दोहा
तीर्थंकर प्रकृती यहाँ, महापुण्यफलराशि ।
मन वच तन से मैं नमूं, मिले सर्वसुख राशि।।१।।
गीता छंद
नगरी अयोध्या में पिता, श्री नाभिराजा के यहाँ।
मरुदेवि माता गर्भ में, सर्वार्थसिद्धी से यहाँ।।
पुरुदेवजिन आषाढ़ वदि, दुतिया सुउत्तराषाढ़ में।
जिन गर्भ मंगल नित नमूं, इससे लहूँ सुखसात मैं।।१।।
साकेत नगरी में पिता, जितशत्रु विजया मात के।
उर में बसे नक्षत्र रोहिणि, ज्येष्ठ कृष्ण अमावसे।।
श्री अजितनाथ विजय, अनुत्तर से उतर आये यहाँ।
प्रभु गर्भ कल्याणक मनाते, इन्द्र मैं वंदूं यहाँ।।२।।
संभव अधोग्रैवेयक तज, नगरि श्रावस्ती जहाँ।
राजा जितारी मां सुसेना, गर्भ में आये यहाँ।।
फागुन सुदी अष्टमि तिथी, मृगशिर नखत शुभ काल में।
इंद्रादि ने उत्सव किया, अब मैं नमूं नत भाल मैं।।३।।
प्रभु अभिनंदन विजय, अनुत्तर छोड़ साकेता पुरी।
संवर पिता माता सु सिद्धार्था, गरभ में शुभ घरी।।
वैशाख शुक्ला छठ पुनर्वसु, नखत उत्तम काल में।
प्रभु गर्भ मंगल इंद्र करते, मैं नमूं त्रयकाल में।।४।।
जिन सुमति साकेतापुरी में, तज जयंत विमान को।
मां मंगला के गर्भ आये, मेघप्रभ पितु मान्य जो।।
श्रावण शुकल दुतिया मघा, नक्षत्र सुर उत्सव किया।
मैं गर्भकल्याणक नमूँ, फिर गर्भवास न होइया।।५।।
प्रभुपद्म ऊरध ग्रैवेयक तज, नगरि कौशाम्बी विषें।
पितु धरण गृह माता सुमीमा, के गरभ में आ बसे।।
तिथि माघ कृष्णा छट्ठ, चित्रा नखत में उत्तम घड़ी।
इन्द्रादि ने उत्सव किया, मैं नमत हूँ इस ही घड़ी।।६।।
प्रभु मध्य ग्रैवेयक तजा, वाराणसी में आ गये।
पितु सुप्रतिष्ठ सुमात पृथिवी, के गरभ में तिष्ठये।।
तिथि भाद्रशुक्ला छठ विशाखा, नखत जनमन सोहना।
इंद्रादि मिल उत्सव करें, मैं नमूं जिनपद मोहना।।७।।
जिनचंद्र विजयंते अनुत्तर से चये आये यहाँ।
महासेन पितु माँ लक्ष्मणा के गर्भ में तिष्ठे यहाँ।।
शुभ चंद्रपुरि में चैत्रवदि पंचमि तिथी थी शर्मदा।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, मैं नित नमूं गुण मालिका।।८।।
जिन सुविधि आरण स्वर्ग से, च्युत होय काकंदी पुरी।
सुग्रीव पितु रामा जननि के, गर्भ आये शुभ घरी।।
फाल्गुन वदी नवमी नखत था, मूल सुर मंगल किया।
मैं नित नमूं प्रभु गर्भ कल्याणक न धारूँ भव यहाँ।।९।।
शीतलप्रभु अच्युत सुरग से, भद्रिकापुरि आ गये।
दृढ़रथ पिता माता सुनंदा, के गरभ में आ गये।।
तिथि चैत कृष्णा अष्टमी, नक्षत्र पूर्वाषाढ़ था।
इंद्रादि गर्भोत्सव किया, वंदत हरूँ मृत्यु व्यथा।।१०।।
श्रेयांस पुष्पोत्तर विमान तजा सु सिंहपुरी विषे।
