इस कलिकाल में धर्म के धुर्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य-वर्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने बारह वर्ष की भक्त प्रत्याख्यान नाम की उत्कृष्ट सल्लेखना ग्रहण की थी। उसी के मध्य उन्होंने नेत्रज्योति क्षीण होने से सन् १९५५ में कुंथलगिरि सिद्ध क्षेत्र पर सल्लेखना विधि से पंडित मरण किया था। उनके पट्टाधीश आचार्य श्रीवीरसागर जी महाराज ने सन् १९५७ में जयपुर खानिया में सल्लेखनापूर्वक पंडित मरण से शरीर छोड़ा था।
आचार्यश्री ने यद्यपि भक्त प्रत्याख्यान विधि से क्रम-क्रम से आहार में वस्तुओं का त्याग करते हुए काय और कषायों को कृश किया था फिर भी उन्होंने बाहर में सल्लेखना की घोषणा नहीं की थी। ये गुरुदेव हम जैसे अशक्त साधु-साध्वियों को सरल सल्लेखना विधि बतलाने के लिए ही मानों प्रतिदिन आहार को उठते रहते थे और जरा-जरा सा तक्र आदि लेते रहे थे।
इन्हीं गुरुदेव के आदर्श को सामने रखकर मैंने आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की सल्लेखना विधि सम्पन्न करायी है। मगसिर सुदी चतुर्थी, २६ नवम्बर १९८४ को आहार के बाद उन्हें दौरा सा आया। मैंने महामंत्र का पाठ सुनाते हुए उन्हें सावधान किया और ‘आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है’ इत्यादि वाक्यों को सुनाती रही।
लगभग आधा घंटे बाद उन्हें वमन हो गया। इसके बाद वे स्वस्थ दिखने लगीं। पूर्ववत् सामायिक की, मध्यान्ह के स्वाध्याय में बैठी रहीं। कई जनों ने कहा, ‘‘माताजी! आज तो बड़ी (ज्ञानमती) माताजी आपकी सल्लेखना करा रही थीं।’’ वे मुस्कुरा दीं। इसके पाँच दिन पूर्व से ही इन्हें आहार में अरुचि हो गई थी। रोटी और दलिया हाथ में नहीं लिया थाअतः मैंने मेरठ से वैद्य जी को बुलाकर उनसे परामर्श कर औषधि में कुछ परिवर्तन किया।
इसके बाद मैं तो दिन में अपने लेखन कार्य में व्यस्त रहती थी और रात्रि में उनके पास ही सोती थी। ये स्वयं अपने स्वाध्याय, दर्शन, प्रतिक्रमण , आहार, निहार आदि में पूर्ववत् प्रवृत्ति कर रही थीं। फिर भी आहार छूटता जा रहा था, औषधि काम नहीं कर रही थी, कमजोरी बढ़ती जा रही थी। प्रायः आहार से पूर्व या अनंतर बेचैनी हो जाती थी। ६ दिसम्बर १९८४, मगसिर सुदी १३ को पुनः आहार के पूर्व ही वमन हो गया। अनंतर आहार में जरा सा रस लेकर आ गर्इं।
१३ दिसम्बर से १५ दिसम्बर तक भी प्रकृति गड़बड़ रही। मैंने सोचा, इन्हें आम्लपित्त की बीमारी है, उसी से गड़बड़ हो रहा है, ठीक हो जायेगा लेकिन पौषबदी नवमी, रविवार १६ दिसम्बर १९८४ को आहार से पहले उनको घबराहट अधिक हुई और मुँह से फैन सा आ गया। सुनकर मेरे मन में आशंका हुई कि शरीर का कुछ भरोसा नहीं है। अब मुझे इन्हें क्षपक समझकर परिचर्या करनी चाहिए। दिल्ली व मेरठ से आये वैद्यों से परामर्श किया।
१६ दिसम्बर को प्रतिष्ठा समिति की मीटिंग थी, अतः कैलाशचंद टिकैतनगर से भी आये थे। वैद्यों ने इन्हीं के सामने कहा कि-‘‘बस, अब ये दो-चार दिन की मेहमान हैं।’’ मैंने अगले ही दिन १७ दिसम्बर को एकांत में माताजी के पास बैठकर उनसे क्षमा कराकर विधिवत् सल्लेखना क्रिया चालू कर दी। मैंने यह अनुभव किया कि माताजी स्वयं सावधान रही हैं।
