पं. लालचंद्र जैन ‘राकेश’, गंजबासौदा
दुर्जयमोहमहारिपुनाशक, आर्हन्त्यपद के धारी।
केवलज्ञानलक्ष्मीमंडित, गुण अचिन्त्य-अतिशयकारी।।
रत्नत्रयात्मक मोक्ष मार्ग के, परम प्रणेता, मंगलधाम।
उग्रवंश नभ विमल चन्द्रमा, पार्श्वनाथ को कोटि प्रणाम।।१।।
यह संसार महासागर है, चारों गतियाँ गर्त समान।
इनमें भ्रमण कर रहा चेतन, अनादिकाल से वश अज्ञान।।
मोह महामदिरा को पीकर, पर को अपना मान रहा।
कालकूट-सम-विषय-कषायें, उनको अमृत जान रहा।।२।।
मिथ्यादृष्टि, जीव अज्ञानी, करते-रहते जनम-मरण।
बिन चारित्र नहीं कर पाते, कर्म बेड़ियों का कर्तन।।
लेकिन कुछ विशिष्ट होते हैं, करके निज पुरुषार्थ सम्हाल।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान चरण से, लिखते अंक शुभंकर भाल।।३।।
चल निगोद थावर तन पाते, विकलत्रय, संज्ञी पर्याय।
पा मानव तन, धर रत्नत्रय, सोलहकारण भावन भाय।।
लेते जन्म रूप तीर्थंकर, तप-केवल-देते उपदेश।
सिद्ध परम पद जा विराजते, घात-अघाती कर्म अशेष।।४।।
षट् आरे के कालचक्र में, ऐसे कुल होते चौबीस।
उनके पावन चरणकमल हम, श्रद्धा सहित नमाते शीश।।
भूत-भविष्यत्-वर्तमान की, संख्या पहुँची पार अनन्त।
जन्म अयोध्या, मोक्ष शिखर जी, पाते नियम सभी भगवन्त।।५।।
किन्तु असंख्ये कल्पकाल में, जब आता हुण्डा का काल।
तब हो जातीं कुछ अनहोनी, परिर्वितत नियमों की चाल।।
वर्तमान हुण्डावसर्पिणी, काल हो रहा है गतिमान।
अत: अयोध्या सभी न जन्में, नहीं शिखर जी गये निर्वाण।।६।।
इस अनित्य, क्षणभंगुर जग में, पालनीय भगवन्त चरित्र।
हमें चाहिए, उन पर चल कर, हम बन जायें स्वयं पवित्र।।
तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ का, है चरित्र अतिशयी अनन्य।
अल्पबुद्धि से वर्णन करके, हुई लेखिनी मेरी धन्य।।७।।
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, शोभित, सुस्थित ‘काशी’ देश।
नगर ‘बनारस’ शासन करते, ‘अश्वसेन’ गुणवन्त नरेश।।
‘वामा रहा नाम पटरानी, सुख से बीत रहे थे दिन।
एक निशा में महिषी देखे, षोडश मंगलमयी स्वपन।।८।।
हाथी-बैल-सिंह-लक्ष्मी, माला-सूरज-चन्द्रविमल।
मीन-कलश-सर-सिंधु-सिंहासन, देव विमान धरणेन्द्र धवल।।
रत्नराशि-निर्धूम अग्नि ये, सोलह सपने देखे मात।
शुभ नक्षत्र, प्रहर आखिरी, वैशाख कृष्ण द्वितिया की रात।।९।।
बीती रात, हुआ सूर्योदय, रानी कहे स्वप्न अविरल।
सकल श्रवण कर, नृप बतलाया, रानी को स्वप्नों का फल।।
‘तीनलोकपति श्री तीर्थंकर’ हुए अवतरित गर्भ मंझार।
