== अथ सिद्धप्रतिमादिप्रतिष्ठाविधानान्यभिधास्यामः। (अब सिद्धप्रतिमा, आचार्य प्रतिमा आदि की प्रतिष्ठाविधि कहते हैं।) संक्षेपार्हत्प्रतिष्ठावत्-प्रतिष्ठाविधिरिष्यते। सिद्धादीनां प्रयोगे तु, विशेषः प्रतिपाद्यते।। संक्षेप में अर्हंत प्रतिमा की प्रतिष्ठा के समान ही सिद्ध प्रतिमा आदि की प्रतिष्ठाविधि है। इसमें प्रयोगविधि में जो विशेष विधि हैं, उन्हें ही इस परिच्छेद में प्रतिपादित करेंगे। तद्यथा
गद्य – सिद्धप्रतिष्ठादिनात्पूर्वं पंचमे दिनेंऽकुरार्पणं तद्दिनाद् द्वितीयदिने मंडपप्रतिष्ठां ततस्तृतीयदिने वेदीप्रतिष्ठां च ततश्चतुर्थदिने रात्रौ उपवासमादाय जलाधिवासनं विमानशुद्धिं दर्भशयनं चाग्नित्रयार्चनं च पूर्ववद्विधाय वेदिकायां पंचवर्णैः सिद्धचक्रोद्धरणं विदध्यात्।सिद्ध प्रतिमा की प्रतिष्ठा के पांचवें दिन पूर्व अंकुरारोपण, इसके बाद दूसरे दिन मंडपप्रतिष्ठा, तीसरे दिन वेदी प्रतिष्ठा और चैथे दिन रात्रि में उपवास ग्रहण कर जलाधिवासन, विमानशुद्धि, दर्भशयन और अग्नित्रय की अर्चना पूर्वकथित विधि से करके वेदी पर पंचवर्णी चूर्ण से सिद्धचक्र का उद्धार करें । (ऊपर और नीचे रेफ से युक्त ऐसे हकार को बिंदु सहित करके इसके चारों तरफ स्वरों का वलय बनावें। इस वलय के बाहर कमल पत्राकार आठ दल बनावें। प्रत्येक दल में क्रम से स्वर, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यरलव, श ष स ह, ये आठ वर्ग लिखें। इन प्रत्येक दोनों दलों की संधि में तत्त्वाक्षर लिखें इसे तत्त्वाक्षर कहते हैं। प्रत्येक दल के अंत में ‘अनाहतमंत्र’ लिखें। इस अष्टदल कमल को चारों तरफ ह्रीं इस मंत्र से वेष्ठित करें, इसको ‘मंत्रराज’ कहते हैं।)
ऊध्र्वाधोरयुतं सबिंदु सपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितम्। वर्गापूरितदिग्गतांबुजदलं तत्संधितत्त्वान्वितम्। अंतःपत्रतटेष्वनाहतयुतं ह्रीं कारसंवेष्टितम्। देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभकंठीरवः।।1।। इति सिद्धचक्रमुद्धृत्य। ॐ ह्रीं अर्हं असि आ उसा अनाहतविद्याधिपते! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं अर्हं असि आ उसा अनाहतविद्याधिपते! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं अर्हं असि आ उसा अनाहतविद्याधिपते! अत्र मम सहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं अर्हं असि आ उसा अनाहतविद्याधिपते! जलं गृहाण गृहाण नमः। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावेंं) इत्यादिभिर्मंत्रैराव्हानादिपूर्वकमभ्यच्र्य हेमादिपात्रे हेमादिलेखन्या तिलकद्रव्यैः सिद्धचक्रमुद्धृत्य तन्मंडलमध्ये विन्यस्य। इस प्रकार सिद्धचक्र बनाकर इसका आह्नानन आदि करके पूजन करें। एक पात्र में सुवर्णादि की लेखनी से केशर आदि से यंत्र लिखकर आराधना करें। ॐ ह्रीं असिआउसा अनाहतविद्यायै नमः। इति मूलमंत्रेण अष्टोत्तरशतवारं जात्यादिपुष्पैज्र्ञानमुद्रया सिद्धपरमेष्ठि ध्यानेन समाराध्य। दर्भशय्यास्थितसिद्धबिंबमानीय उत्तरवेद्यां स्थापनपीठे (स्नपन पीठे) निवेश्य पूर्ववद्धूलीकलशेनाभिषिच्याष्टसम्मर्जनकलशैः पूर्वमंत्रैराकारशुद्धिं विधाय प्राक्तनयंत्रोपरि विष्टरे संस्थाप्य प्रतिष्ठेयनिरूपणं कृत्वा ‘नमस्ते पुरुषार्थानामित्यादि सिद्धस्तोत्रं पठित्वा प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।मूलमंत्र से, ज्ञानमुद्रा से, जाति आदि सुगंधित पुष्पों से सिद्धभगवान की आराधना करें। पुनः दर्भशय्या से सिद्धबिंब को लाकर उत्तरवेदी में स्थापित अभिषेक पात्र में विराजमान करके पृष्ठ 208 से पूर्वकथित विधि से धूलिकलश से अभिषेक करके (पृष्ठ 214 से) आठ संमार्जन कलशों से पूर्वमंत्रों से आकारशुद्धि करें। (पूर्व के सिद्धयंत्र पर प्रतिमा स्थापित करके स्तोत्र पढ़ें।) अनंतर ‘जानाति’ इत्यादि पद्य व मंत्रों से सिद्धगुणों का आरोपण करें।
जानातिबोधं यदनुग्रहेण। द्रव्याणि सर्वाणि चराचराणि।। दुराग्रहत्यक्तनिजात्मरूपं, सिद्धेत्र सम्यक्त्वगुणं न्यसामि।। ॐ ह्रीं परमावगाढसम्यक्त्वगुणभूषिताय नमः। इति प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिप्त्वा तद्गुणमारोपयेत्। एवमुत्तरत्रापि विधेयम्। जानाति नित्यमित्यादि (पृष्ठ 280 से आठों गुणों की स्थापना करें) सप्तपद्यानि पठन् अर्चां समंतात्परामृशेत्। इति गुणारोपणम्।। आहूता इव सिद्धमुक्तिवनितामित्यादि। (पृष्ठ 279 से पढ़ें) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। आव्हाननादिमंत्रः। तिलकदान मंत्र ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं असि आ उ सा सिद्धाधिपतये नमः। अनेन मंत्रेण कर्पूरान्वितचंदनेन तिलकं न्यसेत्। (इस मंत्र से नाभि में तिलकन्यास विधि करें।) ॐ ह्रीं मुखवस्त्रं दधामि स्वाहा। इति मुखवस्त्रमंत्रः। गंगादितित्थप्प इत्यादिभिरधिवासनां विदध्यात्। (पृष्ठ 281 से पूजा करें) नेत्रोन्मीलन मंत्र ॐ ह्रीं सिद्धाधिपते प्रबुध्यस्व ध्यातृजनमनांसि पुनीहि पुनीहि स्वाहा। नेत्रोन्मीलनमंत्रः। ॐ ह्रीं सिद्धाधिपते मुखवस्त्रमपनयामि स्वाहा। इति श्रीमुखोद्घाटनमंत्रः। पंचामृत अभिषेक वारिणा स्वच्छशीतेन, हारिणा तापहारिणा। विशुद्धानभिषिंचामि सिद्धानघविशुद्धये।।1।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! तीर्थोदकेनाभिषिंचामीति स्वाहा। तीर्थोदकस्नपनम्। जल से अभिषेक करें। पुंडेªक्षुचोचचूतादि-स्वरसोदारधारया। विशुद्धानभिषिंचामि सिद्धानघविशुद्धये।।2।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! पुंडेªक्षुप्रमुखरसैरभिषिंचामि इति स्वाहा। रसस्नपनम्। इक्षु आदि रसों से अभिषेक करें। पिंगहय्यंगवीनेन, नवीनेन सुगंधिना। विशुद्धानभिषिंचामि सिद्धानघविशुद्धये।।3।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! हय्यंगवीनघृतेन स्नपयामीति स्वाहा। घृतस्नपनम्।। घी से अभिषेक करें। क्षरत्सुधासदृक्षेण, क्षीरपूरेण भूरिणा। विशुद्धानभिषिंचामि सिद्धानघविशुद्धये।।4।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! धारोष्णगव्यक्षीरपूरेणाभिषिणोमीति स्वाहा। दुग्धस्नपनं।। दूध से अभिषेक करें। दध्ना पूर्णशरच्चंद्र-चंद्रिकाधवलत्विषा। विशुद्धानभिषिंचामि सिद्धानघविशुद्धये।।5।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! जगन्मंगलेन दध्ना स्नपयामीति स्वाहा। दधिस्नपनम्।। दधि से अभिषेक करें। कषायद्रव्यसत्कल्क-क्वाथचूर्णैः सुगंधिभिः। उपस्करोमि शुद्धात्म-सिद्धानघविशुद्धये।।