इन्हें संघ परिकर से, मेरे से व शरीर से पूर्ण निर्ममता रही है। परिणामों में अभूतपूर्व शांति एवं चेहरे पर प्रसन्नता रही है। स्वाध्याय और पाठ श्रवण में अतीव प्रेम और उत्कण्ठा थी। हाथ में माला लिए हुए वे स्वयं हर क्षण जाप्य करती रहीं।
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी में एक गुण सबसे अधिक विशेष प्रतीत हुआ। वह है ‘‘आवश्यक अपरिहाणि।’’ ये अपनी आवश्यक क्रियाओं में अंतिम दिन तक सावधान रही हैं। हमेशा ही पिछली रात्रि में सर्वप्रथम महामंत्र का नव बार जाप्य करने के बाद वे ‘‘अपररात्रिक’’ स्वाध्याय का विधिवत् अनुष्ठान करके तत्त्वार्थ सूत्र आदि पढ़ती थीं।
उसी के अनुसार उन्हें अंतिम दिन-माघ वदी ९, दिनाँक १५ जनवरी १९८५ को भी गणधर वलय मंत्र सुनाया गया। अनंतर रात्रिक प्रतिक्रमण सुनाया गया। रात्रियोगनिष्ठापन क्रिया कराते हुए योगभक्ति सुनाई गई पुनः उन्होंने ‘तीन कम नव करोड़’ मुनियों को नमस्कार करके क्रम से चारित्रचक्रवर्ती १०८ आचार्य शांंतिसागर जी, आचार्य वीरसागर जी महाराज जी, आचार्यश्री शिवसागर महाराज जी को नमस्कार करके अपने दीक्षा गुरु आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज को नमोस्तु किया।
सामने लगे हुए आचार्यश्री के फोटो को बार-बार देखा। इसके बाद सामायिक क्रिया में उन्हें विधिवत् चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति का पाठ सुनाया। इसके बाद णमोकार महामंत्र, सिद्धचक्र मंत्र और शांतिमंत्र आदि की जाप्य सुनाई। माताजी बहुत ही उपयोग से सुनती रहीं। इसके बाद एक बार मेरे से पूछा-‘‘कितने बजे हैं?’’ मैंने कहा-‘‘सात बजकर दस मिनट हुए हैं।’’
पश्चात् प्रतिदिन के समान उन्हीं के निकट भगवान् शांतिनाथ जी की प्रतिमा विराजमान कर अभिषेक और बड़ी शांतिधारा की गयी। वह अंतिम अभिषेक वे बहुत ही रुचि से एकटक देखती रहीं। कुल मिलाकर चारों काल के स्वाध्याय और तीन काल की सामायिक क्रिया तथा दो काल के प्रतिक्रमण में वे पूर्णतया सावधान थीं।
एक दिन सायंकाल की सामायिक के पूर्व मैं रात्रियोग प्रतिष्ठापन विधि करना भूल गई और ‘‘पडिक्कमामि भंत्ते!’’ उच्चारण कर सामायिक शुरू करने लगी। तभी वे बोल पड़ीं-
इतनी अधिक कमजोरी में भी उनकी इतनी अच्छी सावधानी देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गई। वैद्यगण भी इनकी सावधानी और मनोबल को देखकर अतीव आश्चर्य व्यक्त किया करते थे। ऐसे ही एक दिन सामायिक क्रिया में ‘‘प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः’’ पाठ छोड़ देने पर वे इस पाठ को भी बोलने लगीं। प्रायः मध्यान्ह में वे समय पूछा करती थीं कि-
‘‘माताजी! कितने बजे हैं?’’ वे ठीक बारह बजे सामायिक पाठ सुनती थीं। इसलिए वे १२ बजे के पूर्व कई बार समय पूछ लेती थीं। इस प्रकार इनकी ये ‘‘आवश्यक अपरिहाणि भावना’’ बहुत ही सुन्दर थी। हर किसी में यह भावना इतनी सावधानीपूर्ण हो पाना दुर्लभ है।
आर्यिका रत्नमती माताजी की अस्वस्थता देखकर आशीर्वाद व आदेश के लिए रवीन्द्र कुमार ने आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज के पास पत्र देकर एक श्रावक को भेजा था। उसके द्वारा प्राप्त हुए पत्र को मैंने माताजी को सुनाया। उन्होंने उसे बड़े प्रेम से सुना और बार-बार पिच्छिका लेकर अंजलि जोड़कर परोक्ष रूप में अपने दीक्षा गुरु आचार्यश्री को नमस्कार किया।
