जिनशासनी हँसासनी पद्मावती माता।
भुज चार से फल चार दे, पद्मावती माता
।। टेक.।।
जब पार्श्र्वनाथ जी ने शुक्लध्यान आरम्भा।
कमठेश ने उपसर्ग तब, किया था अचम्भा।।
निज नाथ सहित, आपके सहाय किया है।
जिन नाथ को निज माथ पै चढ़ाय लिया है।।
जिनशासनी.।।१।।
फनतीन सुमन लीन तेरे शीश विराजै।
जिनराज तहाँ ध्यान धरै आप विराजै।।
फनि इन्द्र ने फन की करी जिनेन्द्र पे छाया।
उपसर्ग वर्ग मेट के आनन्द बढ़ाया।।
जिनशासनी.।।२।।
जिन पार्श्र्व को हुआ, तभी केवल सुज्ञान है।
समवसरण की बनी रचना महान है।।
प्रभु ने किया धर्मार्थ काम मोक्ष दान है।
तब इन्द्र ने आके किया पूजा विधान है।
जिनशासनी.।।३।।
जब से किया तुम पार्श्र्व के, उपसर्ग का विनाश।
तब से हुआ जश आपका त्रैलोक में प्रकाश।।
इन्द्रादि ने भी आपके गुण में किया हुलास।
किस वास्ते कि इन्द्र खास पार्श्र्व का है दास।।
जिनशासनी.।।४।।
धर्मानुराग रंग में उमंग भरी हो।
सन्ध्या समान लाल रंग अंग धरी हो।
जिन सन्त शील वन्त पै, तुरंत खड़ी हो।
मनभावनी दरशावनी, आनन्द बड़ी हो।। ‘
जिनशासनी.।।५।।
जिनधर्म की प्रभावना का भाव किया है।
तिन साथ ने भी आपको सहाय लिया है।।
तब आपने इस बात को बनाय लिया है।
जिनधर्म के निशान को फहराय दिया है।।
जिनशासनी.।।६।।
था बोध ने तारा का किया कुम्भ में थापन।
अकलंक जी से करते रहे वाद वेहापन।।
तब आपने सहाय किया धाय मात बन।
तारा का हरा मान हुआ बोध उत्थापन।।
जिनशासनी.।।७।।
इत्यादि जहाँ धर्म का विवाद पड़ा है।
तब आपने परवादियों का मान हरा है।।
तुमसे ही स्याद्वाद का निशान खरा है।
इस वास्ते हम आपसे अनुराग धरा है।।
जिनशासनी.।।८।।
तुम शब्दब्रह्मा रूप मंत्र मूर्ति धरैया।
चिन्तामणी समान कामना की भरैया।।
जग जाप जोग जैन की सब सिद्धि करैया।
परवाद के पुरयोग की तत्काल हरैया।।
जिनशासनी.।।९।।
लखि पार्श्र्व तेरे पास शत्रु त्रासते भाजें।
अंकुश निहार दुष्ट जुष्ट दर्प को त्याजैं।।
दुख रूप खर्व गर्व को वह वङ्का हरै है।
कर कंज में इक कंज सो सुख पुंज भरे हैै।।
जिनशासनी.।।१०।।
चरणारविन्द में है नूपुरादि आभरन।
कटि में है सार मेखला प्रमोद की करन।।
उर में है सुमन माल सुमन भान की माला।।
षट् रंग अंग संग संग सो है विशाला।।
जिनशासनी.।।११।।
कर कंज चारु भूषण सों भूरि भरा है।
भवि वृन्द को आनन्द कन्द पूरि करा है।।
जुग भान कर्ण कुण्डल सौ जोति धरा है।
सिर शीश फूल फूल सो अतुल्य भरा है।।
जिनशासनी.।।१२।।
मुख चन्द्र को अमंद देख चन्द्र भी थमा।
छवि हेर हार हो रहा रम्भा को अचम्भा।
दृग तीन सहित लाल तिलक भाल धरे है।
विकसित मुखारविंद सो आनंद झरे हैं।।
जिनशा.।।१३।।
जो आपको त्रिकाल लाल चाह सो ध्यावे।
विकराल भूमि पाल उसे भाल झुकावै।।
जो प्रीति सो प्रतीत और प्रीति बढ़ावै।
सो रिद्धि सिद्धि वृद्धि नवो निद्धि को पावै।।
जिनशा.।।१४।।
जो दीप दान के विधान से तुम्हें जपै।
तो पाय के निधान तेज पुंज से दिपै।।
जो भेद मंत्र वेद में निवेद किया है।
सो वाध के उपाधि सिद्ध साध लिया है।।
जिनशा.।।१५।।
धन धान्य का अर्थी है सो धन धान्य को पावै।
सन्तान का अर्थी है सो सन्तान खिलावै।।
निज राज का अर्थी है सो फिर राज लहावै।
पद भ्रष्ट सुपद पाय के मन मोद बढ़ावै।।
जिनशा.।।१६।।
ग्रह क्रूर व्यन्तराल व्याल जाल पूतना।
तुम नाम के सुनत ही सो भागे भूतना।।
कफ वात पित्त रक्त रोग शोक शाकिनी।
तुम नाम से डरी मही परात डाकिनी।।
जिनशा.।।१७।।
भयभीत की हरनी है, तुही मात भवानी।
उपसर्ग दुर्ग द्रावती दुर्गावती रानी।।
तुम संकटा समस्त कष्ट काटनी दानी।
सुख सार की करनी तु शंकरीश महारानी।।
जिनशा.।।१८।।
इस वक्त में जिनभक्त को दुख व्यक्त सतावै।
हे मात तुझे देख के क्या दर्द ना आवे।।
सब दिन से तो करती रही जिनभक्त पै छाया।।
किस वास्ते उस बात को ए मात भुलाया।।
जिनशा.।।१९।।
हो मात मेरे सर्व ही अपराध क्षमा कर।
होता नहीं क्या बाल से कुचाल यहाँ पर।।
कुपुत्र तो होते हैं जगत माहि सरासर।
माता न तजै तिन सौ कभी नेह जन्म भर।।
जिनशा.।।२०।।
अब मात मेरी बात को सब भांति सुधारो।
मन कामना को सिद्ध करो विघ्न विदारो।।
मत देर करो मेरी ओर नेक निहारो।
करकंज की छाया करो दुख दर्द निवारो।।
जिनशा.।।२१।।
ब्रह्मण्डनी सुख मण्डनी खल खण्डनी ख्याता।
दुख टारि के परिवार सहित दे मुझे साता।।
तज के विलम्ब अम्बाजी अवलम्ब दीजिए।
वृष चन्द नन्दवृन्द को आनन्द दीजिए।।
जिनशा.।।२२।।
जिनधर्म से डिगने का कहीं आ पड़े कारन।
तो लीजिए उबार मुझे भक्त उदारन।।
निज कर्म के संयोग से जिस जौन में जावौ।
तहाँ दीजिए सम्यक्त्व जो शिवधाम को पावौ।।
जिनशासनी हंसासनी पद्मावती माता।
भुज चारतें फल चार दे पद्मावती माता।।
जिनशा.।।२३।।