अथांकुरात्पंचमेऽन्हि जलयात्रामहोत्सवम्।
कृत्वा भुक्त्वा दधीतोपवासादानविधिं बुधः।।1।।
गद्य- तद्यथा-अथांकुरात्पंचमेऽन्हि पूर्वाण्हे दिव्यवसनभूषणमाल्यानुलेपनालंकृतोऽहं महेन्द्रः प्रतीन्द्रदातृसमन्वितो धुर्यं गजमश्वं वा समारूढः सत्पल्लवच्छन्नमुखान्, दूर्वादध्यक्षतांचितान्, कंठतटलुठत्पुष्पमालान्, फलगर्भान्, कुंभान् दृढतरं बिभ्रतीभिः पतिपुत्रवतीभिः कुलस्त्रीभिर्विमानस्य चतुर्दिक्षुशांतिशुद्ध्यभिधानहोमं विधाय छत्रचामरतौर्यत्रिकध्वजाद्यैर्विश्वं विस्मापयन् मंत्राभ्यस्तान्यवसर्षपान् शांत्यै सर्वदिक्षु क्षिपन् महाभूत्या सरस्तीरं समासाद्य तत्र पद्माकरायाघ्र्यं दत्वा शांतिविधिं निष्ठाप्य जलदेवताः प्रसाद्य पूरयित्वा जलैरास्यस्थापितश्र्यादिदेवता- कान्कुंभांस्ताभिरेव पुरंध्रीभिर्महाभूत्या चैत्यालयमानाय्य तत्र सुरक्षितांस्तान्संस्थाप्य तज्जेलन गर्भावतरणांगं जलाधिवासनं यथाविधि विधातुमुत्सहामहे तराम् ।
(अंकुरारोपण से पांचवें दिन जलयात्रा महोत्सव करके विद्वान्-यजमान आदि भोजन करके उपवास ग्रहण की विधि करें। उसे ही कहते हैं-) अंकुरारोपण के पांचवें दिन पूर्वाण्ह में दिव्यवस्त्राभूषण माला आदि धारण कर इंद्रप्रतिष्ठाचार्य, प्रतीन्द्र-सहयोगी प्रतिष्ठाचार्यों एवं दाता-यजमान आदि के साथ उत्तम हाथी या घोड़े पर बैठें। सुवासिनी-पति-पुत्र वाली स्त्रियां मस्तक पर मंगलकलश धारण करें। उन कलशों के गले में पुष्प माला, मुख पर पत्ते व पुष्प हों इत्यादि रूप से सुसज्जित कलशों को लेकर नदी के किनारे जावें।
इससे पूर्व मंदिर की चारों दिशाओं में शांतिहोम विधि करें। तथा उन महिलाओं की घटयात्रा के साथ लोग छत्र, चँवर, ध्वजा आदि लेकर चल रहे हों, नाना प्रकार के बाजे बज रहे हों। इस तरह प्रतिष्ठाचार्य मंत्रों का उच्चारण कर मार्ग में शांति के लिए चारों तरफ जौ और सरसों का क्षेपण कर रहे हों। वहां नदी के पास पहुंच कर सरोवर को अघ्र्य देकर शांति विधि करके, जलदेवता को प्रसन्न करें।
उन कलशों में जलभरकर उन कुंभों में श्री आदि देवियों की स्थापना विधि करके पुनः उन कुंभों को महिलाओं के मस्तक पर रखाकर पूर्ववत् वैभव के साथ वापस आकर मंदिर जी में उन कलशों को सुरक्षित रख देवें। उसी मंत्रित जल से गर्भावतरण आदि क्रियायें करना है। (विशेष-ऐसे ही भगवान के अभिषेक के लिए और वेदीशुद्धि तथा मंदिर की शुद्धि के लिए भी घटयात्रा विधि से जल लाना चाहिए।)
आगे का श्लोक व मंत्र बोलकर सरोवर को अघ्र्य चढ़ावें-
पद्मापादनतो महामृतभवानंदप्रदानान्नृणां।
जैनो मार्ग इवावभासि विमलो योगीव शीतीभवन्।
जैनेन्द्रस्नपनोचितोदकतया क्षीरोदवत्तत्सताम् ।
पूज्यं त्वां शुभशुद्धजीवननिधिं कासार संपूजये।।2।।
ॐ ह्रीं पद्माकराय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
(सरोवर को अघ्र्य चढ़ावें)