पुत्ररत्न को प्राप्त करोगी, यह षोडष स्वप्नों का सार।।१०।।
पति मुखचन्द्र सुने वचनामृत, माता अतिशय हर्ष में आय।
बोली ‘धन्य हुई आज मैं, धन्य हुई स्त्री पर्याय।।’
स्वर्ग उतरकर आया भू-पर, गर्भ महोत्सव किया महान।
युगों-युगों तक मंगलमय हो, पार्श्वनाथ जिन का कल्याण।।११।।
महापुरुष आने से पहले, होने लगते शगुन अनेक।
होने लगी रत्नसुवृष्टि, माता-प्रांगण दिन प्रत्येक।।
षट्पंचाशत सुरकुमारियाँ, माँ सेवा संलग्न हुर्इं।
महापुण्य संकेत ज्ञातकर, माता अतिशय मुदित हुई।।१२।।
यथा सीप में मोती बढ़ता, तथा गर्भ का हुआ विकास।
धीरे-धीरे माँ तीर्थंकर, ज्ञान-बुद्धि का हुआ प्रकाश।।
जैसे प्राची बालसूर्य को, जनती शोभित किरण हजार।
वैसे अश्वसेन-वामागृह, जन्मे ज्ञानी पार्श्वकुमार।।१३।।
पौष कृष्ण एकादशि तिथि को, वे मंगलमय आये क्षण।
तीन लोक में आनंद छाया, उत्सव किया देवतागण।।
शची प्रसूती-गृह में जाती, जिन बालक के दर्शन कर।
स्त्रीलिंग छेद लेती है, आनन्दित-प्रमुदित होकर।।१४।।
ज्यों ग्रीषम में तीव्र तपन से, फट जाती धरती की देह।
तब करुणा की मरहम लेकर, जल बरसाने आते मेह।।
धर्मक्षेत्र में कसा शिकंजा, आडम्बर ने अपने हाथ।
सत्य धर्म का पाठ पढ़ाने, तब पधराये पारसनाथ।।१५।।
गिरि सुमेरु सौधर्मइन्द्र ने, जिनवर का अभिषेक किया।
मात-पिता को सौंप मुदित मन, सहस्र नेत्र कर नृत्य किया।।
धीरे-धीरे बड़े हो गये, कर अंगुष्ठ का अमृतपान।
सोलह वर्ष निकटता पायी, चढ़े तृतिय यौवन सोपान।।१६।।
रूप आपका अद्भुत सुन्दर, नौ हाथ तन ऊँचाई।
हरित वर्ण तन मन को हरता, फसल खेत ज्यों लहराई।।
उचित समय पा पूज्य पिता ने, कही पुत्र से मन की चाह।
‘पुत्रवधू इस घर में आये, स्वीकृति देवें, करें विवाह’।।१७।।
जगत् जलधि से पार उतरने, को अद्भुत यह नौका है।
मानव भव शाश्वत सुख पाने, का उत्तम यह मौका है।।
अत: ब्याह कर व्यर्थ गवाना, नहीं चाहता मानव तन।
श्री पार्श्व ने पूज्य पिता से, सविनय सुन्दर कहे वचन।।१८।।
देवकुमारों संग एक दिन, वन विहार को गये कुमार।
मिला तपस्या करता साधू, बिना दया का किये विचार।।
चार दिशाओं चार अग्नियों, ऊपर एक सूर्य की ज्वाल।
बैठ बीच में कष्ट उठाया, नहीं जीव रक्षा का ख्याल।।१९।।
नाग-नागिनी रहे काष्ठ में, पार्श्व अवधि से जान लिया।
इनकी रक्षा सुकरणीय है, अपने मन में ठान लिया।।
तपसी को बहुश: समझाया, किन्तु न उसने मानी एक।
चीरा काठ, पड़ा विस्मय में, अध-कट नाग-नागिनी देख।।२०।।
नाग-नागिनी मरत उबारे, देकर प्रभु ने मंत्र महान्।
