सौ इंद्रों से वंद्य नित, पंचपरम गुरुदेव।
तिनके पद अरविंद की, करूँ सदा मैं सेव।।1।।
त्रिाभुवन में त्रायकाल में, जन जन के हितकार।
नमूं नमं मै भक्तिवश, होवें मम सुखकार।।2।।
अर्हन् के छ्यालिस गुण सि, के आठ सूरि के छत्तिस हैं।
श्री उपाध्याय के पंचवीस, गुण साध् के अट्ठाइस हैं।।
पांचों परमेष्ठी के गुणगण, एक सौ तेतालिस बतलाये।
जो इनका नाम स्मरण करे, वह झट भवदध् से तर जाये।।3।।
ज्ञानमती सुरपति नरपति नाग इंद्र मिल, तीन छत्रा धरें प्रभु पर।
पंच महाकल्याणक सुख के, स्वामी मंगलमय जिनवर।।
अनंत दर्शन ज्ञान वीर्य सुख, चार चतुष्टय के धरी।
ऐसे श्री अर्हंत परम गुरू, हमें सदा मंगलकारी।।4।।
ध्यान अग्निमय बाण चलाकर, कर्म शत्राु को भस्म किये।
जन्म जरा अरु मरण रूप, त्रायनगर जला त्रिापुरारि हुए।।
प्राप्त किये शाश्वत शिवपुर को, नित्य निरंजन सि बनें।
ऐसे सि( समूह हमें नित, उत्तम ज्ञान प्रदान करें।।5।।
पंचाचारमयी पंचाग्नी में, जो तप तपते रहते।
द्वादश अंगमयी श्रुतसागर में, नित अवगाहन करते।।
मुक्ति श्री के उत्तम वर हैं, ऐसे श्री आचार्य प्रवर।
महाशील व्रत ज्ञान ध्यानरत, देवें हमें मुक्ति सुखकर।।6।।
यह संसार भयंकर दुखकर, घोर महावन है विकराल।
दुखमय सिंह व्याघ्र अतितीक्षण, नख अरु डाढ़ सहित विकराल।।
ऐसे वन में मार्ग भ्रष्ट, जीवों को मोक्ष मार्ग दर्शक।
हित उपदेशी उपाध्याय गुरु, का मैं नमन करूँ संतत।।7।।
उग्र उग्र तप करें त्रायोदश, क्रिया चरित में सदा कुशल।
क्षीण शरीरी ध्र्म ध्यान अरु, शुक्ल ध्यान में नित तत्पर।।
अतिशय तप लक्ष्मी के धरी, महा साध्गण इस जग में।
महा मोक्षपथगामी गुरुवर, हमको रत्नत्राय निध् दें।।8।।
इस संस्तव में जो जन पंच-परम गुरु का वंदन करते।
वे गुरुतर भव लता काट कर, सि( सौख्य संपत लभते।।
कर्मेंध्न के पुंज जलाकर, जग में मान्य पुरुष बनते।
पूर्ण ज्ञानमय परमाल्हादक, स्वात्म सुधरस को चखते।।9।।
अर्हत् सिद्धाचार्य औ, पाठक साध् महान।
पंच परम गुरु हों मुझे, भव-भव में सुखदान।।10।।
पंच परम गुरु यद्यपि, गुण अनंत समवेत।
तदपि मुख्य गुण को नमूं,भक्ती निजगुण हेत।।11।।
(चाल-हे दीनबन्धु….।)
जैवंत अरिहंत देव, सिद्ध अनंता । जैवंत सूरि उपाध्याय साधु महंता ।।
जैवंत तीन लोक में ये पंचगुरु हैं । जैवंत तीन काल के भी पंचगुरु हैं ।।1।।
अरिहंत देव के हैं छियालीस गुण कहे । जिन नाम मात्रा से ही पाप शेष ना रहे ।।
दशजन्म के अतिशय हैं चमत्कार से भरे । कैवल्यज्ञान होत ही अतिशय जु दश धरें ।।2।।
चौदह कहे अतिशय हैं देव रचित बताये । तीर्थंकरों के ये सभी चैंतीस हैं गाये ।।
हैं आठ प्रातिहार्य जो वैभव विशेष हैं । आनंत चतुष्टय सुचार सर्व श्रेष्ठ हैं ।।3।।
जो जन्म मरण आदि दोष आठदश कहे । अरिहंत में न हों अतः निर्दोष वे रहें ।।
सर्वज्ञ वीतराग हित के शास्ता हैं जो । है बार बार वंदना अरिहंत देव को।।4।।
सिद्धों के आठ गुण प्रधान रूप से गाये । जो आठ कर्म के विनाश से हैं बताये ।।
यों तो अनंत गुण समुद्र सर्व सिद्ध हैं । उनको है वंदना जो में निमित्त हैं ।।5।।
आचार्य देव के प्रमुख छत्तीस गुण कहे । दीक्षादि दे चउसंघ के नायक गुरु रहें ।।
पच्चीस गुणों से युक्त उपाध्याय गुरु हैं । जो मात्रा पठन पाठनादि में ही निरत हैं ।।6।।
जो आत्मा की साध्ना में लीन रहे हैं । वे मूलगुण अट्ठाइसों से साधु कहे हैं ।।
आराधना सुचार की आराध्ना करें । हम इन त्रिभेद साधु की उपासना करें ।।7।।
अरिहंत सिद्ध दो सदा आराध्य गुरु कहे । त्रयविध मुनी आराधकों की कोटि में रहें ।।
अरिहंत सिद्ध देव हैं शुद्धातमा कहे । शुद्धात्म आराधक हैं सूरि स्वात्मा लहें ।।8।।
गुरुदेव उपाध्याय प्रतिपादकों में हैं । शुद्धातमा के साधकों को साधु कहे हैं ।।
पांचो ये परम पद में सदा तिष्ठ रहे हैं । इस हेतु से परमेष्ठी ये नाम लहे हैं ।।9।।
इन पाँच के हैं इक सौ तेंतालीस गुण कहे । इन मूलगुणों से भी संख्यातीत गुण रहें ।।
उत्तर गुणों से युक्त पाँच सुगुरु हमारे । जिनका सुनाम मंत्र भवोदधि से उबारे ।।10।।
हे नाथ! इसी हेतु से तुम पास में आया । सम्यक्त्व निधी पाय के तुम कीर्ति को गाया ।।
बस एक वीनती पे मेरी ध्यान दीजिये । कैवल्य ‘ज्ञानमती’ का ही दान दीजिए ।।11।।
त्रिभुवन के चूड़ामणि, अरहन् सिद्ध महान ।
सूरी पाठक साधु को, नमूँ नमूँ गुणखान ।।12।।
अरिहंत प्रभु ने घातिया को, घात निज सुख पा लिया।
छ्यालीस गुण के नाथ अठरह, दोष का सब क्षय किया।।
शत इन्द्र नित पूजें उन्हें, गणध्र मुनी वंदन करें।
हम भी प्रभो! तुम वंदना कर नित्य अभिनंदन करें।।1।।
जन्म समय से ही दश अतिशय, प्रभु के तन मं सोहे।
सौध्र्मेन्द्र बना नित किंकर, प्रभु के मन को मोहे।।
देह पसेव रहित है प्रभु का, यह अतिशय मन भावे ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें ।।1।।।
मात गर्भ से जन्में पिफर भी, मलमूत्राादि रहित हैं ।
मुनि मन को निर्मल करने में, सचमुच आप निमित्त हैं ।।
सुर नर असुर इंद्र विद्याधर बहु रुचि से गुण गावें ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें ।।2।।
प्रभु शरीर में श्वेत दुग्ध सम, रुधिर रहे अतिशायी।
रुधिर लाल नहिं यह शुभ अतिशय, सब जनमन सुखदायी।।
गणधर गण नित हर्षित मन से, प्रभु का ध्यान लगावें ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें ।।3।।
तन सुडौल आकार मनोहर, समचतुरस्र कहावे ।
जिस जिस अवयव का जितना है, माप वही मन भावे ।।
इस अतिशययुत श्री जिनवर को, हम भी पूजें ध्यावें ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें ।।4।।
वज्रवृषभनाराच संहनन, उत्तम प्रभु का जानों।
अद्भुत महिमाशाली जिनवर, का शुभ देह बखानों।
इस अतिशय को हम नित पूजें, अतिशय भक्ति बढ़ावें ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें ।।5।।
कोटिक कामदेव छवि लाजें, अतिशय रूप मनोहर ।
इंद्र हजार नेत्र कर निरखें, तृप्त न होवे तो पर ।।
सुन्दर सुन्दर सब परमाणू, प्रभु के तन बस जावें ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें ।।6।।
महा सुगंधित प्रभु का तन है, देव सुमन से बढ़कर ।
अन्य सुरभि नहिं है इस जग में, उस सदृश अति सुखकर ।।
जन्म समय से ही यह अतिशय, सब जन मन को भावे ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें ।।7।।
एक हजार आठ शुभ लक्षण, प्रभु के तन में सोहें ।
सब सर्वोत्तम गुण के सूचक, त्रिाभुवन जन मन मोहें ।।