(पूर्ववत् शांतिकविधि करके समापन करें पुनः जलाशय के पास पहुंचें। वहां अच्छे पवित्र पात्र-थाल में कर्पूर मिश्रित घिसे हुए चंदन से अनार की कलम या सुवर्ण की कलम से जलयंत्र बनावें। यह यंत्र आगे दिया है। यहां यंत्र बनाने की विधि बताते हैं – पहले अष्टदल का कमल बनावें,
उसमें कर्णिका पर-‘
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीपरब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये नमः’
मंत्र लिखकर पूर्वदिशा आदि में क्रम से अष्टदलों पर नीचे लिखे मंत्र लिखें। अनंतर ह्रीं इस माया बीजाक्षर से तीन बार कमल को वेष्टित करें और ‘क्रों’ मंत्र से रोकें। पुनः मुख और मूल को ‘व’ ‘प’ बीजाक्षर से सहित पद्म पत्र से अंकित करें। ‘प व’ वर्ण से दिक्कोण सहित करके यह जलमंडल बनावें। इस प्रकार ‘जलाधिवासनयंत्र’ बनाकर आगे कथित श्लोक व मंत्रों से इस यंत्र की पूजा करें। (परिशिष्ट में जलाधिवासन यंत्र देखें)
गद्य- पूर्ववच्छांतिकविधिं विधाय परिसमाप्य ततो जलाशयमुपसद्य, सुपवित्रपात्रे वरकाश्मीरकर्पूरादिना कर्णिकायां
‘‘ॐ ह्रीं अर्हं श्रीपरब्रह्मणेऽनंतानंतज्ञानशक्तये नमः’
इति लिखित्वा पूर्वाद्यष्टदलेषु क्रमेण ‘
ॐ ह्रीं श्रीप्रभृतिदेवताभ्यः स्वाहा। ‘ॐ ह्रीं गंगादिदेवताभ्यः स्वाहा। ‘ॐ ह्रीं सीताविद्धमहाददेवेभ्यः स्वाहा। ‘ॐ ह्रीं सीतोदाविद्धमहाददेवेभ्यः स्वाहा। ‘ॐ ह्रीं लवणोदकालोदमागधादितीर्थदेवेभ्यः स्वाहा। ‘ॐ ह्रीं सीतासीतोदामागधादितीर्थदेवेभ्यः स्वाहा।‘ॐ ह्रीं संख्यातीतसमुद्रदेवेभ्यः स्वाहा। ‘ॐ ह्रीं लोकाभिमततीर्थदेवेभ्यः स्वाहा। इति विलिख्य।
त्रिर्मायामात्रया परिक्षिप्य क्रोंकारेण निरुध्य।
मुखमूलवपोपेतपद्मपत्रांकितः सितः।
पववर्णाक्तदिक्कोणः कलशस्तोयमंडलः।।3।।
इत्येवं वरुणमंडलं चालिख्य।
परब्रह्मार्चनपुरःसरं पत्रेषु जलदेवताः स्वस्वमंत्रपूतजलादिभिरुपचरेत् ।।तद्यथा
(आगे के श्लोक व मंत्रों को पढ़कर पहले कर्णिका में अर्हंतदेव की पूजा करें, अनंतर क्रम से श्रीदेवी आदि के श्लोक व मंत्रों से क्रम-क्रम से आठ दलों की पूजा करें।)
प्रकाशिताशेषपदार्थसार्थं, जिनेन्द्रचंद्रं जनतापलोपम्।
पयःपटीराक्षतपुष्पहव्य-प्रदीपधूपोद्घफलैः प्रयक्ष्ये।।4।।
‘ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं परमब्रह्मन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। अनेन कर्णिकामध्ये पुष्पांजलिं प्रयुज्यावाहयेत् । ‘ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं परमब्रह्मन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । अनेन तद्वत्प्रतिष्ठापयेत् । ‘ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं परमब्रह्मन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । अनेन तद्वत्सन्निधापयेत् ।। ‘ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं परमब्रह्मणे अनंतानंतज्ञानशक्तये इदं जलं, गंधं, अक्षतं, पुष्पं, चरुं, दीपं, धूपं, फलं, अघ्र्यं, समर्पयामि स्वाहा। (यहाँ पृथक्-पृथक् अष्ट द्रव्य चढ़ावें) शान्तिधारां, पुष्पांजलिं च।
