आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या और उसके आस-पास के क्षेत्र को भी अवध के नाम से जाना जाता है।
वैसे इन प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और उनके प्रथम पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् भरत के समय वह अयोध्या नगरी १२ योजन लम्बी थी अत: ९६ मील होने से लखनऊ, टिवैतनगर, त्रिलोकपुर, बाराबंकी, महमूदाबाद आदि नगर उस समय अयोध्या नगरी की पवित्र भूमि की सीमा में विद्यमान थे।
आज भी अयोध्या तीर्थ की पवित्रता से सम्पूर्ण अवध का वातावरण सुवासित, धर्मपरायण एवं परम पवित्र है। उसी अवध प्रान्त में जिला सीतापुर के अन्तर्गत महमूदाबाद नामक एक नगर है, जहाँ विशाल जिनमंदिर के निकट वर्तमान में ६०-७० जैन घर हैं। उसी नगरी में एक सुखपालदास जी नाम के श्रेष्ठी निवास करते थे।
अग्रवाल दिगम्बर जैन जातीय लाला सुखपालदास जी की धर्मपत्नी का नाम मत्तोदेवी था। पूरे नगर में धर्मात्मा श्रेष्ठी के रूप में प्रसिद्ध सुखपालदास जी भगवान की नित्य पूजन के साथ-साथ स्वाध्याय भी करते थे। सात्त्विक प्रवृत्ति वाले इन महामना श्रावक की धर्मपत्नी भी पतिव्रता आदि गुणों से सहित धर्मपरायण एवं अत्यन्त सरल प्रकृति की थीं।
इन धर्मनिष्ठ दम्पत्ति के चार संताने थीं, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार थे-१. शिवप्यारी देवी २. मोहिनी देवी ३. महिपालदास ४. भगवानदास।
पिता सुखपालदास जी ने इन सभी संतानों को धर्ममय संस्कारो से विशेष संस्कारित किया था।
ईसवी सन् १९१४ में माँ मोहिनी जन्म
ईसवी सन् १९१४ में इन धर्मपरायण दम्पत्ति की बगिया में द्वितीय सन्तान के रूप में जन्मी कन्या का नाम पिता ने बड़े ही प्यार से ‘मोहिनी’ रखा था और माता-पिता, कुटुम्बीजनों, यहाँ तक की नगरवासियों का भी इस कन्या पर विशेष स्नेह था। कन्या के कुछ बड़ी होने पर पिता सुखपालदास जी उसकी विशेष देखरेख करते तथा रोज उसे अपने साथ मंदिर भी ले जाते थे।
५-६ वर्ष की उम्र में स्कूल जाने पर थोड़े ही दिनों में मोहिनी देवी ने ३-४ कक्षा तक अध्ययन कर लिया। चूँकि महमूदाबाद का इलाका मुस्लिम इलाका था अत: पिताजी ने अपने महीपाल पुत्र की शिक्षा हेतु एक मौलवी अध्यापक की व्यवस्था कर रखी थी, वे उन्हें उर्दू पढ़ाते थे और तीक्ष्ण बुद्धि की धनी कन्या मोहिनी अपने छोटे भाई को उर्दू पढ़ते देख स्वयं भी उर्दू पढ़ना सीख गई।
घर में सबसे छोटे भाई भगवानदास के जन्म लेते ही मोहिनी का उसके प्रति विशेष वात्सल्य होने से मोहिनी ने स्कूल जाना छोड़ दिया। प्राय: देखा जाता है कि होनहार, कुशाग्र बुद्धि के छात्र-छात्राएं गुरु के लिए विशेष प्रेमपात्र होते हैं और गुरु का उन पर विशेष स्नेह रहता है अत: जब कन्या मोहिनी कुछ दिन स्कूल नहीं गर्इं, तो उनकी अध्यापिकाएँ आकर लाला सुखपालदास जी से उसकी कुशाग्र बुद्धि के कारण उसे स्कूल भेजने का आग्रह करतीं, साथ ही कहतीं कि इसके बगैर तो हमारा स्कूल ही सूना हो जाता है। पिताजी की प्रेरणा के बाद भी मोहिनी अपने भाई को खिलाने का बहाना कर स्कूल जाने को मना कर देंती।