जन्मकाल से ये शुभ लक्षण, सब इनको ललचावें ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें ।।8।।
तुलना रहित अतुलबल प्रभु तन, जग में है न किसी के ।
इंद्र चक्रवर्ती से अद्भुत, शक्ती है जिन जी के ।।
निज शक्ती के प्रगटन हेतू, हम भी प्रभु गुण गावें ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से परमानंद सुख पावें ।।9।।
प्रिय हित मधुर वचन अमृतसम, सबको तृप्त करे हैं ।
बाल्यकाल में आप संग में, सुर शिशु आन रमे हैं ।।
ऐसे अतिशय युत जिनवर की, हम नित स्तुति गावें ।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानंद सुख पावें ।।10।।
चार चार सौ कोश, चारों दिश में जानो।|
रहे सुभिक्ष सुकाल, यह जिन अतिशय मानो।।
केवलज्ञान दिनेश, प्रगट हुआ सुखदायी।
मैं वंदूं शिरनाय, पाऊँ सुख अतिशायी।।1।।
ज्ञान उदय तत्काल, नभ में गमन करे हैं।
पांच सहस ध्नु जाय, ऊपर अध्र चले हैं।।
असंख्यात सुर आय, जय जय ध्वनि उचरें हैं।
मैं वंदूं शिरनाय, कर्म कलंक टरे हैं।।2।।
जहाँ गमन प्रभु होय, प्राणी बध् न वहाँ पे।
दयासिंधु जिनदेव, सबकी दया तहाँ पे।।
मुझ पर भी अब नाथ! दृष्टि दया की कीजे।
मैं वंदूं शिरनाय, रत्नत्राय निध् दीजे।।3।।
कोटि पूरब वर्ष, कुछ कम उसमें जानों।
कवलाहार विहीन, तन की स्थिति सरधनों।
यह अतिशय जिनराज, भविजन ठानें।
जो वंदूं मन लाय, कर्म कुलाचल हानें।।4।।
घाति चतुष्टय घात, यह अतिशय सुखकारी।
सुर नर पशू अजीव, कृत उपसर्ग निवारी।।
गणध्र मुनिगण नित्य, तुम चरणाम्बुज ध्यावें।
जो पूजें शिरनाय, अक्षय पद को पावें।।5।।
समवसरण में आप, चारों दिश मुख दीखे।
पूरब मुख ही आप, या उत्तरमुख तिष्ठे।।
यह अतिशय तुम नाथ! सब जन को सुखदायी।
मैं वंदूं शिरनाय, पाऊँ सुख अतिशायी।।6।।
सब विद्या के आप, ईश्वर एक कहे हैं।
तुमको पूजत भव्य, सम्यग्ज्ञान लहे हैं।।
यह अतिशय तुम नाथ, सब जन मन को भावे।
मैं वंदूं शिरनाय, मेरे कर्म नशावें।।7।।
परमौदारिक देह, पुद्गलमय कहलावे।
पिफर भी छाया हीन, यह अतिशय मन भावे।।
कल्पवृक्ष तुम देव, तुम छाया मैं चाहूँ।
वंदूं अर्घ चढ़ाय, भव भव ताप नशाऊँ।।8।।
नेत्रा पलक नहिं होत, नहीं टिमकार प्रभू के।
सौम्यदृष्टि नासाग्र, अतिशयवान प्रभू के।।
अंतर्दृष्टी हेतु, मैं भी जिनपद ध्याऊँ।
वंदूं अर्घ चढ़ाय, पेफर न भव में आऊँ।।9।।
नहीं बढ़े नख केश, केवलज्ञानी प्रभु के।
दिव्य शरीर विशेष, यह अतिशय हैं प्रभु के।।
सम्यक्दर्शन हेतु, मैं त्रायकाल नमूं हूँ।
जन्म मरण भय दुःख, नाशन हेतु भजूँ हूँ।।10।।
सर्वाधमागधी भाषा है, तीर्थंकर की भवि सुखकारी।
सुरकृत यह अतिशय सब जन के, मन चमत्कार करता भारी।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।1।।
प्रभु का विहार हो जहां जहां, सब प्राणी मैत्राी भाव ध्रें।
सब जाति विरोधी जीव वहां, आपस में वैर हरें विचरें।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते है।।2।।
जब श्रीविहार होता प्रभु का, औ समवसरण जहां राजे हैं।
षट्तु के सब पफल पफलते हैं, सब पूफल खिलें अति भासे हैं।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।3।।
दर्पण तलसम भूरत्नमयी, जहँ जहँ प्रभु विहरण करते हैं।
यह अतिशय सुरकृत मनहारी, भवि पूजत ही दुख हरते हैं।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।4।।
अनुकूल पवन है मन्द मन्द, सुरभित सुखकर जन मन हारी।
सब आधी व्याधी शोक टलें, स्पर्श पवन का हितकारी।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।5।।
जहँ जहँ प्रभु का हो श्रीविहार, सब जन परमानन्दित होते।
परमानन्दामृत पी करके, मुनिगण भी कर्म पंक धेते।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।6।।
धूलि कंटक आदिक विरहित, भूमी अति स्वच्छ सदा दिखती।
प्रभु के विहार के अतिशय से, दुर्भिक्ष मरी व्याधी टरती।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।7।।
सुरभित गन्धेदक की वर्षा, भक्ती से मेघकुमार करें।
प्रभु का ही अतिशय पुण्यमहा, जो पूजें भवदध् पार करें।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।8।।
जहँ जहँ प्रभु चरणकमल ध्रते, तहँ तहँ शुभ स्वर्ण कमल खिलते।
सुरकृत अतिशय को देख देख, जन-जन के हृदय कमल खिलते।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।9।।
शाली आदिक सब धन्य भरित, खेती पफल से झुक जाती है।
सुरकृत अतिशय से चहुँदिश में, सुन्दर पृथ्वी लहराती है।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।10।।
आकाश शरद् तु के सदृश, सब दशों दिशा धूमादि रहित।
भक्ती से जन जन का मन भी, सब पाप पंक से हो विरहित।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।11।।
आवो आवो सब सुरगण मिल, आवो आवो जयकार करो।
जिनवर की अतिशय भक्ती कर, अब मोहराज पर वार करो।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।12।।
वर ध्र्मचक्र सर्वाण्हयक्ष, मस्तक पर धरण करते हैं।
प्रभु के आगे चलते जग में, ये ध्र्मचक्र शुभ करते हैं।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, पूजा करके सुख पाते हैं।।13।।
कलश ध्वज छत्रा चमर दर्पण, भृंगार ताल औ सुप्रतीक।
ये मंगलद्रव्य आठ इनको, देवी कर धरें मंगलीक।।
जो आतम निध् के इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।14।।
वर प्रातिहार्य अशोक तरुवर, शोक जन मन का हरे।
गारुत्मणी के पत्रा सुन्दर, पवन प्रेरित थरहरें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।1।।
सुरगण करें सुरकल्पतरु के, पुष्प की वर्षा घनी।
अतिशय सुगंध्ति पुष्प पंक्ती, सर्व मन हरसावनी।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।2।।
प्रभु दिव्यध्वनि चउकोश तक, गम्भीर ध्वनि करती खिरे।
निर अक्षरी पिफर भी असंख्यों, भव्य को तर्पित करे।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।3।।
चैंसठ चमर ढोरें अमर बहु, पुण्य संचय कर रहें।
ये चमर मानों कह रहे प्रभु, भक्त ऊरध् गति लहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।4।।
बहुरत्न संयुत सिंहपीठ, जिनेश जिस पर राजते।
जो भव्य पूजें नाथ को वे, आत्म ज्योति प्रकाशते।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।5।।
प्रभु देह कांती प्रभामंडल, कोटि सूर्य तिरस्करे।
भवि सात भव उसमें निरख जिन, विभव लख शिरनत करें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।6।।
सुरदुभी बजती विविध्, भविलोक को हर्षित करे।
