के दाता।।
नमिप्रभु
नियम रत्नत्रय धारी,
नेमिनाथ
शिवतिय परणा।
पाश्र्वनाथ
उपसर्ग विजेता,
महावीर
भविजन शरणा।।
इनने शिव की राह दिखाई, जन-जन के कल्याण की।।तीर्थं.।।३।।
जय जय जिनवरं-४
तीर्थंकर
के जन्म समय से, दश अतिशय श्रुत में गाये।
केवलज्ञान
प्रगट होते ही, दश अतिशय
गणधर
गायें।।
देवोंकृत चौदह अतिशय हों, सुंदर
समवसरण
रचना।
इन्द्र-इन्द्राणी देव-देवियाँ, गाते रहते गुण गरिमा।।
सभी भव्य गुण कीर्तन करते, अभयंकर जिननाम की।।तीर्थं.।।४।।
जय जय जिनवरं-४
तरु अशोक सुरपुष्पवृष्टि, भामंडल चामर सिंहासन।
तीन छत्र सुरदुंदुभि बाजे,
दिव्यध्वनी
है अमृतसम।।
आठ महा ये
प्रातिहार्य
हैं, गंधकुटी में प्रभु शोभें।
विभव वहाँ का सुर नर पशु क्या, मुनियों का भी मन लोभे।।
गणधर
गुरु भी संस्तुति करते, अविनश्वर भगवान की।।तीर्थं.।।५।।
जय जय जिनवरं-४
दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज ये, चार अनंत चतुष्टय हैं।
ये छ्यालिस गुण अर्हंतों के, फिर भी गुणरत्नाकर हैं।।
क्षुधा तृषादिक दोष अठारह, प्रभु के कभी नहीं होते।
वीतराग सर्वज्ञ
तीर्थंकर
, हित उपदेशी ही होते।।
परम पिता परमेश्वर स्वामिन्! भक्ती कृपानिधान की।।तीर्थं.।।६।।
जय जय जिनवरं-४
दोहा
द्विविध धर्मकर्ता प्रभो, धर्मचक्र के नाथ।
‘‘
ज्ञानमती
’’ कलिका खिले, नमूँ नमाकर माथ।।१।।
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