-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
आज से असंख्यातों वर्ष पूर्व की बात है, जब पुरुरवा नामका एक भील अपनी पत्नी कालिका के साथ शिकार के लिए जंगल में घूम रहा था। दूर से उसने एक मुनि को भ्रमण करते हुए देख हिरण समझकर उनके ऊपर बाण चलाने को तैयार हुआ तो उसकी स्त्री ने तुरन्त रोकते हुए कहा कि ‘ये वन के देवता घूम रहे हैं इन्हें मत मारो’।
यह सुनकर उस भील ने उन सागरसेन मुनिराज के पास जाकर नमस्कार किया और गुरु से धर्म का उपदेश सुनकर उसने शराब, मांसाहार आदि तामसी भोजन का त्याग कर दिया। जिसके फलस्वरूप उसने अगले जन्म में प्रथम स्वर्ग के देवपद को प्राप्त कर लिया।
भव्यात्माओं! देखो, कहां जंगली भील जो सदा हिंसाकार्य में ही लगा रहता था और मरकर नरक जाने वाला था किन्तु गुरु का सत्संग प्राप्त करने से िंहसा का त्यागकर देवता बन गया। वही भील कालान्तर में आगे चलकर तीर्थंकर महावीर बना अत: प्रत्येक प्राणी को जीवन में िंहसा का त्याग करके सन्तों का सानिध्य प्राप्त करना चाहिए ताकि एक दिन महापुरुष बनकर आत्मा को परमात्मा बनाया जा सके।
पुरुरवा भील का जीव देवपर्याय से निकलकर ‘अयोध्या’ नगरी में जन्मे इस कर्मयुग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के पुत्र सम्राट भरतचकवर्ती के पुत्र ‘मरीचिकुमार’ ऋषभदेव के पौत्र के रूप में जन्म लिया। उन्होंने अपने बाबा ऋषभदेव के साथ जाकर प्रयाग में ‘वटवृक्ष’ के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली, किन्तु भूख-प्यास का कष्ट सहन नहीं कर पाने के कारण उनके साथ दीक्षित हुए चार हजार राजा भी पथ से विचलित होकर जंगल में फल खाने लगे, झरने का पानी पीने लगे तो वनदेवता ने प्रगट होकर उनसे कहा –
‘आप लोग इस जैन मुनि के वेष में ऐसी अनर्गल क्रिया न करें, यह तीर्थंकर मुद्रा है अत: या तो आप पद छोड़ दें या फिर भगवान ऋषभदेव के समान ध्यानलीन हो जाएं।’ महामुनि ऋषभदेव ने चूंकि मुनियों को आहार की विधि बताए बिना ही छह माह के योग में ध्यानस्थ हो गए थे इसलिए मरीचिकुमार सहित वे सभी मुनिवेष छोड़कर तापसी आश्रम बनाकर मनमाने मिथ्या तप करने लगे जिसके फलस्वरूप मरीचि को अनेक भवों तक संसार में चतुर्गति के दुःख भोगने पड़े।
अनेकानेक जन्मों में कष्ट सहने के बाद वह मरीचिकुमार का जीव नरक से निकलकर जंगल का राजा शेर हो गया। एक बार वह शेर जंगल में एक हिरण को मार रहा था, तब आकाशमार्ग से जा रहे दो मुनियों ने उसे सम्बोधित किया।
अरे मृगराज ! आज से दश भव पश्चात् तू अिंहसा का अवतार भगवान बनने वाला है और आज तू यह घोर िंहसा कर रहा है?