पितु विष्णु माता वेणुदेवी, गर्भ में आकर बसे।।
तिथि ज्येष्ठ कृष्णा छठ श्रवण, नक्षत्र उत्तम ग्रहों में।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, हम वंदते इन क्षणों में।।११।।
प्रभु वासुपूज्य सु महाशुक्र, सरग तजा चंपापुरी।
वसुपूज्य पितु विजया सुमाता, गर्भ आये शुभघरी।।
आषाढ़ कृष्णा छठ नखत, शतभिषज् इंद्रों ने जजा।
मैं नित नमूं प्रभु गर्भ कल्याणक, मिटे यम की सजा।।१२।।
जिन विमल स्वर्ग शतार, तजकर कंपिलापुरि आ गये।
कृतवर्म पितु माता जयाश्यामा गरभ में बस गये।।
तिथि ज्येष्ठ वदि दसमी, सु उत्तर भाद्रपद नक्षत्र था।
सुरपति महोत्सव कर रहे, मैं नित नमूं मेटो व्यथा।।१३।।
जिनवर अनंत सु स्वर्ग, पुष्पोत्तर तजा साकेत में।
जननी सु सर्वयशा गरभ में, सिंहसेन निकेत में।।
कार्तिक वदी एकम तिथी, रेवति नखत सुरपति जजें।
हम वंदते प्रभु गर्भ मंगल, नित्य नव मंगल भजे।।१४।।
सर्वार्थसिद्धी तज धरमजिन, रत्नपुर में भानु पित।
मां सुव्रता के गर्भ सुदि, बैशाख तेरस तिथि सुखद।।
तुम गर्भ उत्सव के लिये, सब इंद्र सुरगण आ गये।
हम वंदते नित भक्ति से, सब रोग शोक नशाइये।।१५।।
श्री शांतिजिन सर्वार्थसिद्धी, छोड़ हस्तिनापुरी में।
पितु विश्वसेन सुमात ऐरावती के शुभ गर्भ में।।
भादों वदी सप्तमि तिथी, नक्षत्र भरणी शुभ घड़ी।
सुरपति मिलें उत्सव करें, मैं नित नमूं यह शुभ घड़ी।।१६।।
श्री कुंथुजिन सर्वार्थसिद्धी छोड़ हस्तिनापुरी में।
पितु सुर्यसेन सुमात, श्रीमतिदेवि के शुभ गर्भ में।।
श्रावण वदी दसमी नखत, है कृत्तिका ग्रह श्रेष्ठतम।
सुरपति महा उत्सव करें, वंदत मिले सुख श्रेष्ठतम।।१७।।
अरनाथ अपराजित अनुत्तर, छोड़ हस्तिनापुरी में।
माता सुमित्रा गर्भ में, सविता१ सुदर्शन महल में।।
फाल्गुन वदी तृतिया नखत, रेवति अनूपम शुभ घड़ी।
सुरपति महोत्सव कर रहें, मैं नित नमूं यह शुभ घड़ी।।१८।।
जिन मल्लि अपराजित अनुत्तर, छोड़ मिथिलापुरी बिषे।
पितु वुभनृप माता प्रभावति, गर्भ में आकर बसें।।
तिथि चैत्र सुदि एकम नखत, अश्विनि महापूज्या घड़ी।
सुरपति महोत्सव कर रहे, मैं भी नमूं यह शुभ घड़ी।।१९।।
जिन मुनीसुव्रत सुरग आनत, छोड़ राजगृही में।
सविता सुमित्र सुमात पद्मावती, के शुभ गर्भ में।।
श्रावण वदी दुतिया श्रवण, नक्षत्र सुरगण पूजते।
हम गर्भ कल्याणक नमें, सब पाप संकट धूजते।।२०।।
नमिनाथ अपराजित तजा, मिथिलापुरी में आ गये।
पितु विजय माता वप्रिला२, के गर्भ में आ तिष्ठये।।
आसोजवदि दुतिया नखत, अश्विनि सकलसुरपूजते।
हम गर्भ कल्याणक नमें, भव भव दुखों से छूटते।।२१।।