धुनि श्रवणकर जिन दर्शकर,जन पुण्य बहु अर्जित करें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।7।।
जिननाथ के मस्तक उपरि त्राय, छत्रा सुन्दर पिफर रहें।
त्रौलोक्य की प्रभुता प्रभू की, है यही सब कह रहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।8।।
तीन लोक तीन काल की समस्त वस्तु को।
एक साथ जानता अनंत ज्ञान विश्व को।।
जो अनंत ज्ञान युक्त इन्क्त अर्चते जिन्हें।
हर्ष से नमूं उन्हें अनंत ज्ञान हेतु मैं।।1।।
लोक औ अलोक के समस्त ही पदार्थ को।
एक साथ देखता अनन्त दर्श सर्व को।।
जो अनन्त दर्शयुक्त इन्द्र अर्चते जिन्हें।
हर्ष से नमूं उन्हें अनन्त दर्श हेतु मैं।।2।।
बाध्हीन जो अनन्त सौख्य भोगते सदा।
हो भले अनन्तकाल आवते न ह्यां कदा।।
वे अनन्त सौख्य युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
हर्ष से नमूं तिन्हें अनन्त सौख्य हेतु मैं।।3।।
जो अनन्तवीर्यवान अंतराय को हने।
तिष्ठते अनन्तकाल श्रम नहीं कभी उन्हें।।
वे अनन्त शक्तियुक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
हर्ष से नमूं तिन्हें अनन्त वीर्य हेतु मैं।।4।।
दश अतिशय जन्म समय से हों, दश केवल ज्ञान उदय से हों।
देवोंकृत चैदह अतिशय हों, चैंतिस अतिशय सब मिलकें हो।
वर प्रातिहार्य हैं आठ कहें, सु अनन्त चतुष्टय चार कहें।
इन छ्यालिस गुणयुत अर्हत को, हम वंदे वांछित सर्व लहें।।
श्री सिद्ध परमेष्ठी अनन्तानन्त त्रौकालिक कहे।
त्रिाभुवन शिखर पर राजते, वह सासते स्थिर रहें।।
वे कर्म आठों नाश कर, गुण आठ ध्र कृतकृत्य हैं।
कर जोड़ भक्ती से नमूं, उनकों नमें नित भव्य हैं।।1।।
‘सिद्ध’ मात्रा दो शब्द के उच्चारण से जान।
सर्व कार्य की सि हो क्रमशः पद निर्वाण।।2।।
मोह कर्म को नाश, समकित शुद्ध लह्यो है। लोक शिखर अध्विास, शाश्वत काल कियो है।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके। भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।3।।
ज्ञानावरण विघात, ज्ञान अनन्त लिया है। लोकालोक समस्त, युगपत जान लिया है।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके। भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।4।।
दर्शन के आवर्ण, नवविध् सर्व विनाशे। इक क्षण में सब विश्व, देखें निजगुण भासें।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके। भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।5।।
अंतराय को चूर, शक्ति अनन्ती पायी। करो विघ्न घन दूर, मैं पूजूँ हरसायी।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके। भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।6।।
नाम कर्म को नाश, देहादिक से छूटें। गुण सूक्ष्मत्व विकास, निज आतम सुख लूटें।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके। व भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।7।।
आयू कर्म विनाश, पूर्ण स्वतन्त्रा भये हैं। गुण अवगाहन पाय, जग से मुक्त भये हैं।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके। भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।8।।
गोत्रा कर्म कर दूर, अगुरुलघूगुण पायो। गणध्र मुनिगण इन्द्र, तुमको शीश नमायो।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके। भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।9।।
किया वेदनी घात, निज में तृप्त हुए हैं। अव्याबाध् अनन्त, सुख में लीन हुए हैं।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके। भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।10।।
अष्टकरम कर चूर, आठ प्रमुख गुण पायो। अष्टम पृथ्वी शीश, जाकर थिरता पायो।।
भूत भविष्यत काल, वर्तमान के सिद्ध। नित प्रति शीश नमाय, वंदूं विश्व प्रसिद्धा।।11।।
जो स्वयं पंचाचार पालें, अन्य से पलवावते।
छत्तीस गुण धरें सदा, निज आत्मा को ध्यावते।।
ऐसे परम आचार्यवर, भवसिंधु से भवि तारते।
इस हेतु उनकी वंदना, हित हम हृदय में धरते।।1।।
आठ भेद संयुत ध्रे, ज्ञानाचार महान्। उन आचार्य प्रधन को, वंदू श्रद्धठान।।1।।
आठ अंग युत मोक्ष का, मूल दर्शनाचार। इस गुणयुत आचार्य को, नमू भक्ति उरधर।।2।।
तेरह भेद समेत है, शुभ चारित्रााचार। इस गुण भूषित सूरि को, प्रणमूँ बारंबार।।3।।
नाना विध् तप को तपें, आतमशुद्ध हेतु। तप आचारी सूरि को, वंदूं भक्ति समेत।।4।।
पांच भेद संयुत कहा, वीर्याचार विशेष।इस गुण को जो धरते, वंदूं उन्हें हमेश।।5।।
क्रोध् निमित्त मिलें, पिफर भी समता गहें। अंतरंग में क्षमा धर, सब कुछ सहें।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् लहूं, कृपा तुम पायके।।6।।
मृदुता गुण को लहें, मान शठ मार के। भवि जन शरणा गहें, जगत से हार के।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् हूं, कृपा तुम पायके।।7।।
माया दुर्गतिसखी, त्याग आर्जव गहें। मन वचतन को सरल करें, शिवसुख लहें।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् लहूं, कृपा तुम पायके।।8।।
अप्रिय कटुक कठोर, असत्य निवारते। दशविध् पालें सत्य, परमसुख पावते।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् लहूं, कृपा तुम पायके।।9।।
लोभ पाप का मूल, दूर से छोड़ते। परम शौच ध्र शिव से, नाता जोड़ते।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् हूं, कृपा तुम पायके।।10।।
जीव दया ध्र इन्द्रिय, का निग्रह करें। द्वादशविध् संयम ध्र, वे भवदध् तरें।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् लहूं, कृपा तुम पायके।।11।।
पर से इच्छा रोकें, उत्तम तप करें। निज आत्मा को निर्मल, कर शिवतिय वरें।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् लहूं, कृपा तुम पायके।।12।।
उत्तम त्याग करें, रत्नत्राय दान दें। भव्यों को चउविध् दें, दान उबारते।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् लहूं, कृपा तुम पायके।।13।।
किंचित् भी नहिं मम, यह आकिंचन्य है। इस गुण से त्रिाभुवनपति, होते ध्न्य हैं।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् लहूं, कृपा तुम पायके।।14।।
ब्रह्मरूप निज आतम, में चर्या करें। त्रिाभुवन पूजित ब्रह्मचर्य, गुण को ध्रं।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके। रत्नत्राय निध् लहूं, कृपा तुम पायके।।15।।
चतुराहार त्याग करके मुनि, बहु उपवास करे हैं।