गुरुवाणी सुनकर शेर की आंखों से अश्रुधार बह निकली, उसने मांसाहार त्याग करके गुरु से पांच अणुव्रत धारण कर लिए पुन: शांतभाव से मरकर वह स्वर्ग में देव बन गया।
बस! यहीं से प्रारम्भ होता है सिंह के जीव का उत्थान, जिसने एक दिन महावीर बनकर अिंहंसा का बिगुल बजाया।
कुण्डलपुर के राजा सर्वार्थ अपने पुत्र सिद्धार्थ का विवाह वैशाली के राजा चेटक की सबसे बड़ी पुत्री त्रिशला प्रियकारिणी के साथ सम्पन््ना करने के लिए कुण्डलपुर से सिद्धार्थ की बारात लेकर वैशाली पहुंचते हैं। वहां महाराजा चेटक और रानी सुभद्रा अपनी पुत्री त्रिशला का विवाह सिद्धार्थ के साथ करके परम प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
विवाह के पश्चात् बारात वापस वैशाली से कुण्डलपुर आई, जहां नंद्यावर्त महल में समस्त नगरवासियों ने उत्सव-महोत्सवपूर्वक खुशियां मनाते हुए राजवधू का स्वागत किया और नवदम्पत्ति सुखपूर्वक अपना गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करने लगे।
सिंह की पर्याय में मुनियों का सम्बोधन प्राप्त करने के बाद क्रम-क्रम से जीवन का उत्थान करते हुए शेर ने अगले जन्म में देवपर्याय पुन: कनकोज्वल राजा, देवपर्याय, हरिषेण राजा, देव, प्रियमित्र चकवर्ती, देव एवं नंद राजा की पर्याय में सुख भोगते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया था पुन: दशवें भव में ‘अच्युत’ नामक सोलहवें स्वर्ग में जन्म लेकर वह अच्युतेद्र अपनी इन्द्रसभा में समस्त देव-देवियों को सदैव धर्म की महिमा बताया करता था।
दिगम्बर जैन ग्रन्थों के अनुसार वह अच्युतेन्द्र स्वर्ग सुखों को भोगते हुए अन्य देवों के साथ अकृत्रिम चैत्यालयों में जाकर हमेशा जिनप्रतिमाओं का अभिषेक-पूजन आदि भी किया करता था।
वहां से इन्द्र की आयु पूर्ण कर वह मध्यलोक में आर्यखण्ड की कुण्डलपुर नगरी में माता त्रिशला के गर्भ में आ गया।
आज से २६०० वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त के ‘कुण्डलपुर’ नालन्दा के निकट नगर के नंद्यावर्त महल में राजा सिद्धार्थ की महारानी ‘त्रिशला’ सुख की नींद सो रही थी। आषाढ़शुक्ला षष्ठी के दिन पिछली रात्रि में उन्होंने सोलह स्वप््ना देखे। पुन: रानी त्रिशला ने उन स्वप््नाों का फल अपने पति राजा सिद्धार्थ से सुना कि तुम्हारे पवित्र गर्भ में तीर्थंकर महापुरुष का पदार्पण हो चुका है तब वह असीम प्रसन््ना हुईं।
यह बात जानकर स्वर्ग से सौधर्म इन्द्र ने धनकुबेर को कुण्डलपुर भेजा जहां उसने रानी त्रिशला के आंगन में १५ माह तक प्रतिदिन गर्भ में आने के छह माह पूर्व से लेकर जन्म लेने तक रत्नवृष्टि कर सारी धरती को रत््नामयी बना दिया।
कुण्डलपुर में भरतक्षेत्र के अंतिम तीर्थंकर का जन्म होते ही स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पित हो उठा। उन्होंने अपने अवधिज्ञान से ‘तीर्थंकर का जन्म हुआ है’ यह जानकर सर्वप्रथम वहीं से प्रभु को परोक्ष नमस्कार किया पुन: शचि इन्द्राणी, ईशान आदि इन्द्रगण तथा समस्त देवपरिवार सहित ऐरावतहाथी पर सवार होकर वे मध्यलोक की कुण्डलपुर नगरी में पहुंच गए।
जैनशास्त्रों में वर्णन आता है कि सौधर्म इन्द्र ने जन्मजात तीर्थंकर बालक को सुमेरुपर्वत की पांडुकशिला पर ले जाकर १००८ कलशों में क्षीरसागर का जल भरकर उनसे भगवान का जन्माभिषेक किया था।
