सोलहकारण भावना, तीर्थंकर पद देत।
इनकी भक्ती वंदना, भव भव दु:ख हर लेत।।
पहली दर्शनविशुद्धि भावन, अष्टांग अष्टगुण संयुत है।
शंकादि विर्विजत दृढ़श्रद्धा से, प्रभु को पूर्ण सर्मिपत है।।
चल मलिन अगाढ़ दोष विरहित, निज आत्म तत्त्व से परिचित है।
मैं इसको वंदूं भाव सहित, यह देव शास्त्र गुरु में रत है।।१।।
जो दर्शन ज्ञान चरित तप में, अति आदर से नित विनय करे।
उपचार विनय भी गुरुओं का, प्रत्यक्ष परोक्ष द्विभेद धरे।।
यह विनय सहितता तीर्थंकर, बनने का कारण मानी है।
यह शिव का द्वार सर्व जन प्रिय, मुनियों ने इसको मानी है।।२।।
पण व्रत के पालन हेतु सदा, निज शील गुणों में प्रीती जो।
सब क्रोधादिक अतिचार रहित, से तृतीय भावना होती वो।
व्रत शील पूर्ण हो जाते जब, तब मोक्ष निकट हो जाता है।
तब निज में परमामृत झरता, बस वंदत फल मिल जाता है।।३।।
दिन और रात्रि ज्ञानाराधन, श्रुत को पढ़ना अतिशय रुचि से।
निज शिष्यों को भी सिखलाना, नित धर्म देशना दो रुचि से।।
संतत श्रुत का अभ्यास रहे, यह भी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग।
यह कारण साम्य सुधारस का, मैं भक्ती से वंदूँ त्रियोग।।४।।
जो दयाबुद्धि से रत्नत्रय का, दान भव्य को देते हैं।
प्रासुक परित्याग भावना यह, मुनिगण ही नित धर लेते हैं।।
अथवा चउविध भी दान देय, भविजन पर अनुग्रह करते हैं।
वे मुनि हो या श्रावक भी हों, यह त्याग भावना धरते हैं।।५।।
निज शक्ती के अनुसार सदा, बाह्याभ्यंतर तप को करना।
अनशन अवमोदर आदि बाह्य, तप बहुविध से करते रहना।।
प्रायश्चित विनय सुवैयावृत, स्वाध्याय ध्यान व्युत्सर्ग सभी।
अंतर तप अंतरशुद्धि हेतु, इन बिन निंह मुक्ति नमूं अभी।।६।।
यदि कहीं कभी भी साधु पर, उपसर्ग कष्ट आपत् आवे।
उनको सब विध से दूर भगा, मुनि को सब विध सुख उपजावे।।
निज धर्म ध्यान या शुक्लध्यान में, रहना यही समाधी है।
यह साधू में नित बनी रहे, यह विधि विरलों ने साधी है।।७।।
रोगादि कष्ट के आने पर, मुनियों की बहु सेवा करना।
निर्दोष औषधि भी देना, तैलादिक भी मर्दन करना।।
बहु आदर से सब शक्ती से, गुरु जन की वैयावृत करना।
तीर्थंकर पद की कारण यह, इसको नमते भवदधि तरना।।८।।
छ्यालिस गुण युत अठरा दोषों, विरहित अर्हंत जिनेश्वर हैं।
शिव पथ नेता हित उपदेष्टा ये वीतराग परमेश्वर हैं।।
इनकी भक्ती है कामधेनु, िंचतामणि पारसमणि भी हैं।
साक्षात् कल्पतरु भी यह ही, इसकी संस्तुति भी फलती है।।९।।
चउसंघ नेता आचार्य देव, इनकी भक्ती गुण भरती है।
इनमें अनुराग करें उनकी, भव नाव भवोदधि तरती है।।
दीक्षा शिक्षा दें अनुग्रह कर, बहु उपकारी सूरीवर हैं।
आचार्यभक्ति की स्तुति भी, रत्नत्रय कल्पतरूवर है।।१०।।
निज पर आगम के विज्ञानी, बहुश्रुत ज्ञानी मुनिगण जो भी।
उनमें अनुराग वही भक्ती, श्रुतज्ञान पूर्ण करती सो भी।।
इस बहुश्रुत भक्ति भावना को, भाकर तीर्थंकर बनते हैं।
जो वंदे बहुविध स्तुति से, वे सर्व हितंकर बनते हैं।।११।।
तीर्थंकर वचन प्रकृष्ट कहे, वे ही प्रवचन कहलाते हैं।
अथवा चउसंघ उन वचन सहित, सो भी प्रवचन बन जाते हैं।।
उनमें अनुराग वही भक्ती, निंह सहज सर्व पा सकते हैं।
जो पा लेते सो ही जग में, तीर्थंकर भी बन सकते हैं।।१२।
समता स्तव वंदन प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान कायोत्सर्ग कहे।
मुनियों के ये छह आवश्यक, विधिवत् जो पालें कर्म दहें।।
जिनपूजा दान गुरूपास्ति, स्वाध्याय सुसंयम तप गृहि के।
नित यथा समय हीनाधि रहित, आवश्यक अपरिहाणि नमते।।१३।।
पूजा तप दान ज्ञान अतिशय, बहुविध जिन धर्म उद्योत करें।
अज्ञान तिमिर से व्याप्त जगत, में ज्ञान ज्योति प्रद्योत भरे।।
यह मार्ग प्रभावन तीर्थंकर, प्रकृती का बंध कराती है।
इसको वंदे हम भक्ती से, यह मुक्ति मार्ग दिखलाती है।।१४।।
गौवत्स सदृश चउविध संघ से, जो सहज प्रीति हो जाती है।
यह प्रवचन वत्सलता निश्चित, निज गुण में प्रीति बढ़ाती है।।
जो नित प्रसन्नमन हो करके, प्रवचनवत्सल को भाते हैं।
वे तीर्थंकर पद लहें अत:, हम नमें भावना भाते है।।१५।।
ये सोलह सर्व भावना ही, तीर्थंकर प्रकृति बंधवाती हैं।
दर्शन विशुद्धि से सहित एक, दो भी कारण बन जाती हैं।।
तीर्थंकर या श्रुतकेवलि के, चरणों में ही यह प्रकृति बंधे।
तीर्थंकर भाषित धर्म अहो, जो तीर्थंकर पद भी दे दे।।१६।।
अहो धर्म महिमा अगम, तीर्थंकर पद देत।
नमूँ ज्ञानमती पूर्ण हितु, सदा सर्व सुख हेत।।१।।