वह यह था- ‘‘आचार्यश्री धर्मसागर जी का शुभाशीर्वाद। ‘‘माताजी! आपने अजमेर में अपने पुत्र, पुत्रियाँ, घर और कुटुम्ब से मोह छोड़कर शरीर से भी निस्पृह होकर बड़े ही पुरुषार्थ से आर्यिका दीक्षा ली थी। आपने इतने दिनों तक अपनी रत्नत्रय साधना से यह संयमरूपी मंदिर तैयार किया हुआ है। अब आपको इसके ऊपर सल्लेखनारूपी कलशारोहण करना है, अतः पूर्णतया सावधान रहना। अपने जीवन का सार जो संयम है, उसे आपको अन्त तक अपने साथ ले जाना है।
यही मेरा शुभाशीर्वाद है। माघवदी छठ, दिनाँक १२ जनवरी, शनिवार को मैंने माताजी को शुद्धि कराकर शुद्ध साड़ी बदलाई, अनंतर उन्हें आहार के लिए उठाने का प्रयास किया किन्तु कुछ कमजोरी अधिक होने से आहार को नहीं उठाया। अनन्तर दस बजे इन्हें दौरा सा आ गया, श्वास जोर-जोर से चलने लगीं और ऐसा लगा कि अब ये जा रही हैं। हम सभी मंत्र बोल रहे थे, बीच-बीच में मैं सम्बोधन भी कर रही थी ‘‘आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, आत्मा की मृत्यु नहीं है, वह अजर-अमर, अविनाशी है, शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन, निर्विकार, निराकार है,
ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यस्वरूप है, आत्मा भगवान है, सिद्ध है। इत्यादि।’’ पुनः ग्यारह बजे मैंने उन्हें चतुर्विध आहार का त्याग करा दिया। डाक्टर, वैद्यों ने भी कहा कि यह आखिरी सांस है किन्तु त्याग कराते समय मैंने यह स्पष्ट बार-बार कहा-‘‘माताजी! आपके आज चतुर्विध आहार का त्याग है। यदि आप प्रातः स्वस्थ रहीं तो आहार ग्रहण करेंगी, अन्यथा त्याग है।’’
सम्बोधन व मंत्र बराबर चालू रहा, बाद में दो बजे बाद इन्हें होश आ गया और सावधानी अच्छी हो गई। तीन बजे मेरठ से दो वैद्य आये। उन्होंने आग्रहपूर्ण शब्दों में कहा-‘‘इन्हें आहार में जल, दूध और रस दिलाना चाहिए अन्यथा कण्ठ सूखेगा।’’ मैंने कहा कि- ‘‘आज मैंने इन्हें चतुर्विध आहार त्याग दे दिया है, अतः अब आहार कराने का प्रश्न नहीं उठता, कल दिन उगेगा, तभी आहार होगा। यदि जल से ही प्यास बुझती तो अनादि काल से बुझ गई होती, पता नहीं कितना जल पिया व पिलाया है।
अब तो भगवान् का नाम ही अमृत है।’’ फिर भी वैद्य जी ने कहा-‘‘अच्छा मैं माताजी से पूछ लूँ?’’ वे माताजी से निवेदन करने लगे- ‘‘माताजी! अभी समय है, आप आहार के लिए उठें, जरा सा जल, रस आदि ले लें। माताजी ने संकेत से मना कर दिया। तब मैंने पूछा-‘‘माताजी! आज आहार नहीं लेना है क्या?’’ उन्होंने संकेत से मना किया। पुनः मैंने कहा-
‘कल तो आहार लेना है।’’ वे बोलीं ‘‘हाँ!’’ तब मैंने समझ लिया, इनकी सावधानी अच्छी है और नियम से, त्याग से प्रेम है न कि शरीर से। वास्तव में इस समय इनका कण्ठ सूखा हुआ था। रात्रिभर जागरण करती रहीं। उस दिन सायंकाल में सरधना से कुछ भाक्तिक श्रावक आ गये, वे यहीं वसतिका हॉल में थे।
सभी णमोकार मंत्र का उच्च स्वर से पाठ बोल रहे थे। मैं बीच-बीच में उन्हें शांति मंत्र को बोलने के लिए कह देती थी। मैंने रात्रि में कई बार पूछा-‘‘माताजी! कौन सा मंत्र चल रहा है?’’ वे बोलीं. ‘‘णमोकार मंत्र।’’ पुनः शांति मंत्र के समय पूछा, तो वे बोलीं-‘‘शांति मंत्र।’’ रात्रि चार बजे से अपररात्रिक स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और सामायिक क्रियायें सुनार्इं।
