जैन रीति, शिल्पकला एवं प्राचीन ग्रंथों के जैविक संरक्षण
सारांश प्रस्तुत शोध लेख में वायुमण्डल में सूक्ष्म जीवों, गुफाओं, शिल्पकला, भित्ति चित्रकला एवं प्राचीन ग्रंथों के जैविक संरक्षणों का वर्णन किया गया है। जैविक सुरक्षा से हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का तीव्र गति से विनाश हुआ है एवं काफी विरासत नष्ट होने के कारण खड़ा है। इस सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण के कुछ उपाय भी लेख में सुझाए गए हैं।
प्रस्तावना
भारतवर्ष प्राकृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक एवं कलात्मक विविधताओं से परिपूर्ण देश है। यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर कई रूपों में विद्यामान है। कहीं यीशु के रूप में, तो कहीं मन्दिर—भवनों आदि कलाओं के रूप में। यह सांस्कृतिक धरोहर कुछ स्थान पर तो सुरक्षित है लेकिन अधिकांश स्थान उपेक्षित पड़ा हुआ है। अनेक स्थान या शिल्पों के आधार पर ही निर्मित हुए हैं, क्योंकि हवा, पानी, धूप, आर्द्रता जैसे अनेक प्राकृतिक कारणों ने इनके मूल स्वरूप को ही नष्ट कर दिया है। इसके अलावा वायु में उपस्थित कई प्रकार के सूक्ष्म जैविक तत्व, शैवाल एवं लाइकेन वर्ग के जीवों की उत्पत्ति से भी इस सांस्कृतिक धरोहर का शनैः शनैः संरक्षण होता जा रहा है। न केवल शिल्पकला अपितु शास्त्र भंडारों में प्राचीन दुर्लभ ताड़ एवं भोजपत्रों पर लिखित ग्रंथ एवं अन्य शास्त्र भी उचित वैज्ञानिक रख-रखाव के अभाव में जैविक सुरक्षा की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। जैन शिल्पकला का शिल्पकला में विशिष्ट महत्व है। देश के अधिकांश भाग में विभिन्न समयावधियों की जय एवं अन्य उपयुक्त पृष्ठ उपलब्ध हैं। उत्तर भारत में यदि मथुरा , गोपाचल ( ग्वालियर ) आदि जैसे प्राचीन स्थल हैं तो दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला के भगवान बाहुबली के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं। गुजरात के पालीताना में अद्वितीय जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ तो पूर्व में बिहार एवं बंगाल में जैन सांस्कृतिक मन्दिरों का मुख्य केन्द्र रहे। मध्यभारत के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में जैसे पग—पग पर या तो जिनालय अवस्थित हैं या धरती मां की कोख में पड़े हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं कि जब किसी गाय का दूध वहां झारे और किसी भक्त के हाथों उस स्थान का उद्धार हो।
वन विज्ञान
हमारे यहाँ लगभग हजारों प्रकार के पेड़—पौधे एवं जीव—जन्तु पाए जाते हैं। कुछ पौधे थोड़े छोटे होते हैं जो केवल सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की सहायता से ही देखे जा सकते हैं, जिनमें शैवाल, कवक, लाइकेन एवं बैक्टीरिया वर्ग के सूक्ष्म फलप प्रमुख होते हैं। अलग— अलग वर्ग के व्यक्तियों द्वारा सुरक्षा निम्न प्रकार होती है:—
शैवाल