चूँकि उस समय कन्याओं को ज्यादा पढ़ाने की परम्परा नहीं थी और माँ मत्तोदेवी भी कन्या को स्कूल भेजने का आग्रह नहीं करती थीं, अत: उनकी लौकिक शिक्षा अल्प ही रही। पुन: पिताजी ने मोहिनी के अन्दर धार्मिक संस्कार डालने हेतु उन्हें भक्तामर, तत्त्वार्थसूत्र आदि का अध्ययन कराना प्रारंभ किया और रात्रि में पूरे परिवार को एक साथ बिठाकर मोहिनी से शास्त्र पढ़वाते और बड़े खुश होते थे पुन: सबको शास्त्र का अर्थ भी समझाते थे।
पिता ने दिया मोहिनी को एक ग्रंथ
एक बार पिता ने मोहिनी को एक मुद्रित ग्रंथ‘पद्मनन्दिपंचविंशतिका’ देकर उसका स्वाध्याय करने को कहा। मोहिनी ने पिता की आज्ञा स्वीकार कर उस ग्रंथ का स्वाध्याय किया और उस स्वाध्याय का प्रतिफल यह रहा कि मोहिनी ने उस ग्रंथ में ब्रह्मचर्य व्रत के महत्त्व को पढ़कर भगवान की प्रतिमा के सम्मुख अष्टमी, चतुर्दशी के दिन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का आजीवन नियम ले लिया और किसी को इस व्रत के बारे में विदित भी न हो सका।
चूँकि जिनमंदिर में प्रतिदिन सुखपालदास जी ही शास्त्र वांचते थे अत: सभी इन्हें पण्डित जी कहकर पुकारते थे। बड़े पुत्र महिपालदास जी कुश्ती के अच्छे खिलाड़ी बन गए थे और इलाके में बड़ी-बड़ी कुश्ती में कई एक प्रतियोगिता जीती थीं। मोहिनी देवी के पिताजी पहले कपड़े का व्यवसाय करते थे इनका नियम था देवपूजा करके ही दुकान खोलना और अगर मंदिर न हो तो ‘जाप्य’ करके ही ग्राहक से बात करना।
उनके इस नियम के कारण ही उनकी अंत समाधि बहुत ही अच्छी हुई। एक बार वे बिसवां में व्यापार हेतु गये, प्रात: ही एक ग्राहक आ गया, तब उन्होंने कहा-भाई! मैं जाप्य करके ही वार्तालाप करूँगा। तब वह ग्राहक बाहर बैठ गया पुन: वह शुद्ध वस्त्र पहनकर जाप्य करने बैठे और जाप्य करते-करते ही उनके प्राण पखेरू उड़ जाने से उन्हें उत्तम गति की प्राप्ति हुई। उधर जब बहुत देर हो गई, तो उस ग्राहक ने अंदर जाकर देखा, तो उन्हें मृत पाया।
तब परिवार के लोगों को बुलाकर उनकी अन्त्येष्टि की गई। वास्तव में बंधुओं! एक छोटा से छोटा नियम भी इस जीव को संसार से पार करने में सहकारी कारण बन जाता है, इसीलिए धर्मगुरु सदैव हमें कोई न कोई व्रत नियम लेने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
सभी पुत्र-पुत्रियों का विवाह
सेठ सुखपालदास जी ने अपने सामने ही अपने सभी पुत्र-पुत्रियों का विवाह कर दिया था, जिसमें लाडली पुत्री मोहिनी का उन्होंने अयोध्या के निकट बसे धर्मपरायण नगर बाराबंकी जिले में स्थित टिवैतनगर नामक ग्राम के धर्मात्मा श्रावक लाला धन्यकुमार जी एवं उनकी धर्मपत्नी फूलमती के द्वितीय पुत्र छोटेलाल जी के साथ किया था।
लाला धन्यकुमार जी ने महमूदाबाद के लाला सुखपाल जी की बहुत ही प्रशंसा सुन रखी थी, साथ ही मोहिनी के गुणों से भी बहुत प्रभावित थे। सुखपालदास जी ने भी उनके पुत्र में एक वर के सभी गुणों को देखकर तुरंत स्वीकृति प्रदान कर दी और शुभ मुहूर्त में चि. छोटेलाल जी के साथ आयु. मोहिनी देवी का पाणिग्रहण संस्कार हो गया। माता-पिता ने अश्रुपूरित नेत्रों से अपनी प्यारी पुत्री को विदाई दी, उस समय सन् १९३२ में मोहिनी देवी की उम्र १८ वर्ष मात्र थी।
