
चूँकि जिनमंदिर में प्रतिदिन सुखपालदास जी ही शास्त्र वांचते थे अत: सभी इन्हें पण्डित जी कहकर पुकारते थे। बड़े पुत्र महिपालदास जी कुश्ती के अच्छे खिलाड़ी बन गए थे और इलाके में बड़ी-बड़ी कुश्ती में कई एक प्रतियोगिता जीती थीं। मोहिनी देवी के पिताजी पहले कपड़े का व्यवसाय करते थे इनका नियम था देवपूजा करके ही दुकान खोलना और अगर मंदिर न हो तो ‘जाप्य’ करके ही ग्राहक से बात करना।
रखा और नियमपूर्वक प्रतिदिन देवदर्शन के पश्चात् उसका स्वाध्याय किया। यहाँ इस भरे-पूरे परिवार में मोहिनी को घुलते-मिलते देर न लगी। घर में देवदर्शन, रात्रि भोजन त्याग, जल छानकर पीना, सायंकाल मंदिर जाकर आरती करना और शास्त्र सभा में बैठकर विनयपूर्वक शास्त्र सुनना आदि श्रावकोचित्त सभी क्रियाएँ होती थीं।‘‘जब लो न रोग जरा गहे, तब लो झटिति निज हित करो।’’

जब ज्ञानमती माताजी ने चुटकी से इनके केश निकालना शुरू किया तो सारा सिर लाल-लाल हो गया उस समय माता मोहिनी के पुत्र-पुत्री और कुटुम्बी ही क्या अनेक देखने वाले लोग भी खूब रोने लगे और मोहिनी के साहस एवं वैराग्य की प्रश्सा करने लगे। उस समय दीक्षा के अवसर पर अनेक साधुओं ने निर्णय लिया कि चूँकि माता मोहिनी साक्षात् रत्नों की खान हैं अत: इनका ‘रत्नमती’ यह सार्थक नाम रखना चाहिए, तब आचार्य श्री धर्मसागर महाराज ने इन्हें ‘‘आर्यिका रत्नमती माताजी’’ के नाम से सम्बोधित किया।अनेकरत्नैरतिदीप्तिमद्भि:, यथा प्रसूतै: समलंकृतोर्वी।
अन्वर्थसंज्ञामनवद्यकीर्तिम्, तामार्यिकां रत्नमतीं नमामि।।