उपजातिछंद- श्रीमुख्यदेवीः कुलशैलमूर्ध, पद्मादिपद्माकरसद्मसक्ताः। पयःपटीराक्षतपुष्पहव्य – प्रदीपधूपोद्घफलैः प्रयक्ष्ये ।। 1।।
‘ॐ ह्रीं श्रीप्रभृतिदेवताभ्य इदं जलं, गंधं, अक्षतं, पुष्पं, चरुं, दीपं, धूपं, फलं, अघ्र्यं समर्पयामि स्वाहा। शान्तिधारां, पुष्पांजलिं च। (अघ्र्य चढ़ावें या जल आदि से पृथक्-पृथक् पूजा करें) गंगादिदेवीरतिमंगलांगा, गंगादिविख्यातनदीनिवासाः। पयः पटीराक्षत पुष्पहव्य-प्रदीपधूपोद्घफलैः प्रयक्ष्ये।।2।।
‘ॐ ह्रीं गंगादिदेवीभ्य इदं जलं, गंधं, अक्षतं, पुष्पं, चरुं, दीपं, धूपं, फलं, अघ्र्यं समर्पयामि स्वाहा। शान्तिधारां, पुष्पांजलिं च। सीतानदीविद्धमहा दस्थान्, देश्वरान्नागकुमारदेवान्। पयः पटीराक्षतपुष्पहव्य-प्रदीपधूपोद्घफलैः प्रयक्ष्ये।।3।।
‘ॐ ह्रीं सीताविद्धमहा ददेवेभ्य इदं जलं, गंधं, अक्षतं, पुष्पं, चरुं, दीपं, धूपं, फलं, अघ्र्यं समर्पयामि स्वाहा। शान्तिधारां, पुष्पांजलिं च। सीतोत्तरामध्यमहा दस्थान्, देश्वरान्नागकुमारदेवान्। पयः पटीराक्षतपुष्पहव्य-प्रदीपधूपोद्घफलैः प्रयक्ष्ये।।4।।
‘ॐ ह्रीं सीतोदाविद्धमहा ददेवेभ्य इदं जलं, गंधं, अक्षतं, पुष्पं, चरुं, दीपं, धूपं, फलं, अघ्र्यं समर्पयामि स्वाहा। शान्तिधारां, पुष्पांजलिं च। क्षीरोदकालोदकतीर्थवर्ति-श्रीमागधादीनमरानशेषान्। पयः पटीराक्षत पुष्पहव्य-प्रदीपधूपोद्घफलैः प्रयक्ष्ये।।5।।
‘ॐ ह्रीं लवणोदकालोदमागधादितीर्थदेवेभ्य इदं जलं, गंधं, अक्षतं, पुष्पं, चरुं, दीपं, धूपं, फलं, अघ्र्यं समर्पयामि स्वाहा। शान्तिधारां, पुष्पांजलिं च। सीतातदन्त्यद्वयतीर्थवर्ति-श्रीमागधादीनमरानशेषान्। पयः पटीराक्षत पुष्पहव्य-प्रदीपधूपोद्घफलैः प्रयक्ष्ये।।6।।
‘ॐ ह्रीं सीतासीतोदामागधादितीर्थदेवेभ्य इदं जलं, गंधं, अक्षतं, पुष्पं, चरुं, दीपं, धूपं, फलं, अघ्र्यं समर्पयामि स्वाहा। शान्तिधारां, पुष्पांजलिं च। समुद्रनाथांल्लवणोदमुख्य-संख्याव्यतीतांबुधिभूतिभोक्त¤न्। पयः पटीराक्षत पुष्पहव्य-प्रदीपधूपोद्घफलैः प्रयक्ष्ये।।7।।
‘ॐ ह्रीं संख्यातीतसमुद्रदेवेभ्य इदं जलं, गंधं, अक्षतं, पुष्पं, चरुं, दीपं, धूपं, फलं, अघ्र्यं समर्पयामि स्वाहा। शान्तिधारां, पुष्पांजलिं च। लोकप्रसिद्धोत्तमतीर्थदेवान्नंदीश्वरद्वीपसरःस्थितादीन्। पयः पटीराक्षत पुष्पहव्य-प्रदीपधूपोद्घफलैः प्रयक्ष्ये।।8।।
‘ॐ ह्रीं लोकाभिमततीर्थदेवेभ्य इदं जलं, गंधं, अक्षतं, पुष्पं, चरुं, दीपं, धूपं, फलं, अघ्र्यं समर्पयामि स्वाहा। शान्तिधारां, पुष्पांजलिं च। एवं जलदेवताः प्रसाध्य तत्पूजां जलाशयमध्ये प्रविश्य मंत्रमिमं पठित्वा प्लावयेत्। (इस प्रकार जलदेवताओं को प्रसन्न करके उस पूजा द्रव्य को जलाशय में प्रवेश कराकर अर्थात् आगे के मंत्रों से पूजा द्रव्य को जल में डुबो देवें) गंगादयः श्रीप्रमुखाश्च देव्यः, श्रीमागधाद्याश्च समुद्रनाथाः। देशिनोऽन्येऽपि जलाशयेशास्ते सारयन्त्वस्य जिनोचितांभः।।9।।