जन्माभिषेक के पश्चात् प्रभु को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित करके इन्द्र ने वहीं पर उनका ‘वीर’ और ‘वर्धमान’ यह नामकरण किया पुन: एक बार संजय-विजय नामक दो चारणऋद्धिधारी मुनियों को किसी विषय में संदेह उत्पन््ना हो गया और तीर्थंकर वर्धमान को पालने में झूलते देखने मात्र से उनकी शंका का निवारण हो गया, इसलिए उन्होंने बड़ी भक्ति से उनका ‘सन्मति’ नाम रख दिया।
तर्ज – जरा सामने तो …………
जहां जन्मे वीर वर्धमान जी, जहां खेले कभी भगवान जी।
उस कुण्डलपुरी को पहचान लो, जय हो सिद्धार्थ त्रिशला के लाल की।।
कुण्डलपुर में राजा सर्वारथ के सुत सिद्धार्थ हुए।
जो वैशाली के नृप चेटक की पुत्री के नाथ हुए।।
रानी त्रिशला की खुशियां अपार थीं, सुन्दरता की वे सरताज थीं।
उस कुण्डलपुरी को पहचान लो, जय हो सिद्धार्थ त्रिशला के लाल की।।१।।
राजहंस से मानसरोवर जेंसे शोभा पाता है।
वैसे ही प्रभुजन्म से, जन्मनगर पावन बन जाता है।।
जय जय होती है प्रभु पितु मात की, इन्द्र गाता है महिमा महान जी।
उस कुण्डलपुरी को पहचान लो, जय हो सिद्धार्थ त्रिशला के लाल की।।२।।
प्रान्त बिहार में नालन्दा के, निकट वही कुण्डलपुर है।
छब्बिस सौंवे जन्मोत्सव में, गूंजा ज्ञानमतीस्वर है।।
तभी आई घड़ी उत्थान की, हुई दर्शन से ‘चन्दना’ निहाल भी।।
उस कुण्डलपुरी को पहचान लो, जय हो सिद्धार्थ त्रिशला के लाल की।।३।।
सुमेरुपर्वत पर जन्माभिषेक करके वापस ऐरावत हाथी से ही सौधर्मइन्द्र ने जिनबालक को कुण्डलुपर में लाकर माता त्रिशला को सौंप दिया ओंर वहां भी बड़ा भारी जन्मोत्सव मनाते हुए बालक के अंगूठे में अमृत लगा दिया, जिसे चूसते हुए वे लोकोत्ततर प्रतिभा को प्राप्त होने लगे।
स्वर्णवर्णी काया वाले अपने तीर्थंकरशिशु को गोद में खिलाकर माता त्रिशला वास्तव में अपने मातृत्व को धन्य मानती थी। उन अद्वितीय जिनबालक की जननी का एक नाम प्रियकारिणी भी था जिनके विषय में श्रीगुणभद्रस्वामी ने उत्तरपुराण में कहा है-
मानुषाणां सुराणां च, तिरश्चां च चकार सा।
तत्प्रसूत्या पृथु-प्रीतिं, तत्सत्यं प्रियकारिणी ।।
अर्थात् महारानी प्रियकारिणी ने उन प्रभु को जन्म देकर मनुष्यों, देवों तथा पशुओं के हृदय में महान प्रेमभाव उत्पन्न कर दिया था इसलिए उसका ‘प्रियकारिणी’ नाम वास्तविक था।
तीर्थंकर बालक वर्धमान दिव्य अमृत का पान करते हुए दूज के चांद के समान वृद्धि को प्राप्त होने लगे, तब देवता उनके लिए स्वर्ग से दिव्यभोजन सामग्री लेकर आते और अपने प्रभु को आदरपूर्वक भोजन कराते थे।
दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थ ‘त्रिलोकसार’ में वर्णन आता है कि सौधर्म एवं ईशान स्वर्ग में कुछ विशेष मानस्तम्भ बने हुए हैं, जिनमें रत््नाों के पिटारों में तीर्थंकरों के लिए भोजन सामग्री तथा वस्त्राभूषण उत्पन््ना होते रहते हैं। इन्द्र की आज्ञा से देवगण वहीं से तीर्थंकर बालक के लिए दीक्षा से पूर्व तक सभी सामग्री लाते हैं। इसीलिए तीर्थंकर महापुरुषों की महानता के लिए आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने कहा है –
मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवानू, देवतास्वपि च देवता यत:।
तेन नाथ परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृषप्रसीद न:।।
