लेखिका- चारित्र श्रमणी आर्यिकारत्न श्री अभयमती माताजी (समाधिस्थ)
जन्मभूमि विकास की द्वितीय कड़ी के रूप में पूज्य माताजी की प्रेरणा से सन् १९९३-९४ में शाश्वत तीर्थ अयोध्या का विकास एवं जीर्णोद्धार हुआ अत: प्रसंगोपात्त अयोध्या का परिचय यहाँ दृष्टव्य है-
जो कर्मशत्रुओं को जीतें वे ‘जिन’ कहलाते हैं और जिन के उपासक ‘‘जैन’’ कहलाते हैं। यह जैनधर्म अनादिनिधन है और प्राणी मात्र का हित करने वाला होने से ‘‘सार्वभौम’’ धर्म है। इसी प्रकार से जो जीवों को संसार के दु:ख से निकालकर उत्तम सुख में पहुँचावे, वह ‘धर्म’ है। ‘धर्म तीर्थं करोति इति तीर्थंकर:’’ इस व्याख्या के अनुसार जो ऐसे धर्मतीर्थ को करते हैं अर्थात् प्रवर्तन करते हैं वे ‘‘तीर्थंकर’’ कहलाते हैं।
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अयोध्या नगरी है, जिसे ‘साकेता’, ‘विनीता’ और ‘सुकोशला’ भी कहते हैं। इस आर्यखण्ड में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के दोनों कालों में सुषमा-सुषमा आदि नाम से छह कालों का परिवर्तन होता रहता है।
प्रत्येक के चतुर्थकाल में २४-२४ तीर्थंकर जन्म लेते रहते हैं। इस नियम के अनुसार इस राजधानी अयोध्या में अतीत काल में अनंतानंत चौबीसी हो चुकी हैं और भविष्यत्काल में भी अनंतानंत चौबीसी होंगी। वर्तमान में हुण्डावसर्पिणी काल होने से तृतीय काल के अंत में ही भगवान ऋषभदेव हुए थे और तृतीय काल में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहने पर ही मोक्ष चले गए थे, इसी कालदोषवश ही इस बार अयोध्या में ५ तीर्थंकर जन्मे हैं, शेष उन्नीस तीर्थंकर अन्यत्र स्थानों पर जन्मे हैं।
हुण्डावसर्पिणी काल में तृतीय काल में ही प्रथम तीर्थंकर का होना, प्रथम चक्रवर्ती का मान भंग होना, अयोध्या में पाँच तीर्थंकर का ही जन्म लेना, शेष तीर्थंकर का अन्यत्र जन्म लेना, नाना प्रकार के मतों का उत्पन्न हो जाना इत्यादि अघटित कार्य हो गए हैं। इस प्रकार अनादिनिधन जैनधर्म की भांति ही तीर्थंकर परम्परा भी अनादिनिधन है।
तृतीय काल के अंत में जन्में १४ कुलकरों में सभी भोगभूमिज युगलिया थे, इनमें तेरहवें एवं चौदहवें कुलकर अकेले उत्पन्न हुए थे। १४वें कुलकर नाभिराय का विवाह सौधर्मेन्द्र ने प्रधान कुल की कन्या मरुदेवी के साथ कराया था। नाभिराय ने अपने एकमात्र पुत्र तीर्थंकर ऋषभदेव का विवाह इन्द्र की अनुमति से कच्छ-महाकच्छ राजा की बहन यशस्वती और सुनन्दा के साथ किया था। यशस्वती ने भरत आदि १०० पुत्रों तथा ब्राह्मी कन्या को एवं सुनन्दा ने बाहुबली व सुन्दरी कन्या को जन्म दिया था।
अयोध्या की पवित्र भूमि पर ही भगवान ऋषभदेव ने अपनी दोनों पुत्रियों को अक्षर और गणित विद्या से प्रारंभ करके सभी पुत्र-पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं-कलाओं में निष्णात कर दिया था। प्रजा को असि, मषि आदि छह क्रियाओं का उपदेश देकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना करके कर्मभूमि की सृष्टि को जन्म दिया था, तब ये भगवान सरागी-गृहस्थ थे।