इति पूजाप्लावनमंत्रः ।
(‘‘जो गंगादि देवी, श्रीआदि देवी, मागध आदि देव, समुद्राधिपति, सरोवर निवासी देव व जलाशय के देव हैं, वे सभी इस जिनेंद्रदेव की कल्याणक विधि के लिए उचित जल को शुद्ध करें।’’ ऐसी प्रार्थना करते हुए इस श्लोक को पढ़कर जलाशय, सरोवर या कुएँ में उस पूजा समेत जलयंत्र को डाल देवें यह ‘पूजा प्लावन’ विधि है।
इसके बाद प्रतिष्ठाचार्य उस जल से कलशों को भर-भर कर जलाशय के किनारे पहले से बनाये गये चैक पर रखकर उन्हें चंदन, माला, दूब, डाभ आदि से अर्चित करके उन कलशों के मुख श्री आदि मंत्रों से मंत्रित अशोक के पत्ते या आम के पत्तों को रखकर पुनः नारियल या मोसम्बी आदि फलों को रखकर ‘कलशोद्धरण’ मंत्र द्वारा उन कलशों को उठाकर उसी समय सम्मानित की गईं उन सुवासिनी महिलाओं के कर कमलों में देकर शेष कलश अपने हाथों में लेकर हाथी आदि वाहनों पर चढ़कर गाजे-बाजे के साथ चैत्यालय के पास आवें।
गद्य-ततः शक्रास्तज्जलेन कलशान्पूरं पूरं तीरे प्रस्तीर्य चंदनस्रग्दूर्वादर्भादिभिरभ्यच्र्य तन्मुखेषु श्र्यादिमंत्रपूतं पल्लवफलं विन्यस्य, कृतकलशोद्धारमंत्रोपहारोपस्कारानेतानेकशः स्वयमुद्धृत्य, तत्क्षणसंमानितपुरंध्रीपाणिपद्मेषु समप्र्य। शेषकलशान्निजकरैरुद्वहन्तो। गजादिवाहनान्यारुह्य महोत्सवेनाभिचैत्यालयमागच्छेयुः।
जलाशय के कलशों को मंत्रित करने की विधि-
जल भरे कलशों को मंत्रित करने का मंत्र ‘ॐ ह्रीं श्री-ह्रीं -धृति-कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्मी-शांति-पुष्टयः श्रीदिक्कुमार्यो जिनेंद्रमहाभिषेककलशमुखेष्वेतेषु नित्यविशिष्टा भवत भवतेति स्वाहा। आगे का श्लोक बोलकर कलशों को उठाकर सुवासिनी स्त्रियों को देवें- तीर्थेनानेन तीर्थांतरदुरधिगमोदारदिव्यप्रभाव-स्फूर्जत्तीर्थोत्तमस्य प्रथितजिनपतेः प्रेषितप्राभृताभान्। श्रीमुख्यख्यातदेवीनिवहकृतमुखाद्यासनोद्भूतशक्ति-प्रागल्भ्यानुद्धरामो जयजयनिनदे शातकुंभीयकुंभान्।।1।। इति तीर्थोदकादानविधानम् ।।
(इस प्रकार तीर्थोदक लाने की-घटयात्रा की विधि पूर्ण हुई।)
उपवास ग्रहण विधिगद्य – अथेन्द्राः प्रतीन्द्रपरिचारकसहिताः स्नात्वा, जिनादीनभ्यच्र्य, लोकं संतप्र्य, स्वादुतरं हितमितमन्नं भुक्त्वा, युवतीभिः कृतारात्रिकमांगल्याः समुचितवाहनान्यारुह्य, पत्युरभीष्टसिद्धिरस्त्विति वादिनीभिः स्त्रीभिर्दत्तानि पाणिपात्रात्फलानि शकुनेच्छया गृहीत्वा, यक्षांगपरिच्छदान्वितां यज्ञभूमिं समासाद्य, तत्र निसहीत्युच्चार्य यागभूमिं प्रविश्य, जिनांस्त्रिःपरीत्य, त्रिरानम्य ईर्यापथशुद्धिं कृत्वा, जिनश्रुतगुरूनभ्यच्र्य गुरोरनुज्ञया बृहत्सिद्धयोगभक्ती विधाय।
गुरोरनुज्ञया अन्नखाद्यलेह्यत्रिविधाहारपरित्यागं त्रिविधोपवास मायज्ञांतमादाय, ततो बृहदाचार्यभक्तिं कृत्वा गुरोः पादांभोजं प्रणम्य तस्याशिषो गृहीत्वा यज्ञांगं सन्निधापयेयुः इत्युपवासादानविधिः। तत्क्रियाप्रयोगे दिङमात्रमिदमुदा यते।
