एम. प्र. राज्य का धार जिला विकासशील सामग्री से समृद्ध है। इसी कारण लार्ड कर्जन की प्रेरणा से १९९० में धार संग्रहालय की स्थापना की गई थी। यह संग्रहालय वर्तमान में जिला प्राचीन संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। यहाँ दस अभिलिखित परमार्थिक जैन प्रतिमाओं का विवरण प्रस्तुत लेख में अंकित है। जिला पुरातत्व संग्रहालय—वर्तमान मध्य प्रदेश का सबसे प्राचीन पुरातत्व संग्रहालय है। प्राचीन धारा नगरी का स्थिर वैभव बहुत समय पहले से ही लोगों को ज्ञात था, लेकिन इस नगरी में स्थिर की खोज का इतिहास अधिक प्राचीन नहीं है। धार रियासत में महाराजा भुंजराव पंवार तृतीय के शासनकाल में इनके सद्प्रयत्नों से १८०० तक धार राज्य के दूरस्थ एवं ऐतिहासिक सामग्री की खोज से संबंधित कथा प्रस्तुत की गई। मोती महल की खुदाई करते समय १८ स्तर के अवशेषों में कुछ कलाकृतियाँ एवं स्मारक स्थल मिले थे। ८.७ … भोजन की ऐसी मान्यता है कि रसोई के समय में भोजशाला की प्रसिद्ध सरस्वती मूर्तियों को भी संग्रह में शामिल किया गया था। जिसे बाद में लंदन भेज दिया गया। मध्य भारत के तत्कालीन राजनीतिक एजेंट केप्टन बार्नेट ने भी धार राज्य की पुरातत्वीय एवं ऐतिहासिक सामग्री का अध्ययन एवं अनुक्रम रखने में विशेष रुचि ली और उनके सहयोग से धार रियासत के इतिहासकार राज्यरत्न पं. के. के. लेले ने अद्भुत मौला मस्जिद (भोजशाला) की शिलाओं पर अंकित अनेक शिलाएँ खोजी हैं। पं. के. के. लेले की खोज प्राचीन भारतीय पुरातत्व की सबसे महत्वपूर्ण खोज थी। डॉ. फ्यूरर बूलर, सर जे. ए. केम्पवेल, प्रो. पिशल व कीलहरन, राय बहादुर हीरालाल ओझा, डॉ. डी. आर. भण्डारकर तथा हीरालाल जी आदि पुराविद् इस खोज से अत्यधिक प्रभावित हुए।
ई. सन् १८ सचमुच में मौ दाजी ने भगवान लाल इंद्रजी को शिला के शिखर पर चढ़ाने के लिए धार्मर्ष किया। सन् १८७५ में डॉ. वीलर प्रबंधक डॉ. फुर्र भी धार आये। ई. सन् १८८५ में सर जे. ए. वैम्पावेल ने अपने सहायक पगुल खां को लेकर प्राचीन खोज को देखने के लिए इस नगरी की यात्रा की इस प्रकार १८०१ में प्राचीन खोज की शुरुआत की। वह सन् १९०० ई. तक पूर्णरूपेण चलती रही। राजनीतिक एजेंट केप्टन बैनेट (१९००-१९४०) ने अध्ययन करके परिचय पुस्तिका तैयार की। लार्ड कर्जन को पुरातत्व में विशेष रूप से अभिरुचि थी। उनकी प्रेरणा से सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से सामग्री एकत्रित की गई, जिसे धार नगर में सितम्बर १९९० में धार विरासत द्वारा जागरूकता का प्रदर्शन करके पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना की गई और उसी वर्ष जब ऋणग्रस्त धारा नगरी आई, तब वे यहां के संरक्षित और संरक्षित थे। खोजों के लिए प्रसिद्ध हुए। प्रति अपनी दयालु प्रसन्नता व्यक्ति की। पुरातत्व संग्रहालय के प्रमुख धर्मस्थली के शिक्षा अधीक्षक श्री के. के. लेले बने गे। धारवाड़ में संग्रहालय पुरातत्व विभाग की स्थापना के पश्चात पं. लेले के दोनों सहायकों श्री व्ही. के. लेले व मुंशी अब्दुल रहमान ने अनेक स्थानों एवं स्मारकों के सर्वेक्षण का कार्य सम्भाला। इसी तारतम्य में आनन्द हाई स्कूल में एक विशाल संग्रहालय की स्थापना की गई। उस समय इस संग्रहालय में हिंदू व जैन ग्रंथों