6।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! दिव्यप्रभूतसुरभिकषायद्रव्यकल्कक्वाथचूर्णैरुपस्करोमि स्वाहा। उद्वर्तनादिविधानम्। सर्वौषधि से अभिषेक करें। पवित्रसुपवित्रोरु-मनोरमफलोत्करैः। निर्वर्तयामि शुद्धात्म-सिद्धानघविशुद्धये।।7।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! विचित्रमनोरमफलैरवतारयामि इति स्वाहा। फलावतरणम्। फलों से अवतरण विधि करें। तीर्थांभःसंभृतैः कुंभै-रष्टभिर्मंगलान्वितैः। निर्वर्तयामि शुद्धात्म-सिद्धानघविशुद्धये।।8।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! परमसुरभिद्रव्यसंदर्भपरिमलगर्भतीर्थांबुसंपूर्णसुवर्णकुंभाष्टतयेन परिषेचयामि स्वाहा।। कलशाष्टकाभिषेकः।। (आठ कलशों से अभिषेक करें।) पूतशीतलगंधोदै-र्गंधद्रव्यादिवासितैः। विशुद्धानभिषिंचामि, सिद्धानघविशुद्धये।।9।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! परमसौमनस्यनिबंधनगंधोदकपूरेणाप्लावयामि स्वाहा। गंधोदकस्नपनम्। चंदन- मिश्रित जल से अभिषेक करें। ॐ बाह्याभ्यंतरहेतुजात (पृष्ठ 312 से लेवें)। ॐ ह्रीं निरवशेषावरण (पृष्ठ से 312 पढ़ें)। स्वच्छैस्तीर्थजलैरतुच्छसहज-प्रोद्गंधिगंधैः सितैः । सूक्ष्मत्वायतिशालिशालिसदकै-र्गंधोद्गमैरुद्गमैः।। हव्यैर्नव्यरसैः प्रदीपितशुभै-र्दीपैर्विपद्धूपकैः। धूपैरिष्टफलावहैर्बहुफलैः, श्रीसिद्धनाथान्यजे।।10।। ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं सिद्धाधिपते! लोकोत्तरनीरधाराहरिचंदनद्रवकलमाक्षतपुंजाष्टकमंदारप्रमुखकुसुमदामसुधारस- स्पद्धविधिसान्नायघनसारदशामुखप्रदीपितदीपाष्टकसुगंधिद्रव्यसंयोजनाविशेषसंभूतधूमायमानधूपघटाष्टकबंधुरगंधवर्ण- रसस्पर्शप्रणीतबहिरंतःकरणमहाफलस्तबकाष्टकजलादियज्ञांगदूर्वादर्भदधिसिद्धार्थादिमंगलद्रव्यविनिमतमहाघ्र्य- सत्कारोपचारैः परिचरामीति स्वाहा। जलाद्यघ्र्यांतसपर्याविधानम्।। ततः सिद्धभक्तिं (पृष्ठ 17 से लेवें) कृत्वा अभिमतप्रार्थनमिदं पठित्वा पुष्पांजलिं प्रकल्पयेत्। प्राज्यं साम्राज्यमस्तु स्थिरमिह सुतरां जायतां दीर्घमायु-र्भूयाद्भूयांश्च भोगः स्वजनपरिजनैस्तात्सदारोग्यमग्य्रम्।। की तव्र्याप्ताखिलाशा प्रभवतु भवतान्निःप्रतीपः प्रतापः। क्षिप्रं स्वर्मोक्षलक्ष्मीर्भवतु तनुभृतां सिद्धनाथप्रसादात्।। ततः पूर्ववद्विसर्जनादिकमनुतिष्ठेत्। (पूर्ववत् विसर्जन आदि करें।) प्रतिष्ठानंतरदिने अवभृथस्नानमभिषेकक्रियां सर्वदेवताविसर्जनं सिद्धानामध्यात्माध्यासनं शांतिधारां शांतिबलिं क्षमापणादिकं च पूर्वोक्तं कर्म कृत्वा प्रतिष्ठां निष्ठापयेत्। इति सिद्ध प्रतिष्ठाविधानम्।।प्रतिष्ठा से केवलज्ञानकल्याणक से अगले दिन अवभृतस्नान महाभिषेक विधि करके देवता विसर्जन, सिद्धों का ध्यान, शांतिधारा, शांतिबलि, क्षमापण आदि करके प्रतिष्ठा को पूर्ण करे। इस प्रकार सिद्ध प्रतिष्ठाविधि पूर्ण हुई। अथाचार्यप्रतिष्ठाविधानम्
गद्य – आचार्यादिप्रतिष्ठादिनात्प्राक् पंचमे दिनेंऽकुरार्पणं कृत्वा, अग्नित्रयार्चनपर्यंतं कर्म सिद्धप्रतिष्ठावत्कृत्वा वेद्यां गणधरवलयोद्धरणं विदध्यात्। पूर्वं षट्कोणचक्रमध्ये क्ष्माबीजाक्षरं लिखेत्। तदुपरि र्हं इति न्यसेत् तस्य दक्षिणतो झ्वीं वामतश्च ह्रीं विन्यसेत्। पीठाधः श्रीं न्यसेत्। ॐ असि आ उसा स्वाहेत्यनेन श्रींकारस्य दक्षिणतः प्रभृत्युत्तरतो यावत्प्रादक्षिण्येन वेष्टयेत्। ततः कोणेषु षट्स्वपि मध्ये अप्रतिहतचक्रे फडिति सव्येन स्थापयेत्। ततः कोणांतरालेषु विचक्राय स्वाहेति षड्बीजानि ह्मममफकारोत्तराणि अपसव्येन स्थापयेत्। ततः कोणाग्रेषु श्री-ह्रीं-धृति-कीत बुद्धि-लक्ष्मीति षड्देवताः प्रादक्षिण्येन लिखेत्। तद्बहिर्वलयं कृत्वा अष्टसु पत्रेषु1. णमो जिणाणं। 2. णमो ओहिजिणाणं। 3. णमो परमोहिजिणाणं। 4. णमो सव्वोहिजिणाणं। 5. णमो अणंतोहिजिणाणं। 6. णमो कोट्ठबुद्धीणं। 7. णमो बीजबुद्धीणं। 8. णमो पदाणुसारीणं। इत्यष्टौ पदानि ॐ ह्रीं र्हं पूर्वाणि पूर्वादिक्रमेण लिखेत्। ततस्तद्बहिस्तद्वत् षोडशपत्रेषु 1. णमो संभिण्णसोदाराणं। 2. णमो पत्तेयबुद्धाणं। 3. णमो सयंबुद्धाणं। 4. णमो बोहियबुद्धाणं। 5. णमो रुजुमदीणं। 6. णमो विउलमदीणं। 7. णमो दसपुव्वीणं। 8. णमो चउद्दसपुव्वीणं। 9. णमो अट्ठंगणिमित्तकुसलाणं। 10. णमो विउणइड्ढिपत्ताणं। 11. णमो विज्जाहराणं। 12. णमो चारणाणं। 13. णमो पण्णसमणाणं। 14. णमो आगासगामिणं। 15. णमो आसीविसाणं। 16. णमो दिट्ठिविसाणं। इति षोडशपदानि विलिखेत्। ततस्तद्बहिश्चतुर्विंशतिपत्रेषु 1. णमो उग्गतवाणं 2. णमो दित्ततवाणं 3. णमो तत्ततवाणं 4. णमो महातवाणं 5. णमो घोरतवाणं 6. णमो घोरगुणाणं 7. णमो घोरपरक्कमाणं 8. णमो घोरगुणबह्मचारीणं 9. णमो आमोसहिपत्ताणं 10. णमो खेल्लोसहिपत्ताणं 11. णमो जल्लोसहिपत्ताणं 12. णमो विप्पोसहिपत्ताणं 13. णमो सव्वोसहिपत्ताणं 14. णमो मणबलीणं 15. णमो वचिबलीणं 16. णमो कायबलीणं 17. णमो खीरसवीणं 18. णमो सप्पिसवीणं 19. णमो महुरसवीणं 20. णमो अमियसवीणं 21. णमो अक्खीणमहाणसाणं 22. णमो वड्ढमाणाणं 23. णमो लोए सव्वसिद्धायदणाणं 24. णमो भयवदो महतिमहावीरवड्ढमाणाणं बुद्धरिसीणं। इति चतुर्विंशतिपदान्यालिख्य ह्रीं कार मात्रया त्रिगुणं वेष्टयित्वा क्रोंकारेण निरुध्य बहिः पृथ्वीमंडलं विलिखेत्। ==
आचार्य प्रतिष्ठा विधान== आचार्य, उपाध्याय और साधु की प्रतिमा की प्रतिष्ठा, प्रतिष्ठा दिन से पाँचवें दिन पूर्व अंकुरारोपण करके तीन अग्नि की अर्चनापर्यंत (हवन पर्यंत) क्रियाओं को सिद्धप्रतिमा की प्रतिष्ठा के समान करके वेदी में गणधरवलय यंत्र का उद्धार करें अर्थात् गणधरवलय यंत्र बनाकर स्थापित करें। (गणधरवलय यंत्र परिशिष्ट में है।) ==