श्री नेमि अपराजित अनुत्तर, छोड़ शौरीपुरी में।
सविता समुद्र विजय सुमाता, शिवादेवी गर्भ में।।
कार्तिक सुदी छठ उत्तराषाढ़ा, गरभ मंगल करें।
हम वंदते यह गर्भ कल्याणक, सकल मंगल भरें।।२२।।
श्री पाश्र्वजिन प्राणत सुरग से, पुरी वाराणसी में।
पितु अश्वसेन सुमात वामा, के महा शुभ गर्भ में।।
वैशाखवदि द्वितिया विशाखा, नखत उत्तम शुभघड़ी।
मैं भी नमूं शुभ भाव लेके, इंद्र वंदित यह घड़ी।।२३।।
महावीर पुष्पोत्तर विमान, सु छोड़ कुंडलपुरी में।
सिद्धार्थ पितु माता सु प्रियकारिणि सती के गर्भ में।।
आषाढ़ सुदि छठ उत्तरा, षाढ़ा१ नखत शुभ जानिये।
सुरपति महोत्सव कर रहें, वंदूं सकल दुख हानिये।।२४।।
चौबीस जिनवर जहं जहां, से अवतरे आये यहाँ।
जिस नगर में जिनजनक गृह, जिस मात उर तिष्ठे यहाँ।।
जिस नखत में जिस शुभ तिथी, में गर्भ उत्सव सुर किया।
मैं नमूं इन सबको यहाँ, मन वचन तन पावन किया।।२५।।
सोलह स्वप्ने माता देखे, जब गर्भ में जिनवर आते हैं।
इंद्रों के आसन कंपते ही, वे वैभव से यहं आते हैं।।
माता पितु की पूजा करके, सुर महामहोत्सव करते हैं।
श्री आदि मात की सेवारत, आंगन में रतन बरसते हैं।।२६।।
शंभु छंद
जिन गर्भागम से छह महिने, पहले सुरपति की आज्ञा से।
नगरी को सुंदर बना धनद, माँ आंगन रतन सु बरसाते।।
तिथि चैतवदी नवमी उत्तराषाढ़ा, नक्षत्र में प्रभु जन्में।
सुरगिरि पर न्हवन हुआ जिनका, उन ऋषभदेव को आज नमें।।१।।
श्री आदि देवियाँ माता की, सेवा करती अति भक्ती से।
अति गूढ़ प्रश्न करतीं देवी, मां उत्तर देतीं युक्ती से।।
था योग प्रजेश माघ शुक्ला, दशमी अजितेश्वर जन्म लिया।
देवों गृहं बाजे बाज उठे, सुरगिरि पर सुरपति न्हवन किया।।२।।
जब प्रभु ने जन्म लिया भू पर, देवों के आसन कांप उठे।
झुक गये मुकुट सब देवों के, सुरतरु से स्वयं सुमन बरसे।।
कार्तिक पूनो मृगशिर नक्षत्र में, संभवप्रभु ने जन्म लिया।
मेरु पर सुरगण न्हवन किया, तिथि जन्म नमत सुख प्राप्त किया।।३।।
ऐरावत हाथी पर चढ़कर, सौधर्म इंद्र यहाँ आते हैं।
शचि देवी सह जन बालक को, मेरुगिरि पर ले जाते हैं।।
शुभ अदिति योग में माघ शुक्ल, द्वादशि को अभिनंदन स्वामी।
जन्में हैं उस तिथि को वंदूं, हो जाऊँ मैं शिवपथगामी।।४।।
सुदि चैत इकादशि चित्रा उडु, में सुमतिनाथ ने जन्म लिया।
सुरपति ऐरावत पर आकर, जिनका जन्मोत्सव सफल किया।।
ऐरावत गज के दंतों पर, सरवर सरवर में कमल खिले।
सब कमलदलों पर सत्ताईस, करोड़ अप्सरियाँ नृत्य करें।।५।।
कार्तिक कृष्णा तेरस में त्वष्ट्र, योग पद्म प्रभु जन्म लिया।