शैवालीय जीवों के रहस्यों के बीजाणु एवं सूक्ष्म तंतुवातावरण में विद्यामान रहते हैं। ग्रीष्म ऋतु में जलीय पदार्थों के औषधीय गुणों के कारण वहां सूक्ष्म शैवाल सूख जाते हैं एवं हवा की सहायता से इनके बीजाणु हवा में खराब हो जाते हैं। इन शैवालीय यौगिकों में एनाविना, लिंग्विया, नोस्टॉक, सायटोनिमा, क्लारेला, यूलोथ्रिक्स, स्पाइरोगाइरा आदि प्रमुख हैं। हवा में तैरते हुए इन मिट्टी के बीजाणु या तन्तु जब किसी पत्थर के संपर्क में आकर धूल होने से चिपक जाते हैं, तब पानी एवं धूल प्रतिरोधी हो जाते हैं एवं धूल—धीमे पाषाण सतह पर फैल जाते हैं। इन शैवालों से ‘अल्जीनिक एल्कोमा’ का स्राव होता है जो सतह की चमक को नष्ट कर देता है। इसके अलावा प्रकाश निर्माण की क्रिया के फलस्वरूप शैवाल ऑक्सीजन पैदा करते हैं जो कि पत्थर में उपस्थित सल्फाइड, नाइट्रेट जैसे आवश्यक अवशोषण को द्वितीयक अवशोषण में प्रप्त कर देते हैं जिससे पत्थर की सतह भुरभुरी हो जाती है।
फ़फूंद/कवक
कवक या तैयारी उपकरण के अध्ययन के बीजाणु वायुमण्डल में पाए जाते हैं। इनमें एल्टोनेरिया, एस्पर्जिलस, वोट्राइटिस, क्लेडोस्पोरियम, केंडिडा, सरकोस्पोरिया, फ्यूजेरियम, फोमा, टिलियोस्पोरिया आदि प्रमुख हैं। इन रहस्यों के बीजाणु नाम, अंधकार एवं स्थिर वायुयुक्त वातावरण में पाए जाते हैं। ये गुफाएँ फुफंदियों से बहुधा प्रभावित होती हैं। पुस्तकालयों में व्यापक शास्त्र, पुस्तकें उन का उभरता बीजाणुओं से स्रावित अम्लों के द्वारा होती है।
लाइकेन
यह विशेष प्रकार के पौधे हैं जो शैवाल एवं कवक के संयोग से पाए जाते हैं। यह मूर्ति सतह पर पानी के संयोग से आसानी से उगते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो जाहिर तौर पर हरे रंग के रूप में दिखाई देते हैं। इनमें लेसिडिया, लेसानोरा, कलोप्लेका एवं रिनोडिना प्रमुख रूप से शैल प्रजातियों को प्रभावित करती हैं। विभिन्न प्रकार के पाषाणों में ग्रेनाइट पर इनका प्रभाव सबसे कम होता है। यह अति ताप, अति शीत, अति जल अथवा अति शुष्क वातावरण में भी जीवित रह सकते हैं। लाइकेन भी अम्लों का स्राव करते हैं जो सतह को नष्ट कर पत्थर के अन्दर के भाग को भुरभुरा बना देते हैं। रेडी की बीट गिरावट के स्थान पर लाइकेन शीघ्र उगते हैं
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मोती से निर्मित कला का स्पष्ट प्रभाव भी होता है। नाइट्रिफार्इंग शीर्षक वायुमण्डलीय अमोनिया को नाइट्रेट एवं नाइट्रेट लवणों में प्राप्य करता है। इस प्रकार कि पत्थर में उत्फुल्लन(एफ़्लोरेसेंस) प्रारंभ हो जाता है। इस प्रक्रिया में बैक्टीरिया के निम्न तीन वर्ग प्रमुख रूप से महत्वपूर्ण हैं—
(१) वह जो नाइट्रोजिनस—कार्बनिक पदार्थ को अमोनिया में परिणत करते हैं।
(२) वह जो वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को अमोनिया में परिणत करते हैं।
(३) वह जो अमोनिया को ऑक्सीकृत कर नाइट्रस एवं नाइट्रिक एल्कॉमों में परिणत करते हैं।
कुछ दूसरे वर्ग के बैक्टीरिया जो शैल—कला का संरक्षण करते हैं निम्न हैं— एरोविक १.थायो— बैक्टीरिया २.सिलिका— बैक्टीरिया ३.नाइट्रिफार्इंग—बैक्टीरिया एनारोविच १.डिसल्फोविव्रिओ २.क्लोस्ट्रोडियम
अन्य कारक
प्राचीन उपेक्षित मंदिरों एवं इमारतों के अलावा, कबूतरों के निवास भी उल्लेखनीय स्मारकों से चमगादड़ों में बनाए गए हैं। यह पक्षी जैसा एवं प्रकृति पर बीट करते रहते हैं। इस बीटल में कई प्रकार के नमूने एवं सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं जो पाषाण सतह को प्रोजेक्ट बनाते हैं। बीटल में सूक्ष्म जीव भी सतह को हानि पहुंचाते हैं। वर्तमान शोध कार्य में गोपाचल (ग्वालियर) स्थित जैन गुफाओं एवं जिनालयों में तीर्थकरों की जैविक निर्मिति का अध्ययन किया गया है। इसके अलावा श्रवण के लिए बेलगोला स्थित भगवान बाहुबली के १९९० वर्षों में महामस्तकाभिषेक के पश्चात मूर्ति की स्थिति का अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया है।