नव बजे पूर्ववत् शुद्धि कराकर आहार कराया। आहार में किंचित् दूध, जल और रस दिया गया, जो बहुत ही कठिनाई से जरा-जरा सा उनके पेट में गया। ऐसे ही सोमवार दिनाँक १४ जनवरी को भी आहार कराया गया। इन दिनों लगभग २० दिन बराबर रात्रि में भी जागरण चलता रहा था। क्रम-क्रम से हम लोग उनको मंत्र सुनाते रहते थे।
विद्यालय के विद्यार्थी भी जगते थे। मध्य में इंदौर के वैद्य धर्मचंद शास्त्री आये। वे भी ५-६ दिन तक माताजी की औषधि आदि और भक्ति, वैयावृत्य करते हुए उनकी सावधानी देखकर बहुत ही प्रभावित हुए। माघ बदी ९ मंगलवार, दिनांक १५ जनवरी १९८५ को भी प्रतिदिन के समान सर्व क्रियायें सम्पन्न करार्इं।
७.३० बजे भगवान् शांतिनाथ की प्रतिमा का अभिषेक दिखाया गया, गंधोदक लगाया। अनंतर मैंने पूर्ववत् शुद्धि कराकर शुद्ध धोती बदला दी किन्तु आहार को उठाने के पूर्व इन्हं बिठाने में सांस चलने लगी। प्रायः प्रतिदिन कुछ देर सांस का वेग बढ़ता था, पुनः स्वाभाविक हो जाता था लेकिन आज स्वस्थता नहीं दिखी। प्रतिदिन मैं पूछती थी-
‘‘माताजी! आहार को उठाऊँ।’’ वे .हाँ’’ में संकेत दे देती थीं। आज नहीं दिया और मेरा मुख देखने लगीं। मैंने समझ लिया कि आज इनकी इच्छा नहीं है। तब मैंने आहार की चर्चा छोड़कर बराबर मंत्र व सम्बोधन चालू रखा। उस समय मैं कुछ क्षण णमोकार मंत्र, कुछ क्षण ‘‘ॐ सिद्धाय नमः,’’ कुछ क्षण ‘‘ॐनमः सिद्धेभ्यः’’ कुछ क्षण ‘‘अरहंत सिद्ध शरणं’’ आदि मंत्र बोलती थी। सभी श्रावक-श्राविकाएँ मेरे साथ ही मंत्र बोल रहे थे।
मैं बीच-बीच में संबोधन वाक्य बोलती रहती थी- ‘‘माताजी! सावधान रहना, आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, यह शरीर पुद्गल है, जीर्ण, शीर्ण होता है, छूटता है। शरीर को मृत्यु है, आत्मा को नहीं। आत्मा भगवान् है, शुद्ध है, सिद्ध है। अनंतज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यस्वरूप है। ज्ञानानंद स्वरूप है, परमानंद स्वरूप है, चिच्चैतन्यस्वरूप है।’’
बीच-बीच में मैं भगवान् महावीर की, विदेह क्षेत्र में समवसरण में विद्यमान सीमंधर भगवान् की भी जय बोलकर उनका स्मरण करा रही थी। वे बीच-बीच में आँख खोलकर मेरी ओर देखकर, मेरे संबोधन को सुनने का आश्वासन दे देती थीं। इस सावधानी से मंत्र और संबोधन सुनते-सुनते उनकी सांस ऊपर तक आ गई अर्थात् नाड़ी छूट गई थी और ऊपर सांस चल रही थी।
मैंने उन्हें उठाकर पद्मासन से बिठा दिया। एक बजकर पैंतालिस मिनट पर उनकी आत्मा इस नश्वर शरीर से निकलकर स्वर्ग में दिव्य वैक्रियक शरीर में प्रविष्ट हो गई। इधर बराबर मंत्र चलता रहा। बाद में उन्हें कमरे से बाहर हॉल में आसन पर विराजमान करा दिया। दर्शनार्थियों का तांता लग गया।
इससे पूर्व भी दर्शनार्थीगण आ रहे थे, खिड़की से देख रहे थे। अन्दर सीमित लोग ही थे, जो कि मंत्र बोल रहे थे। इस दिन का वीडिओ भी लिया गया है। इससे पूर्व भी १८ दिसंबर १९८४ का तथा मध्य में २२ दिसम्बर से २८ दिसम्बर १९८४ तक माताजी के आहार का, उपदेश श्रवण, पाठ श्रवण का भी वी.डी.ओ. लिया गया।
