भारतीय कला जगत में भित्ति चित्रण और लघु चित्रण की भूमिका
भारतवर्ष में ऐतिहासिक काल के उपलब्ध सबसे प्राचीन चित्र भित्ति—चित्रों के रूप में प्राप्त होते हैं। इस काल के प्राचीनतम चित्र जोगीमारा के गुहा मन्दिर में प्राप्त होते हैं। ये भित्ति चित्र सम्पूर्ण भारत में यत्र—तत्र बिखरे हुये हैं। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के प्रारंभ के साथ ही चित्रकला के स्वर्णयुग का सूत्रपात हो जाता है और छठी शताब्दी तक अपने चरम सीमा तक पहुँचता है। जोगीमारा की कृतियों में यह स्वयं सिद्ध है। इस युग की कला कालसिद्ध कला है जो भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति एवं कला की अनुपम विरासत है। इस काल में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार प्राय: सम्पूर्ण भारतवर्ष में हो चुका था। धर्म के प्रचार प्रसार के लिये चित्रकला का जितना सहारा बौद्ध धर्मावलम्बियों ने लिया उतना उस युग में संभवत: और किसी ने नही लिया। जैन धर्मावलम्बियों ने भी कला के महत्व को स्वीकार किया किन्तु इनका ध्यान विशेष रूप से साहित्य रचना की ओर रहा। इन्हीं ग्रंथों के मध्य में अच्छे चित्रों का अंकन कर उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावशाली बनाया। पर इस प्रकार की न जाने कितनी पोथियाँ और चित्रपट कब और कहाँ काल के गाल में समा गये इसका आंकलन उपलब्ध नहीं, लेकिन उनकी यह उत्कृष्ट परम्परा बनी रही। भारतववर्ष में शास्त्रीय युग की चित्रकला की विरासत भित्ति चित्रों के रूप में सुरक्षित है। इस प्रकार के भित्ति चित्र जोगीमारा, अजन्ता, बाघ, बदामी, सित्तन्नवासल, एलोरा, एलीफैन्टा, उदयगिरि, पीपलखोरा आदि गुफाओं में उपलब्ध है।
भित्तिचित्र
शिलाखण्डों को काटकर चैत्य, विहार तथा मन्दिर आदि बनाने की परम्परा अति प्राचीन है और उन गुहा मन्दिरों पर पलस्तर लगाकर तथा चूने आदि से चिकनाकर उन पर चित्र बनाये जाते थे। इसी परम्परा के अनुरूप जोगीमारा गुहा में भी चित्रांकन हुआ है जो भारतीय भित्ति चित्रों के सबसे प्राचीन नमूने हैं। भित्ति चित्रों के अधिकांश भाग मिट गये हैं और सदियों की नमी एवं गर्मी ने उन्हें प्रभावित किया है। विद्वानों ने यहाँ की चित्रकारी को ईसापूर्व तीसरी चौथी शती का माना है। अजन्ता गुहा मन्दिर समूह के चार चैत्यों में से दो हीनयान और दो महायान सम्प्रदाय के हैं। इन दोनों के निर्माण काल में काफी अन्तर है। गुहा नं. ९ और १० का निर्माण काल प्राय: ईसापूर्व दूसरी और पहली सदी का सम्मिलन काल है, जबकि गुहा नं. १९ और २६ का निर्माणकाल ईस्वी सन् की पांचवी छठवीं सदी का सम्मिलन काल है। इन चारों गुहाओं को छोड़कर शेष गुहायें विहारगृह हैं। विहार भिक्षुओं का आवासगृह था। इन विहारों का निर्माण चैत्यों के अगल बगल ही विशेष रूप से हुआ है, यद्यपि शिल्प में समयानुसार बहुत अन्तर है। हीनयान काल में स्थापत्य एवं कला सादगी पूर्ण थी, जबकि महायान काल में आकर इसमें अलंकरणात्मक प्रवृत्ति बढ़ जाती है। विशाल और आकर्षक मुख