स्वहस्तरेखासदृशं जगन्ति, विश्वानि विद्वानपि वीर्यपूर्ति: अश्रात:|
मूर्ति र्भगवान्स वीर: पुष्णातु न: सर्वरागीहितानि।।
अर्थ-जो समस्त संसार को अपनी हाथ की रेखा के समान जानते हुए भी कभी श्रान्त शरीर नहीं होते हैं तथा वीर्य की पूर्णता से सहित हैं वे भगवान् महावीर हमारे समस्त मनोरथों को पुष्ट करें।
दिव्यागमत्याजसुधा स्रवन्ती।
भव्य प्रवचन, सुखसातकरोति वीर जिनेश्वरो न:।।
अर्थ-जिनके मुखरूपी चन्द्रमा से झरती हुई एवं विद्वानों के द्वारा प्रमुख रूप से सेवनीय दिव्यागमरूपी सुधा श्रेष्ठ भव्यों को सुखी करती है वे वर्धमान जिनेन्द्र हमारी रक्षा करे।
अगाणुमेधं तिमिरं तराणान्, संसार रांग सहसा निगृद्धान ।
अस्माकमाविष्कृतमुक्तिवर्मा श्री वर्धमान: शिवमातनोतुम।।
अर्थ-जिन्होंने सूर्य के द्वारा अभेद्य मनुष्यों के संसाररूपी अंधकार को सहसा नष्ट कर दिया है तथा जिन्होंने मोक्ष का मार्ग प्रकट किया है, ऐसे वर्धमान जिनेन्द्र हमारे कल्याण को विस्तृत करें।
पुरातत्व :
पद्मासन मुद्रा में भगवन महावीर की विशालतम ज्ञात प्रतिमा जी, पटनागंज (म•प•)