शचि माता के प्रसूति गृह में, जाकर जिन शिशु का दर्श किया।।
सुरपति जिन प्रभु को गोद में लेकर, रूप देख नहिं तृप्त हुआ।
तब नेत्र हजार बना करके, प्रभु का दर्शन कर मुदित हुआ।।६।।
जिनवर सुपाश्र्व ने अग्निमित्र, शुभ योग ज्येष्ठ सुदि बारस में।
जब जन्म लिया तब शांति हुई, आनंद छाया सारे जग में।।
इंद्रों ने जन्मोत्सव करके, अतिसुंदर तांडव नृत्य किया।
फिर वाराणसीमें आ करके, शिशु को माता को सौंप दिया।।७।।
श्रीचंद्रनाथ जी पौषकृष्ण, ग्यारस तिथि योग शक्र शुभ में।
जन्में उस ही क्षण वाद्य सभी, स्वयमेव बजे सुरगण गृह में।।
तीर्थंकर प्रकृती का माहात्म्य, त्रिभुवन में हर्ष लहर दौड़ी।
जिनने जन्मोत्सव देख लिया, उनसें शिवतिय नाता जोड़ी।।८।।
श्री पुष्पदंत शुभ जैत्र योग, मगसिर सुदि एकम को जन्मे।
रुचकाद्रिवासिनी देवी ने, प्रभु जातकर्म किया उस क्षण में।।
इंद्राणी शिशु को गोद में ले, निज स्त्रीलिंग को छेद किया।
अतिशायी पुण्य किया संचित, मैं नमते जीवन धन्य किया।।९।।
शीतल जिन माघ कृष्ण बारस, शुभ विश्वयोग में जन्म लिया।
सुरपति ने असंख्य देवों सह, मेरु पर प्रभु का न्वहन किया।।
त्रिभुवन में शीतलता व्यापी, सुरपति ने शीतलनाथ कहा।
मैं वंदूं शीश नमा करके, होवे मन में आनंद महा।।१०।।
फाल्गुन वादि ग्यारस विष्णु योग, श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ।
देवों के आसन कांप उठे, इन्द्राणी को अतिहर्ष हुआ।।
इंद्रों ने असंख्य वैभव ले, जिन जन्मकल्याणक पूजा की।
मैं वंदूं जन्मकल्याणक को, मिल जावे जिनगुण सम्पत्ती।।११।।
फाल्गुन वदि चौदश तिथि योग, वारुण में सर्वउच्चग्रह में।
श्री वासुपूज्य का जन्म हुआ, सब अतिशय प्रगटे उस क्षण में।।
इंद्राणी को सौभाग्य मिला, जिनशिशु को गृह से लाने का।
मैं वंदूं जन्मकल्याणक को, मिल जावे पुण्यमयी नौका।।१२।।
श्री विमल माघ सुद चौथ तिथी, शुभ योग अहिर्बुध्न दिन में।
जन्में त्रिभुवन को धन्य किया, सुख शांति हुई सारे जग में।।
जो उनका जन्म दिवस पूजे, वे पुन: पुन: नहिं जन्म धरें।
प्रभु भक्ती से सुरपति शचि भी, बस एकहि भव लें मुक्ति वरें।।१३।।
तिथि ज्येष्ठ वदी बारस पूषा, शुभ योग उच्चग्रह सब ही थे।
जिनवर अनंत ने जन्म लिया, सुरगृह में बाजे बाजे थे।।
प्रभु सुख अनंत के भोक्ता हैं, उन भक्त अनंत सुखी होते।
मैं वंदूं जन्म दिवस प्रभु का, उन वंदन अन्तक भय खोते।।१४।।
श्री धर्मनाथ सुदि माघ त्रयोदशि, गुरू योग में जन्में थे।
इन्द्रों ने मेरु पर ले जा, अभिषेक किया था उत्सव से।।
प्रभु धर्मनाथ ने पृथ्वी पर, धर्मामृत सुखकर बरसाया।