बेलादिक से छह महिना तक, जल भी नहीं ग्रहें हैं।।
अनशन तप से भूषित वे गुरु, कर्मेंध्न को दहते।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, अतुल शक्ति हम चहते।।16।।
बत्तिस ग्रास पूर्ण भोजन में, एक ग्रास कम करते।
एक ग्रास लें एक सिक्थ लें, जो भी हो कम करते।।
अवमौदर्य करें जो सूरी, सभी प्रमाद नशावें।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, हम आलस्य भगावें।।17।।
चर्या समय वस्तु या घर का, नियम अटपटा करते।
यदि नहिं मिल रहें उपवासी, रंच खेद नहिं करते।।
वृत्तपरीसख्ंया इस तप को, करके कर्म प्रजालें।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, हम निज ज्योति जगालें।।18।।
दूध् दही घी नमक मध्र रस, सब त्यागें या कुछ को।
रसपरित्याग करन से प्रगटें, रस भी उनको।।
पिफर भी निज आतम अनुभव रस,अमृत स्वाद चखे हैं।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, हम निज आत्म लखे हैं।।19।।
आर्त रौद्र दुध्र्यान छोड़कर, ध्र्मध्यान करते हैं।
अतः शुद्ध एकांत जगह, स्थान शयन करते हैं।।
इस विविक्त शयनासन तप से, सब विकल्प परिहारें।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, निर्विकल्प पद धरें।।20।।
नानाविध् से आसन करते, तन में क्लेश बढ़े हैं।
आतापन आदिक तप तपते, निश्चल होय खडे़ हैं।।
सुखियापन तज कायक्लेश तप, करके कर्म झड़ावें।
उनकी संस्तुति भक्ती करके, हम निज शक्ति बढ़ावें।।21।।
अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार, औ अनाचार व्रत में हों।
अंतरंग तप प्रायश्चित से, शोध्न सब व्रत के हों।।
गुरु के पास पाप शोध्न कर, आतम शुद्ध करे हैं।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, हम सब पाप हरें हैं।।22।।
दर्शन ज्ञान चरित तप का जो, नितप्रति विनय करें हैं।
नित पंचम उपचार विनय से, गुरु में राग ध्रें हैं।।
मोक्ष महल का द्वार खोलते, वे भविजन सुविध से।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, निजपद पाऊँ तासे।।23।।
सूरि पाठक साध् गण की, सेवा आदि करें हैं।
सर्वशक्ति से संयतजन की, वैयावृत्ति करे हैं।।
तीर्थंकर समपुण्य प्रकृति भी, संपादन कर लेते।
उनकी भक्ती पूजा करके, भवजल को जल देते।।24।।
अर्हत् भाषित सूत्रा ग्रन्थ का, नित पठनादिक करते।
वाचन पृच्छन अनुप्रेक्षण, आम्नाय देशना करते।।
अंतस्तप स्वाध्याय पंच विध्,करें करावें रूचि से।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, ज्ञान बढ़ावें मुद से।।25।।
अंतर बाहर उपाध् त्यागकर, तप व्युत्सर्ग ध्रे हैं।
आतमलीन सहज वैरागी, मन का मैल हरे हैं।।
इन तपधरी संयत जन को, सुरपति शीश नमावें।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, संयम निध् हम पावें।।26।।
अशुभ ध्यान तज ध्र्म ध्यान ध्र, निज परिणाम संभारें।
शुक्ल ध्यान के हेतु निरंतर, ध्यानाभ्यास विचारें।।
चिच्चैतन्यसुधरस पीकर, अजरामर पद पावें।
उनकी भक्ती संस्तुति कर हम, सब दुध्र्यान नशावें।।27।।
जो इन्द्रिय के अवश, आवश्यक उन किरिया। षट् भेदों में आदि, समता नामक चर्या।।
रागद्वेष में साम्य, सामायिक त्राय काले। उनको शीश नवाय, मैं वंदूं त्राय काले।।28।।
तीर्थंकर चैबीस, उनकी नामादिक से। करते स्तवन विनीत, स्तव आवश्यक ये।।
जो मुनि करें सदैव, अतिशय पुण्य कमावें।उनको शीश नवाय, हम भी पाप नशावें।।29।।
अर्हत् सिद्ध मुनीश, या उनकी हो प्रतिमा। किन्हीं एक का नित्य, रुचिध्र वंदन करना।।
आवश्यक सुखकार, वंदन नित्य करें जो। उनको शीश नवाय, पाऊँ लोक शिखर को।।30।।
व्रत में हों जो दोष, प्रतिक्रमण से शोध्। दैनिक रात्रिाक आदि, विध् से मल को धेते।।
भूतकाल के दोष, जो मुनि दूर करे हैं। उनको शीश नवाय, हम निज दोष हरे हैं।।31।।
भाविदोष कर त्याग, प्रत्याख्यान ध्रें जो। कर अहार तत्काल, चतुराहार तजे जो।।
अथवा बहुविध् वस्तु, या कुछ त्याग करें हैं।उनको शीश नवाय, हम निज पाप हरें हैं।।32।।
तन से ममत निवार, कायोत्सर्ग करें जो। क्षण मुहूर्त या वर्ष, तक भी ध्यान ध्रें जो।।
वे आचार्य सदैव, भविजन को सुखदाता। उनको शीश नवाय, मैं पूजूँ नत माथा।।33।।
त्रायगुप्ती में मनगुप्ती, जो अध्कि कठिन से निभती।
मनरोध् करें शुभ माहीं, उन वंदूं शीश नमाईं।34।।
बहि अंतर जल्प निवारें,अथवा नहिं अशुभ उचारें।
वचि गुप्ती ध्र सूरीश्वर, मैं वंदूं ध्र्मरुचीध्र।।35।।
तन सुस्थिर ध्यान ध्रे जो,या अशुभ क्रिया न करें जो।
वे कायगुप्ति द्धषि पाले, उन वंदत हम भव टालें।।36।।
जो पंचाचार ध्र्म दशविध्, द्वादशविध् तप को नित करते।
षट् आवश्यक त्रायगुप्ति सहित,छत्तिस गुण को निज में ध्रते।।
वे स्वयं तरें तारें पर को, आचार्य परम गुरु माने हैं।
हम उनकी स्तुति कर करके, निज आतम को पहिचानें हैं।।37।।
जो अंग ग्यारह पूर्व चैदह, धरते निज बुद्धि में।
पढ़ते पढ़ाते या उन्हें, जो शास्त्रा हैं तत्काल में।।
वे गुरू पाठक मोक्षपथ, दर्शक उन्हीं की वंदना।
मन वच तन से भावपूर्वक नित करूं आराध्ना।।1।।
ग्यारह अंगों में प्रथम कहा है, आचारांग साधुओं का।
कैसे आचरण करे कैसे, बैठें इत्यादिक प्रश्नों का।।
तुम यत्नाचार प्रवृत्ति करो, इस विध् मुनिचर्या जो वर्णे।
इस अंगज्ञान युत उपाध्याय को शीश झुकाउफॅं नत चर्णे।।2।।
व्यवहार ध्र्म को क्रिया कहे, स्वसमय परसमय निरूपे हैं।
वह अंग सूत्राकृत नाम ध्रे, उसको जो पढ़े प्ररूपें हैं।।
उन उपाध्याय को नित्य नमूं, वे भ्रमतम हरने वाले हैं।
शुद्धात्मरूप आतम अनुभव, को प्रगटित करने वाले हैं।।3।।
एक जीव एक चैतन्यरूप, दो रूप ज्ञान दर्शन युत है।
एकेक अध्कि स्थानों से, स्थान अंग नित वर्णत है।।
इस अंग ज्ञान को उपदेश्, वे उपाध्याय शिव पथ दाता।
मैं उनको वंदूं भक्ती से, वे होवें भव दुख से त्रााता।।4।।
जो द्रव्य क्षेत्रा औ काल भाव, इनकी सदृशता कहता है।
वह समवायांग कहा निजका, अज्ञान मोह सब हरता है।।
जो पढ़ें इसे पिफर निज आतम, अनुभव अमृत रस पीते हैं।
उन उपाध्याय को नित्य नमूं, वे कर्म अरी को जीते हैं।।5।।
है जीव नहीं या इत्यादिक, सो साठ हजार सुप्रश्नों का।
उत्तर देता है वह व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग पंचम रहता।।
इस अंगज्ञान को जो धरें, वे उपाध्याय गुरु होते हैं।
मैं वंदूं शीश नमा करके, वे कर्म कालिमा धेते हैं।।6।।
ध्र्मोपदेश तीर्थंकर का,जिसमें हैं बहुत कथायें भी।
गणध्र देवों के संशय को, जो दूर करें मनभायें भी।।