आगे इन भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने इसी अयोध्या में ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की थी। भगवान के पुत्र ‘अनंतवीर्य’’ भगवान से पहले (सर्वप्रथम) मोक्ष गए हैं अनंतर दूसरा नम्बर मोक्षगामी में ‘श्री बाहुबली’ का हुआ है। ब्राह्मी–सुन्दरी ने भगवान के समवसरण में आर्यिका दीक्षा ली थी, जिसमें ब्राह्मी माता आर्यिकाओं में प्रमुख गणिनी थीं और भगवान के तृतीय पुत्र वृषभसेन प्रमुख गणधर हुए थे।
अयोध्या में ही भगवान अजितनाथ के बाद सगर चक्रवर्ती हुए हैं, जिन्होंने देव के निमित्त से वैराग्य प्राप्त कर एवं उनके साठ हजार पुत्रों ने जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया है। सगर चक्रवर्ती के पौत्र भगीरथ ने दीक्षा लेकर गंगा के तट पर ध्यान किया था, तब देवों ने उनके चरणों का अभिषेक किया था, जिसका प्रवाह गंगा नदी में मिल जाने से तभी से गंगा नदी तीर्थ रूपता को प्राप्त हो गई है।
भरत के प्रथम पुत्र अर्ककीर्ति के नाम से इस इक्ष्वाकुवंश को सूर्यवंश यह संज्ञा भी प्राप्त हुई थी। भरत के मोक्ष जाने के बाद इस वंश में लगातार चौदह लाख राजाओं ने अपने-अपने पुत्रों को राज्य देकर दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया है।
जैन रामायण के अनुसार इसी पवित्र अयोध्या नगरी में सूर्यवंश में राजा अनरण्य के पुत्र राजा दशरथ ने दिगम्बर दीक्षा ली थी, उन मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र के भाई भरत ने भी दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त किया है। जब रामचन्द्र अपने भाई लक्ष्मण के मोह में व्याकुल थे, तभी सीता के पुत्र लव-कुश ने दिगम्बरी दीक्षा ले ली थी।
इसी अयोध्या में सती सीता ने अपने शील के प्रभाव से अग्नि को सरोवर बनाकर पृथ्वीमती आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा लेकर घोर तपश्चर्या करके समाधिपूर्वक मरण कर स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया था। यह रामचन्द्र त्रेसठ शलाका पुरुषों में से आठवें बलभद्र, लक्ष्मण आठवें नारायण और रावण आठवें प्रतिनारायण हुए हैं। इस प्रकार अगणित महापुरुषों ने इस अयोध्या को पवित्र किया है। कु. अनन्तमती कन्या ने भी यहीं पर आर्यिका दीक्षा ली थी।
वीर निर्वाण के लगभग १०० वर्ष बाद मगध नरेश नंदिवर्धन ने अयोध्या में मणिपर्वत नामक उत्तुंंग जैन स्तूप बनाया था, जो आज भी मणिपर्वत टीला के नाम से अयोध्या में प्रसिद्ध है। मौर्य सम्राट् सम्प्रति और वीर विक्रमादित्य के नाम भी इस क्षेत्र के पुराने जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार एवं नवीन मंदिरों का निर्माण कराने में ज्ञात हुए हैं।
गुजरात नरेश कुमार पाल चौलुक्य (सोलंकी) ने भी यहाँ जिनमंदिर बनवाए थे। दशवीं-ग्यारहवीं शती ई. में यहाँ जैन धर्मावलम्बी श्री वास्तव्य कायस्थ राजाओं का शासन रहा है।
सन् ११९४ ई. के. लगभग दिल्ली विजेता मुगल शासक मुहम्मद गौरी के भाई मखदूमशाह जूरन गौरी ने अयोध्या पर आक्रमण किया और ऋषभदेव –जन्मस्थान के विशाल जिनमंदिर को ध्वस्त करके उसके स्थान पर मस्जिद बनवा दी, शाहजूरन टीले पर मस्जिद के पीछे की ओर आदिनाथ का छोटा सा जिनमंदिर थोड़े दिनों बाद ही बन गया था।