गणधर वलय यंत्र बनाने की विधि== पहले षट्कोण चक्र के मध्य में ‘क्ष्मा’ बीजाक्षर लिखें। इसके ऊपर ‘र्हं’ का न्यास करें, उसके दक्षिण में ‘झ्वीं’ और बायीं तरफ ‘Ðीं’ बीजाक्षर का न्यास करें। पीठ के नीचे-क्ष्मा इस बीजाक्षर के नीचे ‘श्रीं’ यह अक्षर लिखें। ‘ॐ अ सि आ उ सा स्वाहा’ इस मंत्र को ‘श्रींकार’ के दाहिने से लेकर उत्तरपर्यंत प्रदक्षिणा के क्रम से वेष्टित कर देवें। पुनः षट्कोणों के मध्य ‘अप्रतिचक्रे फट्’ यह मंत्र स्थापित करें। अनंतर कोणों के अन्तरालों में ‘विचक्राय स्वाहा’ इन छह बीजाक्षरों को बायीं बाजू से स्थापित करें और उनके ऊपर ‘ह्मममफ’ लिखें। पुनः कोनों के अग्रभागों में श्री, ह्रीं, धृति, की , बुद्धि और लक्ष्मी इन छह देवियों को प्रदक्षिणा के रूप में लिखें। उसके बाहर वलय करके आठ दलों में ‘णमो जिणाणं’ आदि उपर्युक्त आठ मंत्रों को ॐ ह्रीं र्हं पूर्वक पूर्वादि के क्रम से लिखें। ॐ ह्रीं र्हं णमो जिणाणं, ॐ ह्रीं र्हं णमो ओेहिजिणाणं आदि। इन आठ मंत्रों के बाद पूर्व के समान सोलह दलों वाले वलय में ‘णमो संभिण्णसोदाराणं’ से ‘णमो दिट्ठिविसाणं’ पर्यंत सोलह पदों को लिखें। अनंतर इसके वलय के बाहर चैबीस दलों वाले वलय में ‘णमो उग्गतवाणं’ से लेकर ‘बुद्धिरिसीणं’ पर्यंत चैबीस मंत्र पदों को लिखकर ह्रीं कार से तीन बार वेष्टित करके ‘क्रोंकार’ से निरुद्ध करके बाहर पृथ्वीमंडल बनावें। ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। अनेन मध्यपूजां विदध्यात्। ॐ णमो अरहंताणं। णमो जिणाणं इत्यादि ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। एते अष्टचत्वारिंशत्पूजामंत्राः। कणका के मध्य पूजा का मंत्र आगे के मंत्रों से यंत्र के मध्य में पूजा करें। ॐ ह्रीं झ्वीं श्रीं अर्हं अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। अड़तालिस पूजामंत्र ॐ णमो अरहंताणं। णमो जिणाणं इत्यादि में ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा लगाकर बोलें। ये 48 गणधर वलय मंत्र आगे लिखे प्रकार हैं 1. ॐ णमो अरहंताणं णमो जिणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 2. ॐ णमो ओहिजिणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 3. ॐ णमो परमोहिजिणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 4.ॐ णमो सव्वोहिजिणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 5. ॐ णमो अणंतोहिजिणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 6. ॐ णमो कोट्ठबुद्धीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 7. ॐ णमो बीजबुद्धीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 8. ॐ णमो पदाणुसारीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 9. ॐ णमो संभिण्णसोदाराणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 10. ॐ णमो सयंबुद्धाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 11. ॐ णमो पत्तेयबुद्धाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 12. ॐ णमो बोहियबुद्धाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 13. ॐ णमो रुजुमदीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 14. ॐ णमो विउलमदीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 15. ॐ णमो दसपुव्वीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 16. ॐ णमो चउद्दसपुव्वीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 17. ॐ णमो अट्ठंगमहाणिमित्तकुसलाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 18. ॐ णमो विउव्वइड्ढिपत्ताणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 19. ॐ णमो विज्जाहराणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 20. ॐ णमो चारणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 21. ॐ णमो पण्णसमणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 22. ॐ णमो आगासगामिणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 23. ॐ णमो आसीविसाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 24. ॐ णमो दिट्ठिविसाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 25. ॐ णमो उग्गतवाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 26. ॐ णमो दित्ततवाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 27. ॐ णमो तत्ततवाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 28. ॐ णमो महातवाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 29. ॐ णमो घोरतवाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 30. ॐ णमो घोरगुणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 31. ॐ णमो घोरपरक्कमाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 32. ॐ णमो घोरगुणबह्मचारीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 33. ॐ णमो आमोसहिपत्ताणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 34. ॐ णमो खेल्लोसहिपत्ताणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 35. ॐ णमो जल्लोसहिपत्ताणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 36. ॐ णमो विप्पोसहिपत्ताणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 37. ॐ णमो सव्वोसहिपत्ताणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 38. ॐ णमो मणबलीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 39. ॐ णमो वचिबलीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 40. ॐ णमो कायबलीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 41. ॐ णमो खीरसवीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 42. ॐ णमो सप्पिसवीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 43. ॐ णमो महुरसवीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 44. ॐ णमो अमियसवीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 45. ॐ णमो अक्खीणमहाणसाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 46. ॐ णमो वड्ढमाणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 47. ॐ णमो लोए सव्वसिद्धायदणाणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा। 48. ॐ णमो भयवदो महतिमहावीरवड्ढमाणाणं बुद्धिरिसीणं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असिआ उसा ह्मममफ ह्मममफ स्वाहा।
