( पण्डित हेमराज कृत )
आदि पुरूष आदिश जिन ,आदि सुविधि करतार |
धरम -धुरंदर परम गुरु , नमो आदि अवतार ||
सुर -नत -मुकुट रतन -छवि करैं,अन्तर पाप -तिमिर सब हरें |
जिन पद वंदो मन वच काय ,भव -जल -पतित -उधरन सहाय ||1||
श्रुत -पराग इंद्रादिक देव ,जाकी थुति कीनी कर सेव |
शब्द मनोहर अरथ विशाल ,तिस प्रभु वरनो गुन माल ||२||
विबुध -वंध पद मै मति -हीन ,होय निल्लज थुति -मनसा कीन |
जल -प्रतिबिम्ब बुद्ध को गहे ,शाशिमंडल बालक ही चहे ||३||
गुन -समुद्र तुम गुन अविकार , कहत न सुरगुरु पावैं पार |
प्रलय -पवन -उद्धत जल -जंतु , जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४||
सो मै शक्ति -हीन थुति करूं ,भक्ति -भाव वश कछु नही डरुं|
ज्यों मृग निज -सुत पालन हेत ,मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५||
मै सठ सुधी हंसन को धाम ,मुझ तव भक्ति – बुलावै राम |
ज्यों पिक अंब -कली परभाव ,मधु -ऋतु मधुर करै अराव ||६||
तुम जस जंपत जन छिन माहीं ,जनम -जनम के पाप नशाहिं|
ज्यों रवि उगै फटै तत्काल ,अलिवत नील निशा -तम -जाल ||७||
तव प्रभावतै कहूं विचार ,होसी यह थुति जन -मन -हार |
ज्यों जल -कमल पत्रपै परैं ,मुक्ताफल की द्युति विस्तरै ||८||
तुम गुन -महिमा हत -दुःख दोष ,सो तो दूर रहो सुख पोष |
पाप -विनाशक है तुम नाम ,कमल -विकाशी ज्यों रवि -धाम ||९||
नहीं अचंभ जो होहिं तुरंत ,तुमसे तुमगुण वरणत संत |
जो अधीन को आप समान ,करे न सो निंदित धनवान ||१०||
इकटक जन तुमको अविलोय ,अवर -विषैं -रति करें न सोए |
को करि क्षीर -जलधि जल पान ,क्षार नीर पीवे मतिमान ||११||
प्रभु तुम वीतराग गुण -लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन |
हैं तितने ही ते परमाणु ,यातैं तुम सम रूप न आनु ||१२||
कहँ तुम मुख अनुपम अविकार ,सुर -नर -नाग -नयन -मनहार |
कहां चंद्र -मंडल सकलंक ,दिन में ढाक -पत्र सम रंक ||१३||
पूरन चंद्र -ज्योति छविवंत ,तुम गुन तीन जगत लंघंत |
एक नाथ त्रिभुवन आधार ,तिन विचरत को करे निवार ||१४||
जो सुर -तिय विभ्रम आरम्भ ,मन न डिग्यो तुम तौ न अचंभ |
अचल चलावै प्रलय समीर ,मेरु -शिखर डगमगे न धीर ||१५||
धूम्ररहित बाती गत नेह ,परकाशं त्रिभुवन धर एह |
बात -गम्य नाही परचंड ,अपर दीप तुम बालो अखंड ||१६||
छिपहु न लुपहू राहू की छान्ही ,जग परकाशक हो छिनमांहि |
घन अनवर्त्त दार विनिवार ,रवितैं अधिक धरो गुनसार ||१७||
सदा उदित विदलित मनमोह ,विघटित मेघ राहु अविरोह |
तुम मुख -कमल अपूरब चंद ,जगत =विकाशी ज्योति अमंद ||१८||
निस दिन शशि रविको नहिं काम ,तुम मुख चंद हरे तम धाम |
जो स्वभावतैं उपजैं नाज ,सजल मेघ तैं कौनहु काज ||१९||
जो सुबोध सोहै तुम मांहि ,हरि हर आदिक मैं सो नाहिं |
जो द्युति महा -रतन में होए ,काँच -खंड पावै नहिं सोए ||२०||
सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया |
स्वरूप जाही देख वीतराग तू पिचानिया ||
कछु न तोहि देख के जहां तुही विशेखिया |