अपूर्व शांति .२६ नवम्बर मगसिर वदी चतुर्थी के दिन उन्हें प्रथम दौरा पड़ा था। उसके बाद से इनमें एक अद्भुत ही शांति दिख रही थी। इसके पूर्व यदि विद्यार्थी या यात्री जोर-जोर से बोलते हों अथवा यहाँ जम्बूद्वीप निर्माण में कभी रात्रि में ट्रक आदि आ जावे या बार-बार कोई उनके कमरे का दरवाजा खोले-बंद करे, किसी निमित्त से हल्ला-गुल्ला मचे, तो वे घबराने लगती थीं, मना करती थीं और कहती थीं-
‘‘कोलाहल से मेरे सिर में दर्द हो जाती है, घबराहट होती है। इसी प्रकार ढाई वर्ष पूर्व दिल्ली में भी इन्हें शहर का कोलाहल सहन नहीं हो पाता था किन्तु इस २६ नवम्बर के बाद से इन्होंने कुछ भी नहीं कहा, चाहे जैसा हल्ला-गुल्ला हुआ इन्होंने नहीं रोका, टोका। इनकी इतनी शान्ति देखकर मैंने आपस में संघ में कई बार कहा-‘‘ऐसी शांति इनमें कैसे आ गई? क्यों आ गई है?’’ तब मोतीचंद ने कहा-
‘‘माताजी! इनकी यह चिरशांति है।’’ एक बार रवीन्द्र ने पूछा- ‘‘माताजी! आपको किसी से रागभाव है या नहीं?’’ उन्होंने कहा-‘‘नहीं है।’’ तब पुनः रवीन्द्र ने मेरी ओर संकेत करके .‘‘इन माताजी से तो है।’’ उन्होंने सिर हिलाकर कहा……नहीं है।’’ तब मैंने कहा-‘‘ठीक है, अब आप किसी से भी अनुराग-प्रेम नहीं रखना, वास्तव में जब शरीर से भी आपको अपनापन नहीं है, तो फिर हम लोग तो प्रत्यक्ष में ही भिन्न हैं।’’ १ जनवरी १९८५ को प्रातः ५ बजे इन्होंने कहा भी था
कि ‘‘माताजी! अब यह शरीर काम नहीं करता है करे तो भला, ना करे तो भला.।’’ तब मैंने कहा था- ‘‘ठीक ही है, देखो माताजी! आपने तो ७० वर्ष तक इस शरीर से बहुत ही काम ले लिया। बचपन से ही धार्मिक संस्कार रहे थे मंदिर जाना, वैराग्य भावना, बारह भावना आदि के पाठ करना तथा पद्मनंदिपंचविंशतिका का स्वाध्याय करके आत्मा में अच्छे संस्कार डाले थे पुनः गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर दान, पूजन, शील और उपवास तथा स्वाध्याय को करती रही हो।
तीर्थयात्राएं भी प्रायः सभी कर ली हैं। अपनी पुत्र-पुत्रियों को धर्म की घूँटी पिला-पिलाकर उन्हें अच्छे संस्कारों में ढाला है, अपने तेरह संतानों को पाल-पोसकर योग्य बनाया पुनः इतने कमजोर जीर्ण-शीर्ण शरीर से भी आर्यिका दीक्षा लेकर पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकार का चारित्र तेरह वर्ष तक पाला है,
अब तुम्हें इस शरीर से निर्मम होकर सल्लेखना सिद्धि करके दो-तीन भव में तेरहवां गुणस्थान-अर्हंत अवस्था प्राप्त करनी है। इत्यादि।’’ १६ दिसम्बर १९८४ को प्रतिष्ठा समिति की मीटिंग थी। इनके बड़े पुत्र कैलाशचंद आये थे। उसी दिन वैद्यों ने यह कहा था कि-‘‘ये अधिक नहीं चलेंगी ।’’
कैलाश ने भी वैद्यों से पूछा था, तब उन लोगों ने ऐसे ही कह दिया था। इस निमित्त से वे घर जाकर अपने भाइयों को सूचना दे चुके थे। दो-तीन दिन में प्रकाशचंद+ज्ञानादेवी, सुभाषचंद – सुषमा रानी व कैलाशचंद उनकी पत्नी चन्दा रानी आदि दर्शनार्थ आ गये। तब माताजी ने मेरे से कहा कि- ‘‘इन लोगों को सूचना क्यों कर दी?’’ मैंने कहा कैलाश ने जाकर सबको कहा है, फिर भी मैं इन लोगों को यहाँ ठहरने नहीं दूँगी। आये हैं, दर्शन करेंगे, चले जायेंगे।’’
इसके बाद मैंने देखा, क्रम-क्रम से एक-एक पुत्रियाँ भी आती गई। दर्शन करती, एक-दो दिन वैयावृत्य करतीं, मेरे मना करने से प्रायः निकट में नहीं बैठतीं, कभी बैठ भी जातीं, तो ये लोग कुछ न कुछ पाठ सुनाया करते थे।