ततो दर्भशय्यास्थितबिंबमानीय स्नपनवेदीपीठाग्रे निवेश्य धूलीकलशाभिषेकानंतरं सर्वौषधिविमिश्रतीर्थाम्बुसंभृतैः पंचाचारसंकल्पपंचकुंभैः, चतुरनुयोगसंकल्पचतुःकुंभैः, रत्नत्रयसंकल्पेन त्रिभिःकुंभैः। क्रमादाचार्योपाध्यायसर्वसाधुबिंबानामाकारशुद्धिं विधाय मूलवेदीयंत्रोपरि विष्टरे तबानवस्थाप्य ये येऽनगारा इति प्रागुक्तमह£षस्तवनं (पृष्ठ 110 से) पठित्वा बिंबान्समंतात्परामृश्य पुष्पांजलिपूर्वकं पंचाचारचतुरनुयोगरत्नत्रयलक्षणगुणान् तबेषु क्रमेण समारोपयेत्।इसके बाद दर्भशय्या में स्थित आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु के बिंब को लाकर अभिषेक वेदी के पीठ अर्थात् सिंहासन पर विराजमान कर धूलीकलश से अभिषेक करें। पश्चात् सर्वौषधि मिश्रित तीर्थजल से भरे हुए एवं जिन में पांच आचारों की कल्पना की है, ऐसे पांच कुंभों से आचार्य के बिंब की आकारशुद्धि करें, जिनमें चार अनुयोगों की कल्पना की है, ऐसे चार कुंभों से उपाध्याय के बिंब की आकार शुद्धि करें तथा जिनमें रत्नत्रय का संकल्प किया है, ऐसे तीन कुंभों से साधु के बिंब की आकारशुद्धि करें। अनंतर मूलवेदी में यंत्र के ऊपर स्थापित सिंहासन में उन बिंबों को विराजमान करके- ‘‘ये येऽनगारा’ पृष्ठ 110 से पूर्वकथित मह£षस्तवन को पढ़कर उन-उन बिंबों का सर्वांग स्पर्श करके पुष्पांजलिपूर्वक आचार्य के बिंब में पांच आचार गुणों का, उपाध्याय के बिंब में चार अनुयोग गुणों का एवं साधु के बिंब में रत्नत्रय गुणों का आरोपण करें । ==
धूलिकलशाभिषेक (प्रयोगात्मक विधि)==
शार्दूलविक्रीडित – तीर्थेभ्यः सरितः सरोवरतटादद्रेः समुद्रान्नृप-द्वाराद् दंतिवराहदंतयुगलाच्छृंगाद् गवेन्द्रस्य च। मृत्स्नाभिः समुपाहृताभिरुचितोपस्कारसंशुद्धिभिस्तीर्थाद्भिः परिपूरितेन कलशेनार्चामिह स्नापये।।1।। ॐ ह्रीं धूलिकलशेनाचार्यप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा। इसी प्रकार ‘उपाध्याय प्रतिकृतिं’ एवं साधुप्रतिकृतिं’ बोलें पांच आचार संकल्पित मंत्र निम्न प्रकार से बोलें- ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुलगंध- द्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन दर्शनाचारकलशेन धर्माचार्यप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।1।। ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुलगंध- द्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन ज्ञानाचारकलशेन धर्माचार्यप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।2।। ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुलगंध- द्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन चारित्राचारकलशेन धर्माचार्यप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।3।। ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुल- गंधद्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन तप आचारकलशेन धर्माचार्यप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।4।। ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुल- गंधद्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन वीर्याचारकलशेन धर्माचार्यप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।5।।==
उपाध्याय बिंब की आकारशुद्धि में==
ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुल- गंधद्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन प्रथमानुयोगकलशेन उपाध्यायप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।1।। ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुल- गंधद्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन करणानुयोगकलशेन उपाध्यायप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।2।। ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुल- गंधद्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन चरणानुयोगकलशेन उपाध्यायप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।3।। ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुल- गंधद्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन द्रव्यानुयोगकलशेन उपाध्यायप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।4।।==
साधु के बिंब की आकारशुद्धि में==
ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुल- गंधद्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन सम्यग्दर्शनकलशेन साधुप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा ।।1।। ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुल- गंधद्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन सम्यग्ज्ञानकलशेन साधुप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।2।। ॐ लवंगागरुकर्पूरवालोशीरचन्दनकाश्मीरमुस्तनिर्यासकुष्ठैलापत्रिकामुराजातीफलनिशामांसीकर्कोलपंचपत्रमुकुल- गंधद्रव्यचूर्णविमिश्रितसमस्ततीर्थवारिपरिपूरितेन सम्यक्चारित्रकलशेन साधुप्रतिकृतिं स्नापयामः स्वाहा।।3।।==
इनके बिंबों में गुणारोपण के मंत्र==
आचार्यबिंब के गुणारोपण मंत्र 1. ॐ ह्रीं दर्शनाचारगुणभूषिताय नमः। 2. ॐ ह्रीं ज्ञानाचारगुणभूषिताय नमः। 3. ॐ ह्रीं चारित्राचारगुणभूषिताय नमः। 4. ॐ ह्रीं तपाचारगुणभूषिताय नमः। 5. ॐ ह्रीं वीर्याचारगुणभूषिताय नमः। उपाध्यायबिंब के गुणारोपण मंत्र 1. ॐ ह्रीं प्रथमानुयोगगुणभूषिताय नमः। 2. ॐ ह्रीं करणानुयोगगुणभूषिताय नमः। 3. ॐ ह्रीं चरणानुयोगगुणभूषिताय नमः। 4. ॐ ह्रीं द्रव्यानुयोगगुणभूषिताय नमः। साधुबिंब के गुणारोपण मंत्र 1. ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनगुणभूषिताय नमः। 2. ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानगुणभूषिताय नमः। 3. ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रगुणभूषिताय नमः। ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं आचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं आचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं आचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषडित्यादि। ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं साधुपरमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषडित्यादि। इत्याचार्यादीनामाव्हानादिमंत्रः। ततश्च ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं धर्माचार्याधिपतये नमः इत्यादिमंत्रैः सिद्धप्रतिमावत्तिलकविधिं विदध्यात्। एवमुपाध्यायसाधु- परमेष्ठिनोरपि विकल्प्य कल्पयेत्। ॐ ह्रीं मुखवस्त्रं दधामीति स्वाहा। मुखवस्त्रमंत्रः। ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं आचार्यपरमेष्ठिन्! जलं गृहाण-गृहाण नमः इत्यादिभिर्मंत्रैराचार्यपरमेष्ठिनमर्चयेत्। एवमुपाध्याय- साधुपरमेष्ठिनोरर्चनामंत्रा नियोजनीयाः। आचार्यादिनामांकितेन सिद्धप्रतिष्ठोक्तेन नयनोन्मीलनं आचार्यादिबिंबानां कुर्यात्। ॐ ह्रीं आचार्यादीनां योजितेन मुखवस्त्रोद्घाटनमंत्रेण मुखवस्त्रोद्घाटनम्।==
आह्नानन के मंत्र==