मैं वंदूं जन्म दिवस प्रभु का, सुरगण ने अतिशय गुण गाया।।१५।।
श्री शांतिनाथ शुभ याम्य योग, वदि ज्येष्ठ चतुर्दशि के जन्में।
नरकों में भी क्षण शांति हुई, पायी शांती सबही जन ने।।
सुरपति ने प्रभु अभिषेक किया, शुचि ने आभूषण पहनाये।
जो वंदें प्रभु की जन्मतिथि, वे मुक्तिरमा को अपनायें।।१६।।
बैशाख शुक्ल एकम आग्नेय, योग कुंथु प्रभु जन्म लिया।
धनपति ने पंद्रह माह रतन, बरसा कर पृथ्वी धन्य किया।।
नगरी भी स्वर्णमयी करके, तोरण आदिक से सजा दिया।
मैं वंदूँ जन्म दिवस प्रभु का, इंद्रों ने उत्सव खूब किया।।१७।।
श्री अरहनाथ मगसिर शुक्ला, चौदश नक्षत्र पुष्य शुभ में।
जन्में दश अतिशय साथ लिये, जन्मोत्सव किया इंद्रगण ने।।
जो जन्म मरण दुख से डरते, वे प्रभु की पूजा करते हैं।
हम वंदें शीश नमा करके, दुख दारिद संकट हरते हैं।।१८।।
मगसिर सुदि ग्यारस में अश्विनी, नक्षत्र मल्लि ने जन्म लिया।
निजके अतिशायी पुण्य विभव, से त्रिभुवन को भी धन्य किया।।
रुचकाद्रि देवियों ने मिलकर, प्रभु जातकर्म विधिवत् कीया।
हम वंदे भक्ति भाव करके, भक्ती से ज्ञाननिधी लीया।।१९।।
मुनिसुव्रत जिन बैशाख वदी, बारस तिथि में उत्तम ग्रह में।
जन्में तब इंद्र इंद्राणी ने, अभिषेक किया उस ही क्षण में।।
बस अर्ध निमिष में मेरु पर, ले जाकर जन्म न्हवन कीया।
मुझ जन्म जन्म दुख मिट जावे, इस हेतू शीश नमा दीया।।२०।।
नमिनाथ आषाढ़ वदी दशमी, स्वाती सु नखत में थे जन्में।
मेरु पर हजार आठ कलशों से न्हवन किया सुर ने।।
क्षीरोदधि से जल क्षीर सदृश, भर लाये हाथों हाथ देव।
वंदत ही रोग शोक नशते, मैं वंदूं नितप्रति करूँ सेव।।२१।।
श्रावण सुदि छठ चित्रा नक्षत्र, में नेमिनाथ ने जन्म लिया।
मां शिवादेवि का वंदन कर, इंद्राणी ने बहुपुण्य लिया।।
मेरु पर पांडुकवन में पांडुक, शिला उपरि प्रभु न्हवन किया।
जन्माभिषेक उत्सव करके, सुरपति ने तांडव नृत्य किया।।२२।।
श्रीपाश्र्वप्रभू पौष कृष्णा, ग्यारस तिथि अनिलयोग शुभ में।
जन्में त्रिभुवन में हर्ष लहर, व्यापी सुख पाया मुनियों नें।।
चारण ऋद्धी मुनिगण जाकर, जन्माभिषेक को देखे हैं।
मैं वंदूं जन्म दिवस प्रभु का, मेरे सब संकट मेटे हैं।।२३।।
श्रीवीर चैत्र शुक्ला तेरस, तिथि में वरयोग अर्यमा में।
जन्में तब त्रिशला माता की, पूजा की इंद्र इंद्राणी ने।।
जन्माभिषेक सुरशैल शिखर पर, इंद्रों ने कर सुख पाया।
मैं वंदूं जन्म दिवस प्रभु का मेरी हो गई सफल काया।।२४।।
कुरुवंश शिरोमणि शांति कुंथु, अर जिनवर जग में मान्य हुये।