विदाई के समय यूँ तो पिता जी ने अपनी बेटी को दहेज में यथायोग्य सब कुछ प्रदान किया, किन्तु जब उनके मन को पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई, तो उन्होंने मोहिनी को ‘‘पद्मनन्दिपंचविंशतिका’’ ग्रंथ को सच्चे दहेज के रूप में देकर कहा-बिटिया मोहिनी! तुम हमेशा इस ग्रंथ का स्वाध्याय करती रहना, इसी से तुम्हारे गृहस्थाश्रम में सुख और शांति की वृद्धि होगी और तुम्हारा यह नरभव पाना सफल हो जायेगा। पुत्री मोहिनी ने भी पिता के द्वारा स्नेहपूर्वक प्रदत्त सच्चे दहेजरूप ग्रंथ को सबसे अधिक मूल्यवान समझा।
मोहिनी का ससुराल में मंगल प्रवेश
ससुराल में मंगल प्रवेश कर मोहिनी ने पिता द्वारा प्रदत्त उस ग्रंथ को अनमोल निधि के रूप में संभाल कर रखा और नियमपूर्वक प्रतिदिन देवदर्शन के पश्चात् उसका स्वाध्याय किया। यहाँ इस भरे-पूरे परिवार में मोहिनी को घुलते-मिलते देर न लगी। घर में देवदर्शन, रात्रि भोजन त्याग, जल छानकर पीना, सायंकाल मंदिर जाकर आरती करना और शास्त्र सभा में बैठकर विनयपूर्वक शास्त्र सुनना आदि श्रावकोचित्त सभी क्रियाएँ होती थीं।
घर के निकट जिनमंदिर होने से मंदिर के घंटे, पूजा-पाठ व आरती की आवाज घर बैठे कानों में गूंजा करती थी। गृहस्थधर्म का परिपालन करती हुई मोहिनी देवी ने सन् १९३४ में आसोज सुदी पूर्णिमा-शरदपूर्णिमा की रात्रि में प्रथम पुष्प के रूप में एक कन्या रत्न को जन्म दिया, जिसकी शुभ्र चांदनी आज सारे भारतवर्ष में फैल रही है।
उस कन्या मैना के जन्म से पहले ही मोहिनी देवी ने मैनासुन्दरी नाटक पढ़ा था और उन्हें सुरसुन्दरी-मैनासुन्दरी का संवाद याद था, उसे वे हमेशा गुनगुनाया करती थीं और यही संस्कार गर्भस्थ बालिका पर अच्छी तरह से पड़ गए। माता मोहिनी प्रतिदिन प्रात: उठकर सामायिक करती, पुन: स्नानादि से निवृत्त होकर मंदिर में जाकर भगवान की पूजा करके रसोई बनाती थीं और छोटे बच्चों को दूध पिलाते समय स्वाध्याय और भक्तामर आदि के पाठ किया करती थीं, जिससे वह दूध भी अमृत तुल्य बन जाता था और बच्चों में धार्मिक संस्कार पड़ते जाते थे।
प्रतिदिन सायंकाल वे स्वयं मंदिर जातीं और बच्चों को भी भेजती थीं, प्रतिदिन किसी भी बालक को मंदिर जाए बिना नाश्ता भी नहीं मिलता था, यही कारण था कि माता मोहिनी की सभी संतानें इसी धर्म के साँचे में ढलती चली गर्इं। माता मोहिनी अपनी पुत्री मैना की बातों को जैनागम से प्रमाणित समझकर सदैव उनकी बातों को मान्यता प्रदान करती थीं।
सन् १९५२ मे जब आपकी पुत्री मैना ने गृहत्याग किया, उस समय आपने अश्रुपूरित नयनों से उन्हें अपनी स्वीकृति देते हुए मैना से वचन लिया था कि बेटी! जैसे आज मैं तुझे संसार से पार होने में सहयोग दे रही हूँ, इसी प्रकार एक दिन तुम भी मुझे गृहस्थी के जाल से निकालकर मोक्षमार्ग में लगा देना।