आचार्य के मंत्र ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं आचार्यपरमेष्ठिन् ! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं आचार्यपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं आचार्यपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। उपाध्याय के मंत्र ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिन् ! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। साधु के मंत्र ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं साधुपरमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं साधुपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं साधुपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। इत्याचार्यादीनामाव्हानादिमंत्राः। तिलकदानविधिततश्च ==
आचार्य बिंब का तिलकदान मंत्र==
ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं धर्माचार्याधिपतये नमः। (उपर्युक्त मंत्र से आचार्यबिंब की नाभि में तिलकन्यास करें।) इत्यादिमंत्रैः सिद्धप्रतिमावत्तिलकविधिं विदध्यात्। एवं उपाध्याय-साधुपरमेष्ठिनोरपि विकल्प्य कल्पयेत्। उपाध्याय परमेष्ठी का तिलकन्यास मंत्र ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिने नमः। साधु परमेष्ठी का तिलकन्यास मंत्र ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं साधुपरमेष्ठिने नमः। मुखवस्त्र प्रदान मंत्र ॐ ह्रीं मुखवस्त्रं दधामीति स्वाहा। मुखवस्त्रमंत्रः। आचार्य परमेष्ठी पूजा ॐ ह्रूं णमो आइरियाणं आचार्यपरमेष्ठिन् ! जलं गृहाण गृहाण नमः। (इसी मंत्र से चंदन आदि चढ़ाना।) उपाध्याय परमेष्ठी की पूजा ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! जलं गृहाण गृहाण नमः। (इसी मंत्र से चंदनादि चढ़ाना।) साधु परमेष्ठी की पूजा ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं सर्व साधुपरमेष्ठिन्! जलं गृहाण गृहाण नमः। (इसी मंत्र से चंदन आदि चढ़ाना।) नयनोन्मीलन विधि आचार्यादिनामांकितेन सिद्धप्रतिष्ठोक्तेन नयनोन्मीलनं आचार्यादिबिंबानां कुर्यात्। (सिद्ध प्रतिमा के समान आचार्य के बिंबों का नेत्रोन्मीलन करें।) आचार्यपरमेष्ठी का नेत्रोन्मीलन मंत्र ॐ ह्रूं धर्माचार्याधिपते! प्रबुध्यस्व ध्यातृजनमनांसि पुनीहि पुनीहि स्वाहा। उपाध्यायपरमेष्ठी का नेत्रोन्मीलन मंत्र ॐ ह्रौं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! प्रबुध्यस्व ध्यातृजनमनांसि पुनीहि पुनीहि स्वाहा। साधुपरमेष्ठी का नेत्रोन्मीलन मंत्र ॐ ह्र: सर्वसाधुपरमेष्ठिन्! प्रबुध्यस्व ध्यातृजनमनांसि पुनीहि पुनीहि स्वाहा। ॐ ह्रीं आचार्यादीनां योजितेन मुखवस्त्रोद्घाटनमंत्रेण मुखवस्त्रोद्घाटनम्। तीनों परमेष्ठी के मुखवस्त्रोद्घाटन मंत्र ॐ ह्रूं आचार्यपरमेष्ठिन्! मुखवस्त्रमपनयामि स्वाहा। ॐ ह्रौं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! मुखवस्त्रमपनयामि स्वाहा। ॐ ह्र: सर्वसाधुपरमेष्ठिन्! मुखवस्त्रमपनयामि स्वाहा।==
आचार्य प्रतिमा की अभिषेक विधि==
वारिणा स्वच्छशीतेन हारिणा तापहारिणा। विशुद्धानभिषि॰चामि धर्माचार्यान् स्वशुद्धये।।1।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! तीर्थोदकेनाभिषि॰चामीति स्वाहा। तीर्थोदकस्नपनम्। पुण्ड्रेक्षुचोचचूतादि स्वरसोदारधारया। विशुद्धानभिषिंचामि धर्माचार्यान् स्वशुद्धये।।2।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! पुण्ड्रेक्षुप्रमुखरसैरभिषिंचामीति स्वाहा। रसस्नपनम्। पिंगहय्यंगवीनेन नवीनेन सुगंधिना। विशुद्धानभिषिंचामि धर्माचार्यान् स्वशुद्धये।।3।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! हय्यंगवीनघृतेन स्नपयामीति स्वाहा। घृतस्नपनम्। क्षरत्सुधासदृक्षेण क्षीरपूरेण भूरिणा। विशुद्धानभिषिंचामि धर्माचार्यान् स्वशुद्धये।।4।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! धारोष्णगव्यक्षीरपूरेणाभिषिणोमीति स्वाहा। दुग्धस्नपनम्। दध्ना पूर्णशरच्चंद्रचन्द्रिकाधवलत्विषा। विशुद्धानभिषिंचामि धर्माचार्यान् स्वशुद्धये।।5।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! जगन्मंगलेन दध्ना स्नपयामीति स्वाहा। दधिस्नपनम्। कषायद्रव्यसत्कल्कक्वाथचूर्णैः सुगंधिभिः। उपस्करोमि शुद्धात्मसूरीनघविशुद्धये।।6।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! दिव्यप्रभूतसुरभिकषायद्रव्यकल्कक्वाथचूर्णैरूपस्करोमि स्वाहा। उद्वर्तनादिविधानम्। पवित्रसुपवित्ररूमनोरमफलोत्करैः। निर्वर्तयामि शुद्धात्मसूरीनघविशुद्धये।।7।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! विचित्रमनोरमफलैरवतारयामीति स्वाहा। फलावतरणम्। तीर्थांभःसंभृतैः कुंभैश्चतुर्भिर्मंगलान्वितैः। विशुद्धानभिषिंचामि धर्माचार्यान् स्वशुद्धये।।8।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! परमसुरभिद्रव्यसंदर्भ परिमलगर्भतीर्थांबुसंपूर्णसुवर्णमयचतुष्कोणकुम्भैः परिषेचयामीति स्वाहा। चतुष्कोणकलशाभिषेकः। सुगंधित जल से अभिषेक पूतशीतलगंधोदैर्गंधद्रव्यादिवासितैः। विशुद्धानभिषिंचामि धर्माचार्यान् स्वशुद्धये ।।9।। ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिन्! परमसौमनस्यनिबंधनगंधोदकपूरेणाप्लावयामीति स्वाहा। गंधोदकस्नपनम्। उपाध्याय की प्रतिमा का अभिषेक वारिणा स्वच्छशीतेन हारिणा तापहारिणा। विशुद्धानभिषिंचामि पाठकेन्द्रान् स्वशुद्धये।।1।। ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! तीर्थोदकेनाभिषिंचामीति स्वाहा। तीर्थोदकस्नपनम्। (इसी प्रकार रस आदि के अभिषेक के श्लोक में दूसरी लाइन बदल-बदल कर और मंत्र में ‘ ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिन्’ लगा- लगाकर पूरा सुगंधित जल तक अभिषेक करें।)==
साधु प्रतिमा की अभिषेक विधि==