मुनिसुव्रत नेमी हरिवंशी, श्री पाश्र्व उग्रकुल नाथ हुये।।
महावीर नाथवंशी बाकी, इक्ष्वाकुवंश भूषण मानें।
इन वंश नमत ही वंश चले, वंदत संतान सौख्य ठाने।।२५।
शंभु छंद
पुरुदेव निलांजना नृत्य देख, वैराग्य भाव मन में लाये।
लौकांतिक सुर स्तुति करते, सुर सुदर्शना पालकि लाये।।
नक्षत्र उत्तराषाढ़ चैत वदि, नवमी सांयकाल समे।
छह मास योग ले दीक्षा ली, सिद्ध स्तुति कर सिद्धार्थ वन में।।
चार सहस नृप उस समय, मुनी हुये बिन ज्ञान।
वंदूं दीक्षा दिवस को, मिटे मोह अज्ञान।।१।।
श्री अजित देख उल्का गिरना, विरक्त हुये सुरगण आये।
सुप्रभा पालकी में बैठा, प्रभु को सहेतुकी वन लाये।।
सुदि माघ नवमि अपराण्ह काल, रोहिणी नखत में तेला कर।
नृप सहस साथ दीक्षा ली तब, मनपर्र्यय ज्ञान हुआ सुखकार।।
नग्न दिगम्बर मुनि बने, अजितनाथ भगवान्।
सुरपति ने उत्सव किया, नमूं सुतप कल्याण।।२।।
वन शोभा विनशी देख विरक्त, हुये संभव मगसिर पूनम१।
मृगशिर नक्षत्र प्रहर तीजे, सिद्धार्था पालकि सजि उस क्षण।।
इक सहस नृपति सह दीक्षा ली, उद्यान सहेतुक में प्रभु ने।
लौकांतिक सुर भी आये थे, प्रभु स्तुति की उस ही क्षण में।।
तेला करके लोच कर, नम: सिद्ध कह आप।
दीक्षा ले ध्यानस्थ थे, नमूं मिटे भव ताप।।३।।
अभिनंदन माघ सुदी बारस, नक्षत्र पुनर्वसु प्रात: में।
गंधर्व नगर का नाश देख, अनुरक्त हुये दीक्षा तिय में।।
पालकी अर्थसिद्धा में बैठे, सुर ले गये उग्रवन में।
इक सहस नृपति सह दीक्षा ली, तेला कर लीन हुये निज में।।
शचि ने चौक बनाइया, उस पर तिष्ठे आप।
वसन त्याग दीक्षा धरी, नमूँ नमूँ निष्पाप।।४।।
प्रात: भोजन के बाद सुमति, जाति स्मृति से सु विरक्त हुये।
बैशाख नवमि सुदि मघा नखत, अभयंकरि पालकि सुर सजिये।।
उद्यान सहेतुक में पहुँचे, इक सहस नृपति सह ली दीक्षा।
तेला कर ध्यान धरा प्रभु ने, मनपर्यय ज्ञान हुआ चौथा।।
रत्नचूर्ण के चौक पर, वस्त्राभरण उतार।
लोच किया दीक्षा धरी, नमूं करो भवपार।।५।।
श्री पद्मनाथ जाति स्मृति से, वैराग्य पाय अपराण्ह विषे।
कार्तिक वदि तेरस में चित्रा, नक्षत्र निवृतिकरि पालकि से।।
उद्यान मनोहर में पहुँचे, इक सहस नृपति सह दीक्षा ली।
तेला कर ध्यान सुलीन हुये, पूजत पाऊँ शिव पथ शैली।।
तीर्थंकर वैराग्य क्षण, इंद्रासन हो कंप।
तप कल्याण मनावते, वंदत चित्त अकंप।।६।।
जिनवर सुपाश्र्व लक्ष्मी वसंत, ऋतुनाश देख सु विरक्त हुये।
नक्षत्र विशाखा ज्येष्ठ सुदी, वारस प्रात: सुर पूज्य हुये।।
सुमनोरमा पालकि में बैठे, सहेतुकी वन में पहुँचे।
इक हजार नृप सह दीक्षा ली, तेला कर ध्यान विषे तिष्ठे।।