यहाँ एक कथानक सुनने में आता है कि जैनोें ने जब यहाँ के शासक से आग्रह किया कि यह हमारा प्राचीन पवित्र स्थल भगवान ऋषभदेव का जन्मस्थान है अत: यहाँ मंदिर बनना चाहिए। इसके समर्थन में प्रमाण मांगे जाने पर जैनों ने कहा कि स्थान की खुदाई करके देख लिया जाए। उसमें चांदी का स्वस्तिक, नारियल तथा जलता हुआ घृतदीपक मिलेगा। अस्तु, खुदाई होने पर यथावत् वस्तुएँ मिलीं। इस पर जैनों को यहाँ मात्र एक रात में मंदिर बनाने की इजाजत मिली, फलस्वरूप मंदिर बना जिसमें बहुत छोटी सी जगह में भगवन ऋषभदेव के चरण चिन्ह विराजमान हैं।
वहाँ के शिलालेख से स्पष्ट है कि यह टोंक ला. केसरी सिंह के समय से पूर्व ही विद्यमान थी और उन्होंने २४ ई. में इसका जीर्णोद्धार कराया था, पुन: १८९९ ई. में लखनऊ के पंचों ने तथा १९५६ ई. में ला. जम्बू प्रसाद जैन, गोटे वाले-लखनऊ ने जीर्णोद्धार कराया था। यह टोंक स्वर्गद्वार मोहल्ले में स्थित है।
कटरा मुहल्ले में स्थित प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है, शिखरयुक्त इस मंदिर में चार वेदियाँ हैं, यहाँ पर एक प्रतिमा वि. सं. १२२४ की हैं। चौथी वेदी में भगवान ऋषभदेव की ९ फुट उत्तुंग प्रतिमा व आजू-बाजू में भरत–बाहुबली की प्रतिमा आचार्य श्री देशभूषण महाराज की प्रेरणा से सन् १९५२ में विराजमान की गई हैं।
मंदिर के आंगन में भगवान सुमतिनाथ की टोंक है, जिसमें भगवान सुमतिनाथ के चरण विराजमान हैं। कटरा मोहल्ले में ही एक टोंक है, जिसमें अयोध्या में ही जन्में श्री भरत चक्रवर्ती और कामदेव बाहुबली के चरण विराजमान हैं तथा कटरा मंदिर के पास ही पाण्डुक शिला परिसर में भगवान शांति, कुंथु व अरहनाथ भगवान के चरण विराजमान हैं। कटरा मोहल्ले में ही भगवान अभिनंदननाथ के जन्मस्थान के प्रतीकरूप में टोंक है जो शिखरबंद है, इसमें भी भगवान के चरण स्थापित हैं।
इसका जीर्णोद्धार भी सन् १७२४ व सन् १८९९ में हुआ है। बकसरिया टोले में जिसे बेगमपुरा भी कहते हैं, भगवान अजितनाथ की टोंक है। जन्मस्थान के प्रतीक रूप में इसमें भगवान अजितनाथ के चरण चिन्ह विराजमान हैं, यह शिखरबंद टोंक है। सरयू नदी के पास राजघाट पर भगवान अनंतनाथ के चरण चिन्ह सहित मंदिर है। इसका जीर्णोद्धार १७२४ ई. में व १८९९ ई. में कराया गया है।
इस टोंक से लगे हुए टीले की पुरातत्व विभाग ने खुदाई कराई थी और अब से लगभग १०० वर्ष पूर्व जनरल कनिंघम ने उस टीले का वर्णन ‘‘जैन टीला’’ नाम से किया था। कुछ वर्ष पूर्व सरयू नदी की बाढ़से इस टोंक को क्षति पहुँचने पर तीर्थक्षेत्र कमेटी ने जीर्णोद्धार कराया था।
मुहल्ला रायगंज में रियासती बाग के मध्य में एक भव्य जिनमंदिर का निर्माण हुआ है। इसमें मूलनायक के रूप में ३१ फुट ऊँची विशाल एवं मनोज्ञ भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा विराजमान हैं। सन् १९६५ में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज की प्रेरणा से और दिल्ली आदि स्थानोेंं के अनेक श्रद्धालु उत्साही श्रावकों के सहयोग से यह भव्य जिनमंदिर बना है, आजू-बाजू में अन्य और छह प्रतिमाएँ विराजमान हैं। ऊपर भी दो वेदियाँ हैं।