सुभाषचंद जो इनकी दीक्षा के समय सबसे अधिक विक्षिप्त हुए थे, खूब रोये थे, वे इस समय हंस-हंसकर समाधिमरण आदि पाठ सुनाते और वीरमरण की प्रशंसा करते तथा कहते- ‘‘माताजी! हमें भी ऐसा वीरमरण प्राप्त हो। मरने से डर क्या ? मरना तो ऐसी ही सल्लेखना विधि से उत्तम है, जो कि संसार के दुःखों से छुड़ाने वाला हो।’’
कुल मिलाकर ये लोग एक महीने के अंतराल में कई बार घर गये और पुनः आते रहे। रत्नमती माताजी ने इन किसी से भी कुछ नहीं पूछा कि तुम कब गये थे? कब आये? इत्यादि उनकी इतनी निमर्मता देखकर मैंने भी पुनः इन लोगों को अधिक नहीं रोका। प्रारंभ में तो मैंने एक-दो बार सबको जाने को कह दिया था और ये लोग भी चले गये थे पुनः मैंने देखा कि ये लोग भी सल्लेखना विधि देखने के लिए और वैयावृत्य का लाभ लेने के लिए ही आ रहे हैं।
सब मेरी आज्ञा के अनुकूल वैराग्यप्रद और अध्यात्मिक पाठ सुनाने में ही लगे हैं। जब-जब मैं माताजी से एकांत में कुछ पूछती थी, तो उनके शब्दों में वैराग्य परिणाम, निर्ममता और शांति का ही अनुभव आता था।
जिनभक्ति
इनके सामने भगवान् बाहुबलि की विशालकाय फोटो लगी हुई थी। प्रायः ये उसी तरफ एक-टक देखा करती थीं। ५ जनवरी १९८५ को ये उधर एकटक बहुत देर तक देखती रहीं, तब मैंने पूछा- ‘‘माताजी! आप बाहुबलि भगवान् को बहुत देर से देख रही हो, क्या उनसे शक्ति मांग रही हो?।’’
वे हंसने लगीं। उस समय उनकी जिनभक्ति और उनके अन्तर की भावना स्पष्ट दिख रही थी। उन्हें सदा ही यह विश्वास था कि रोग, शोक आदि में भगवान की भक्ति ही मनोबल बढ़ाती है, विघ्नों का नाश करती है और संयम के पालन में शक्ति बढ़ती है। जब-जब पहले भी उन्हें अम्लपित्त का प्रकोप बढ़ता था या नींद नहीं आने से बेचैनी बढ़ती थी तो वे रात्रि में ‘‘ॐ नमः सिद्धेभ्यः।
ॐ शान्तिनाथाय नमः। ॐ णमो अरिहंताणं।’’ आदि मंत्र बोला करती थीं। अन्त तक इनके कान, नेत्र और मस्तिष्क बराबर काम करते रहे हैं। स्मरण शक्ति में अन्तर नहीं आया। एक दिन पूर्व १४ जनवरी तक आगंतुक यात्रियों में खास-खास भक्तों को देखकर मुस्करा देती थीं, जिससे वे भक्त लोग गद्गद हो जाते थे।
शेष समय इनकी मुद्रा गंभीर रहती थी। १६ दिसम्बर से लेकर १५ जनवरी तक मैंने अनुभव किया कि ये आध्यात्मिक पाठ बहुत ही रुचि से सुनतीं। वास्तव में ‘आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है।’’
ऐसा कहना सरल है। जीवन भर आध्यात्मिकता की रट लगाने वाले भी व्याधि और मृत्यु के समय सब कुछ भूल जाते हैं किन्तु यदि अध्यात्म को साकार रूप से, मूर्तिक रूप से किसी को देखना हो तो साधु संघ में ऐसी-ऐसी सल्लेखना के समय सल्लेखनारत साधु क्षपक को देखना चाहिए। इसलिए तो भगवती आराधना में आचार्य शिवकोटिने क्षपक को ‘‘तीर्थ’’ संज्ञा दी है।
क्षपक एक तीर्थ है क्योंकि संसार से पार उतारने में निमित्त है। उसमें स्नान करने से पापकर्म रूपी मल दूर होता है अतः जो दर्शक समस्त आदर भक्ति के साथ उस ‘‘महातीर्थ’’ में स्नान करते हैं वे भी कृतकृत्य होते हैं तथा वे भी सौभाग्यशाली हैं। यदि तपस्वियों के द्वारा सेवित पहाड़, नदी आदि प्रदेश तीर्थ होते हैं तो तपस्यारूप गुणों की राशि क्षपक स्वयं तीर्थ क्यों नहीं हैं?