के अलावा हिंदू एवं मुस्लिम वास्तुकला के प्रस्तर खंड, संस्कृत व दर्शन के अभिलेख, सिक्के, पुस्तकें तथा अन्य अभिलेख प्रदर्शित किए गए थे। स्कूल में सुविधा जनक स्थान न मिलने के कारण इसे कालान्तर में स्थानांतरित कर दिया गया तथा पूर्णतः व्यवस्थित रूप से चित्रित किया गया। धार राजवंश की प्राचीन शोध की परम्परा को प्रो. ए. डब्लू वाकणकर डॉ. हर्षण वाकणकर एवं आर. के. देव आदि ने बड़े उत्साह के साथ आगे बढ़े। धार नगरी का प्रवास स्थल प्राचीन है। पाठ्यक्रम सन् १९५६ के डेक्कन कॉलेज (पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीटयूट) पुणे के श्री ए. पी. खत्री को सर्वेक्षण के दौरान धार में ताम्रश्म युगीन सभ्यता के अवशेषों के साथ-साथ कुछ अतियंत सुन्दर चित्र मृद भाण्ड भी प्राप्त हुए थे। वर्ष १९७७ में डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर को भी रोमन बुले और कुछ अन्य कुशन कालीन प्राकृतिक की प्राप्ति हुई। ये सारी उपलब्धियाँ इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि धार की धरती के नीचे भी टिकाऊ वैभव भरा पड़ा है। संग्रहालय में पाषाण मुसलमानों का विशाल संग्रह है, जिसमें से दस अभिलिखित जैन मुसलमानों का विवरण प्रस्तुत लेख में किया जा रहा है—
आदिनाथ
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्राओं में स्मरण किया जाता है। अब केवल पादपीठ शेष है। पादपीठ पर तीर्थंकर आदिनाथ का ध्वज लांछन वृषभ (बैल) का अंकन है। पादपीठ पर विक्रम संवत तेरहवीं (ईस्वी सन् १२४७) का चारमुखी लेख है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख में प्रतिष्ठा करने वाले श्रावक का नाम अंकित होता है तथा वह तेरह महीने में प्रतिष्ठा करके उसे नित्य प्रणाम करता है। लेख का पाठ इस प्रकार है— सं. (संवत )तेरह तेरह वर्षें…….. प्रणमति नित्य श्री।।
पद्मप्रभा
छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (स. क्र. मास उन्नीस) पद्मासन की मुद्रा में अंकित है। तीर्थंकर के सिर पर कुल्टलित केश राशि लम्बी चाप, व पर श्री वत्स चिन्ह है। पादपाद अलंकृत है। संगमरमर पत्थर पर १२x१२ से. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वी शती ढालने का एक पंक्ति का लेख है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख में प्रतिमा पद्मप्रभा तीर्थंकर की परिभाषा दी गई है। लेख का पाठ इस प्रकार है— ………… श्री पद्मप्रभ देव: ।।
चन्द्रप्रभा
आठ तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (स. क्र. पाद) पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्राओं में अंकित है। तीर्थंकर का वक्ष से ऊपर का भाग भाग्र है। पादपीठ पर चन्द्रप्रभ का ध्वज अर्धचन्द्र का अंकन है। वेसाल्ट पत्थर पर ४र० ६र्० ७५ सेंमी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ढलने का एक पंक्ति का लेख है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख का पाषाण छिल गया है। लेख का पाठ इस प्रकार है— संवत् …………….. माघ ………….. र्य. …………
शांतिनाथ
सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ की प्रतिमा बदनावर जिले धार से प्राप्त हुई है। (स. क्र. पूर्व-कुल) तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित है। तीर्थंकर प्रभामंडल, लम्बा कर्ण चाप, वक्ष पर श्रीवत्स से निर्मित है। पादपीठ पर दोनों ओर चंवरधारी शिल्पांकित हैं। इनके एक हाथ में चंवर दूसरे हाथ में कट्टया वलंबित है। वैमुकबुत, कुंडल, हार, मेखला आदि आभूषणों से निर्मित है। पादपीठ पर तीर्थंकर शांतिनाथ का ध्वज लांछन हिरण का रेखांकन है। काले पत्थर पर बारहवीं सदी सेन. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर विक्रम संवत तेरहवीं (ईस्वी सन् बारहवीं) की दो मूर्तियों का लेख है। लिपि नागरी, भाषा संस्कृत है। इस लेख में प्रतिमा की संवत तेरहवीं में प्रतिष्ठा कराने वाले उन्हें नित्य प्रणाम करते हैं। लेख का पाठ इस प्रकार है— (संवत्)तेरहवीं वर्षे………… …….एत (एते) प्रणम (म) ति नित्यं।
शांतिनाथ
तीर्थंकर शांतिनाथ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है (सं. क्र. मोन)। कायोत्सर्ग मुद्रा में शिल्पांकित है,किन्तु दोनों हाथ भग्र है। तीर्थंकर के सिर पर कुन्तलित केश, लम्बे कर्णचाप व वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है। दोनों और चंवरधारी होते हैं, जो एक हाथ में चंवर दूसरे हाथ कट्यावलम्बित होते हैं। ग्रेनाइट पत्थर पर अर्निमत १२र्० ए ४र्० ए २२८ से. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग बारहवीं शताब्दी की उदार की एक पंक्ति का लेख है, जिसे लिपि नागरी भाषा संस्कृत में मथुरान्वय के आचार्य माधव चन्द्र संवत ……..माघ वदी पंचमी को प्रतिष्ठापित करके प्रतिमा की वन्दना है। करते हैं। लेख का पाठ इस प्रकार है— ……..माघ वदि ५ माथुर …….. (अन्वये) प्रणमति आचार्य माधवचंद्रो।
मुनिसुव्रतनाथ
बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। पद्मासन मुद्रा में स्वर्णिम तीर्थंकर का पादपीठ ही है। पाषाण पर (ईस्वी सन् ११६६) का लेख प्रचलित है, जिसकी लिपि नगरी भाषा संस्कृत है। लेख में हजारों अक्षरों का पाषाण खंडित हो गया है, इसमें सवंत् बारह हज़ार माघ सुदी सप्तमी को प्रतिष्ठाकारक नित्य प्रणाम करता है। लेख का पाठ इस प्रकार है—संवत् (१) २ २२ वर्षे माघ सुदि ७ …….प्रणमति नित्यं। तीर्थंकर—लांछन विहीन तीर्थंकर की यह प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. लघु) पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में तीर्थंकर प्रतिमा के सिर पर कुन्तलित केश, लम्बे कर्ण चाप, वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है। संगमरमर पत्थर पर अर्निमत ११र्० ६६ पचास सें. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वीं शती का लेख व्यापक है। लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख का पाठ इस प्रकार है। ………..आचार्य प्रणमति………
तीर्थंकर
यह तीर्थंकर प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. ७७) पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्राओं में है। तीर्थंकर का सिर व हाथ भग्र है। पत्थर पर ३र० वृत्त से. मी. आकार की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग १२वीं शती उभरने का लेख प्रसारित होता है जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख का वचन इस प्रकार है।