(अनंतर इंद्र-प्रतिष्ठाचार्य अपने सहयोगी प्रतिष्ठाचार्यों सहित स्नान करके जिनेंद्रदेव आदि की पूजा करके लोगों को संतर्पित करके स्वादिष्ट, हितकर और परिमित ऐसा भोजन करें पुनः जिनकी सुवासिनी स्त्रियों ने आरती उतारी है तथा जिन्हें ‘‘आपको अभीष्ट सिद्धि हो’’ ऐसा कहते हुये स्त्रियों ने हाथों में फल दिये हैं और उन्होंने शुभशकुन की इच्छा से ग्रहण किया है, ऐसे प्रतिष्ठाचार्यगण यज्ञभूमि में पहुंचे।
वहां ‘निःसही’ शब्द का उच्चारण करके यागभूमि में प्रवेश करके जिनेंद्रदेव की तीन प्रदक्षिणा करके तीन बार नमस्कार करके ईर्यापथ शुद्धि पाठ पढें।
जिन, श्रुत और गुरुओं की पूजा करके गुरु की आज्ञा से बृहत् सिद्धभक्ति और बृहत् योगिभक्ति पढ़कर गुरु से त्रिविध उपवास की याचना करें। गुरु भी दिगंबर जैनाचार्य या समय पर मुनि, आर्यिकाएँ जो भी हों वे अन्न, खाद्य और लेह्य ऐसे तीन प्रकार के आहार का ‘प्रतिष्ठा विधि’ पूर्ण होने पर्यंत त्याग करा देवें।
इसे त्रिविध उपवास कहते हैं। इसमें केवल पेय-दूध, रस, मट्ठा आदि लेने को कहा है। (आजकल एक बार शुद्ध अन्न का भोजन व दूसरी बार फलाहार ऐसा नियम दिया जाता है।)
इसके बाद प्रतिष्ठाचार्य और यजमान आदि बृहत् आचार्यभक्ति पढ़कर गुरु को नमस्कार करें और गुरु का आशीर्वाद ग्रहण करें। इसकी प्रयोगविधि दिखलाते हैं-
भगवन्नमोस्तु ते एषोहमर्हत्प्रतिष्ठारंभक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। इत्युच्चार्य। णमो अरिहंताणमित्यादि चत्तारिदंडकं पठित्वा थोस्सामीत्यादि स्तवं चाधीत्य। सिद्धभक्तिं पठित्वा। इच्छामि भंते इत्याद्यालोचनां पठेत्।
अथ पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं योगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। इत्युच्चार्य। णमो अरिहंताणमित्यादि चत्तारिदंडकं पठित्वा थोस्सामीत्यादि स्तवं चाधीत्य। योगिभक्तिं पठित्वा। इच्छामि भंते इत्याद्यालोचनां पठेत्। अथ पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं श्रीमदाचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
( ऐसी प्रतिज्ञा करके) णमो अरिहंताणं से लेकर चत्तारिमंगल आदि सामायिक दण्डक पढ़कर नव बार णमोकार मंत्र का जाप करें। पुनः थोस्सामि स्तवं पढ़कर ‘तव सिद्धे’ आदि सिद्धभक्ति पृष्ठ 17 से पढ़कर इच्छामि भंत्ते इत्यादि अंचलिका पढ़कर पूर्वोक्त विधि से योगिभक्ति पृष्ठ 242 से पढ़ें।
अनंतर उपवास या जैसा भी हो, नियम लेकर रात्रि में चतुर्विध आहार त्याग कर आचार्यभक्ति पृष्ठ 336 से पढ़कर क्रिया पूर्ण करें।
इत्थं प्रतिष्ठाविधिंसिद्धये यस्तीर्थोदकादानविधिं विधत्ते।
स्वात्मोपलंभार्णवनित्यपूर्णनक्षत्रनेमित्वमुपैति सोयम्।। ।।
इत्युपवासादानविधानम्।।
इत्यर्हत्प्रतिष्ठासारसंग्रहे नेमिचंद्रदेवविरचिते प्रतिष्ठातिलकनाम्नि तीर्थोदकादानविधिर्नाम षष्ठः परिच्छेदः।