नाग-नागिनी मर कर पहुँचे, पद्मावती-धरणेन्द्र विमान।।
हुआ तपस्वी अति ही क्रोधित, समझा निज अपमान विशेष।
नहीं सर्प को दूध पिलाना, नहिं देना मूरख उपदेश।।२१।।
सोचो, कौन तापसी है यह, वही भाई का जीव कमठ।
कुयोनी निज दुष्कर्म भटका, वामा जनक हुआ वह शठ।।
पार्श्वकुमार का नाना है, यह राजा महीपाल था नाम।
पत्नि वियोगे हुआ तापसी, राजा छोड़ा राज्य तमाम।।२२।।
तपता रहा कुतप में वर्षों, सदा रहा अज्ञानी भाव।
शंवर नामक देव ज्योतिषी, मरा हुआ दुध्र्यान प्रभाव।।
अत: उचित है भव्य जनों को, सम्यक् दर्शन प्राप्त करें।
ज्ञान-ध्यान-तप धारण करके, मोक्ष सुलक्ष्मी वरण करें।।२३।
पार्श्वकुमार के तीस वर्ष जब, राज्यावस्था में बीते।
दूत अयोध्या नृप का आया, अति उत्तम उपहार लिये।।
कुशल क्षेम नृप-नगरी पूछी, सदा दूत ने बतलाया।
वृषभ आदि तीर्थंकर प्रभु का, राम-लखन का यश गाया।।२४।।
कहा अयोध्या नगरी उत्तम, आदिनाथ का जन्म स्थान।
राज्य किया, जीना सिखलाया, किया प्रजा उपकार महान।।
नील अप्सरा मरण देखकर, गृह तज धारा तप कल्याण।
केवल पाया, जग उपदेशा, गिरि कैलाश गये निर्वाण।।२५।।
आदिनाथजिन वर्णन सुनकर, हो विरक्त मन पार्श्वकुमार।
‘‘मैं भी तीर्थंकर कहलाता, किन्तु नहीं वैसा आचार।।
साधारण मानव सम मैंने, गवाँ दिये हैं तीस बरस।
मुझको तो अपने जीवन पर, खुद ही आने लगा तरस।।२६।।
अहो! जीव ने देव लोक में, जाकर भोगे-भोग अपार।
तृप्ति हुई न, अब क्या होगी, भोग भुजंग, न इनमें सार।।
आत्मसाधना के करने में, अब विलम्ब है उचित नहीं।
इस जग में सुख लेश नहीं है, जैसे जल नवनीत नहीं।।२७।।
भव-तन-भोग विरक्त पुत्र को, मात-पिता बहु समझाया।
किन्तु विरागी रंग के ऊपर, कोई रंग न चढ़ पाया।।
माँ के आँसू काम न आये, गये पिता के व्यर्थ वचन।
‘घर में मुझको चैन नहीं है, रंच नहीं लगता है मन’।।२८।।
भव-तन-भोग विरक्त चिन्तवन, इधर पार्श्व ज्यों मन लाये।
तत्क्षण सुर लौकान्तिक मिलकर, उतर स्वर्ग भू-पर आये।।
पुष्पांजलि प्रभु चरण चढ़ाई, करी सपर्या मन लाकर।
अनुमोदन तल्लीन हो गये, प्रभु के अतिशय गुण गाकर।।२९।।
हे देवों के देव! दयानिधि! आप धन्य, तव धन्य विचार।
धन्य समय यह, हुए आप जब, मोह सैन्य जय को तैयार।।
मुक्तिवधू सौभाग्य मनाती, हुई प्रतीक्षारत हे देव।
तप: सखी को भेजा तुम ढिग, आकर्षित करने स्वयमेव।।३०।।
अतिशय पुण्य उदय में आया, जग जीवों का भगवन्! आज।
चरण बढ़ाये जग उद्धारण, तारण-तरण शरण जिनराज।।