वह ज्ञातृध्र्मकथनांग श्रेष्ठ, उसको जो पढ़ें पढ़ावें भी।
उन गुरु को शीश नमा करके, हम नितप्रति धेक लगावें भी।।7।।
है उपासकाध्ययनांग कहा, जिसमें दर्शन आदिक प्रतिमा।
वरणी है ग्यारह भेदरूप, वह कहता श्रावक गुण गरिमा।।
इसके ज्ञाता मुनिवर नित ही, श्रावक का ध्र्म बताते हैं।
उनको हम शीश नमा करके, भव भव दुख दूर भगाते हैं।।8।।
एकेक तीर्थंकर के तीरथ में, नानाविध् उपसर्गों को।
सहकर करते निर्वाण प्राप्त, दश दश मुनि मैं वंदूँ उनको।।
उन अंतकृती केवलियों का, जो विस्तृत वर्णन करता है।
उस अंगज्ञान धरी गुरु का, वंदन ही सब दुख हरता है।।9।।
प्रत्येक तीर्थंकर के तीरथ में, दारुण उपसर्गों को सहकर।
जन्में हैं पांच अनुत्तर में, दश दश मुनि अतिशय पा पाकर।।
वह अनुत्तरोपपादिक दशांग, जिनमें इन सबका वर्णन है।
इस अंगज्ञानधरी द्धषि को, मेरा भी शत शत वंदन है।।10।।
आक्षेपिणि विक्षेपिणी कथा, संवेदिनि औ निर्वेदिनि का।
जिसमें वर्णन है किया गया, इन चार प्रकार कथाओं का।।
वह अंग प्रश्न व्याकरण नाम, उसका जो नित अभ्यास करें।
उस मुनि को शीश नमा करके, हम क्रम से यम का त्राास हरें।।11।।
जो कर्म प्रकृतियाँ पुण्य पाप,उनका पफल कैसे क्या मिलता?
इन सबका वर्णन जिसमें हो, वह अंग विपाक सूत्रा रहता।।
इस अंग ज्ञान को जो धरें, वे ग्यारह अंग ज्ञानध्र हैं।
उन उपाध्याय को मैं वंदूं, वे तारण तरण ॠषीश्वर हैं।।12।।
चैदह पूर्वों मे पहला है, उत्पादपूर्व जग मान्य महान।
जो उत्पाद और व्यय ध्रुव का, छहों द्रव्य में करे बखान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।13।।
जो अग्रायणीय पूरब है, नय दुर्नय का करे विचार।
तत्त्व द्रव्य के परीमाण, का वर्णन करे सकल सुखकार।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।14।।
आत्मवीर्य परवीर्य आदि का, वर्णन करे बहुत विध्सार।
वीर्यानुप्रवाद पूरव सो, श्री सर्वज्ञ कथित सुखकार।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।15।।
अस्ति नास्ति इत्यादि सप्त, भंगी का वर्णन करे महान।
सभी वस्तु हैं स्वपर चतुष्टय, से अस्ती नास्ती गुणवान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।16।।
जीवादिक हैं अनादि अनिध्न, द्रव्यार्थिकनय करे बखान।
ज्ञानवाद में सादि सांत भी, पर्यायार्थिक कहे सुजान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।17।।
वचनगुप्ति औ द्वादशभाषा, वचन प्रयोग वचन संस्कार।
सत्य प्रवाद पूर्व कहता है, सत्य असत्य वचन परकार।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।18।।
जीव विज्ञ विष्णु भोक्ता है, शुद्ध बुद्ध चिद्रूप महान।
कर्मों का कत्र्ता अशुद्ध भी, आत्मवाद नित करे बखान।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।19।।
कर्मों का संबंध् जीव के, साथ अनादि से दुखखान।
बंध् उदय सत्ता आदि का, कर्मप्रवाद करे व्याख्यान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।20।।
नियत समय अनियत समयों तक, उपवासादी प्रत्याख्यान।
इनकी विध् आदि को वरणें, प्रत्याखान पूर्व अमलान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।21।।
रोहिणि आदि विद्याओं, अष्टांग निमित्तों का व्याख्यान।
विद्यानुप्रवाद पूरव में, इसको पढ़े अचल गुणवान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।22।।
तीर्थंकर के पंचकल्याणक, पुरुष शलाका चरित प्रधन।
सूर्यादिक गति ग्रह आदिक पफल, कहे कल्याणवाद सुखदान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।23।।
देह चिकित्सा आठ अंग युत, आयुर्वेद व प्राणायाम।
प्राणावाय पूर्व वर्णे नित, तनु रत्नत्राय साध्न मान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।24।।
कला बहत्तर नर की चैंसठ, गुण नारी के शिल्पकलादि।
क्रिया विशाल पूर्व वर्णें नित, काव्यों की निर्माण कलादि।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।25।।
आठ भेद व्यवहार चारविध्, बीज मोक्ष गमनादि क्रिया।
लोकविंदुसार कहता है, शिवसुख औ उसकी चर्या।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफंँ भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् पार।।26।।
इन ग्यारह अंग पूर्व चैदह, को पढ़ें पढ़ावें शिष्यों कों।
या द्वादशांग को भी जाने या, सब तात्कालिक शास्त्राो को।।
वे उपाध्याय गुरु पथ दर्शक, उनकी भक्ती जो करते हैं।
वे स्वात्मसुधरस पीकर के, जिन परमानंद सुख भरते हैं।।27।।
जो नित्य मुक्तीमार्ग रत्नत्राय स्वयं साधू सही।
वे साधु संसाराब्ध् तर पाते स्वयं ही शिव मही।।
वहं पे सदा स्वात्मैक परमानंद सुख को भोगते।
उनकी करें हम वंदना, वे भक्त मन मल धेवते।।1।।
द्विविध् मोक्षपथ मूल, अट्ठाइस हैं मूलगुण।
नित्य रहे हैं साध्, अतः साधु कहलावते।।2।।
जीव समास योनि आदि को,जान जीव वध् टालें।
परम अहिंसा महाव्रती वे, स्वपर दया नित पालें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।3।।
रागादिक से असत न बोलें, सदा सत्य वचन बोलें।
अन्य तापकर सत्य वचन भी, कभी न मुख से बोले।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।4।।
पर की वस्तु शिष्य या पर के,बिना दिये नहिं लेवें।
मुनि पद योग्य वस्तु यत्किंचित्, दी जाने पर लेवें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।5।।
सब स्त्राी को माता पुत्राी, भगिनी सम अवलोकें।
त्रिाभुवन पूजित ब्रह्मचर्यव्रत, धरें निज अवलोकें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।6।।
जीवाश्रित या अजीव आश्रित, परिग्रह सर्व निवारे।
पिच्छी आदिक त्याग सके नहिं, उनमें ममत न धरें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।7।।
दिन में प्रासुकपथ से चउकर, देख कार्यवश चलते।
जीव दया पालें वे मुनिवर, ईर्या समिती ध्रते।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को नित्य नमूं में, हम आराध्न करते।।8।।
कर्कश हास्य पिशुन पर निंदा,विकथादिक को टालें।
स्वपर हितंकर मित्रा वच बोलें, भाषा समिती पालें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।9।।
नवकोटि से शुद्ध अशन ले, छ्यालिस दोष निवारें।
शीत उष्ण में समभावी हों, एषणसमिति धरें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।10।।
पिच्छि कमंडलु शास्त्रा उपकरण, संस्तर आदि उपाध् हैं।
देख शोध्कर लेते ध्रते, चैथी समिति सहित हैं।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।11।।