वारिणा स्वच्छशीतेन हारिणा तापहारिणा, विशुद्धानभिषिंचामि सर्वसाधून् स्वशुद्धये।।1।। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिन्! तीर्थोदकेनाभिषिंचामीति स्वाहा। तीर्थोदकस्नपनं।(यहां भी आचार्य प्रतिमा के अभिषेक के समान ही पूरा पंचामृत अभिषेक करें। मात्र दूसरी लाइन सभी में बदलना है और मंत्र में ‘ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिन्’ लगाना है।) पुनः यागमंडल में कथित पृष्ठ 124 से आचार्य, उपाध्याय और साधु के गद्य-पद्य मंत्रों से पूजाविधि संपन्न करें। अनंतर-ॐ ह्रीं लोकोत्तर…. आदि पढ़कर पूर्णाघ्र्य चढ़ाव।) ॐ ह्रीं लोकोत्तरनीरधारा हरिचंदनद्रवकलमाक्षतपुंजाष्टकमंदारप्रमुखकुसुमदामसुधारसस्पद्र्धिविधिसान्नाय- धनसारदशमुखप्रदीपितदीपाष्टकसुगंधिद्रव्यसंयोजनाविशेष संभूतधूमायमानधूपघटाष्टकबंधुरगंधवर्णरसस्पर्शप्रणीत- बहिरन्तःकरणमहाफलस्तबकाष्टकजलादियज्ञांगदूर्वादर्भदधिसिद्धार्थादिमंगलद्रव्यविनि£मतमहाघ्र्यसत्कारोपचारैः परिचरामीति स्वाहा। (इस गद्य से महाघ्र्य चढ़ावें या जल, चंदन आदि से अष्टद्रव्य चढ़ाकर पूर्णाघ्र्य चढ़ावें। पुनः आचार्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा में विधिवत् आचार्यभक्ति पढ़कर, उपाध्याय की प्रतिमा में विधिवत् श्रुतभक्ति (पृष्ठ 267 से) एवं साधु प्रतिमा की प्रतिष्ठा में विधिवत् योगिभक्ति (पृष्ठ 242 से) पढ़कर नीचे लिखा पद्य बोलकर पुष्पांजलि क्षेपण करें ।) आचार्यभक्ति इस प्रकार है- ==
आचार्य भक्ति==
श्रुतजलधि पारगेभ्यः स्वपरमतिविभावनापटुमतिभ्यः। सुचरित तपोनिधिभ्यो, नमो गुरुभ्यो गुणगुरुभ्यः।।1।। इच्छामि भंत्ते। आइरियभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं। सम्मणाणसम्मदंसण सम्मचारित्तजुत्ताणं पंचविहाचाराणं आइरियाणं आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं।==
आचार्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा में== प्राज्यं साम्राज्यमस्तु स्थिरमिह सुतरां जायतां दीर्घमायु-र्भूयाद् भूयांश्च भोगः स्वजनपरिजनैस्तात्सदारोग्यमग्य्रम्।। की तव्र्याप्ताखिलाशा प्रभवतु भवतान्निःप्रतीपः प्रतापः। क्षिप्रं स्वर्मोक्षलक्ष्मी र्भवतु तनुभृतां धर्मसूरिप्रसादात्।।1।। (पुष्पांजलि क्षेपण करें।) (उपाध्याय प्रतिमा की प्रतिष्ठा में इसी पद्य को पढ़ें, मात्र अंत में ‘पाठकेन्द्रप्रसादात्’ बोलें। इसी तरह साधु प्रतिमा की प्रतिष्ठा में अंत में ‘सर्वसाधुप्रसादात्’ ऐसा बोलें। अनंतर पूर्ववत् विसर्जनादि करें। पुनः प्रतिष्ठा के दूसरे दिन ‘अवभृतस्नानादिक’ महाभिषेक विधि करके प्रतिष्ठा को पूर्ण करें।) यहां तक आचार्य प्रतिष्ठा विधि पूर्ण हुई। ==
अथ श्रुतदेवताप्रतिष्ठाविधानम्।== (सरस्वती की मूर्ति की प्रतिष्ठा विधि)
श्रुतदेवताप्रतिष्ठादिनात्प्राक्पंचमे दिने अंकुरार्पणं कृत्वा, अग्नित्रयार्चनपर्यंतं कर्म पूर्ववत् कृत्वा, वेद्यां सारस्वतयंत्रोद्धरणं विदध्यात्। पूर्वक£णकायां ह्रीं कारमालिख्य तद्बाह्ये हंकारं सविसर्गं सकारं च लिखित्वा, ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ह्रीं नमः इत्यनेन मूलमंत्रेण वेष्टयेत् तद्बहिः पूर्वादिदिक्क्रमेण चतुर्षु पत्रेषु ॐ वाग्वादिन्यै नमः। ॐ भगवत्यै नमः। ॐ सरस्वत्यै नमः। ॐ देव्यै नमः। इति चतुराख्या लिखेत्। तद्बहिरष्टसु पत्रेषु ॐ नंदायै नमः। ॐ भद्रायै नमः। ॐजयायै नमः। ॐ विजयायै नमः। ॐ अपराजितायै नमः। ॐ जंभायै नमः। ॐ मोहायै नमः। ॐ स्तंभिन्यै नमः इति चाष्टौ देवीलखेत्। तद्बहिश्च षोडशपत्रेषु, ॐ रोहिण्यै नमः, ॐ प्रज्ञप्त्यै नमः, इत्यादिमंत्रैः षोडश विद्यादेवीः स्थापयेत्। ततः पूर्वाद्यष्टदिक्षु इंद्राय स्वाहा इत्यादिमंत्रैरष्ट- दिक्पालान्विन्यसेत्। पूर्वेशानदिशोश्चांतराले, ॐ अधोनागेभ्यः स्वाहा इति नागान्विन्यसेत्। पश्चिमदिक्पालोपरिष्ठाच्च ॐ ऊध्र्वब्रह्मणे नमः इति परब्रह्म प्रतिष्ठापयेत्।। इंद्रादधश्च ॐ मयूरवाहिन्यै नमः इति नागादिदेवतां स्थापयेत्।। ततस्त्रिर्मायामात्रया क्रोंकारेण निरुध्य तदावेष्ट्य बहिः पृथ्वीमंडलं लिखेदिति। ततो दर्भशय्या स्थितबिंबमानीय स्नपनवेदीपीठाग्रे निवेश्य सर्वौषधिविमिश्रतीर्थांभः संभृतैश्चतुरनुयोगसंकल्पचतुः कुंभैः ॐ ह्रीं श्रुतदेव्याः कलशस्नपनं करोमि स्वाहेत्यनेन मंत्रेणाकारं शोधयेत्।श्रुतदेवी की प्रतिष्ठा के पाँचवें दिन पूर्व अंकुरारोपण करके पूर्ववत् हवनविधिपर्यंत क्रिया करके वेदी में सारस्वत यंत्र विराजमान करें। पुनः दर्भशय्या में स्थित सरस्वती प्रतिमा को अभिषेक पात्र में विराजमान करके सर्वोषधिमिश्रित चार अनुयोग की कल्पनास्वरूप चारकुंभों से आकारशुद्धि करें। (परिशिष्ट में सरस्वती यंत्र है।) ==
आकारशुद्धि मंत्र==
ॐ ह्रीं श्रुतदेव्याः कलशस्नपनं करोमि स्वाहा। (पुनः आगे के चार पद्य पढ़कर प्रतिमा पर पुष्पांजलि करें)। निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षं। न्यक्षेण सर्वजगदुज्ज्वलनैकतानम्। सोषेस्व चिन्मयमहो जिनवाणि नूनं। प्राचीमतो जयसि देवि तदल्पसूतिम्।।1।। आभवादपि दुरासदमेव। श्रायसं सुखमनन्तमचिंत्यम्। जायतेद्य सुलभं खलु पंुसां। त्वत्प्रसादत इहांब नमस्ते।।2।। चेतश्चमत्कारकरा जनानां। महोदयाश्चाभ्युदयाः समस्ताः। हस्ते कृताः शस्तजनैः प्रसादात्। तवैव लोकांब नमोस्तु तुभ्यम्।।3।। सकलयुवतिसृष्टेरंबचूडामणिस्त्वं। त्वमसि गुणसुपुष्टेर्धर्मसृष्टेश्च मूलम्।। त्वमसि च जिनवाणि स्वेष्टमुक्त्यंगमुख्या। तदिह तव पदाब्जं भूरिभक्त्या नमामः।।4।। इति श्रुतदेवीस्तवनं पठित्वा प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्। (आगे का स्तोत्र व मंत्र पढ़कर सरस्वती प्रतिमा के अंगों का स्पर्श करें।) बारह अंगंगिज्जा दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा। चोद्दसपुव्वाहरणा ठावे दव्वाय सुयदेवी।।1।। आचारशिरसं सूत्रकृतवक्त्रां सुकंठिकाम्। स्थानेन समवायांगव्याख्याप्र्रज्ञप्तिदोर्लताम्।।2।। वाग्देवतां ज्ञातृकथोपासकाध्ययनस्तनीम्। अंतकृद्दशसन्नाभिमनुत्तरदशांगतः।।3।। सुनितंबां सुजघनां प्रश्नव्याकरणश्रुतात्। विपाकसूत्रदृग्वादचरणां चरणांबराम्।।4।। सम्यक्त्वतिलकां पूर्वचतुर्दशविभूषणाम्। तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारुपत्रांकुरश्रियम्।।5।। आप्तट्टष्टप्रवाहौघद्रव्यभावाधिदेवताम्। परब्रह्मपथादृप्तां स्यादुक्तिं भुक्तिमुक्तिदाम्।।6।। सर्वदर्शनपाखंडदेवदैत्यखगा£चताम्। जगन्मातरमुद्धर्तुं जगदत्रावतारयेत्।।7।। ॐ अर्हन्मुखकमलवासिनि पापांधकारक्षयकारिणि श्रुतज्वालासह प्रज्वलिते सरस्वति! मम पापं हन हन क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः क्षीरधवले अमृतसंभवे वं वं मं मं हं स्वाहा। एतत्पठन् प्रतिमायाः अंगप्रत्यंगपरामर्शं कुर्यात्। गुणारोपणम्। (इस मंत्र को पढ़ते हुए प्रतिमा के अंगोपांग का स्पर्श करें।) ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलवासिनि पापांधकारक्षयकारिणि श्रुतज्वालासह प्रज्वलिते सरस्वति! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलवासिनि पापांधकारक्षयकारिणि श्रुतज्वालासह प्रज्वलिते सरस्वति! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलवासिनि पापांधकारक्षयकारिणि श्रुतज्वालासह प्रज्वलिते सरस्वति! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् सन्निधीकरणं। आह्वानादि मंत्राः। ततो मूलमंत्रेण तिलकं दत्वा मुखवस्त्रमंत्रेण मुखवस्त्रं दत्वा। ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति! जलं गृहाण गृहाण नमः। इत्यादिभिर्मंत्रैरभ्यच्र्य मूलमंत्रेण नयनोन्मीलनं कृत्वा समंत्रं मुखवस्त्रमुद्घाटयेत्। वारिणा स्वच्छशीतेन हारिणा तापहारिणा। विशुद्धामभिषिंचामि जिनवाणीं स्वशुद्धये।। इत्यादिभिस्तामभिषिंचेत्। यागमंडलोक्तसरस्वती- गद्यपद्यमंत्रवाक्यैरभ्यर्चयेत्। ततः श्रुतभक्तिं कृत्वा अभिमतप्रार्थनार्थमिमं पठित्वा पुष्पांजलिं प्रकल्पयेत्। प्राज्यं साम्राज्यमस्तु भवतु च जिनदेवतायाः प्रसादात्। प्रतिष्ठानंतरदिनेऽवभृथस्नानादिकं कृत्वा प्रतिष्ठां निष्ठापयेत्। (आगे कथित मंत्रों से प्रतिष्ठा, अभिषेक आदि विधि करें।) इति श्रुतदेवताप्रतिष्ठाविधानम्==
सरस्वती प्रतिष्ठा (प्रयोगात्मक विधि)==
आह्नानन मंत्र ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलवासिनि पापान्धकारक्षयकारिणि श्रुतज्ञानज्वालासह प्रज्वलिते सरस्वति! अत्र एहि एहि संवौषट्। ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलवासिनि पापान्धकारक्षयकारिणि श्रुतज्ञानज्वालासह प्रज्वलिते सरस्वति! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं अर्हन्मुखकमलवासिनि पापान्धकारक्षयकारिणि श्रुतज्ञानज्वालासह प्रज्वलिते सरस्वति! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट्। तिलकदान विधि ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ह्रीं नमः। मुखवस्त्र देने का मंत्र ॐ ह्रीं मुखवस्त्रं दधामीति स्वाहा। सरस्वती पूजा ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति जलं गृहाण गृहाण नमः। (जल चढ़ावे। पुनः इसी मंत्र से चन्दन आदि चढ़ावें।) नेत्रोन्मीलन मंत्र ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ह्रीं नमः। (नेत्रोन्मीलन विधि करें।) मुखवस्त्र अपनयन विधि ॐ ह्रीं सरस्वतीदेवि! मुखवस्त्रमपनयामि स्वाहा। अभिषेक विधि वारिणा स्वच्छशीतेन हारिणा तापहारिणा। विशुद्धामभिषिंचामि जिनवाणीं स्वशुद्धये।। ॐ ह्रीं सरस्वतीदेवि! तीर्थोदकेनाभिषिंचामीति स्वाहा। जल से अभिषेक करें । पुंडेक्षुचोचचूतादिस्वरसोदारधारया। विशुद्धामभिषिंचामि जिनवाणीं स्वशुद्धये।। ॐ ह्रीं सरस्वतीदेवि! पुण्डेªक्षुप्रमुखरसैरभिषिंचामीति स्वाहा। नारियल, इक्षु आदि के रसों से अभिषेक करें । पिंगहय्यंगवीनेन नवीनेन सुगंधिना। विशुद्धामभिषिंचामि जिनवाणीं स्वशुद्धये।। ॐ ह्रीं सरस्वतीदेवि! हय्यंगवीनघृतेन स्नपयामीति स्वाहा। घी से अभिषेक करें। क्षरत्सुधासदृक्षेण क्षीरपूरेण भूरिणा। विशुद्धामभिषिंचामि जिनवाणीं स्वशुद्धये।। ॐ ह्रीं सरस्वतीदेवि! धारोष्णगव्यक्षीरपूरेणाभिषिंचामीति स्वाहा। दूध से अभिषेक करे। दध्ना पूर्णशरच्चंद्र चन्द्रिकाधवलत्विषा। विशुद्धामभिषिंचामि जिनवाणीं स्वशुद्धये।। ॐ ह्रीं सरस्वतीदेवि! जगन्मंगलेन दध्ना स्नपयामीति स्वाहा। दही से अभिषेक करें । कषायद्रव्यसत्कल्कक्वाथचूर्णैः सुगंधिभिः। उपस्करोमि शुद्धात्मसाधनीमघशुद्धये।। ॐ ह्रीं सरस्वतीदेवि! दिव्यप्रभूतसुरभि-कषायद्रव्यकल्कक्वाथ-चूर्णैरूपस्करोमीति स्वाहा। चंदनादि का विलेपन करें । पुनः यागमंडल में कथित पृष्ठ 127 से जिनागम पूजा के गद्य, पद्य मंत्र वाक्यों से पूजा करें। पश्चात् पृष्ठ 267 से श्रुतभक्ति पढं पुनः इष्टप्रार्थना करें। प्राज्यं साम्राज्यमस्तु स्थिरमिह सुतरां जायतां दीर्घमायु- र्भूयाद् भूयांश्च भोगः स्वजनपरिजनैस्तात् सदारोग्यमग्र्यम्। कीतव्र्याप्ताखिलाशा प्रभवतु भवतान्निः प्रतीपः प्रतापः। क्षिप्रं स्वर्मोक्षलक्ष्मी र्भवतु तनुभृतां शारदायाः प्रसादात्।।1।। इस पद्य को पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण करें। अनंतर प्रतिष्ठा के अगले दिन महाभिषेक विधि आदि करके प्रतिष्ठा पूर्ण करें । अथ श्रुतस्कंध यंत्र आदि प्रतिष्ठाविधानम्।। शुभे शिलादौ श्रुतस्कंधमुत्कीर्य सरस्वतीप्रतिष्ठावत्प्रतिष्ठापयेत्। परमागमपुस्तकमालेख्य श्रुतपंचम्यां सुलग्ने वा तद्वत्प्रतिष्ठापयेत्। अत्राकारशुध्यादिकं दर्पणप्रतिबिंबितपुस्तकस्य विदध्यात्। ऐदंयुगीनाचार्यादिषु पूर्वाचार्यगुणस्य सत्तां वीक्ष्य तत्पादुकाद्वयं आचार्यादिप्रतिष्ठावत्प्रतिष्ठापयेत्। प्रसिद्धसंन्यासमरणप्राप्तगुर्वादेनषेधिकां जिनगृहे निर्माप्य जिनप्रतिष्ठाकाले प्रतिष्ठाप्य क्षपकांगोज्झनभूमौ निवेशयेत्। अथवा बहिरेव निर्माप्य जिनप्रतिष्ठासमये नयनोन्मीलनं तद्द्रव्येण प्रापय्य तत्र गत्वा शेषविधिं स्वयमिंद्रः कृत्वा संघक्रियां कुर्यात्। अथवा क्षपकांगोज्झनावनौ आचार्यादिप्रतिष्ठोक्तविधिं सर्वं समासतः कृत्वा वद्र्धमानस्वामिनिर्वाणकाले निषेधिकां प्रतिष्ठापयेत्। इति श्रुतस्कंधादिप्रतिष्ठाविधानम्।।==
श्रुतस्कंधादि प्रतिष्ठा विधि== उत्तम शिला या तांबे, चांदी आदि के पत्र पर श्रुतस्कंध यंत्र उत्कीर्ण कराकर सरस्वती प्रतिमा की प्रतिष्ठा के समान प्रतिष्ठापित करें। परमागम ग्रन्थ को लिखवाकर या छपवाकर श्रुतपंचमी के दिन या अन्य किसी शुभमुहूर्त में पूर्ववत् प्रतिष्ठा विधि करें। अंतर इतना है कि यहां आकारशुद्धि आदि विधि दर्पण में प्रतिबिंबित पुस्तक में करें। वर्तमान के आचार्य आदि में पूर्वाचार्यों के गुणों का अस्तित्व देखकर उनके चरणों की प्रतिष्ठा आचार्य आदि की प्रतिष्ठा के समान करें। प्रसिद्ध संन्यास मरण को प्राप्त गुरु आदि की निषद्या-छतरी को जिनमंदिर में बनवाकर जिनप्रतिष्ठा के समय प्रतिष्ठा करके क्षपकमुनि-समाधिप्राप्त मुनि के शरीर त्याग के स्थल पर उन्हें विराजमान कर देवें। अथवा बाहर में ही छतरी बनवाकर जिनप्रतिष्ठा के समय नेत्रोन्मीलन विधि उसी द्रव्य से करके वहां जाकर स्वयं प्रतिष्ठाचार्य शेष विधि करें, संघ भी भक्ति पाठ आदि क्रिया संपन्न करें। अथवा आचार्यों के मरणप्राप्त स्थान में आचार्यादि प्रतिष्ठा में कथित विधि संक्षेप से करके श्रीमहावीर स्वामी के निर्वाण के समय निषेधिका-छतरी में चरणों को प्रतिष्ठापित कर देवें। इस प्रकार श्रुतस्कंध यंत्र, जैन शास्त्र व आचार्य आदि की प्रतिमा तथा गुरुचरण प्रतिष्ठाविधि पूर्ण हुर्ई।