अर्थात् हे प्रभो! आप मनुष्य के रूप में होकर भी मानवीय चेष्टाओं से परे महान हैं इसलिए आप देवताओं के भी देवता हैं ओर इसीलिए आपको परमदेवता कहा गया है अत: हे जिनश्रेष्ठ! आप मुझ पर प्रसन््ना होवें।
एक बार स्वर्ग में तीर्थंकर वर्धमान के गुणों की चर्चा इन्द्र की सभा में सुनकर एक ‘संगम’ नाम का देव उनकी वीरता की परीक्षा करने आया। भगवान अनेक राजकुमारों के साथ एक वृक्ष पर चढ़े हुए तरह-तरह की क्रीडा कर रहे थे। वह देव बड़े विकराल सर्प का रूप बनाकर वृक्ष की जड़ से लेकर उपर स्कन्ध तक लिपट गया।
इस भयानक दृश्य को देखकर सभी बालक तो डर से कांपते हुए डालियों से कूदकर भागने लगे किन्तु कुमार वर्धमान निर्भय हो उस सर्प पर चढ़कर इस प्रकार क्रीडा करने लगे जैसे माता के पलंग पर खेल रहे हों। कुमार की क्रीड़ा से हर्षित हो सर्प ने अपना असली देव का रूप प्रगटकर भगवान की स्तुति कर उनका ‘महावीर’ यह सार्थक नाम रखा।
प्यारे बच्चों! आप भी अप्ाने हृदय में ऐसी वीरता की शक्ति प्राप्त करने हेतु सदैव भगवान महावीर की आराधना करें और निम्न पंक्तियों को याद कर लें –
तर्ज – आओ बच्चों तुम्हें……
आओ बच्चों तुम्हें बताएं, परिचय प्रभु महावीर का।
हर बच्चे में छिपा हुआ है, तेज प्रभू महावीर सा।।
जय जय वीर प्रभो, बोलो जय महावीर प्रभो।टेक.।।
कुण्डलपुर में पितु सिद्धारथ, मां त्रिशला से जन्म लिया। अपने शौर्य पराक्रम से, महावीर नाम को धन्य किया।।
वीर बहादुर बनना हो तो नाम जपो महावीर का। हर बच्चे में छिपा हुआ है, तेज प्रभू महावीर सा।।
जय जय वीर प्रभो, बोलो जय महावीर प्रभो।।१।।
प्यारे बच्चों! तुम्हें देश में, महावीर युग लाना है। कभी न अण्डा, केक, पेस्टी, चॉकलेट नहिं खाना है।।
दीप जलाओ जन्मदिनों पर, भोजन खाओ खीर का। हर बच्चे में छिपा हुआ है, तेज प्रभू महावीर सा।।
जय जय वीर प्रभो, बोलो जय महावीर प्रभो।। २।।
गणिनी माता ज्ञानमती का, सम्बोधन तुम सब सुन लो। शाकाहारी बनो बनाओ, तुम बच्चों! हर बालक को।।
बच्चा बच्चा करे ‘चन्दना’, नमन सदा महावीर का। हर बच्चे में छिपा हुआ है, तेज प्रभू महावीर सा।।
जय जय वीर प्रभो, बोलो जय महावीर प्रभो।। ३।।
महाराजा सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के एकमात्र पुत्र तीर्थंकर महावीर कुण्डलपुर के युवराज थे। वे केवल अपने माता-पिता की आंखों के सितारे ही नहीं थे केवल बिहारप्रान्त ही उनसे धन्य नहीं हुआ था और वे केवल भारतदेश के ही सूर्य नहीं थे बल्कि सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु महावीर का जन्म भारत की पवित्र धरा पर हुआ था।
महावीर अब दूज चन्द्र के सदृश निरन्तर वृद्धि करते-करते एक दिन युवावस्था को प्राप्त हो गए और अपनी सुन्दरता से देवताओं के सौन्दर्य को भी परास्त करने लगे। कुण्डलपुर का राजमहल एवं वहां का कण-कण अपने युवराज को पाकर धन्य था।
देवताओं के द्वारा लाए गए वस्त्राभूषण को धारण कर वे मनुष्यलोक के परमदेवता का रूप दर्शात थे। नवयुवकों के सरताज तीर्थंकर महावीर हम सबके लिए सर्वोच्च आदर्श हैं। उन तीर्थंकर युवराज महावीर के प्रति एक लघु अंग्रेजी भजन आप अपने बच्चों को भी अवश्य याद करावें-
Tuning – Khabhi Ram Banke…………
Prince of Kundalpur, King of Universe, Mahavira, O Lord Mahavira.
