(श्री पूज्यपाद आचार्य विरचित)
(पद्यानुवादकर्त्री – गणिनी आर्यिका ज्ञानमती)
अरिहंत देव को प्रणमन कर, जल से स्नान कर शुद्ध हुआ ।
सन्मंत्रस्नान व्रतस्नान कर, जिन गंधोदक से शुद्ध हुआ ।।
आचमन अर्घ कर धुले धवल, धोती व दुपट्टे को पहने।
जिनमंदिर की त्रय प्रदक्षिणा कर, नमूँ शीश नत विधिवत् मैं ।।१।।
जिनगृह के द्वार खोल वेदी का वस्त्र हटा प्रभु दर्श करूँ ।
ईर्यापथ शुद्धि व सिद्ध भक्ति, विधि से कर सकलीकरण करूँ ।।
जिनयजन हेतु भूशुद्धि अर्चना द्रव्य पात्र अरु आत्म शुद्धि ।
करके भक्ती से जिन अभिषव, प्रारंभूँ मैं कर त्रिधा शुद्धि ।।२।।
(सौगंध्य संगत मधुव्रत झंकृतेन। संवर्ण्यमानमिव गंधमनिंद्यमादौ।।
आरोपयामि विबुधेश्वरवृंदवंद्य । पादारविंदमभिवंद्य जिनोत्तमानां ।।)
(यह पढ़कर अनामिका अंगुली से भगवान के चरणों में चंदन लगाकर उसी चंदन से अपने माथे में तिलक करें)
तिलक लगाने के मंत्र–
पूजन की थाली में स्वस्तिक बनाने की विधि-
निम्नलिखित श्लोक पढ़ते हुए स्वस्तिक के चारों दिशाओं में अंक लिखें-
रयणत्तयं च वंदे, चउवीसजिणं च सव्वदा वंदे ।
पंचगुरूणां वंदे, चारणचरणं सदा वंदे ।।
ॐ श्री जिनेन्द्र मुझ चित्त पवित्र कीजे ।
था स्नानपीठ तव मेरु गिरीन्द्र ऊंचा ।।
जन्माभिषेक करके सुर इन्द्र हर्षे ।
मैं भी करूँ हवन आज प्रभो तुम्हारा ।।३।।
ॐ तीर्थकृत न्हवन भूमि पवित्र हेतू ।
शुद्धी करूँ जल लिये बहु पुण्य संचूँ ।।
अग्नि प्रजाल पुनि नाग सुतर्पणं भी ।
श्री क्षेत्रपाल अर्चूं शुचि अर्घ देके ।।४।।
ॐ ह्रीं नम: सर्वज्ञाय सर्वलोकनाथाय धर्मतीर्थंकराय श्री शांतिनाथाय परमपवित्रेभ्य: शुद्धेभ्य: नमो भूमिशुद्धिं करोमि स्वाहा ।
(जल छिड़क कर भूमि शोधन करना)
(निम्न प्रकार से दर्भ स्थापना, अष्टविध अर्चा-भूमिपूजा करें।)
अरिहंत देव अर्चा विधि विघ्नहारी ।
इन्द्रादि दस दिशि सुदर्भ धरूँ रुची से ।।
यज्ञोपवीत बहु आभरणादि धारूँ ।
भू अर्च के जिन जजूँ अब इंद्र होके ।।५।।
ॐ ह्रीं भूमिदेवतायै नम: अर्घं……..।(निम्न मंत्रों को पढ़कर यज्ञोपवीत धारण करें) (आभूषण-मुकुट, हार, मुद्रिका आदि पहनें)
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय स्वाहा ।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय स्वाहा ।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय स्वाहा ।
ॐ ह्रीं इन्द्रोऽहं स्वाहा । (यह मंत्र बोलकर मैं इन्द्र हूँ ऐसा समझें)
ये चार स्वर्ण कलशे जल से भरे हैं ।
ये भव्य क्षेमकर चारहि कोण थापूँ ।।
श्री मेरु पे रुचिर पांडुक है शिला जो ।
श्रीपीठ तद्वत् सुथाप सुधोय पूजूँ ।।६।।
ये नीर चंदन सुअक्षत पुष्प लेके ।
नैवेद्य दीप वर धूप मधुर फलों से ।।
श्री पीठ अर्चन करूँ जिननाथ की ये ।
इंद्रादिवंद्य मुनिवंदित सौख्यकारी ।।७।।
श्रीकारवर्ण लिखके वसु अर्घ अर्पूं ।
जैनेन्द्रबिम्ब इस पे वर भक्ति थापूँ ।।
श्रीपाद पद्मयुग को प्रक्षाल करके ।
त्रैलोक्य ईश पद पंकज को नमूँ मैं ।।८।।
श्रीपादप्रक्षालनं करोमि स्वाहा । (जिनप्रतिमा के चरणों का प्रक्षालन करें)
दूर्वादि धौत सित तंदुल स्वस्तिकादी ।