भागों की रचना, नक्काशीदार खम्भे, मूर्तिर्यों से सुशोभित दीवार की खुदाई और सुन्दर चित्रकारी महायान काल के गुहा मन्दिरों की विशेषता है। गुहा मन्दिरों की दीवारों को सीधा और समतल करने के बाद उनमें छेनी से छोटे—छोटे छेद कर दिये जाते थे और सतह को खुरदुरा किया जाता था बाद में इसमें विशेष प्रकार का पलस्तर लगाकर चूने का लेप चढ़ाया जाता था। आधार तैयार होने के बाद हल्के गेरू रंग से तूलिका द्वारा रेखांकन किया जाता था। तत्पश्चात् खनिज रंगों (प्रमुखतया पीला, लाल, नीला, सफेद, काला और हरा) का प्रयोग किया जाता था। अजन्ता के भित्ति चित्रों की प्रमुख विषयवस्तु गौतमबुद्ध के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं तथा जातक कथाओं पर आधारित है।
बाघ के चित्र अजन्ता शैली की प्रधान
परम्परा से सम्बद्ध हैं। चित्रों की रचना शैली अजन्ता से बहुत कुछ मिलती—जुलती है। शैली और रचना पद्धति की दृष्टि से बाघ के चित्र उत्कृष्ट हैं और भावधारा में महान है। बादामी शिलागृही मन्दिर वास्तु, शिल्पकला एवं चित्रकला को बेजोड़ संगम स्थली हैं जो चालुक्य वंशीय राजाओं को अनन्य कला रूचि पर प्रकाश डालते हैं। सित्तन्नवासल की कलाकृतियों का निर्माण पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन तथा उनके उत्तराधिकारी पुत्र नरिंसह वर्मन द्वारा हुआ। यहाँ पल्लव कला की श्रेष्ठ कृतियाँ पायी जाती हैं, जिनमें अजन्ता की परिपक्व शैली के दर्शन होते हैं। एलोरा में कुल ३३ शैलगृही मन्दिर हैं। इनमें से प्रारम्भिक १२ गुहा मन्दिर बौद्ध, उसके बाद १६ गुहा मन्दिर ब्राह्मण और अन्त के पांच गुहा मन्दिर जैन धर्मावलम्बियों के हैं। बौद्ध गुहाओं का निर्माण ५५० ईस्वी से ७५० ईसवी तक, ब्राह्मण गुहाओं का निर्माण ६५० ईसवी से ७५० ईसवी तक और जैन गुहाओं का निर्माण ७५० से १० वीं शताब्दी का माना जाता है। ये गुहा मन्दिर भारत की प्राचीनतम धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक सहिष्णुता और सह अस्तित्व के द्योतक हैं।
लघुचित्रण
जैन धर्म की अनेक सचित्र पोथियाँ ११०० ईसवी से १५०० ईसवी के मध्य विशेष रूप से लिखी गई हैं। इस प्रकार की चित्रित पोथियों से भविष्य की कला शैली की एक आधार शिला तैयार होने लगी थी। इस कारण इस कलाधारा का ऐतिहासिक महत्त्व है। इस शैली के नाम के सम्बन्ध में अनेक विवाद हैं। इस शैली को जैन शैली, गुजरात शैली, पश्चिमी भारत शैली तथा अपभ्रंश शैली के नामों से पुकारा गया है। इस कालखण्ड में पश्चिमी भारत में जिन सचित्र ग्रंथों को तैयार किया गया उनका विषय यद्यपि जैनेतर भी था, परन्तु मुख्य विषय जैनधर्म था। इसलिये पर्सीब्राउन तथा अन्य लेखकों ने इसे जैनशैली के नाम से सम्बोधित किया है। इन चित्रों को यह नाम इसलिये भी प्रदान किया गया कि, यह विश्वास किया जाता रहा है कि ये चित्र जैन साधुओं के द्वारा बनाये गये हैं। इस शैली के तीनों रूपों में चित्र उपलब्ध है।
१. ताड़पत्रों पर बने पोथीचित्र।
२. कपड़े पर बने पटचित्र (चित्रित पट)।