गोपाचल
अति प्राचीनकाल से ही गोपाचल का महत्व रहा है। यह गोपीगिरि, गोपद्रि, गोपालिकेर आदि नामों से भी प्रसिद्ध रहा है। यह सदैव ही जैनकला एवं संस्कृति का केन्द्र रहा है। गोपाचल दुर्ग के चारों ओर अनेक शैल गुफाओं में जिनालय एवं मनोहारी जयों का निर्माण कई जैन शासकों के काल में हुआ। दसवीं एवं पंद्रहवीं शताब्दी में प्रमुख रूप से सर्वोच्च निर्माण कार्य हुआ। यहां पर्वतों में स्थित पाषाण को काटकर ही जिनालय एवं फलों का निर्माण किया गया। अनेक स्थानों पर निरंतर रूप से जल के अवशेषों के कारण जिनालयों एवं स्थानों को काफी क्षति हुई है। वायुमण्डल में उपस्थित कवक एवं शैवाल जीवाणुओं के अध्ययन के लिए ‘वायु प्रतिदर्शित’ (वायु सेम्पलर) यंत्र का उपयोग किया जाता है। प्रतिदर्शित यंत्र में स्थित स्लाइड्स के अध्ययन के उपरान्त देखा गया कि विभिन्न माह में विभिन्न प्रकार के कवकों के बीजाणुवातावरण में उपस्थित रहते हैं। यह कवक बीजाणुओं की उपस्थिति का प्रतिशत सारणी क्रमांक—१ में दर्शाया गया है। कुल ११ प्रकार के कवक बीजाणु गोपाचल के वायुमण्डल में पाये गये गे च्यू एस्परजिलस, अल्टनेरिया, वोट्राइटिस, क्लेडोस्पोरियम, हेलिमन्थोस्पोरियम, सरकोस्पोरा, केंडिडा, फोमा, ड्रेस्लेरा जैसे प्रमुख हैं। यह कवक बीजाणु प्रमुख रूप से अंधेरी गुफाओं में अधिक हैं। एक पत्थर की बावड़ी के नाम से प्रसिद्ध बावड़ी के पास की अधिकांश सील की चौकी एवं पत्थरों पर लाइकेन्स का आक्रमण हो चुका है। उरवाई गेट से दुर्ग की ओर जाने वाले मार्ग पर स्थित अधिकांश आदमियों पर एक—२ इंच मोटी शैवाल एवं लाईकेन की वापसी जम गई है। कुछ स्थानों पर अतिक्षण से प्रभु के अवशेष ही प्रतीत होते हैं। कुछ स्थानों पर पानी के अत्यधिक रिसाव से मनुष्यों का पत्थर दर-दर गिरता जा रहा है। कई बड़ी-बड़ी छवियों में भी समानता बनी हुई है। वायु से विकृत कुछ रहस्य के बीज भी आते हैं या अन्य मानकों पर जम जाते हैं एवं उचित व्यवहार उत्पन्न होने के कारण होते हैं। इसी प्रकार चमगादड़ों, पी.आर. की बीट एवं वस्तु ने भी इस खतरे को भारी नुकसान पहुंचाया है।
श्रवणबेलगोला
लेखक ने महामस्तकाभिषेक के लगभग आठ माह बाद अगस्त सन् १९९० में श्रवणबेलगोला की यात्रा की एवं देखा कि भगवान बाहुबली की मनोहारी मूर्ति संपूर्ण श्वेत धवल दिखने के बजाय अधिकांश स्थान पर काली हो चुकी है। परफ्यूम के उपरान्त ज्ञात हुआ है कि किस कवक (फफूंदी) की वृद्धि होने के कारण यह अनुमान लगाया गया है कि इसमें भी मुख्य रूप से एस्पर्जिलस, एल्टनेरिया, क्लेडोस्पोरियम, फ्यूजेरियम जैसे कवकों की वृद्धि हो रही है। इसकी वृद्धि का कारण यह है कि घी, दूध, दही एवं अन्य वसायुक्त पदार्थों के निरंतर अभिषेक से प्रतिमा पर इन पदार्थों की वापसी हो गई एवं वायुमण्डल में उपस्थित इन पदार्थों की प्रतिमा को इस उचित माध्यम से वापस प्राप्त कर लिया गया। कई प्रकार के बैक्टीरिया की उत्पत्ति भी मूर्ति पर पाई गई। कुछ घटनाओं का मत यह है कि मूर्ति के उपचार से मूर्ति पुन: साफ हो जाती है, लेकिन यहां उल्लेख करना उचित होगा कि कुछ घटनाओं का प्रभाव