जीवरहित एकांत भूमि में, मल मूत्राादिक तजते।
वे उत्सर्ग समिति धरी मुनि, निष्प्रमाद नित वरतें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।12।।
मृदु कठोर आदिक स्पर्श जो, सुखकर या दुखकर हैं।
उनमें राग द्वेष नहिं करते, स्पर्शेंद्रिय वशकर है।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।13।।
सरस रुक्ष या प्रिय अप्रियकर, दिये गये भोजन में।
आसक्ती निंदा नहिं करते, रसनाद्रिय जय उनमें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।14।।
अति सुगंध् या दुर्गंध्ति में, प्रीति अप्रीति न धरें।
घ्राणेन्द्रिय का जय करके मुनि, स्वात्म कीर्ति विस्तारें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।15।।
नानाविध् के रूप मनोहर, या अमनोहर होते।
उनमें राग द्वेष नहीं कर, मुनि चक्षू कर होते।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।16।।
चेतन और अचेतन के जो, शब्द मधुर या कटु हों।
हर्ष विषाद न किंचित् मन में, श्रोत्राजयी मुनि सच वो।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।17।।
षट् आवश्यक में समता है,सुख दुःखादिक में समभाव।
तीन काल सामायिक विध्वित्,कर मुनि शमन करें दुखदाव।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।18।।
चैबिस तीर्थंकरों का स्तवन, विध्वित् नित्य करें ध्र चाव।
ध्र्म ध्यान और शुक्ल ध्यान ध्र, हरते सर्व दुष्ट दुर्भाव।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।19।।
एक तीर्थंकर या मुनिवर की, करें वंदना भक्ति बढ़ाय।
कृतीकर्म विध्वित् कर करके, उनके शुद्धभाव अध्किाय।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।20।।
व्रत में दोष हुए प्रमाद से, उनको जो मुनि क्षालन हेत।
मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे, ऐसा कह प्रतिक्रमण करेत।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।21।।
भावी काल दोष को त्यागें, तथा तपस्या हेतु सदैव।
आहारादि त्याग कर देते, प्रत्याख्यान करें गुरुदेव।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।22।।
दैवसिकादि क्रियाओं में जो, शास्त्रा कथित उच्छ्वास समेत।
कायोत्सर्गविध् करते हैं, वे मुनि हरें सकल भव खेद।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।23।।
दो या तीन मास या चउ में, कर उपवास करें कचलोच।
उत्तम मध्यम जघन रीति यह, केश उखाड़े नहिं मन शोच।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।24।।
वस्त्रााभूषण अलंकार सब, तजकर ध्रें दिगंबर वेष।
यथाजात बालकवत् रहते, निर्विकार मन लेश न क्लेश।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।25।।
नहिं स्नान करें मुनि कबहूँ, स्वेदधूलि मन लिप्त शरीर।
संयम औ वैराग्य हेतु ही, परमघोर गुण ध्रें सुधीर।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।26।।
भूमि शिला पाटे या तृण पर, शयन करें भूशयन व्रतीश।
गृही योग्य मृदु कोमल शया, तजकर होते स्वात्मरतीश।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।27।।
मंजन आदिक से दाँतों का, घर्षण नहिं करते गतराग।
वे अदंतधवनव्र्रतधरी, उनका आत्म गुणों में राग।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।28।।
तीन भूमि का कर अवलोकन,भित्ति आदि का नहिं आधर।
अंजलि पुट में मिले अशन का, खडे़-खड़े करते आहार।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।29।।
सूर्य उदय औ अस्तकाल का, त्राय-त्राय घड़ी रहित मध्किाल।
दिन में एक बार भोजन लें, एक भक्तधरी गुण माल।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक,नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।30।।
व्रत समिति इन्द्रियवश आवश्यक पंच-पंच पण षट् मानों।
कचलोच अचेलक अस्नानं, क्षितिशयन अदंत धवन जानों।।
स्थिति भोजन एक भक्त ये सब, अट्ठाइस गुण जो मूल कहें।
इन संयुत सब साधूगण को, हम वंदे भवदध् कूल लहें।।31।।
श्री अरिहंत जिनेन्द्र का, ध्रूँ हृदय में ध्यान।
मन वच तन से नित नमूं हरूँ सकल अपध्यान।।1।।
जय जय प्रभु तीर्थंकर जिनवर, तुम समवसरण में राज रहे।
जय जय अर्हत् लक्ष्मी पाकर, निज आतम में ही आप रहे।।
जन्मत ही दश अतिशय होते, तन में न पसेव न मल आदी।
पय समसित रुध्रि सु समचतुष्क, संस्थान संहनन है आदी।।2।।
अतिशय सुरूप, सुरभित तनु है, शुभ लक्षण सहस आठ सोहें।
अतुलितबल प्रियहितवचन प्रभो, ये दशअतिशय जनमनमोहं।।
केवल रविप्रगटित होते ही दश, अतिशय अद्भुत ही मानों।
चारों दिश इक इक योजन तक, सुभिक्ष रहे यह सरधनो।।3।।
हो गगन गमन, नहिं प्राणीबध्, नहिं भोजन नहिं उपसर्ग तुम्हें।
चउमुख दीखे सब विद्यापति, नहिं छाया नहिं टिमकार तुम्हें।।
नहिं नख औ केश बढ़ें प्रभु के, ये दश अतिशय सुखकारी हैं।
सुरकृत चैदह अतिशय मनहर, जो भव्यों को हितकारी हैं।।4।।
सर्वाधर्मागधीया भाषा, सब प्राणी मैत्राी भाव ध्रें।
सब द्धतु के पफल और पूफल खिलें, दर्पणवत् भूरलाभ ध्रें।।
अनुकूल सुगंध्ति पवन चले, सब जन मन परमानन्द भरें।
रजकंटक विरहित भूमि स्वच्छ, गंधेदक वृष्टी देव करें।।5।।
प्रभु पद तल कमल खिलें सुन्दर,शाली आदिक बहुधन्य पफलें।
निर्मल आकाश दिशा निर्मल, सुरगण मिल जय जयकार करें।।
अरिहंत देव का श्रीविहार, वर ध्र्मचक्र चलता आगे।
वसुमंगल द्रव्य रहें आगे, यह विभव मिला जग के त्यागे।।6।।
तरुवर अशोक सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चैंसठ चमर कहें।
सिंहासन भामंडल सुरकृत, दुंदुभि छत्रात्राय शोभ रहें।।
ये प्रातिहार्य हैं आठ कहे, औ दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज।
ये चार अनंत चतुष्टय हैं, सब मिलकर छ्यालिस गुण कीरत।।7।।
क्षुध तृषा जन्म मरणादि दोष, अठदश विरहित निर्दोष हुए।
चउ घाति घात नवलब्ध् िपाय, सर्वज्ञ प्रभू सुखपोष हुए।।
द्वादशगण के भवि असंख्यात, तुम धुनि सुन हर्षित होते हैं।
सम्यक्त्व सलिल को पाकर के भवभव के कलिमल धेते हैं।।8।।
मैं भी भवदुःख से घबड़ा कर, अब आप शरण में आया हूँ।
सम्यक्त्व रतन नहिं लुट जावे, बस यही प्रार्थना लाया हूँ।।
संयम की हो पूर्ती भगवन्! औ मरण समाधी पूर्वक हो।
हो केवल ज्ञानमती सिद्धि, जो सर्व गुणों की पूरक हो।।9।।
मोह अरी को हन हुए, त्रिाभुवन पूजा योग्य।
नमूं नमूं अरिहंत को, पाऊँ सौख्य मनोज्ञ।।10।।
पुद्गल के संबंध् से, हीन स्वयं स्वाधीन।
नमूँ नमूँ सब सि( को, तिन पद भक्ति अधीन।।1।।
चाल-हे दीन…………….