धनतेरस कार्तिक कृ. त्रयोदशी, सन् १९९२ के दिन ब्रह्ममुहूर्त में जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के मन में अयोध्या में विराजमान ३१ फुट उत्तुंग विशाल जिनप्रतिमा के महामस्तकाभिषेक कराने की अन्तर्प्रेरणा= जागृत हुई, फलस्वरूप ११ फरवरी १९९३ को हस्तिनापुर से विहार कर १६ जून १९९३ को अयोध्या में मंगल पदार्पण किया, उनके अवध विहार से सम्पूर्ण अवधवासियों में खुशी की लहर दौड़ गई और अवधवासी अपनी ब्राह्मी सदृश माता को पाकर कृतकृत्य हो उठे।
उस समय माताजी ने भगवान की विशाल प्रतिमा के प्रथम दर्शन किए और मात्र कुछ ही दिन के प्रवास में अयोध्या तीर्थ की जीर्ण-शीर्ण अवस्था देख उनका अन्तर्हृदय रो पड़ा और उन्होंने उसी क्षण वहाँ के पदाधिकारियों की विनती स्वीकार कर अपनी जन्मभूमि के उत्साह व स्नेह को ठुकराकर अयोध्या के विकास हेतु अपना चातुर्मास स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान कर दी, फिर तो राम जन्मभूमि के नाम से विख्यात अयोध्या देखते ही देखते ऋषभ जन्मभूमि के नाम से विश्व के मानसपटल पर अंकित हो गई।
२४ फरवरी १९९४ को उत्तरप्रदेश में प्रथम बार भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक हुआ, साथ ही प्रथम भेंट के रूप में पूज्य माताजी ने मंदिर के आजू-बाजू तीन चौबीसी मंदिर एवं समवसरण मंदिर का निर्माण कराया। इन नूतन जिनमंदिरों में तीन चौबीसी मंदिर में तीन मंजिल वाला एक ७२ दल का विस्तृत कमल है। उन दलों पर तीन चौबीसी के कुल बहत्तर तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
बायीं तरफ समवसरण में भगवान ऋषभदेव के समवसरण में गंधकुटी में ४ प्रतिमाएँ हैं और मानस्तंभ, चैत्य प्रासादभूमि, उपवनभूमि, कल्पतरु भूमि, भवनभूमि आदि में १५२ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। श्रीमण्डप भूमि में गणधर देव, मुनिगण व आर्यिकाओं की प्रतिमाएँ भी हैं। सुन्दर बाग-बगीचे से समन्वित इस रायगंज मंदिर परिसर में प्राचीन धर्मशाला के अतिरिक्त तीन नूतन धर्मशालाएँ (डीलक्स फ्लैट युक्त), आचार्य शांतिसागर निलय, आचार्य देशभूषण निलय एवं गणिनी ज्ञानमती निलय हैं तथा सुंदर भोजनशाला भी चल रही है।
पूज्य माताजी की प्रेरणा से यहाँ होने वाली पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में पधारने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या में भगवान ऋषभदेव नेत्र चिकित्सालय की स्थापना की तथा फैजाबाद स्थित ‘‘डा. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय’’ में ‘ऋषभदेव जैन शोधपीठ’ की भी स्थापना हुई।
माताजी की ही प्रेरणा से अयोध्या के राजघाट पर स्थित राजकीय उद्यान ‘‘ऋषभदेव उद्यान’’ के नाम से घोषित हुआ, जहाँ २१ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान की गई तथा टोकों का जीर्णोद्धार कर वहाँ अनेक शिलालेख लगाए गए, जो अयोध्या के इतिहास की गौरव गाथा गा रहे हैं।