प्रभु विरक्त मन जानकर, लौकांतिक सुर आय।
नानाविध स्तुति करी, वंदूं शीश नमाय।।७।।
चंदा प्रभु विद्युत अथिर देख, वैराग्य भाव में लीन हुये।
अपराण्ह पौष वदि एकादशि, अनुराधा नखत पवित्र किये।।
मनोहरा पालकि में चढ़ कर, सर्वार्थ वनी में पहुँच गये।
इक सहस नृपति सहदीक्षा ली, सुरगण वंदित मुनि पूज्य हुये।।
तेला कर ध्यानस्थ हो, किया कर्म चकचूर।
जो नर नारी वंदते, करें मृत्यु को चूर।।८।।
प्रभु सुविधिनाथ उल्का गिरते, देखा विरक्त अपराण्ह काल।
मगसिर सुदि एकम शुभ तिथि में, सुरनर विद्याधर पूज्य काल।।
रविप्रभा पालकी में बैठे, सुरगण ले गये पुष्पवन में।
इस सहस नृपति सह दीक्षा ली, पूजूँ तपलक्ष्मी को वरने।।
तेला करके योग में, लीन हुये भगवान्।
स्वात्म सुधारस पीवते, नमूँ नमूँ धर ध्यान।।९।।
शीतलजिन हिम का नाश देख, अपराण्ह विरक्त हुये जग से।
वदि वारस माघ पूर्वषाढ़ा, पालकी शुक्रप्रभ में बैठे।।
उद्यान सहेतुक में जाकर, इक सहस नृपति सह ली दीक्षा।
तेला कर ध्यान निलीन हुये, मुझ को देवो संयम भिक्षा।।
परमानंदामृत चखें, स्वयं सिद्ध भगवान्।
वंदे मन शीतल करें, नमत बनें विद्वान्।।१०।।
श्रेयांस बसंत ऋतू लक्ष्मी का, नाश देख वैराग्य धरा।
फाल्गुनवदि ग्यारस श्रवण नखत, पालकी विमलप्रभ देव धरा।।
उद्यान मनोहर में पहुँचे, पूर्वाण्ह तीन उपवास किया।
इक हजार नृप के साथ लिया, दीक्षा इंद्रों ने नमन किया।।
उग्र उग्र तपकर प्रभो, किया मोह का नाश।
मैं वंदूं नितभाव से, मिले सुज्ञान प्रकाश।।११।।
प्रभु वासुपूज्य जाति स्मृति से, वैराग्य भाव मन में लाये।
फाल्गुन वदि चौदश वीशाखा, नक्षत्र समय अपराण्ह भये।।
पुष्पाभा पालकि में चढ़कर, उद्यान मनोहर में पहुँचे।
छह शतक छियत्तर नृपति साथ, दीक्षा ली इक उपास करके।।
अंतर्मुहूर्त मात्र में, प्रगटा चौथा ज्ञान।
भाव शुद्धि प्रभु तुम सदृश, मिले नमूं धर ध्यान।।१२।।
जिन विमल मेघ का नाश देख, सुविरक्त चित्त अपराण्ह काल।
सुदि माघ चतुर्थी नखत उत्तरा, भाद्र पदा सुर नमित भाल।।
पालकी देवदत्ता में चढ़, उद्यान सहेतुक में पहुँचे।
तेला कर एक हजार नृपों, के साथ लिया दीक्षा विधि से।।
गुण अनंत के पुंजमय स्वात्म तत्त्व में लीन।
नमूँ आप दीक्षा दिवस, करूँ मोह को क्षीण।।१३।।
जिनवर अनंत उल्का गिरने से, हो विरक्त अपराण्ह समय।
वदि ज्येष्ठ दुवादशि अपराण्हे, इंद्रादि देवगण करें विनय।।
सागरपत्रिका पालकी में चढ़कर, उद्यान सहेतुक में।
तेला कर इक हजार नृपसह, दीक्षा ली स्वयं मुनीश बने।।