जय जय अनंत सिद्ध वंद मुक्ति के कंता। जय जय अनंत भव्यवृंद सिद्धि करंता।
जय जय त्रिालोक अग्रभाग ऊध्र्व राजते। जय नाथ! आप में हि आप नित्य राजते।।2।।
ज्ञानावरण के पाँच भेद को विनाशिया। नव भेद दर्शनावरण को सर्व नाशिया।।
दो वेदनीय आठ बीस मोहनी हने। चउ आयु नामकर्म सब तिरानबे हने।।3।।
दो गोत्रा अंतराय पाँच सर्व नाशिया। सब इक सौ अड़तालीस कर्म प्रकृति नाशिया।।
ये आठ कर्मनाश मुख्य आठ गुण लिये। पिफर भी अनंतानंत सुगुणवंद भर लिये।।4।।
इन ढाई द्वीप मध्य से ही मुक्ति पद मिले। अन्यत्रा तीन लोक में ना पूर्ण सुख खिले।।
सब ही मनुष्य मुक्त होते कर्मभूमि से। अन्यत्रा से भी मुक्त हों उपसर्ग निमित्त से।।5।।
पर्वत नदी समुद्र गुपफा कंदराओं से। वन भोगभूमि कर्मभू और वेदिकाओं से।।
जो मुक्त हुए हो रहे औ होयेगे आगे। उन सर्व सिद्ध को नमूँ मैं शीश झुका के।।6।।
नर लोक पैंतालीस लाख योजनों कहा। उतना प्रमाण सिद्ध लोक का भी है रहा।।
अणुमात्रा भी जगह न जहाँ मुक्त ना हुए। अतएव सिद्धलोक सिद्धगण से भर रहे।।7।।
उत्कृष्ट सवा पांच सौ ध्नु का प्रमाण है। जघन्य साढ़े तीन हाथ का ही मान है।।
मध्यम अनेक भेद से अवगाहना कही। उन सर्व सिद्ध को नमू वे सौख्य की मही।।8।।
निज आत्मजन्य निराबाध् सौख्य भोगते। निज ज्ञान से ही लोकालोक को विलोकते।।
निज में सदैव तृप्त सदाकाल रहेंगे। आगे कभी भी वे न पुनर्जन्म लहेंगे।।9।।
उन सर्व सिद्ध की मैं सदा वंदना करूँ। सर्वार्थसि हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।
तुम नाममात्रा भी निमित्त सर्व सिद्धि में। अतएव नमुं बारबार सर्व सिद्ध मैं।।10।।
भूत भविष्यत संप्रती, तीन काल के सिद्ध।
उनका वंदन नित करूँ लहूॅं ‘ज्ञानमति’ नि(।।11।।
भववारिध् में भव्य के, कर्णधर आचार्य।
मन वच तन से निम नमूं, होवो मम आधर्य।।1।।
मैं नमूँ मैं नमूँ मैं नमूँ सूरि को। पाप संताप मेरा सबे दूर हो।।
नाथ तेरे बिना कोई ना आपना। शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।2।।
शिष्य का आप संग्रह करें चाव से। नित्य उनपे अनुग्रह करें भाव से।।
दोष लख आप निग्रह करें युक्ति से। दण्ड दे शुद्ध करते निजी शक्ति से।।3।।
मेरुसम धीर गम्भीर हो सिन्ध् सम। सूर्य सम तेजध्त् सौम्य हो चन्द्र सम।।
मातृवत् रक्षते पितृवत् पालते। ध्र्म उपदेश दे भव्य अघ टालते।।4।।
कृष्ण नीलादि लेश्या नहीं आप में। पीत पद्मादि लेश्या रहें पास में।।
देश कुल जाति से शुद्ध हो श्रेष्ठ हो। चार विध् संघ स्वामी सदा इष्ट हो।।5।।
जन्म व्याधी हरण आप ही वैद्य हो। कष्ट उपसर्ग से आप नहिं भेद्य हो।।
सर्व साधूगणों से सदाराध्य हो। इन्द्रशत वंद्य भविवृंद आराध्य हो।।6।।
मूलगुण और उत्तर गुणों को ध्रो। सर्व परिषह सहो मोक्ष में दृग ध्रो।।
नग्न मुद्रा यथाजात गुरुवर्य जी। वस्त्रा श्रृंगार विरहित ध्रमध्ुर्य जी।।7।।
रत्नत्राय युक्त पिफर भी अकिंचन्य हो। मोहग्रन्थी रहित आप निग्र्रंथ हो।
हो कृपा सिन्धु आनन्द भंडार हो। कर्मवन दग्ध् करने को अंगार हो।।8।।
ब्रह्मचारी रहो पिफर भी तुम पास में। सर्वदा है तपस्या रमा साथ में।।
तुम चरण चूमती। मुक्ति लक्ष्मी सदा पास में घूमती।।9।।
जो तुम्हारे चरण की करें वंदना। पेफर होवे कभी भी उन्हें जनम ना।।
नाथ! मैं भी करूँ भक्ति इस हेतु से। ज्ञानमति पूर्ण हो, मैं छुटू दुःख से।।10।।
आगम नेत्रा तृतीय है, जिस साधू के पास।
वे शिव पथ परकाशते, नमूँ नमूँ सुखराशि।।1।।
जय जय श्री गुरुदेव, उपाध्याय पदधरी। जय जय तुम पदसेव, करते भवि नर नारी।।
जय जय मुनिगण वंद्य, ध्र्मामृत बरसाते। जय जय तुम मुनिचंद्र, भव्य कुमुद विकसाते।।2।।
इंद्रपफणीन्द्र नरेंद्र, तुम पद भक्ति करे हैं। सुर किन्नर गंध्र्व, तुम गुणगान करे हैं।।
तुम दर्शन से भव्य, सम्यग्दर्श लहे हैं। पद पंकज आराध्य, सम्यग्ज्ञान लहे हैं।।3।।
मैं हूँ चिच्चैतन्य, परमानंद स्वरूपी। शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, अमल अकल चिद्रूपी।।
दर्श ज्ञान सुख वीर्य, सहज अनंत हमारे। गुण अनंत चित्पिंड चिन्मय ज्योति संभारे।।4।।
रूप गंध् रस पफास, पुद्गल के गुण जानों। पुद्गलनिर्मित देह, उसमें ही ये मानों।।
इंद्रिय मन औ वाक्, पुद्गल रूप कहे हैं। निज आतम से भिन्न, सम्यग्ज्ञान लहे हैं।।5।।
पुण्य पाप द्वय कर्म, पुद्गल की रचना है। इनमें हर्ष विषाद, कर भव दुख भरना है।।
निश्चय नय से शुद्ध, ज्ञान स्वरूपी आत्मा। परमाल्हाद अखंड सौख्य सहित परमात्मा।।6।।
पिफर भी यह व्यवहार, नय से कर्म सहित है। चतुर्गती में नित्य, भ्रमता भ्रांति सहित है।।
अब निज को निज जान,पर को पर श्रद्धाने। तब चरित्रा को धर, सर्व कर्म मल हाने।।7।।
गुरु प्रसाद से आज, सम्यक् रत्न मिला है। निज पर को प्रतिभास, सम्यग्ज्ञान खिला है।।
सम्यक् चारितपूर्ण, धरण शक्ति नहीं है। जितना कुछ मुझ पास, उसमें दोष सही है।।8।।
करो कृपा गुरुदेव, शक्ती ऐसी पाऊँ। पूर्ण चरित्रा विकास, करके कर्म नशाऊँ।।
निज को निज के हेतु, निज में ही पा जाऊँ। फ्ज्ञानमतीय् कर पूर्ण, पेफर न भव में आऊँ।।9।।
ज्ञान ध्यान तप में मगन, धरें गुण पच्चीस।
उपाध्याय गुरुवर्य को, नमू नमूँ नत शीश।।10।।
चिच्चैतन्य सुकल्पतरु, आश्रय ले सुखकार।
शिवपफल की वाछा करें, नमुं साधु गुणधर।।1।।
चाल-हे दीनबंधु……
जैवंत साधुवृंद सकल द्वंद्व निवारें। जैवंत सुखानन्द स्वात्म तत्त्व विचारें।।