अथ यक्षयक्षीप्रतिष्ठाविधानम्।। यक्षप्रतिष्ठादिनात्पूर्वं पंचमे दिनेंकुरार्पणं कृत्वा, अग्नित्रयार्चनपर्यंतं कर्म दिनक्रमेण कृत्वा वेद्यां मंडलोद्धरणं विदध्यात्। वेद्यां पंचवर्णचूर्णैः सक£णकमष्टदलकमलं चतुष्कोणमंडलचतुष्टयं पृथ्वीमंडलं विरचय्य तत्र ॐ ह्रीं क्रों सुवर्णवर्णवृषभवाहनपरशुफलाक्ष- मालावरदांकितचतुर्भुजवृषभवक्त्रधर्मचक्रालंकृतमस्तकगोमुखयक्षाय संवौषट् स्वाहेति मंत्रं कणकायामालिख्य तद्बहिरष्टसुपत्रेषु ॐ ह्रीं क्रों श्रियै संवौषट् स्वाहेत्यादि दिक्कुमारीमंत्रानष्टौ। तद्बहिर्वलयांतः ॐ ह्रीं क्रों यक्षवैश्वानर-रक्षो-नधृत-पन्नगासुरसुकुमार-सवितृ-विद्यामालि- चमर-वैरोचन-महाविद्यमारविश्वेश्वरपिंडाभिधानपंचदशतिथिदेवान्संस्थापयामि स्वाहा। इति तिथिदेवान्पंचदश। तद्बहिर्वलयांतः ॐ ह्रीं क्रों सूर्यसोमांगारकसौम्यगुरुभार्गवशनिराहुकेतून् स्थापयामि इति स्वाहा। इति ग्रहदेवान्नव।। तद्बहिर्मंडलांतः ॐ ह्रीं क्रों किन्नरेंद्र, किंपुरुषेंद्र, महोरगेंद्र, गंधर्वेंद्र, यक्षेंद्र, राक्षसेंद्र, भूतेंद्र, पिशाचेंद्रान्स्थापयामि स्वाहा इति व्यंतरेंद्रानष्टौ।। तद्बहिर्मंडलमध्ये वज्रचक्रखड्गहलमुसलगदाशक्तिभिंडिवालाख्यान्यष्टायुधानि च लिखित्वा बहिर्भूमंडलं विलिखेत्। एवं मंडलं वर्तयित्वा स्वस्वमंत्रैर्यक्षादिदेवान् जलगंधादिभिरभ्यच्र्य कलशाष्टकादिभिर्वेदीं भूषयेत्। अथ स्नपनमंडपे तां प्रतिमामानीय दर्भप्रस्तारे धान्यप्रस्तारे च स्थापयित्वा क्रमेण स्नपयेत् ततस्तत्रैव वेदिकायां नवकलशान्सर्वालंकारोपेतान्सर्वौषधिसंमिश्रशुद्धयंत्रमंत्रान्वितान् तीर्थजलपरिपूर्णान् शालिप्रस्तारोपरि लिखितमायाबीजासनान् निधाय, तत्पश्चिमभागे स्नपनपीठं स्थापयित्वा प्रक्षाल्यालंकृत्वा तदुपरि भुवनाधिपतिं लिखित्वाक्षतपुष्पदर्भान्विरचय्य तत्प्रतिमां तत्र स्थापयित्वा, पंचोपचारविधिनाऽभ्यच्र्य बाह्याष्टककलशैर्मंत्रपूर्वकमभिषिच्य चतुर्नीराजनं कृत्वा पुष्पांजलिपूर्वकं एकादशमभिषेकं मध्ये कलशेनामृतमंत्रेण कुर्यात्।। तेजोमायादिकाख्यानं क्रियमाणक्रियान्वितम्। तत्तत्पल्लवसंयुक्तं करोम्यंतं पदं स्मरेत्।।1।। अथैवमाकारशुद्धिं विधाय मूलवेद्यां नवधौतवस्त्रं सदर्भाक्षतपुष्पं प्रस्तीर्य तत्र तत्प्रतिमां निवेश्याभ्यच्र्य कांडाग्रदूर्वाग्रेण प्रोक्षणं विधाय शांतिहोमं यक्षमंत्रेण कृत्वा पुण्याहं घोषयित्वा स्वर्णशलाकोपात्तेन स्वर्णपात्रनिहितेन हिमपयःशर्करेण सुमुहूत्र्ते नयनोन्मीलनं कुय्र्यात्। ततोऽधिवासनादिविधिं विधाय वस्त्राभरणमाल्यादिभिरभ्यच्र्य विसर्जनादिकं कुर्यात्। प्रतिष्ठानंतरदिनेऽवभृथस्नानादिकं पूर्ववत्कृत्वा प्रतिष्ठां निष्ठापयेत्। ततः प्रभृति च तां नित्यं पूजयेत्। एष एव च शेषाणां यक्षाणां स्थापनाविधिः। यक्षीणां च मतः किंचिद्भेदो मंत्राश्रयो भवेत्।।1।। इति गदितविधानैः सिद्धमुख्यप्रतिष्ठाम्। बहुविधजिनभक्त्या यो विधत्तेऽत्र भव्यः।।2।। उपचितबहुपुण्यः साधु निवश्य भोगान्। स भवति जिनसौख्यांभोधिनक्षत्रनेमिः।।3।।अब यक्ष-यक्षी की प्रतिष्ठा विधि कहते हैं- यक्ष-गोमुखयक्षादि की प्रतिष्ठा के दिवस से पांचवें दिन पूर्व अंकुरारोपण करके, अग्नित्रय-तीन कुंडों में होम करने पर्यंत क्रियाओं को दिन के क्रम से करके वेदी में मंडल बनाने की विधि करें। उसे ही कहते हैं- वेदी में पंचवर्णचूर्ण से कणका सहित अष्ट दल कमल बनावें। उसके चार चैकोन मंडल बनावे। अनंतर पृथिवीमंडल की रचना करके कणका में ‘‘ॐ ह्रीं क्रों….’’ गोमुख यक्ष का मंत्र लिखें। उसके बाहर अष्टदल के कमल की एक-एक पांखुड़ी पर क्रम से ‘ॐ ह्रीं क्रों श्रियै संवौषट् स्वाहा। ऐसे आठों दिक्कुमारियों के मंत्र लिखें। उसके बाहर पहले वलय में ॐ ह्रीं क्रों.. आदि पंद्रह तिथिदेवों का मंत्र लिखे। पुनः दूसरे चैकोन वलय में ॐ ह्रीं क्रों… इत्यादि नवग्रह देवों का मंत्र लिखें। पुनः तीसरे वलय में ॐ ह्रीं क्रों किन्नरेन्द्र…’ इत्यादि आठ व्यंतर देवों का मंत्र लिखें। इसके बाद के वलय में ‘वज्र, चक्र’ आदि आठ आयुधों को लिखकर बाहर ‘पृथिवीमंडल’ बनावें। इस प्रकार मंडल बनाकर उन-उन मंत्रों से यक्ष आदि देवों की जल, चंदन आदि से पूजा करके आठ कलशों से वेदी को-मंडल को भूषित करें । अनंतर अभिषेक मंडप में उन यक्ष प्रतिमा को लाकर दर्भशय्या पर या धान्य के प्रस्तार में स्थापित करके क्रम से स्नपन-अभिषेक करें। अनंतर वहीं वेदिका में नव कलशों को स्थापित करें। इन कलशों में सर्वौषधि आदि डालें और चावल के पुंजों पर मायाबीज ह्रीं लिखकर इन्हें स्थापित करें । उसके पश्चिम भाग में अभिषेकपात्र स्थापित करके उसे प्रक्षालित कर अलंकृत करके उसके ऊपर ‘भुवनाधिपतिं’ लिखकर अक्षत, पुष्प, दर्भ को विधिवत् रखकर उस यक्ष प्रतिमा को स्थापित कर पंचोपचार विधि से अर्चना करके बाहर के आठ कलशों से मंत्रपूर्वक अभिषेक करके चार प्रकार के नीराजन करके पुष्पांजलिपूर्वक मध्य के कलश से अमृत मंत्र से अभिषेक करें। इस प्रकार से आकारशुद्धि करके मूलवेदी में नवीन धुले हुए वस्त्र पर दर्भ, अक्षत व पुष्प फैलाकर उस पर यक्षप्रतिमा को स्थापित करके पूजा करें। पुनः दर्भ व दूर्वा के अग्रभाग से प्रोक्षण विधि करके यक्षमंत्र से शांतिहोम करें , अनंतर पुण्याहवाचन करके स्वर्णपात्र में दूध, शक्कर, कपूर मिलाकर रखें, उसी से स्वर्णशलाका से शुभ मुहूत्र्त में नयनोन्मीलन विधि करें। इसके बाद अधिवासनादि विधि करके वस्त्र, आभरण, माला आदि के द्वारा अर्चना करके विसर्जन विधि करें । अनंतर प्रतिष्ठा के अगले दिन पूर्ववत् अवभृतस्नान-महाभिषेक आदि करके प्रतिष्ठा को निष्ठापित करें। प्रतिष्ठा के बाद में हमेशा नित्य ही उन यक्ष प्रतिमा की पूजा करे। यह एक गोमुख यक्ष की प्रतिष्ठा विधि हुई। शेष यक्षों की यही स्थापना विधि है। चक्रेश्वरी यक्षी आदि की प्रतिष्ठा में मंत्र के निमित्त से किंचित् भेद है। इस प्रकार सिद्धप्रतिमा की प्रतिष्ठा को प्रमुख करके आचार्यादि की प्रतिष्ठा विधि बताई गई है। जो भव्यजन बहुविध जिनभक्ति से इस विधि को करते हैं, वे बहुत सा पुण्य संचित करके नाना प्रकार के भोगों का अनुभव करके जिनेंद्रदेव के सुखसमुद्र की वृद्धि के लिए चन्द्रमा के समान हो जाते हैं।
इत्यर्हत्प्रतिष्ठासारसंग्रहे नेमिचंद्रदेवविरचिते प्रतिष्ठातिलकनाम्नि सिद्धादिप्रतिष्ठाविधिर्नाम सप्तदशः परिच्छेदः।