सरसों समेत कर्पूर प्रजाल करके ।।
रक्षामणी त्रिजग के जिनराज की मैं ।
नीराजना विधि सुआरति मैं उतारूँ ।।९।।
पानीय गंध सित तंदुल पुष्पमाला।
मिष्ठान्न दीप वर धूप फलादि भरके ।।
अरिहंत देव चरणाब्जयुगं जजूँ मैं ।
इंद्रादिवंद्य जिनवंद निजात्म पाऊँ ।।१०।।
पूर्वादि दशदिक् क्रमात् दश दिक्कपाला ।
ये इंद्र अग्नि यम नैऋत वरुण नामा ।।
वायू कुबेर ईशान फणीन्द्र चंद्रा ।
ॐ भूर्भुव: स्व: स्वधा लो यज्ञभागा ।।११।।
ॐ ह्रीं क्रों प्रशस्तवर्णसर्वलक्षण-संपूर्णस्वायुधवाहनवधू-चिन्हसपरिवारा इन्द्राग्नियमनैर्ऋतवरुणवायुकुबेरेशानधरणेन्द्रसोमनाम-दशलोकपाला आगच्छत आगच्छत संवौषट् स्वस्थाने तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ: मम अत्र सन्निहिता भवत भवत वषट् इदं अर्घं पाद्यं गृह्णीध्वं गृह्णीध्वं ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा स्वधा। (इन्द्र आदि दस दिक्पाल देवों को अर्घ चढ़ावें)
ॐ धर्म चक्रपति के अभिषेक हेतू ।
संगीत गीत युत वाद्य सुघोष फैला।।
मैं पूर्ण कुंभ विधि से कर में उठाऊँ ।
उद्धार हेतु यह कुंभ जगत्रयी का ।।१२।।
ॐ ह्रीं स्वस्तये पूर्णकलशोद्धरणं करोमि स्वाहा । (जल से भरा पूर्ण कलश हाथ में उठावें)
जैनेन्द्र देव अभिषेक विधि करूँ मैं ।
कल्याण नीरभृत निर्झरणी यही है ।।
त्रैलोक्य भव्यजन को सुख शांति देती।
स्वामी करूँ न्हवन मैं जल से तुम्हारा।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं स: त्रैलोक्यस्वामिनो जलाभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । उदकचंदन………..अर्घं ।
जो चन्द्रकांतमणि के जल सम धवल है ।
पीयूषवत् अतुल स्वाद लिये अमल है ।।
इस नालिकेर रस से अभिषेक करके ।
चाहूँ प्रभो! मुझ वचन इसके सदृश हों ।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं स: त्रैलोक्यस्वामिनो नालिकेररसाभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । उदकचंदन………..अघ्र्यं।
तत्काल पेलकर पात्र भरा लिया है ।
माधुर्य पूर्णयुत ये रस इक्षु का है ।।
हे नाथ! आप अभिषेक करूँ रुचि से।
मेरे वचन त्रिजग कर्ण रसायनं हों ।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं स: त्रैलोक्यस्वामिनो इक्षुरसाभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । उदकचंदन……….अर्घं ।
अत्यंत पुष्टिकर ये घृत तृप्तिकारी।
संताप दूरकर अतिशय कांति देता।।
घी से जिनेन्द्र अभिषेक करूँ अभी मैं ।
दीर्घायु हो अतुल शक्ति बढ़े इसी से।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं स: त्रैलोक्यस्वामिनो घृताभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । उदकचंदन…………अर्घं ।
पूर्णा शशांक किरणों सम कांति धारे।
ये दूध उत्तम रसायन विश्व में है ।।
हे नाथ! क्षीरघट से अभिषेक करके ।
मैं कामधेनु सम वांछित प्राप्त कर लूँ।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं स: त्रैलोक्यस्वामिनो दुग्धाभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । उदकचंदन……….अर्घं।
जैनेन्द्र कीर्ति यह एकत्रित हुई क्या ?