When you came in Garbh of Trishla,
Sixteen dreams seen by Trishla.
Felt very happiness; Siddharth Emperor,
Mahavira, O Lord Mahavira. 1.
When you had born in the Palace,
Indra and Deva came from heaven.
On the Meru Mountain; Celebrated Abhishek,
Mahavira, O Lord Mahavira. 2.
In young age you took Deeksha,
Gained Kevalgyan after twelve years.
Then Samavasaran formed, came all persons,
Mahavira, O Lord Mahavira. 3.
When Vira attained Libreation,
Indra, humen came Pawapuri then.
Celebrated Diwali, from then begin Diwali,
Mahavira, O Lord Mahavira. 4.
Your Shasan is going today also,
We worship to you “Chandna” so.
Give me blessing Prabhuvar, give me knowledge Jinver,
Mahavira, O Lord Mahavira. 5.
महावीर ज्यों-ज्यों युवावस्था की ओर अग्रसर हो रहे थे त्यों-त्यों उनके माता-पिता का प्रेम भविष्य की आकांक्षा में परिवर्तित होने लगा अर्थात् वे महावीर के विवाह की योजना बनाने लगे।
माता त्रिशला एक सुन्दर पुत्रवधू की कल्पना करने लगीं, बहू के पायल की रुनझुन सुनने को उनके कान व्याकुल होने लगे, पौत्र के मुख का अवलोकन उनमें सुखसागर के हिलोरें भरने लगा। पिता सिद्धार्थ अपने राजसिंहासन के परमयोग्य उत्तराधिकारी पर गौरवान्वित थे तथा सम्पूर्ण कुण्डलपुर अपने राजकुमार के विवाहक्षणों का इन्तजार कर रहा था।
किन्तु यह क्या ? ………..महावीर के तो एक शब्द ने ही सारे रंग में भंग कर दिया –
‘मुझे अपने पूर्वभव का जातिस्मरण हो गया है अत: मैं विवाह नहीं करूंगा और जैनेश्वरी दीक्षा धारणकर सिद्धिकन्या का वरण करूंगा।’
उनका यह निर्णय अटल रहा अत: माता-पिता के प्रबल मोह पर उन्हें विजय प्राप्त हुई। उनके वैराग्य की चर्चा ज्ञात होते ही ब्रह्मस्वर्ग के लौकान्तिकदेवों ने आकर महावीर के अखण्डब्रह्मचर्यमयी वैराग्य की बहुत प्रशंसा एवं अनुमोदना की।
महावीर अपने माता-पिता से विदा लेकर ज्यों ही वन जाने को तैयार हुए तुरन्त देवगण स्वर्ग से ‘चन्द्रप्रभा’ नाम की पालकी लेकर आ गए। ज्यों ही भगवान उसमें बेंठे, देवता उसे लेकर चलने लगे किन्तु राजसभा में उपस्थित सभी मनुष्यों ने देवताओं को रोक दिया और कहने लगे-‘भगवान की पालकी पहले हम लोग उठाएंगे, उनका जन्म चूंकि हमारे मनुष्यलोक में हुआ है अत: मनुष्यों को ही उनकी पालकी उठाने का प्रथम अधिकार होना चाहिए।’
तब देवता बोले – ‘ऐसा कैसे हो सकता है ? भगवान तो जब गर्भ में भी नहीं आए थे उसके छह महिने पूर्व से ही हमने कुण्डलपुर में आकर रत्नवृष्टि शुरू करके लगातार पन्द्रह महिने तक रत्न बरसाते हुए गर्भ, जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया। उसके बाद से सुमेरुपर्वत पर जन्माभिषेक, पुन: स्वर्ग से वस्त्राभूषण, भोजन आदि की व्यवस्था भी हम देवतागण ही संभाल रहे हैं और आज भी हम लोग स्वर्ग से ही यह ‘चन्द्रप्रभा’ पालकी लेकर आए हैं इसलिए भगवान को वन में ले जाने का प्रथम सौभाग्य भी हम ही प्राप्त करेंगे।