इस प्रकार स्तुति कर प्रभू की, लौकान्तिक पहुँचे सुर लोक।
इधर इन्द्र सौधर्म ने आकर, दल-बल सहित लगाई धोक।।३१।।
नगर बनारस सजा स्वर्ग-सा, धरा-गगन गूँजे जयकार।
इन्द्र किया अभिषेक प्रभू का, दिव्याभरण किया शृंंगार।।
विमला नामक रत्नपालकी, श्रीजिनवर को बैठाया।
लगे प्रभू ज्यों मुक्तिरमा को, वरने अनुपम वर आया।।३२।।
प्रथम पालकी कौन उठाये! वही, जो संग में दीक्षा ले।
भूमिगोचरी राजागण तब, उठा पालकी सात चले।
फिर विद्याधर, पुन: इन्द्र, आकाश मार्ग से गमन हुआ।
नगर पार कर, ‘अश्व’ सु-वन में, निमिष मात्र आगमन हुआ।।३३।।
वट तरु तले शिला रत्नों की, रत्न चूर्ण स्वस्तिक ऊपर।
प्रभू विराजे, सिद्ध नमन कर, लोंच किया, ली दीक्षा धर।।
हुए दिगम्बर मुद्राधारी पौष कृष्ण शुभ बेला में।
प्राप्त हुआ ज्ञान मनपर्यय, आत्म शुद्धि थी तेला में।।३४।।
इन्द्रनीलमणि सम अति सुन्दर, लुंच किये जो केश सकल।
रत्नपिटारी रख इन्द्रों ने, किए विसर्जित क्षीरी जल।।
शतक तीन सौ राजागण भी, दीक्षित हो कल्याण किया।
सह उत्साह मना कल्याणक, स्वर्ग लोक सुर गमन किया।।३५।।
जगत विजेता कामदेव ने, जिन पर छोड़े बाण सकल।
किन्तु एक भी काम न आया, नये प्रयास सभी निष्फल।।
प्राप्त किया निष्काम परमपद, वय कौमार्य मार को मार।
बालयती श्रीपार्श्वनाथ को, नमन हमारा बारम्बार।।३६।।
त्रय उपवास अनन्तर प्रभुवर, ‘गुल्मखेटपुर’ गये नगर।
प्रथम पारणा हुई आपकी, ब्रह्मदत्त राजा के घर।।
रत्न-सुमन-गंधोदक वृष्टि, धन्य-धन्य जयकार किया।
पंचाश्चर्य किये देवों ने, महापुण्य सत्कार किया।।३७।।
कह अहार भगवान पार्श्व प्रभु जाकर पुन: विराजें वन।
तपोलीन रहते करने को, मोहशत्रु का सैन्य जयन।।
प्रतिदिन या दो-चार-दिवस में, भगवन लेते थे आहार।
तदनन्तर वन में ही जाकर, आतम गृह में करें विहार।।३८।।
बीत गये कुछ माह यूँ हि, छद्मस्थ अवस्थाचर्या-ध्यान।
तदा एक दिन तपमय होकर, आतमरस डूबे भगवान।।
गगन मार्ग से गमन कर रहा, शंवर नामक ज्योतिषि देव।
रुका विमान देव का वन में, ऊपर ही सहसा स्वयमेव।।३९।।
नियम अटल है किसी देव या विद्याधर का कोई यान।
नहीं गुजर सकता ऊपर से यदि हों महापुरुष विद्यमान।।
हुआ मंत्र कीलित हो जैसे अप्रत्याशित घटना मान।
देखा नीचे महामुनीश्वर, आत्मलीन करते हैं ध्यान।।४०।।
अवधीज्ञान लगाया उसने, पूर्वभवों का पता चला।
लगा क्रोधवश-वैर में जलने, वैर न होता कभी भला।।
उसने सोचा यह मरुभूती, इसने किया बुरा था हाल।
मूंड मुँडाकर गधे बिठाया, मुँह काला कर दिया निकाल।।४१।।