अर्थात् हैं ही हैं। यदि प्राचीन ऋषियों को, प्रतिमाओं की वंदना करने वाले को पुण्य होता है तो क्षपक की वंदना करने वालों को विपुल पुण्य क्यों नहीं प्राप्त होगा? जो तीव्र भक्तिपूर्वक क्षपक की सेवा करता है, उसकी सम्पूर्ण आराधना सफल हो जाती है ।
सेवा करके शरीर से काम लेना
मुझे वे रत्नमती माताजी जब-तब कहा करती थीं- ‘‘माताजी! तुम दिनभर लिखायी-पढ़ाई का बहुत काम करती हो। चौबीस घंटे में एक बार शरीर में तेल मालिश जरूर करा लिया करो। देखो! मैंने अपने शरीर की सेवा करके ही आज तक इससे काम लिया है । तुम भी अपने शरीर की सेवा करती रहोगी, तब इससे ज्यादा काम ले सकोगी ।’’
सन् १९८५ की लंबी बीमारी के बाद डाक्टर, वैद्यों ने भी मुझे शरीर में तेल मालिश के लिए प्रेरणा दी है। पं. फूलचंद जी सिद्धांतशास्त्री ने भी कई बार तेल मालिश के लिए कु. माधुरी को कहा कि-‘‘बहन जी! माताजी के शरीर में मालिश अवश्य करो।’’ अब मैंने स्वयं अनुभव किया है कि अधिक थकान , घबराहट आदि में तेल या घी की मालिश से शांति अवश्य मिलती है
और मैं पुनः शरीर से लेखन आदि कार्य कर लेती हूँ। तब उन आर्यिका रत्नमती माताजी की शिक्षा और प्रेरणा याद अवश्य आ जाती है। वास्तव में शरीर से काम लेना है, तो उसकी सेवा करना भी आवश्यक प्रतीत होता है। आर्यिका रत्नमती माताजी की समाधि के मध्य सुकुमारचंद जी आदि दर्शनार्थ आते रहे थे
और उनकी शांत मुद्रा की प्रशंसा करते रहे थे। समाधि हो जाने के बाद जब रेडियो से समाचार प्रसारित हुए, तब सारे भारत में उनकी समाधि हो जाने के समाचार फैल गये। जगह-जगह भक्तों ने श्रद्धांजलि सभाएँ कीं।
यहाँ पर जे.के. जैन संसद सदस्य (दिल्ली) ने आकर अंत्येष्टि के समय नारियल चढ़ाकर श्रद्धांजलि अर्पित की। समाधि के बाद एक दिन शिखरचंद जैन- रानी मिल, मेरठ और सुकुमारचंद आदि पधारे तो आर्यिका रत्नमती माताजी की प्रशंसा करते हुए बोले- ‘‘यह दृश्य संसार में इस युग में एक विशेष ही रहा है कि जहाँ माता क्षपक हो और पुत्री निर्यापकाचार्य हो, माता का यह गुण बहुत बड़ी गुणग्राहकता का द्योतक है।’’
मनोबल की प्रबलता
मैंने अनुभव किया है कि उनमें शारीरिक शक्ति बहुत कम होते हुए भी मनोबल बहुत ही प्रबल था। उन्होंने तेरह संतानों को जन्म देकर उनका अच्छी तरह लालन-पालन कर, सभी को धर्म के साँचे में ढाला पुनः लगभग ५७ वर्ष की उम्र में दीक्षा लेकर पदविहार, केशलोंच आदि करते हुए अट्ठाईस मूलगुणों का पालन किया ।
उनकी भावना सदा अक्षय सुख को प्राप्त करने के लिए ही बनी रही। अंत में एक माह की सल्लेखना लेकर महामंत्र का स्मरण, श्रवण करते हुए उन्होंने नश्वर शरीर को छोड़कर देवपद प्राप्त कर लिया।
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दीक्षित जीवन
उनके दीक्षित जीवन को मैंने बारीकी से देखा है। मेरे पास तेरह वर्ष तक रहते हुए उन्होंने घर के-गृहस्थावस्था के सुख-दुख के कोई भी संस्मरण कभी भी याद नहीं किए, न मेरे सामने कभी पूर्व स्मृति की कोई बातें बोलीं और न किसी के सामने ही बोलीं। मैंने उनके अभिनन्दन ग्रंथ में परिचय लिखते समय कई बातें पूछी थीं, तो वे बोलीं-
‘‘मुझे कुछ स्मरण नहीं है।’’ ऐसा सुनकर मैं कभी-कभी हंस लेती थी कि- ‘‘आपका पुनर्जन्म हो गया है, ऐसा लगता है।’’ वास्तव में यह तेरह वर्ष का दीक्षित जीवन उनका ऐसा व्यतीत हुआ लगता था कि दीक्षा के बाद उनका पुनर्जन्म ही हो गया है। वे अतीत के पुत्र-पुत्र वधुएँ, पुत्रियाँ और दामाद के अच्छे-बुरे (खट्टे-मीठे) सभी अनुभव भूल चुकी थीं या कहिये भुला चुकी थीं।