मनोग चित्तचोर और भूलहू न पोखिया ||२१||
अनेक पुत्रवंतिनी नितंबनी सपूत हैं |
न तो समान पुत्र और माततैं प्रसूत हैं ||
दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै |
दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जने ||२२||
पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो |
कहैं मुनीश अंधकार नाश को सुभान हो ||
महंत तोहि जानके न होए वश्य काल के |
न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके ||२३||
अनंत नित्य चित्तकी अगम्य आदि हो |
असंख्य सर्वव्यापी विष्णु ब्रम्हा हो अनादि हो ||
महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो |
अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ||२४||
तुम्ही जिनेश बुद्ध है सुबुध के प्रमानतैं |
तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रयी विधानतैं ||
तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतैं |
नरोत्त्मो तू ही प्रसिद्ध अर्थके विचारतैं ||२५||
नमो करूं जिनेश तोहि आपदा निवार हो |
नमो करूं सुभुरि भूमिलोक के सिंगार हो ||
नमो करूं भवाब्धि नीर राशि शोष हेतु हो |
नमो करूं महेष तोहि मोखपंथ देतु हो ||२६||
तुम जिन पुरन गुनगन भरे ,दोष गर्वकरि तुम परिहरे |
और देवगण आश्रम पाय ,स्वप्न न देखे तुम फिर आए ||२७||
तरु अशोकतर किरण उदार ,तुमतन शोभित है अविकार |
मेघनिकट ज्यों तेज फुरंत ,दिनकर दिपै तिमिर निहनंत ||२८||
सिंहासन मणि किरण विचित्र ,तापर कंचनवरण पवित्र |
तुम तन शोभित किरन विथार ,ज्यों उदयाचल रवि तमहार ||२९||
कुंद -पुहुप सितचमर ढुरंत ,कनक वरन तुम तन शोभंत |
ज्यों सुमेरुतट निर्मल कांति ,झरना झरै नीर उमगांती ||३०||
उंचे रहै सुर दुति लोप ,तीन छत्र तुम दिपै अगोप |
तीन लोक की प्रभुता क हैं ,मोती झालरसों छवि लहैं ||३१||
दुदुंभि शब्द हर गंभीर ,चहुँदिशि होय तुम्हारे धीर |
त्रिभुवन जन शिव संगम करैं मानूं जय -जय रव उच्चरैं ||३२||
मंद पवन गंधोदक इष्ट ,विविध कल्पतरु पुपुह सुवृष्ट |
दव करैं विकसित दल सार ,मानों द्विजपंकति अवतार ||३३||
तुम तन भामंडल जिनचंद ,सब दुतिवंत करत है मंद |
कोटि शंख रवितेज छिपाय ,शशि निर्मल निशि करै अछाय ||३४||
स्वर्ग मोक्ष मारग संकेत ,परम धरम उपदेशन हेत |
दिव्य वचन तुम खिरैं अगाध ,सब भाषा गर्भित हितसाध ||३५||
विकसित -सुवरन-कमल -दुति ,नख -दुति मिलि चमकाहिं |
तुम पद पदवी जहं धरो ,तहँ सुर कमल रचाहिं ||३६||
ऐसी महिमा तुम विषै ,और धरे नहीं कोय |
सूरज मे जो ज्योत है ,नहीं तारागण होय ||३७||
षटपद मद -अवलिप्त -कपोल -मूल अलि -कुल झंकारे |
तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्दत -अति धारें ||
काल वरन विकराल ,कालवत सन्मुख आवे |
ऐरावत सो प्रबल ,सकल जन भय उपजावे ||
देखि गयंड न भय करे ,तुम पद महिमा लीन |
विपति रहित संपति सहित ,वरतै भक्त अदीन ||३८||
अति मदमत्तगयंद कुंभथल नखन बिदारै |
मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै ||
बांकी दाढ विशाल ,बदन मे रसना लोलै |
भीम भयानक रूप देखि जन थरहर डोलै ||
ऐसे मृगपति पगतलै ,जो नर आयो होय |
शरण गये तुम चरण की ,बाधा करै न सोय ||३९||
प्रलय पवन कर उठी आग जो तास पतंतर |
बमै फुलिंग शिखा उतंग परजलै ,जो नर आयो होय ||
जगत समस्त निगल्ल्ल भस्मकर हैगी मानो |
तडतडात दव अनल ,जोर चहु दिशा उठानो ||
सो इक छिन मे उपशमै ,नामनीर तुम लेत |
होय सरोवर परिनमे विकसित कमल समेत ||४०||
कोकिल कंठ सामान ,श्याम तन क्रोध जलनता |
रक्त नयन फुंकार ,मार विषकण उगलंता ||
फण को ऊँचा करै ,वेग ही सन्मुख धाया |
तब जन होय निःशंक ,देख फणपति को आया ||
जो चांपै निज पग तलै, व्यापै विष न लगार |
नाग दमनि तुम नाम की है जिनके आधार ||४१||
जिस रन माहि भयानक रवकर रहे तुरंगम |
घनसे गज गरजाहि ,मत्त मानो गिरि जंगम ||
अति कोलाहल माहि बात जहँ नाहि सुनीजै |
राजन को परचंड ,देख बल धीरज छिजै ||
नाथ तिहारे नामतै ,अध छिन माहि पलाय |
ज्यों दिनकर परकाशतै ,अंधकार विनशाय ||४२||
मारै जहां गयंद कुंभ हथियार विदारै |
उमगै रूधिर प्रबाह बेग ,जलसम विस्तारै ||
होय तिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे |
तिस रनमें जिन तोयभक्त जिन हैंनर सूरे ||
दुर्जय अरिकुल जितके ,जय पावै निकलंक |
तुम पद पंकज मन बसै,ते नर सदा निशंक ||४३||
नक्र चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै |
जामै वडवा अग्नि दाहतेंनीर जलावै ||
पार न पावै जास थाह नहि लहिये जाकी |
गरजै अतिगंभीर ,लहर की गिनतिन ताकी ||
सुख सौं तिरे समुद्र को ,जे तुम गुन सुमराहिं |
लोल कलोलन के शिखर ,पार यान ले जाहिं ||४४||
महा जलोदर रोग, भार पीड़ित नर जे हैं।
वात पित्त कफ कुष्ट, आदि जो रोग गहै हैं॥
सोचत रहें उदास, नाहिं जीवन की आशा।
अति घिनावनी देह, धरैं दुर्गंध निवासा॥
तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावैं निज अंग।
ते नीरोग शरीर लहि, छिनमें होय अनंग॥45॥
पांव कंठतें जकर बांध, सांकल अति भारी।
गाढी बेडी पैर मांहि, जिन जांघ बिदारी॥
भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने।
सरन नाहिं जिन कोय भूपके बंदीखाने॥
तुम सुमरत स्वयमेव ही बंधन सब खुल जाहिं
छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं॥46॥
महामत गजराज और मृगराज दवानल।
फणपति रण परचंड नीरनिधि रोग महाबल॥
बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै।
तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै॥
इस अपार संसार में शरन नाहिं प्रभु कोय।
यातैं तुम पदभक्त को भक्ति सहाई होय॥47॥
यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी।
विविधवर्णमय पुहुपगूंथ मैं भक्ति विथारी॥
जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावैं।
मानतुंग ते निजाधीन शिवलक्ष्मी पावैं॥
भाषा भक्तामर कियो, हेमराज हित हेत।
जे नर पढ़ैं, सुभावसों, ते पावैं शिवखेत॥48॥