सरयू तट पर स्थित भगवान अनंतनाथ टोंक परिसर में २४ तीर्थंकर के परिचय व चरण चिन्ह तथा ब्राह्मी–सुन्दरी माता के चरण विराजमान किए गए हैं।
सन् १९९४ में माताजी की प्रेरणा प्राप्त कर वहाँ के पदाधिकारियों ने प्रत्येक ५ वर्ष के अनन्तर भगवान का महामस्तकाभिषेक महोत्सव आयोजित करने की घोषणा की थी, मगर शायद उस धरा को पुन: उन्हीं ब्राह्मी माता का इंतजार था, इसलिए सन् २००५ में टिकैतनगर पंचकल्याणक हेतु अवध की ओर विहार करते हुए पूज्य माताजी के श्रीचरण एक बार पुन: अयोध्या की धरा पर पड़े और उनके संघ सानिध्य में ११ वर्षों बाद उन आदीश्वर बाबा का महामस्तकाभिषेक अप्रैल २००५ में धूमधाम से सम्पूर्ण विश्व में अयोध्या की कीर्तिपताका को फहराता हुआ सम्पन्न हुआ।
पुन: पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की मंगल प्रेरणा एवं कर्मयोगी पीठाधीश स्वस्ति श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी के निर्देशन में पाँचों जन्मभूमि टोंकों पर प्राचीन चरणों व शिलालेखों से छेड़छाड़ किये बिना ही उनको घेरकर विशाल शिखरबद्ध जिनमंदिरों का निर्माण कराया गया। जिनमें उन-उन तीर्थंकर की मनोहारी प्रतिाएं एक-एक दातारों के सौजन्य से ही विराजमान कराकर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी उन्हीं के द्रव्य से सम्पन्न की गई।
ईसवी सन् २०१० से २०१४ तक क्रमश: भगवान ऋषभदेव , भगवान अनंतनाथ, भगवान अभिनंदननाथ, भगवान अजितनाथ एवं भगवान भरत–बाहुबली की टोकों पर निम्न दातारों द्वारा मंदिर निर्माण कराये गये।
भगवान ऋषभदेव टोंक- श्री कैलाशचंद, आदीश कुमार, अध्यात्म, सिद्धार्थ जैन, टिकैतनगर, लखनऊ (उ.प्र.), भगवान अनंतनाथ टोंक-श्री प्रद्युम्न कुमार, अमरचंद, हेमचंद, नेमचंद जैन, टिकैतनगर, लखनऊ (उ.प्र.), भगवान अभिनंदननाथ टोंक-श्री कोमलचंद जैन, महमूदाबाद(उ.प्र.),
भगवान अजितनाथ टोंक- श्री वीरेन्द्र कुमार, अभय, अरिंजय, अमित जैन, टिकैतनगर, लखनऊ (उ.प्र.)
भरत–बाहुबली टोंक- श्रीमती शांति देवी ध.प. राजकुमार जैन, डालीगंज, लखनऊ (उ.प्र.),
भगवान सुमतिनाथ की टोंक पर भी वर्तमान में मंदिर निर्माण का कार्य श्री अतुल कुमार, बीरबल कुमार जैन, टिकैतनगर (उ.प्र.) के सौजन्य से द्रुतगति से चल रहा है, जिसमें अष्टधातु की सुंदर पद्मासन प्रतिमा विराजमान होंगी।
इस अयोध्या तीर्थ में अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार सन् १३३० में अनेक मंदिर थे।
महाराजा नाभिराज का मंदिर, पार्श्वनाथ बाड़ी, गोमुख यक्ष, चक्रेश्वरी यक्षी की रत्नमयी प्रतिमा, सीताकुंड, सहस्रधारा, स्वर्गद्वार आदि अनेक जैनायतन विराजमान थे।
यहाँ एक श्वेताम्बर जैन मंदिर भी है तथा वैष्णव सम्प्रदाय के साढ़े सात हजार मंदिर माने गए हैं, जिनमें हनुमानगढ़ी, सीता रसोई, दशरथ महल, कनक भवन आदि अनेक दर्शनीय स्थल हैं।
ऐसी पावन शाश्वत जन्मभूमि का कण-कण परम पूज्यनीय व वंदनीय है, जिसका दर्शन-वंदन अनेक पाप कर्मों का नाश कर सातिशय पुण्य प्राप्ति में सहायक है।
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