मनुष्य और देवताओं के इस विवाद को सुलझाया महाराजा सिद्धार्थ ने, उन्होंने कहा–‘पुण्यशाली देवताओं! आज भगवान जिस संयम पथ को स्वीकार करने जा रहे हैं उस पथ को आप लोग चूंकि अपनी देवपर्याय से ग्रहण नहीं कर सकते हैं इसका अधिकार स्वभावत: मनुष्यों को ही प्राप्त हुआ है इसलिए भगवान की इस दीक्षा पालकी को सर्वप्रथम मनुष्यों को उठाने दें।’
राजा सिद्धार्थ के इस उत्तर से देवता निरुत्तर हो गए, तब जय – जयकार करते हुए उस पालकी को सर्वप्रथम भूमिगोचरी राजाओं ने, फिर विद्याधर राजाओं ने और उसके बाद इन्द्र एवं देवताओं ने उठाकर ‘बण्ड’’ नामक वन में रख दिया।
षण्ड वन ज्ञातृवन भी नाम आता है में पहुंचकर भगवान रत््नामयी शिला के उपर शचि इन्द्राणी के द्वारा बनाए गए चौक पर उत्तरदिशा की ओर मुंह करके विराजमान हो गए।
मगसिर कृष्णा दशमी की वह पवित्र तिथि थी, जब भगवान ने बेला का नियम दो दिन का उपवास लेकर अपने सभी वस्त्र, आभरण, माला आदि उतारकर फेंक दिए और शरीर से पूर्ण निर्मम होकर अपने केशों का लुंचन कर डाला। इन्द्र ने उनके सभी केश मणिमयी पिटारे में रखकर उनकी पूजा की एवं उन्हें उत्सवपूर्वक क्षीरसागर में विसर्जित कर दिया।
भगवान जब निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि हो गए और तत्काल उन्हें मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो गया। मति, श्रुत, अवधि ये तीन ज्ञान तो तीर्थंकरों को जन्म से ही रहते हैं और दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो जाता है।
दो उपवास के बाद पारणा के लिए महामुनि महावीर ‘कूल’ ग्राम में पहुंचे, वहां के राजा ‘कूल’ वकुल और नृपकुमार नाम भी आता है ने भक्ति से पड़गाहन कर नवधाभक्ति से भगवान को प्रथम पारणा में खीर का आहार दिया फलस्वरूप उनके घर पर पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई।
एक बार वैशाली के राजा चेटक की सबसे छोटी पुत्री चन्दना महावीर की मौसी को वनक्रीड़ा में आसक्त देख किसी विद्याधर ने उसे हरण कर लिया और पत्नी के डर से उसने चन्दना को भयंकर जंगल में छोड़ दिया। वहां भीलों के सरदार ने उसे ले जाकर कौशाम्बी के सेठ वृषभदत्त को सौंप दिया।
सेठ की पत््नाी सुभद्रा को उसके प्रति यह संदेह होने लगा कि कहीं सेठ जी इसे मेरी सौत न बना दें इसलिए वह चन्दना के सिर के केश मुंडवाकर उसे सांकल में बांधकर रखती थी तथा खाने के लिए उसे मिट्टी के सकोरे में कांजी से मिश्रित कोदों का भात दिया करती थी।
किसी दिन उस कौशाम्बी नगरी में आहार के लिए मुनिराज भगवान महावीर स्वामी आ गए, उन्हें देखकर चन्दना उनके सामने जाने लगी, तब उसी समय उसकी सांकल के सब बन्धन स्वयमेव टूट गए, सिर पर सुन्दर घुंघराले केश आ गए और वह राजसी वस्त्रालंकारों से सुसज्जित हो गई।