जै जै मुनीन्द्र नग्नरूप धर रहे हैं।जै जै अनंत सौख्य के आधर भये हैं।।2।।
गुरुदेव अट्ठाईस मूलगुण को धरते। उत्तर गुणों को भक्ति के अनुसार धरते।।
श्रुत का अभ्यास द्वादशांग तक भी कर रहें। निज रूप से ही मोक्षपद साकार कर रहें।।3।।
ग्रीष्म ॠतु में पर्वतों पे ध्यान ध्रे हैं। वर्षा ॠतु में वृक्षमूल में ही खडे़ हैं।।
ठण्डी ॠतु में चैहटे पे या नदी तटे। निज आत्मा को ध्यावते शिवपथ से नहिं हटे।।4।।
बहु तप के भेद सिंह निष्क्रीडितादि हैं। उनको सदा करें न तन से ममत आदि हैं।।
तप (क्रिया विक्रिया) रस (अक्षीण)(औषधी )।5।।
नाना प्रकार के नाथ हुए हैं। सिद्धरमा से भी वे ही सनाथ हुए हैं।।
इनके दरश से भव्य जीव पाप को हरें। आहार दे नवनिध् समृद्धि पुण्य को भरें।।6।।
इनकी सदैव भक्ति से, जो वंदना करें। वे मोहकर्म की स्वयं ही खंडना करें।।
मिथ्यात्व औ विषय कषाय दूर से टरें। स्वयमेव भक्त निजानंद पूर से भरें।।7।।
गुणथान छठे सातवें से चैदहें तक भी। संयत मुनी ॠषि साधु कहाते हैं सभी भी।।
वे तीनन्यून नव करोड़ संख्य कहे हैं। बस ढाई द्वीप में अध्कि इतने ही रहे हैं।।8।।
इन सर्व साधुओं की नित्य अर्चना करूँ। त्रायकाल के भी साधुओं की वंदना करुँ।।
गुरुदेव! बार बार मैं ये प्रार्थना करूँ। निजके ही तीन रत्न की बस याचना करूँ।।9।।
नाम लेत ही अघ टले, सर्वसाधु का सत्य।
केवल ज्ञानमती मिले, जो अनंतगुण तथ्य।।10।।
चिन्मय चिंतामणि सकल, चिंतित पफल दातार।
तुम गुणलव भी गाय के, पाऊँ सौख्य अपार।।1।।
जय जय जिन मोह अरी हन के, अरिहंत नाम तुमने पाया।
जय जय शतइंद्रों से पूजित, अर्हत का यश सबने गाया।।
प्रभु गर्भागम के छह महिने, पहले ही सुरपति आज्ञा से।
ध्नपति ने रत्नमयी पृथ्वी, कर दी रत्नों की धरा से।।2।।
श्री ” धति आदिक देवीगण, माता की सेवा खूब करें।
माता की गर्भ शुद्ध करके, निज का नियोग सब पूर्ण करें।।
तीर्थंकर माँ पिछली रात्राी, में सोलह स्वप्नों को देखें।
प्रातः प्राभातिक विध् करके, आकर पति से उन पफल पूछें।।3।।
त्रिाभुवनपति जननी तुम होंगी,पति के मुख से पफल सुन करके।
रोमांचित हो जाती माता, अतिशय सुख का अनुभव करके।।
जब प्रभु तुम गर्भ बसे आके, इंद्रों ने उत्सव खूब किया।
पन्द्रह महीनों तक रत्नवृष्टि, करके सब दारिद दूर किया।।4।।
जब जन्म लिया तीर्थेंश्वर ने, त्रिाभुवन जन में आनंद हुआ।
इंद्रों द्वारा मंदरगिरि पर, प्रभु का अभिषेक प्रबंध् हुआ।।
जब प्रभु के मन वैराग्य हुआ, लौकांतिक सुरगण भी आये।
प्रभु की स्तवन विधी करके, श्र( भक्तीवश हरषाये।।5।।
दीक्षा कल्याणक उत्सव कर, इंद्रों ने अनुपम पुण्य लिया।
जब केवलज्ञान हुआ प्रभु को, जन जन ने निज को ध्न्य किया।।
अनुपम वैभवयुत समवसरण, द्वादश कोठे में भवि बैठें।
अरिहंत अनंतचतुष्टय युत, सब जन को हितकर उपदेशें।।6।।
इन पंच कल्याणक के स्वामी, तीर्थंकरगण ही होते हैं।
कुछ दो या तीन कल्याणक पा, निज पर का कल्मष धेते हैं।।
बहुतेक भविक निज तप बल से, चउ घाति कर्म का घात करें।
ये सब अरिहंत कहाते हैं, जो केवल ज्ञान विकास करें।।7।।
जिन अष्टकर्म को नष्ट किया, लोकाग्र विराजें जा करके।
वे सिद्ध हुए कृतकृत्य हुए,निज शाश्वत सुख को पा करके।।
आचार्य परमगुरु चतुःसंघ, अध्निायक गणध्र कहलाते।
जेा पढे़ पढ़ावें जिनवाणी, वे उपाध्याय निज पद पाते।।8।।
जो करें साध्ना निज की नित, वे साधु परम गुरु माने हैं।
ये पंच परमगुरु भक्तों के, अगणित दुःखों को हाने हैं।।
ये पांचों ही मंगलकारी, लोकोत्तम शरणभूत माने।
इनकी शरणागत आकरके, निज कर्म कुलाचल को हाने।।9।।
इनकों त्रिाकरण शुचि कर वंदूं, औ नमस्कार भी नित्य करूँ।
निज हृदय कमल में धरण कर, सम्पूर्ण अमंगल विघ्न हरूँ।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे मम बोध् लाभ होवे।
मुझ सुगती गमन समाध्मिरण, होकर जिनगुण संपत्ति होवे।।10।।
तुम पदभक्ति अमोघ शर, करे मृत्यु का घात।
केवल फ्ज्ञानमतीय् सहित, मिले मुक्ति साम्राज।।11।।
वीरनाथ अंतिम तीर्थंकर, जिनका शासन अब है।
जिनका नाम लेत ही तत्क्षण, क्षय होते अघ सब हैं।।
उनके शासन के अनुयायी, कुन्दकुन्द गुरु माने।
गच्छ सरस्वति विश्वप्रथितगण, बलात्कार भी जानें।।1।।
उस ही परम्परा के ॠषिवर, शातिसागराचार्या।
जिनके शिष्य वीरसागर ने, गुरूपट्ट को धर्या।।
ऐसे सूरि वीरसागर के, चरण कमल में आके।
‘ज्ञानमती’ हो गई तभी मैं, श्रमणीव्रत को पाके।।2।।
अल्पबुद्ध भी गुरुप्रसाद से, शब्द ज्ञान कुछ पाया।
कष्टसहड्डी अष्टसहड्डी, का अनुवाद रचाया।।
नियमसार आदिक ग्रन्थों का, हिंदी अर्थ किया है।
न्यायसार आदिक पुस्तक लिख, शास्त्रााभ्यास किया है।।3।।
अनुपम श्रेष्ठ ‘इन्द्रध्वज’ आदिक प्रथित विधन रचे हैं।
प्रभु की अमित भक्ति ही उसमें, कारण मात्रा लखें हैं।।
पंचपरमगुरु पदपंकज की, भक्ति असीम हृदय में।
उनके लेश गुणों की भक्ती, गुण का करे उदय में।।4।।
हस्तिनागपुर क्षेत्रा पुण्यभू, सुरनर मुनिगण अभिनुत।
वीर शब्द पच्चीस शतक त्राय, वर्षायोग सुप्रस्तुत।।
आश्विन शुक्ला दशमी तिथि में, संस्तव पूर्ण किया मैं।
निजभावों को निर्मल करके, दुर्गति चूर्ण किया मैं।।5।।
ख्याति लाभ पूजादि की, वांछा नहिं लवलेश।
ज्ञानमती कैवल्य हितु संस्तव रचा विशेष।।6।।
यावत् जिनशासन अमल, जग में रहे प्रधन।
तावत् परमेष्ठी स्तवन, सबको दे सज्ज्ञान।।7।।