३. कागज पर बने पोथीचित्र या फुटकर चित्र।
इस शैली के चित्र जैनेतर ग्रंथों यथा बसन्तविलास, बालगोपाल स्तुति, गीतगोविन्द, दुर्गासप्तशती, रहिरहस्य आदि तथा जैन ग्रंथों में कल्पसूत्र, निशीथचूर्णी, अंगसूत्र, दशवैकालिकलघुवृत्ति, त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित, उत्तराध्ययनसूत्र, संग्रहणीयसूत्र, श्रावकप्रतिक्रमणचुर्णी, नेमिनाथचरित आदि हैं। ये सभी ग्रंथ श्वेताम्बर जैनधर्म से सम्बन्धित हैं। दिगम्बर परम्परा के अन्तर्गत मूड़बिद्री में षट्खण्डागम की ताड़पत्रीय प्रतियाँ ग्रंथ व चित्र दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। उपासकाचार, महापुराण, यशोधर चरित्र, सुगन्धदशमीकथा, भक्तामरस्तोत्र, त्रिलोकसार आदि सचित्र ग्रंथ हैं। वस्तुत: दिगम्बर जैन शास्त्र भण्डारों की इस दृष्टि से अभी तक शोध—खोज होनी शेष है। जैनशैली के चित्रकारों ने भारतीय चित्रकला में कुछ नयी विधाओं का समावेश किया। अपनी इन विशेषताओं के कारण जैन चित्र अपना अलग महत्व और अलग इतिहास रखते हैं।
उनकी इन विशेषताओं का परिचय इस प्रकार है—
१. पहली विशेषता चक्षु चित्रण में है। इनमें नेत्र उठे हुये और बाहर की ओर उभरे हुये हैं। उनकी लम्बाई कानों को छूती है। भवों और नेत्रों का फैलाव समान है।
२. इन चित्रों की पृष्ठभूमि में बहुधा लालरंग का प्रयोग किया गया है।ताड़पत्रों पर अंकित चित्रों में प्राय: पीले रंग का प्रयोग किया गया है। स्वर्णरंग को भी उपयोग में लाया गया है।
३. रेखाओं की दृष्टि से जैनचित्र बड़े सम्पन्न हैं। ताड़पत्र के चित्रों पर जैन कलाकारों ने जो सूक्ष्म रेखायें अंकित की हैं वे अत्यन्त सुन्दर और सधी हुई हैं।
४. सोने और चाँदी की स्याही से बहुमूल्य चित्रों का निर्माण भी जैन शैली की विशेषता है। इन चित्रों में प्राकृतिक दृश्यों को हांसिये पर अत्यन्त सुन्दरता के साथ अंकित किया गया है। बेलबूटों का अंकन तो अद्वितीय है। जैनग्रंथ चित्रों के बीच—बीच में छत्र, कमल और स्वास्तिक आदि का चित्रण उनकी शोभा—सज्जा में चार—चाँद लगा देते हैं।
५. नारी रूपों का अंकन एक निश्चित सीमा तक हुआ है। नारी चित्रण की दृष्टि से तीर्थंकरों की शासनदेवियाँ प्रमुख रूप से चित्रित हुई हैं।
६. वस्त्राभूषणों की दृष्टि से जैनचित्रों में धोतियों की सज्जा और वस्त्रों पर स्वर्ण कलम से उभारे गये बेलबूटे, दुपट्टे और मुकुट दर्शनीय है। स्त्रियों के शरीर पर चोली, चूनर, रंगीन धोती और कटिपट दर्शाये गये हैं। इनके भाल पर टिकुली, कानों में कुन्डल और बाहों में बाजूबन्द हैं। पुरुषों और स्त्रियों दोनों को रत्नमालाओं से अलंकृत किया गया है।अहिसा प्रधान जैन धर्म में जीव दया और लोकोपकार की जो महती भावना सर्वत्र व्याप्त है, जैन कलाकारों ने उससे प्रेरणा प्राप्त कर ऐसी कलाकृतियों का निर्माण किया जिनमें अपार शान्ति और अर्पािथक विश्रान्ति का भाव ध्वनित होता है। इन कृतियों को इतनी मान्यता प्राप्त होने का एक कारण यह भी है कि, इनमें महान मानवीय आदर्शो को प्रस्तुत करने का सराहनीय उद्योग हुआ है।