क्षीरोदधी पय हुआ बस बर्फ सम ही।।
अति मंगलीक दधि से अभिषेक करके ।
त्रैलोक्य मंगलमयी निज सौख्य पाऊँ ।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं द्रां द्रां द्री द्रीं द्रावय द्रावय झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं स: त्रैलोक्यस्वामिनो दधिअभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । उदकचंदन………अर्घं।
एला लवंग कर्पूर सुचंदनादी ।
नाना सुगंधवर वस्तु मिलाय करके ।।
सर्वौषधि मिलितसार कषाय जल से।
संसाररोगहर हेतु करूँ न्हवन मैं ।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं त्रिभुवनपते: सर्वौषधिअभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । उदकचंदन………..अर्घं।
तृष्णा निवारण करें बहु पुण्यकारी।
मांगल्यद्रव्य वर मिश्रित कोण कलशे।।
त्रैलोक्य नाथ जिन का अभिषेक करके ।
पा जाऊँ शीघ्र निज के सुचतुष्टयों को।।२१।।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा नमोऽर्हते भगवते मंगलोत्तमकरणाय कोणकलशजलाभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा । उदकचंदन……..अर्घं।
त्रैलोक्य पुण्यप्रद चंदन को घिसा है ।
सौभाग्यकारि जिनबिम्ब विलेप हेतु ।।
सौरभ्य प्राप्त कर लूँ निज के गुणों की ।
हे नाथ! आप गुणसौरभ विश्वव्यापा ।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं स: त्रैलोक्यस्वामिनो कल्कचूर्णै: उद्वर्तनं करोमि स्वाहा ।
पुष्पवृष्टि-
ॐ ह्रीं पुष्पवृष्टिं करोमि स्वाहा ।) (पुष्पवृष्टि करें)
आरती-
ॐ ह्रीं क्रों समस्तनीराजनद्रव्यै: नीराजनं करोमि दुरितं अस्माव अपहरतु भगवान् स्वाहा । (आरती उतारें)
कर्पूर चूर्ण मलयागिरि चंदनादी ।
नाना सुगंधिकर द्रव्य मिलाय लीने।।
गंधाम्बु से नित करूँ अभिषेक प्रभु का ।
वैवल्यज्ञानमय आतम ज्योति पाऊँ ।।२२।।
ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेषदोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये नम: श्रीशांतिनाथाय शांतिकराय सर्वपापप्रणाशनाय सर्वविघ्नविनाशनाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय सर्वक्षामडामर-विनाशनाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अर्हं असि आ उ सा नम: मम सर्वशांतिं कुरु कुरु, मम सर्वतुष्टिं कुरु कुरु, मम सर्वपुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा स्वधा। उदकचंदन……..अर्घं।
रचयित्री – गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेषदोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये नम: श्रीशांतिनाथाय शांतिकराय सर्वपापप्रणाशनाय सर्वविघ्नविनाशनाय सर्वरोगोपसर्गविनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय, सर्वक्षा-मडामरविनाशनाय
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा नम: मम (……)
ॐ त्रिभुवनशिखरशेखर-शिखामणित्रिभुवनगुरूत्रिभुवनजनता-अभय-दानदायकसार्वभौमधर्मसाम्राज्यनायकमहतिमहावीरसन्मति-वीरातिवीर-वर्धमाननामालंकृत श्रीमहावीर जिनशासनप्रभावात् सर्वे जिनभक्ता: सुखिनो भवंतु।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं आद्यानामाद्ये जम्बूद्वीपे मेरोर्दक्षिणभागे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे भारतदेशे……प्रदेशे……नामनगरे वीरसंवत्……. तमे……. मासे…….पक्षे……तिथौ……वासरे नित्य पूजावसरे (………. विधानावसरे१) विधीयमाना इयं शान्तिधारा सर्वदेशे राज्ये राष्ट्रे पुरे ग्रामे नगरे सर्वमुनिआर्यिका-श्रावकश्राविकाणां चतुर्विधसंघस्य शांतिं करोतु मंगलं तनोतु इति स्वाहा ।
हे षोडश तीर्थंकर! पंचमचक्रवर्तिन्! कामदेवरूप! श्री शांतिजिनेश्वर! सुभिक्षं कुरू कुरू मन: समाधिं कुरु कुरु धर्मशुक्लध्यानं कुरु कुरु सुयश: कुरु कुरु सौभाग्यं कुरु कुरु अभिमतं कुरु कुरु पुण्यं कुरु कुरु विद्यां कुरु कुरु आरोग्यं कुरु कुरु श्रेय: कुरु कुरु सौहार्दं कुरु कुरु सर्वारिष्ट ग्रहादीन् अनुवूलय अनुवूलय कदलीघातमरणं घातय घातय आयुद्र्राघय द्राघय सौख्यं साधय साधय,
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथाय जगत् शांतिकराय सर्वोपद्रव-शांतिं कुरु कुरु ह्रीं नम:। परमपवित्र-सुगंधितजलेन जिनप्रतिमाया: मस्तकस्योपरि शांतिधारां करोमीति स्वाहा । चतुर्विधसंघस्य सर्वशांतिं कुरु कुरु तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु वषट् स्वाहा ।
मानो हिमाचल महागिरि से गिरी है ।
आकाशगंग जलधार पवित्र गंगा।।
अरिहंत का न्हवन नीर इसे नमूँ मैं ।
मैं उत्तमांग उर में दृग में लगाऊँ ।।२३।।