‘कुक्कुट सर्प’ हुआ इस कारण, नरक पाँचवें दु:ख सहे।
‘अजगर’ बना, गया ‘तम’ छटवें, दु:ख मुख से नहिं जात कहे।।
‘भील कुरंग’’ दुष्ट परिणामी, फिर मैं गया महातम सात।
‘सिंह’ हुआ फिर गया ‘नरक’ में, हुआ नहीं सम्यक्त्व प्रभात।।४२।।
कुपित हुआ अत्यंत प्रभू पर, पूर्वभवों का वैर निकाल।
लगा पीसने दाँत किटाकिट, रूप बनाया अति विकराल।।
बोला ‘मजा चखाता इसको, किया था इसने मुँह काला।
इसको भी अब पता चलेगा, पड़ा किसी से है पाला’।।४३।।
चलने लगी भयंकर आंधी, पत्थर बरसे, गिरे पहार।
बिजली चमकी, बादल गरजे, पानी बरसा मूसलधार।।
आग बरसने लगी चहूँदिश, अट्टहास उपजाते भय।
जल-थल एकमेक हो गये, हुआ उपस्थित महाप्रलय।।४४।।
प्राप्त विक्रिया बल से उसने, धारण किये महा दुर्भेष।
सात दिवस तक सतत दुष्ट वह, करता था उत्पात विशेष।।
लेकिन प्रभुवर रंच हिले ना, रहे मेरुवत् महा अचल।
छोटे पर्वत गिर जाते हैं, मेरु शिखर नहिं होता चल।।४५।।
तब धरणेन्द्र का आसन कंपा, अवधिज्ञान से जाना सब।
कृत उपकार याद कर दम्पति, सद्य सर्ग थल आये तब।।
की प्रदक्षिणा, नमन किया, फिर छत्र रूप फण फैल गया।
देवदंपती को लखकर, शंबर, लज्जित हो भाग गया।।४६।।
ध्यानारूढ़ क्षपक श्रेणी चढ़, कर्म घातिया नष्ट किये।
केवलज्ञान हुआ सूर्योदय, गुण अनन्त, प्रभु प्रकट हुए।।
कृष्णा चैत्र चतुर्थी के दिन, प्रभु ने पाया केवलज्ञान।
सकल देवताओं ने मिलकर, किया महोत्सव ज्ञानकल्याण।।४७।।
प्रभु ने करी तपस्या जिस थल, जिस स्थल उपसर्ग हुआ।
अहि रूप धर छत्र के द्वारा, प्रभु उपसर्ग सु-दूर हुआ।।
उस स्थल का प्रथित हुआ जग, ‘अहिच्छत्र’ यह सार्थक नाम।
संकटहारी, सब सुखकारी, ‘अहिच्छत्र’ को करें प्रणाम।।४८।।
सुन्दर समवसरण की रचना, धनकुबेर ने की तत्काल।
पहले गणधर रहे स्वयंभू, द्वादश सभा जुड़ी उस काल।।
दिव्यध्वनि के द्वारा भगवन, जग हितकर उपदेश दिया।
क्षमासिंधु-करुणा के सागर, महासहिष्णू-परम उदार।
शूरवीर-तीर्थंकर भगवन, महामना-संहारक मार।।
समता-सिंधु परम उपकारी, सबके संकट सदा हरें।
शंबर प्रणत हुआ प्रभु चरणों, बोला भगवन क्षमा करें।।५१।।
काललब्धि के आ जाने पर, बन जाते हैं काम सभी।
शांति प्राप्त विनयी शंवर को, सम्यग्दर्शन हुआ तभी।।
सात शतक वनवासी तापस, सम्यग्दर्शन पाया है।
हुए संयमी, सबने सादर, प्रभु को शीष झुकाया है।।५२।।
वर्ष उनहत्तर सात माह तक, कर विहार उपदेश दिया।
श्रावण शुक्ल सप्तमी प्रात:, सिद्धशिला प्रस्थान किया।।
सम्मेदाचल, स्वर्णकूट से, प्रभु ने पद पाया निर्वाण।