शील के प्रभाव से मिट्टी का सकोरा सोने का कटोरा बन गया ओंर कोदों का भात सुगन्धित चावल बंन गया। तब उस चन्दना ने भगवान महावीर का पड़गाहन कर उन्हें नवधाभक्तिपूर्वक आहार दिया। यहां पंचाश्चर्यों की वृष्टि हुई और सारे नगरवासियों ने सेठानी सुभद्रा की निंद्या करते हुए महासती चन्दना की खूब प्रशंसा की। वहीं पर अपने कुटुम्बीजनों के साथ चन्दना का मिलन हो गया। आगे चलकर यही चन्दना भगवान महावीर के समवसरण में आर्यिका दीक्षा ग्रहणकर प्रमुख गणिनी पद पर सुशोभित हुई हैं।
तीर्थंकर महामुनि महावीर विहार करते-करते एक बार उज्जयिनी नगरी पहुंचे। वहां ‘अतिमुक्तक’ नामक वन में स्थित श्मशान भूमि में वे ध्यानमग्न होकर खड़े हो गए। उस समय ‘भव’ नामक एक रुद्र ने उनके धैर्य की परीक्षा करने के लिए रात्रि में बड़े-बड़े बेतालों का रूप बनाकर उनके उपर भीषण उपसर्ग किया। उसने सर्प, हाथी, सिंह, अग््िना और वायु के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया।
पाप कमाने में अतीव निपुण वह रुद्र अपनी विद्या के प्रभाव से भयंकर उपसर्गों को करते हुए भी प्रभु को ध्यान से विचलित नहीं कर सका। अन्त में उसने उनका ‘महतिमहावीर’ नाम रखकर प्रभु की अनेक प्रकार से स्तुति की, अपनी भार्या के साथ भक्ति नृत्य किया और सब मत्सर भाव छोड़कर वहां से चला गया।
विशेष – दिगम्बर जैन ग्रन्थों के अनुसार यह विशेष ज्ञातव्य विषय है कि महावीर के उपर जीवन में मात्र एक बार ही उपसर्ग हुआ है। चन्डकीशिक सर्प द्वारा ढसना, कीलों का ठोका जाना या मार्ग में किसी प्रकार के उपसर्ग का कोई वर्णन हमारे शास्त्रों में नहीं है अत: दिगम्बर जैन मन्दिरों में उन चित्रों का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
मध्यप्रदेश की उसी उज्जयिनी नगरी के जयसिंहपुरा क्षेत्र में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से ‘तीर्थंकर महावीर तपोभूमि’ का निर्माण चल रहा है जो शीघ्र ही उक्त प्राचीन इतिहास को दर्शाने वाला एक ‘ऐतिहासिक तीर्थ’ बनकर समाज के समक्ष प्रस्तुत होने वाला है।
बारह वर्ष पांच महिने पन्द्रह दिन की कठोर तपस्या के बाद वैशाख शुक्ला दशमी के दिन ‘जृंभिक’ ग्राम के समीप ‘ऋजुकूला’ नदी के किनारे ‘मनोहर’ वन में शाल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवताओं ने तुरन्त धरती से बीस हजार हाथ की उंचाई पर आकाश में समवसरण की रचना कर दी किन्तु गणधर के अभाव में ६६ दिन तक महावीर की दिव्यध्वनि नहीं खिरी।
पुन: राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर जब समवसरण पहुंचा तो सौधर्म इन्द्र की सूझबूझ के फलस्वरूप ब्राह्मण ग्राम निवासी इन्द्रभूति गौतम ने अपने पांच सौ शिष्यों के साथ समवसरण में आकर महावीर की शिष्यता स्वीकार कर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उनके दीक्षा लेते ही श्रावण कृष्णा एकम को भगवान महावीर की प्रथम देशना प्रगट हुई और इन्द्रभूति गौतम उनके प्रमुख गणधर चार ज्ञानधारी गणधर कहलाए।