इस प्रकार माता मोहिनी ने अपनी सभी सन्तानों को सुसंस्कारित कर गृहस्थोचित सभी क्रियाओं का कुशल संचालन करते हुए अपने पति लाला छोटेलाल जी के अन्त समय में उनकी सुन्दर समाधि कराकर नारी जाति के लिए एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। अपने पुत्र-पुत्रियों को उन्होंने उसी प्रकार पालने में शिक्षा प्रदान की, जिस प्रकार रानी मदालसा ने अपने पुत्रों को पालने में शिक्षा दिया था कि-शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसार माया परिवर्जितोऽसि’ हे पुत्र! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है और संसार की माया से रहित है।
ऐसा सुन-सुनकर उसके सभी पुत्र युवा होकर विरक्त हो घर से चले जाते थे। उन पुत्र-पुत्रियों की भांति ही माता मोहिनी की भी तीन पुत्रियाँ एवं एक पुत्र गृहबंधन से निकल गए और शेष ६ पुत्रियाँ व ३ पुत्र गृहस्थ धर्म में रहकर देव-शास्त्र-गुरु का दृढ़ श्रद्धान कर धर्माराधनापूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। मोहिनी माता बनीं आर्यिका रत्नमती-सन् १९७१ में संघ का चातुर्मास अजमेर शहर में हो रहा था। उस समय मोहिनी देवी अपने बड़े पुत्र वैलाशचंद व पुत्रवधू के साथ संघ के दर्शनार्थ आर्इं।
वहाँ एक दिन वे ज्ञानमती माताजी से कहने लगीं-माताजी! अब मेरी इच्छा घर जाने की नहीं है। अब मेरा मन पूर्णरूपेण विरक्त हो चुका है, मैं दीक्षा लेकर अपना आत्मकल्याण करना चाहती हूँ। उस समय ज्ञानमती माताजी ने अपने दिये हुए वचन को निभाया और उनके मुख से इतना सुनते ही बहुत प्रसन्न होकर कहने लगीं कि आपने बहुत अच्छा सोचा है। देखो-
‘‘जब लो न रोग जरा गहे, तब लो झटिति निज हित करो।’’
इस पंक्ति के अनुसार अभी आपका शरीर साथ दे रहा है अत: अब आपको किसी की भी परवाह न कर आत्मसाधना में ही लग जाना चाहिए। इसके साथ ही माताजी ने उन्हें यह भी बता दिया कि मैंने सुगंधदशमी के दिन माधुरी को आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया है, उसकी शादी का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
यह सुनकर आश्चर्यचकित मोहिनी माता बोलीं कि माताजी! अभी तो माधुरी मात्र १३ वर्ष की है, वह ब्रह्मचर्य का अर्थ क्या समझे। अभी से व्रत न देकर कुछ दिन संघ में रखकर धर्म पढ़ा देतीं, तो अच्छा था। पुन: वे कहने लगीं कि अब मैं किसी के मोक्षमार्ग में बाधक क्यों बनूँ, जिसका जो भाग्य होगा, सो होगा। मुझे तो अब आर्यिका दीक्षा लेनी है।’’
माता मोहिनी की दीक्षा
माताजी ने उसी समय रवीन्द्र कुमार को बुलाकर माँ के भाव बता दिये, जिसे सुनकर माँ के कमजोर शरीर एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से रवीन्द्र जी मोहवश एकदम विचलित हो गये, किन्तु माता मोहिनी ने उस हेतु अपना दृढ़ निश्चय रखा। माताजी ने रवीन्द्र जी का माँ के प्रति मोह देख संघस्थ मोतीचंद जी को बुलाकर सारी बात बताई और श्रीफल लाने को कहा। मोतीचंद जी ने यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हो श्रीफल लाकर माता मोहिनी के हाथ में दे दिया और मोहिनी देवी उसी समय माताजी के साथ सेठसाहब (सेठ भागचंद सोनी) की नशिया में आचार्यश्री के समक्ष श्रीफल लेकर बोलीं-महाराज जी! मैं आपके करकमलों से आर्यिका दीक्षा लेना चाहती हूँ और श्रीफल चढ़ा दिया। आचार्य श्री उस समय प्रसन्नमना हो ज्ञानमती माताजी की ओर देखने लगे।