श्री लाट वागर संघे पंडिताचार्य श्री कलवडा:।। श्री गर्दनीय गेसावादी ल चुतौ आके प्रणमति नित्यं।
तीर्थंकर
यह तीर्थंकर प्रतिमा धार से प्राप्त हुई है। (स. क्र. प्य) स्तम्भ युक्त गवाच्छ के अंदर तीर्थंकर अंकित है। सिर पर कुन्तलित केश, लम्बे कर्ण चाप, वक्ष पर श्रीवत्स है। दांयी तरफ मकर व्याल व बायीं तरफ सिंह व्याल का अंकन है। काले पत्थर पर 25 दिन पहले सोलह सें. मी. आइए की प्रतिमा के पादपीठ पर लगभग बारहवीं शती शेष का एक पंक्ति का लेख डाला गया है, जिसका अंतिम अंश मात्र सुरक्षित है। शेष लेख भाग का पाषाण टूट गया है, लेख की लिपि, नागरी, भाषा संस्कृत है। लेख का पाठ इस प्रकार है— ………प्रणमति नित्यं।
तीर्थंकर के पैर
तीर्थंकर प्रतिमा के पैर से संबंधित शिल्पखंड धार से प्राप्त हुआ है। (सं. क्र. फेन) इस प्रतिमा की केवल जंग एवं आसन मात्र शेष है। काले पत्थर पर अंकित ७र्८ × पचासर्६ × १७ से. मी. आकार की प्रतिमा पर लगभग बारहवीं शती का एक पंक्ति का लेख लिखा गया है, जिसे लिपि नागरी भाषा संस्कृत में केवल ङ्गलसुत पंडिताचार्य पढ़ा जा सकता है। लेख का पाठ इस प्रकार है— ………पंडिताचार्य इलग सुत ……….. धार संग्रहालय में सुरक्षित अभिलेखित परमार कालीन प्रतिमाएँ काफी महत्वपूर्ण है। इन दिनों प्राचीन धारा नगरी एवं निकटवर्ती बदनावर में प्राचीन वर्धमानपुर में परमार काल में जैन धर्म के प्रसार एवं प्रचार पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ा है।
संदर्भ सूची—
१. धार राज्य में पुरातत्व कार्य पर रिपोर्ट, 1902-03
२. लन्दन में इस प्रमिता की सर्वप्रथम पहचान राय बहादुर के। एन. दीक्षित ने की थी। कलकत्ता से प्रकाशित रूपम पत्रिका (१९२४ पृष्ठ ३ पर) में उनका परिचय भी छपवाया गया।
३. एपिग्राफ़िया इंडिया, जिल्द ३ पृष्ठ ६।
४. भारतीय पुरातत्व: एक समीक्षा,१९६६-५७ पृष्ठ ९—१०।
५. चन्द्रवंशी डी. एन. सिंह, जिला संग्रहालय धार, मालवा थू द एजेस (एम.डी. खरे द्वारा सम्पादित) भोपाल विश्वसनीय—५४५।
६. जैन कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’, भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ परिचय: मध्यप्रदेश तेरहवीं शती तक, दिल्ली २००१, पृ. २०८, क्र. २दा।
७. पाठक नरेश कुमार, ‘मध्य प्रदेश का जैन शिल्प’, इंदौर २००१, पृष्ठ ४
८. जैन कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २ प्रिय- संभवतः क्रमांक २
९. पाठक नरेश कुमार, पृष्ठ ४ एवं जैन कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २ ४ क्रमांक २३२
१०. जैन कस्तूरचन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २ ८ २८ २० एवं पाठक नरेश कुमार , पृष्ठ ४
. पाठक नरेश कुमार, पृष्ठ ४ एवं जैन कस्तूरचन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २०’२०
12. … जैन कस्जूर चन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ १९२अंक १ थर्मल एवं पाठक नरेश कुमार, पृष्ठ ४
:जी. पाठक नरेश कुमार, पृष्ठ १० एवं जैन कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ २ दिसम्बर
४. पाठक नरेश कुमार, पृष्ठ
१५. जैन कस्तूरचन्द्र ‘सुमन’ पृष्ठ ११- फ़र
. जैन कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’, पृष्ठ २४० वर्. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 1 …