स्वर्ग उतर आया धरती पर, हर्षित मना मोक्षकल्याण।।५३।।
नेमिनाथ निर्वाण पधारे, बीत चुका बहुतेरा काल।
धर्मक्षेत्र आयीं विकृतियाँ, जन-जीवन स्थिति विकराल।।
याज्ञिक हिंसा-कुतप-तंत्र के फैल रहे थे जाल तमाम।
तब पारस ने जीवदया को बतलाया है धर्म महान।।५४।।
क्रोध, क्रोध से शान्त न होता, उल्टा वैर बढ़ाता है।
किन्तु क्षमा देवी के चरणों, आखिर शीष झुकाता है।।
जिसके कर में क्षमा शस्त्र है, दुष्ट की कुछ ना चलती है।
अग्नी शान्त स्वत: हो जाती, बिन र्इंधन ना जलती है।।५५।।
ढाईद्वीप में पाँच मेरु हैं, उनमें पहला मेरु प्रधान।
नाम सुदर्शन, चालिस योजन, एक लाख ऊँचाई जान।।
वर्तमान चौबीस तीर्थंकर, उनमें पारसनाथ महान।
क्षमाशीलता-साम्यभाव में, मिलता ना कोई उपमान।।५५।।
है विज्ञान आज का कहता, क्रिया प्रतिक्रिया होती है।
किन्तु पार्श्व का जीवन उसको, देता खुली चुनौती है।।
दश-दश भव तक कमठ जीव ने, प्रभु पर अत्याचार किए।
किन्तु सदा समता ही धारी, मारुति-पारसनाथ हिये।।५६।।
एक हाथ से बजे न ताली, लौकिक कथन सुना पाया।
किन्तु कमठ ने दशों भवों तक, इसे पूर्णत: झुठलाया।।
करता रहा कमठ शठ प्रभु पर, इक तरफा वारों पर वार।
किन्तु पार्श्व के जीव ने कभी, नहीं किया उसका प्रतिकार।।५७।।
महापुरुष का साथ बंधुवर! सदाकाल हितकारी है।
अगर मित्रता हो क्या कहना, वैर भी मंगलकारी है।।
कमठ-मरुभूती जीवन का, उदाहरण प्रत्यक्ष रहा।
पार्श्व के कारण कमठ जीव ने, अन्तकाल सम्यक्त्व लहा।।५८।।
पार्श्वनाथ ‘शुभ’ के प्रतीक हैं, कमठ ‘अशुभ’ की है पहचान।
पारसनाथ चरित कहता है, शुभ ही पाता विजय महान।।
परेशान हो सकता है शुभ, किन्तु पराजित कभी नहीं।
यह विचार कर पार्श्वचरण का पुण्य आचरण करें सभी।।५९।।
पार्श्वनाथ का चरित सभी को, देता है अनुपम उपदेश।
क्रोध-वैर-अरु पाप सभी तज, ग्रहण करें शुभ का संदेश।।
भवभयहर्ता, मंगलकर्ता, तीर्थंकर सुखकारी हों।
चरण कमल में प्रणत सभी को, भव-भव मंगलकारी हों।।६०।।
पढ़ें भव्य जो ध्यान लगाकर, पार्श्वनाथ भगवान चरित्र।
पाप-कषायें टलें हृदय से, होगा जीवन परम पवित्र।।
पार्श्वनाथ जिनके चरणों में, नमन अनन्तों बार करें।
महासुकृत से प्राप्त हुआ यह, मानव जीवन सफल करें।।६१।।
गणिनि आर्यिका ज्ञानमती का, पा विशेष आशिष-आदेश।
स्वल्पकाल में रचा काव्य यह, पंडित लालचंद्र ‘राकेश’।।
उनके पावन करकमलों में, अर्पित है सविनय वंदामि।
प्रज्ञाश्रमणी मात चन्दनामती, सहित सबको वंदामि।।६२।।