उपस्थित सभी साधुवर्ग उनके वैराग्य की सराहना करने लगे। तब आचार्यश्री ने कहा कि तुम्हारा शरीर बहुत कमजोर है और यह जैनी दीक्षा तलवार की धार है। तब मोहिनी माता ने सारपूर्ण उत्तर देते हुए कहा कि महाराज जी! संसार में रहकर भी तो कितने कष्ट सहन करने पड़ते हैं, दीक्षा में जो कष्ट होंगे, उन्हें सहन करने में मैं अपना सौभाग्य समझूंगी। फिर माताजी ने अजमेर के एक अति विश्वस्त श्रावक जीवनलाल जी को टिवैâतनगर भेजकर यह समाचार पहुँचा दिया।
इधर घर में समाचार पहुँचते ही सबको बहुत झटका लगा और सब विक्षिप्त हो रोने लगे पुन: येन-केन प्रकारेण मन को समझाकर शीघ्र ही उनके पुत्र-पुत्री, भाई आदि सब अजमेर पहुँच गए और सभी मोहिनी जी से चिपककर रोने लगे। सभी ने इनकी दीक्षा रोकने के बहुत प्रयत्न किए।
किन्तु मोहिनी जी निर्मोहिनी बन गईं और अपने निर्णय पर अडिग रहीं, अन्ततोगत्वा माता मोहिनी की दीक्षा का कार्यक्रम बहुत ही उल्लासपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ, जो कि अजमेर नगर के लिए ऐतिहासिक अवसर था। दीक्षा के दिन मोहिनी जी के सिर के बाल छोटे थे क्योंकि उन्होंने एक माह पूर्व ही अपने केश काटे थे अत: छोटे केशों का लुंचन करना बड़ा कठिन था।
जब ज्ञानमती माताजी ने चुटकी से इनके केश निकालना शुरू किया तो सारा सिर लाल-लाल हो गया उस समय माता मोहिनी के पुत्र-पुत्री और कुटुम्बी ही क्या अनेक देखने वाले लोग भी खूब रोने लगे और मोहिनी के साहस एवं वैराग्य की प्रश्सा करने लगे। उस समय दीक्षा के अवसर पर अनेक साधुओं ने निर्णय लिया कि चूँकि माता मोहिनी साक्षात् रत्नों की खान हैं अत: इनका ‘रत्नमती’ यह सार्थक नाम रखना चाहिए, तब आचार्य श्री धर्मसागर महाराज ने इन्हें ‘‘आर्यिका रत्नमती माताजी’’ के नाम से सम्बोधित किया।
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी दीक्षा के पश्चात्
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी ने दीक्षा के पश्चात् पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के संघ में रहते हुए १३ चातुर्मास किए और दीक्षा के पूर्व तो अनेक ग्रंथों के स्वाध्याय किए ही थे, दीक्षा के पश्चात् चारों अनुयोगों के ग्रंथों का अच्छी तरह स्वाध्याय किया।
समय-समय पर, आगत यात्रियों, महिलाओं, बालिकाओं को धर्म का उपदेश देकर देवदर्शन, पूजन, रात्रि भोजन त्याग, स्वाध्याय आदि का वे उपदेश देती थीं और दर्शनार्थ आने वाले जैनेतर बंधुओं को मद्य, मांस, मधु त्याग की प्रेरणा देती रहती थीं। आर्यिका रत्नमती माताजी का स्वास्थ्य पित्त प्रकोप की बहुलता से युक्त था। इनका आहार अति अल्प था, मूंंग की दाल के पानी में भीगी दो रोटी और लौकी की उबली सब्जी मात्र वे लेती थीं तथा थोड़ी सी दूध की दलिया, थोड़ा सा दूध, अनार का रस और कभी-कभी थोड़ा सा फल, बस यही उनका आहार था।
इनके इतने अधिक पथ्य को देखकर कभी-कभी वैद्य भी हैरान होकर कहते थे कि माताजी! श्रावक आहार में जो आपको देता है, सो यदि आपका त्याग न हो, तो ले लिया करें। मौसम में आने वाले फल तथा खिचड़ी, चावल भी ले लिया करें, किन्तु ये किसी की नहीं सुनती थीं। घर में भी यह अपनी सन्तानों को भी ऐसे ही पथ्य कराती रहती थीं, यही कारण है कि इनके पुत्र-पुत्रियों में खाने की जिह्वा लोलुपता नहीं दिखती है।
आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का प्राय: सब त्याग है, मात्र दो अन्न, दो रस और गिने-चुने फल और उसमें भी अक्सर उनका भी त्याग कर देती हैं, महीने में कई दिन नीरस भोजन करती हैं एवं अष्टमी-चतुर्दशी को तो उनका सदैव अन्न का त्याग रहता है।
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी प्रात: ३ बजे उठकर महामंत्र का जाप्य करके अपररात्रि स्वाध्याय में तत्त्वार्थसूत्र का पाठ कर पुन: सहस्रनाम, भक्तामर, त्रिलोकवंदना, निर्वाणकाण्ड आदि स्तोत्रों का पाठ करती थीं।
७ से ८ बजे तक सामूहिक स्वाध्याय में बैठतीं, अनन्तर आहार के बाद सामायिक कर विश्राम करती थीं। पुन: २ बजे से ४ बजे तक मनोयोगपूर्वक स्वाध्याय सुनती थीं, अनन्तर वृद्धावस्था के कारण कुछ क्षण शरीर की सेवा करवाकर दैवसिक प्रतिक्रमण करतीं पुन: सायंकाल भगवान के दर्शन कर सामायिक करती थीं।
रात्रि में सर्दी के दिनों में तो पूर्वरात्रिक स्वाध्याय में छहढाला का पाठ पढ़ती या सुनती थीं। इन्हें छहढाला से विशेष प्रेम था, यदि किसी कारणवश यह छहढ़ाला न सुन सवें, तो उन्हें लगता कि मैंने कुछ सुना ही नहीं है। इस प्रकार वे अपनी आगम चर्या का पूर्णत: पालन करती थीं। यदि कदाचित् पित्त प्रकोप आदि से विशेष अस्वस्थ रहती थीं, तो संघस्थ आर्यिकाएँ उन क्रियाओं को सुनाती थीं। इन्हें ऋषिमण्डल स्तोत्र और उसके मंत्र से भी विशेष प्रेम था।
इनकी अस्वस्थता के कारण प्राय: संघ में चैत्यालय रहता था फिर भी मंदिर जाकर भगवान का दर्शन करके ही इन्हें संतोष होता था। पित्त प्रकोप होने से इनके शरीर के लिए उपवास हितकर नहीं था, फिर भी व्रतों का प्रेम और सल्लेखना विधि की भावना से पंचमेरु आदि व्रत उपवासपूर्वक किया करती थीं।
इनकी सबसे बड़ी विशेषता
इनकी सबसे बड़ी विशेषता थी- इनकी निरभिमानता। ये कभी ज्ञानमती माताजी का नाम न लेकर उन्हें ‘माताजी’ कहकर ही सम्बोधित करती थीं। वास्तव में धन्य थीं उनके जीवन की वह घड़ियाँ, जब १५ जनवरी १९८५-माघ कृ. नवमी को उन्होंने पूज्य माताजी के चरण सानिध्य में हृदयस्पर्शी आध्यात्मिक संबोधन प्राप्त कर सल्लेखना विधिपूर्वक जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में समाधिमरण किया।
दिन में १ बजकर ४५ मिनट पर इस नश्वर शरीर से वह दिव्यआत्मा निकलकर देवलोक में जाकर विराजमान हो गर्ई। यूँ तो एक जगतमाता के हमारे बीच से जाने पर एक अपूरणीय क्षति हुई फिर भी मृत्यु से संघर्ष करना वीरता का परिचायक है और यह निश्चित है कि शीघ्र ही उन्हें सिद्धगति की प्राप्ति होगी।
पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के जीवन में १३ का अंक विशेष शुभ रहा। १३ सन्तानों को जन्म देने वाली, दीक्षा लेकर १३ प्रकार के चारित्र का परिपालन कर १३ वर्ष तक दीक्षित जीवन में रहकर उन्होंने सदैव स्व-परकल्याण का भाव रखा। ऐसी तप:पूत रत्नों की खान, निरभिमानी, वात्सल्यमयी, अनमोल निधि की प्रदात्री माता रत्नमती जी शीघ्र ही सिद्धगति की प्राप्ति करें, उनके चरण कमलों में कोटिश: वंदन-