इसी प्रकार राजगृही नगरी के सम्राट राजा श्रेणिक महावीर के मौसाजी ने उस समवसरण के प्रमुख श्रोता बनकर भगवान से ६० हजार प्रश््ना किए थे। कहते हैं कि उन्हीं प्रश्नों के उत्तर से प्राप्त ज्ञान के आधार पर ही हमारा समस्त उपलब्ध दिगम्बर जैन साहित्य रचा गया है।
एक दिन राजा श्रेणिक अपने परिवार के साथ हाथी पर बैठकर समवसरण में जा रहे थे तो रास्ते में कमलपंखुड़ी मुंह में दबाकर भक्ति हेतु जाता हुआ एक मेंढक हाथी के पैर से दबकर मर गया और महावीर की भक्ति के प्रभाव से वह देव बनकर तुरन्त समवसरण में पहुंचकर नृत्य करने लगा। भक्ति की इस महिमा को जानकर राजा श्रेणिक एवं सभी प्राणी बड़े प्रसन्न हुए और मेंढक की भक्ति का यह कथानक सदा के लिए अमर हो गया।
आयु के अन्तिम क्षणों में भगवान महावीर बिहार प्रान्त के ‘पावापुर’ नगर में पहुंचे। वहां के ‘मनोहर’ नामक वन के भीतर एक बड़े सरोवर के बीच में मणिमयी शिला पर विराजमान हो गए।
दो दिन के योगनिरोध एकाग्रध्यान में लीनता के पश्चात् कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को रात्रि के अंतिम समय स्वाति नक्षत्र में सम्पूर्ण अष्टकर्मों का नाश करके निर्वाणपद प्राप्त किया और उनकी अमूर्तिक आत्मा सिद्धिशला पर जाकर सदा-सदा के लिए विराजमान हो गई। अब वे वापस कभी भी अनन्त काल तक संसार में नहीं ओंगे।
भगवान के मोक्षगमन के पश्चात् स्वर्ग से इन्द्र एवं देवता आए और अग्निकुमार देवों ने अपने मुकुटानल की अग््िना प्रज्जलित कर भगवान के शरीर का अंतिम संस्कार किया। उस समय सुर-असुरों द्वारा जलाई हुई बहुत भारी दैदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावापुरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा। तब से लेकर आज तक इस भारतवर्ष में कार्तिक कृष्णा अमावस को ‘दीपावली’ पर्व के रूप में मनाया जाता है।
भव्यात्माओं! जैनसमाज के हजारों पुण्यात्मा नर-नारी दीपावली के दिन पावापुरी में जाकर निर्वाणलाडू चढ़ाते हैं तथा सम्पूर्ण जैनसमाज अनेक तीर्थों अथवा शहर-नगर के मंदिरों में निर्वाणमहोत्सव मनाते हुए लाडू चढ़ाते हैं और असंख्य दीप जलाकर दीवाली खुशियां मनाते हैं। मैंने इन खुशी के क्षणों को एक छोटे से अंग्रेजी के भजन में संजोया है जिसकी कुछ पंक्तियां यहां प्रस्तुत हैं –
I will go to Pavapur, there is Temple Jalmandir,
After offering Ladu I will celebrate Diwali,
Be Happy Diwali, Be Happy Diwali……..
Tirthankar Mahavir attained, Liberation from there,
Saudharm Indra and Devas, came there from heaven……….
came……
Men Women were praying, all beings were praying.
Give me Knowledge Vira, Give me Knowledge Vira……
I will go to Pavapur…(1)