इतनी तेजी से होता है कि मूर्ति की सतह को प्रभावित करता है। इसके बाद मूर्ति चमकदार एवं स्पष्ट दिखाई देती है, परन्तु कालान्तर में पाषाण की वास्तविक चमक का लोप हो जाता है। इसी प्रकार ग्वालियर, बजरंगगढ़ (गुना) एवं अनेक ऐसे जैन तीर्थ हैं जहां जिनालयों में दीवारों एवं छतों पर सैकड़ों वर्ष पुरानी रंगीन भित्ति चित्रकला मौजूद है। यह रंग-बिरंगे मिथक से बने हुए थे। चूंकि इन चित्रों में रासायनिक आधार में सेल्युलोज एवं अन्य तत्वों की अधिकता होती है, जो कि जीवाणु एवं कवक के लिए अति उत्तम पदार्थों के माध्यम से जीवाणु के लिए अति उत्तम होते हैं, अत: इन चित्रों का प्रयोग काल के प्रभाव से अनेक स्थानों पर किया गया है। भी किया गया है। हर्षित होता जा रहा है। इनका संरक्षण भी आवश्यक है।
संरक्षण के उपाय
वायु—जैविक कैलेण्डर
किसी भी प्रकार के संरक्षण के लिए उस स्थान के वायुमण्डल में उपस्थित विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं को, आदि की उपस्थिति का वर्ष भर का कैलेंडर तैयार करना। इस कार्य हेतु कई प्रकार के ‘वायु प्रतिदर्शित’ उपलब्द्ध हैं। यह यंत्र वायुमण्डल की वायु चुसकर बीजाणुओं आदि को यंत्र में लगी हुई कांच की स्लाइड या टेपर पर इकट्ठा कर लेते हैं। साथ ही उस स्थान का तापक्रम, नमी, प्रकाश तीव्रता, वायुगति आदि का अध्ययन भी आवश्यक है।
क्षरित पदार्थ की प्रकृति
(१) जिन मूलों, चित्रकलाओं, ग्रंथों या पाए गए पत्थरों का संरक्षण हो रहा है, उनकी वास्तविक प्रकृति का अध्ययन करना आवश्यक है, उदाहरणार्थ ग्रेनाइट एवं बालू पत्थर से निर्मित मूल पर एक ही प्रकार के रसायन या अन्य उपचार का प्रयोग नहीं किया जा सकता है, या ताड़पत्र एवं सामान्य कागज पर लिखित ग्रंथों पर अलग-अलग धाराओं से उपचार किया जाता है।
(2)प्रकृतियों के अध्ययन के लिए अनेकों वैज्ञानिक विधियां उपलब्ध हैं, जिनके अनुरूप अध्ययन आवश्यक है।
(३) साधारण लाइकेन्स ब्रश की सहायता से साफ़ किये जा सकते हैं लेकिन स्रोतो प्रकार के लाइकेन्स को समूल नष्ट करने की सफलतम विधि अभी तक खोजी नहीं जा सकती है। फिर भी अमोनिया घोल के उपचार से कुछ सीमा तक सुरक्षा रोकी जा सकती है। लाइकेन्स की उत्पत्ति एवं वृद्धि न हो, इस हेतु जहां तक संभावना हो सके, पानी एवं पक्षियों से बचाव करना उचित है।
(४) जैसे एवं अन्य पाषाण शिल्पों पर प्रतीक, आदि की वृद्धि होने पर अमोनिया घोल एवं ‘टीपोल’ नाम से नामित किया जाता है। फिर नरम ब्रशों की सहायता से सतह साफ कर ली जाती है। तत्पश्चात प्रदूषणकारी पानी से सफाई की जाती है। जिंक—सिलिको—फालूराइड (२—५%) नामक यौगिकनाशक के परिणाम भी अच्छे देखे गए हैं। खजुराहो के मंदिरों में उक्त देवताओं का उपयोग सफाई हेतु किया गया था।
(५) भित्ति चित्रकला (पेंटिंग) पर आधार की वृद्धि का उपचार पी—एफसी—एफ—क्रिसोल (०.३%) एवं फिनाइल मरक्यूरिक एसिटेट के एब्सोल्यूटफाइड में मिश्रण से किया जाता है। इस विधि से चित्रकला के रंगों पर हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है।