वे कभी भी अपने पति आदि के व्यवहार को, उनके द्वारा धर्म में डालने वाली विघ्न-बाधाओं को भी स्मृति में नहीं लार्इं। बस, उन्हें आवश्यक क्रियाओं में, स्वाध्याय में, धर्म-चर्चा में, धर्मोपदेश सुनने में और धर्म प्रभावना को देखने में ही आनन्द आता था। इन्हीं कार्यों में सतत लगी रहती थीं। हमेशा यही भावना व्यक्त किया करती थीं कि-
‘‘मेरी सल्लेखना हो जावे, मुझे पुनः अब स्त्री पर्याय न मिले।’’ उनका सम्यग्दर्शन बहुत ही दृढ़ था, किसी भी लिए गये नियम को पालने में अंत तक पाषाण सदृश कठोर रही हैं और मेरे प्रति उनका मातृत्व स्नेह होते हुए भी सदैव उन्होंने मुझे गुरु के रूप में ही माना था। प्रत्येक चतुर्दशी को अथवा किसी विशेष प्रसंग में मुझसे विधिवत् प्रायश्चित लेती थीं और मेरे वचनों को सदा बहुमान देती रहती थीं।
उनकी समाधि में मेरा उत्साह
उनकी समाधि कराने में मेरा इतना अधिक उत्साह था कि मैंने १६ दिसम्बर १९८४ को जैसे ही वैद्य के मुख से सुना कि अब ये दो-चार दिन की मेहमान हैं, अपनी लिखाई का समापन अलमारी में रख दी और उनकी सल्लेखना कराने में तत्पर हो गई। मैंने समाधि कराते समय यह स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि-
‘‘बाद में इनका अभाव मुझे खटकेगा और वर्षों तक उनकी याद आती ही रहेगी। दिल इतना कमजोर जो जायेगा कि पुनः अब किसी दूसरे की समाधि कराने का साहस ही नहीं हो सकेगा।’’ इसमें मुख्य कारण तो मेरी शारीरिक कमजोरी ही है तथा खून का संबंध भी प्रतीत होता है। कई बार ऐसे भाव आते हैं कि-
‘‘माता की समाधि ऐसे त्यागमयी जीवन में अपने हाथ से कराना, उनके लिए तो अच्छा ही था, अपने कर्तव्य का भी पालन करना था किन्तु मोह के उद्रेक से कभी-कभी इष्टवियोगज आर्तध्यान अवश्य हो जाता है। हाँ, ज्ञान और वैराग्य के बल से मैं अपने को संभालती रहती हूँ, यही स्वाध्याय का सार है।’’ उनकी छोटी पुत्री मनोवती जो इस समय आर्यिका अभयमती हैं, इन्होंने सन् १९६१ में घर छोड़ा था। सन् १९६४ में हैदराबाद में मैंने इन्हें क्षुल्लिका दीक्षा दी थी। सन् १९६९ में महावीर जी में आर्यिका बनी थीं।
ये सन् १९७१ में आर्यिका रत्नमती जी की दीक्षा के समय अजमेर में थीं। बाद में आर्यिका रत्नमती माताजी के बहुत कुछ मना करने के बाद भी बुंदेलखंड की यात्रा के लिए चली गई थीं। दैवयोग से माताजी की समाधि के समय मौजमाबाद के पास ‘दूदू’ राजस्थान में थीं। रत्नमती माताजी की समाधि का समाचार सुनकर इन्हें गहरा धक्का लगा।
वास्तव में दो-तीन वर्षों से ये इधर आकर उनसे मिलना चाहती थीं और अपनी यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभव सुनाना चाहती थीं किन्तु इधर से समाचार गया कि बड़ी प्रतिष्ठा के समय आचार्य संघ के साथ ही आ जाना। वास्तव में मुझे तो क्या? किसी को भी यह कल्पना भी नहीं थी कि- ‘‘आर्यिका रत्नमती माताजी प्रतिष्ठा के चार माह पूर्व ही चली जायेंगी।’’
अस्तु, होनहार टाले नहीं टलती है, यही सोचकर शांति धारण करनी पड़ती है, फिर भी अभयमती जी का चित्त आज भी उनका (गृहस्थाश्रम की माँ का)स्मरण कर-करके विक्षिप्त होता रहता है, जैसा कि होना स्वाभाविक है। फिर भी ऐसे-ऐसे प्रसंगों पर तत्त्वज्ञान ही शरण है, अन्य कोई नहीं है।
अनादिकाल से इस जीव ने किनको तो माता-पिता नहीं बनाया और किन-किनको पुत्र-पुत्री के रूप में नहीं पाया है। यह सब संबंध कर्म के निमित्त से शरीर के आश्रित हैं और जब शरीर ही अपना नहीं, तब ये संबंध भी अपने कैसे हो सकते हैं? अतः शुद्धात्मा का चिंतन ही शाश्वत सुख-शांति का उपाय है।
‘उत्तमा स्वात्मचिंता स्यात्, मोहचिंता च मध्यमा।
अधमा कामचिंता स्यात्, परचिंताधमाधमा।।
अपनी आत्मा की चिन्ता करना उत्तम है, मोह की चिन्ता मध्यम है, काम भोगों की चिंता अधम है और पर की चिंता अधम से भी अधम है। प्रत्येक तत्त्वज्ञानी को इस श्लोक का चिन्तन हमेशा करते रहना चाहिए।