(६) ऐसा देखा गया है कि लगातार प्रयोग से कई बार प्रोडक्ट्स पर निशान बन जाते हैं एवं चमक कम हो जाती है। आधुनिकतम में नाइट्रोजन जैसी प्रतिरोधी गैस का उपयोग अधिक सुरक्षित देखा गया है। कई प्रकार की प्रजातियों की वृद्धि को रोकने में भी इस गैस का प्रभाव देखा गया है। कई प्रकार की प्रजातियों की वृद्धि को रोकने में भी इस गैस का प्रभाव देखा गया है। मन्दिरों के गर्भगृहों की प्रतीकों, पुस्तकालयों में रखे प्राचीन ग्रंथों, पाण्डुलिपियों एवं गुफाओं में स्थित प्रतीकों पर ‘गैस-प्रभाव’ विधि अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध हुई है। इसके अलावा कम ऑक्सीजन वातावरण विधि भी प्रभावी है। तीन दिन तक ०.५% आक्सीजन का प्रभाव एवं ६.७ से. तापमान से काफी अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।
(७) ग्रंथों का समय-समय पर वायु परीक्षण किया जाना आवश्यक है। इसके लिए तापमान, प्रकाश, तीव्रता एवं सूक्ष्म जीवाणुओं के समय पर अध्ययन किया जाना आवश्यक है। कवक बीजाणु वायु में होने की दशा में कवकनाशक का उपयोग करना लाभदायक है। ग्रंथों के कक्षों में उचित प्रकाश एवं वायु निर्मित की व्यवस्था होने के कारण, अंधकार, नम एवं रोशनदान—रोशनदान रहित कक्षों में व्यवस्था होने पर ग्रंथ शीघ्र खराब होते हैं। यदि संभव हो तो ताड़पत्रों का लेमिनेशन करना आवश्यक है।
(८) गुफाएँ, मंदिरों की गुफाएँ एवं राजाओं के आस-पास की प्रजातियों को बहुत ही विविध प्रयोग। पूर्व संबंधित रहस्य एवं सितारों की विस्तृत जानकारी होना आवश्यक है। कई बार चित्रों को उजागर करने में शिल्प के नष्ट होने का खतरा भी हो सकता है।
(९) पानी के विक्रेता वाले स्थान को उचित रूप से सीमेन्ट से बन्द करना उचित होगा।
(१०) गोपाचल जैसे स्थान पर जहां पहाड़ों से नीचे गुफाओं की ओर पानी गिरता है, गुफा द्वार के ऊपरी भाग पर कांच की नालीदार चादर लगानी चाहिए ताकि गुफा में पानी न जा सके। केवल गुफा स्थान ही नहीं बल्कि अन्य जानवरों के ऊपरी भाग पर भी इस प्रकार के शेड लगाए जा सकते हैं।
(११) यदि संभव हो तो गुफाओं एवं प्राचीन मंदिरों के गर्भगृहों में संपूर्ण प्रकाश व्यवस्था के कारण चमगादड़ों में कीटों एवं अन्य सूक्ष्म जीवों का प्रकोप कम हो जाता है।
(१२) श्रवणबेलगोला जैसे स्थान पर यीशु के संरक्षण हेतु आवश्यक है कि बारह वर्ष के पश्चात् का अभिषेक महीनों तक न केवल कुछ दिनों तक ही सीमित रखना चाहिए। तत्पश्चात स्पष्ट सफाई भी आधुनिक पुस्तकों के मार्गदर्शन में जाना चाहिए। उक्तानुसार, इस सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण के अलावा भी अनेक उपाय हैं। हमारे देश में भी कुछ कक्षाएं एवं प्रयोगशालाओं में इस दिशा में शोध कार्य चल रहा है। लखनऊ स्थित राष्ट्रीय सांस्कृतिक धरोहर संरक्षण अनुसंधान प्रयोगशाला ने देश में कई स्थानों, संग्रहालयों एवं पुस्तकालयों में संरक्षण से संबंधित कार्य किए हैं एवं संरक्षण के उपाय सुझाए हैं।
सन्दर्भ
अग्रवाल, ओ.पी. एवं शशिधरन, १९९१, म्येजियम्स में वायु संपादन नियंत्रण, एन.आर.एल.सी. लखनऊ अग्रवाल, ओ.पी.मिश्रा एवं के.के. जैन, १९९० प्रहर, ऐतिहासिक इमारतों से पौधे और पेड़ हटाना, इंटरनेट, लखनऊ लेखक, एम आर जी। एवं सी. जियाकोविनी, १९९१ राइट, लाइकेन इंडस्ड बायोडिटीरियोरेशन, स्टुडिया जियोवोटेनिका ८,प्र. ३—१ध एस.एवं ओ.पी. अग्रवाल, १९९६ लिपि, फंगल फ्लोरा आफ मिनियेचर पेपर पेंटिंग्स, अंतर्राष्ट्रीय बायो। २२(२),पृ. ८, प्र. स्पष्ट—९ तियानो, प्र., प्र. अकोला एण्ड एल. टोमासिली, १९९३, सैम बायोसाइड्स एजेंसी एल्गल बायोडिरियोरेशन की दुर्दम्यता, अप्रत्याशित कांग्रेस, पीआर. ५ छुपा—५ज़