सिद्धं नम: उच्चार कर, दीक्षा स्वयं धरंत।
नमूँ नमूँ प्रभु आपको, निजपद देव तुरंत।।१४।।
प्रभुधर्म सु उल्कापात देख, वैराग्यधरा अपराण्ह समय।
सुदि माघ त्रयोदशि पुष्प नखत, पालकी नागदत्ता शुभमय।।
उस पर चढ़कर शालीवन में, इक सहस नृपों सह ली दीक्षा।
तुम केशलोच के केश सभी, सुर ने क्षीरोदधि में क्षेपा।।
सिद्धों को गुरु मानकर, धरा दिगम्बर वेष।
नमूँ नमॅूं शिर नायकर, नशें विघ्न घन शेष।।१५।।
श्री शांतिनाथ जातिस्मृति से, वैराग्य पाय साम्राज्य तजा।
भरणी नक्षत्र ज्येष्ठ कृष्णा, चौदश अपराण्ह समय तब था।।
सिद्धार्थसिद्धिका पालकि में, चढ़कर पहुँचे सुआग्रवन में।
तेला कर इक हजार नृप सह, दीक्षाधारी मुनिनाथ बने।।
निजानंद में लीन हो, पूर्ण शांति को पाय।
नमूँ नमॅूं तुम पदकमल, सर्व अशांति पलाय।।१६।।
श्री कुंथुनाथ जातिस्मृति से सुविरक्त हुये अपराण्ह काल।
वैशाख शुक्ल एकम कृतिका नक्षत्र नमाते इंद्र भाल।।
विजया पालकि में चढ़े आप, सुर लेय सहेतुक वन पहुँचे।
तेला कर एक सहस नृप सह, दीक्षा ली ‘सिद्ध नम:’ कहके।।
इन्द्र पालकी आपकी, स्वयं धरें निजकंध।
लौकांतिक सुर भी नमें, नमूं हरो दुख द्वंद।।१७।।
अरनाथ मेघ का नाश देख, वैराग्य धरा अपराण्ह काल।
मगसिर सुदि दशमी नखत, रेवती नमूँ भक्ति से नमा भाल।।
पालकी वैजयंती में प्रभु, बैठे सुर लिया सहेतुक वन।
तेला कर एकसहस नृप सह, दीक्षा ली मौन लिया शुभतम।।
जिस क्षण प्रभु वैराग्य हो, सुर आसन कंपंत।
सुरगण आ उत्सव करें, नमत मिले भव अंत।।१८।।
जिन मल्लिनाथ विद्युत अस्थिर, देखा विरक्त पूर्वाण्ह समय।
मगसिर सुदि ग्यारस नखत अश्विनी, सुरपती ने आ किया विनय।।
पालकी जयंता में लेकर, सुरपति शालीवन पहुँच गये।
भोजन के बाद नृपति त्रय शत, दीक्षा ले तेला धार लिये।।
इंद्रों ने उत्सव किया, दीक्षा से धर प्रीत।
नमूूँ नमूँ मैं आपको, मिले स्वात्म नवनीत।।१९।।
मुनिसुव्रत जिन जाति स्मृति से, वैराग्य धार अपराण्ह समय।
वैशाख वदी दशमी नक्षत्र, श्रवण लौकांतिक किया विनय।।
अपराजिता पालकी से प्रभु को, ले गये देव नीलवन में।
दीक्षा ली एक सहस नृप सह, तेला कर तिष्ठे kklस्वातम में।।
इंद्राणी ने भक्ति से, वन में चौक बनाय।
प्रभु जी उस पर बैठकर, दीक्षा ली सुखदाय।।२०।।
नमिजिन जाति स्मृति से विरक्त, आषाढ़ वदी दशमी तिथि में।
अपराण्ह काल, अश्विनी नखत, बैठे उत्तर कुरु पालकि में।।
ले गये देव चैत्र वन में, इक सहस नृपति सह ली दीक्षा।
तेला कर निश्चल खड़े हुये, ले लिया मौन केवलि तक का।।
नग्न वेष धारा प्रभो, वस्त्राभूषण त्याग।
वंदूं दीक्षा तिथि अबे, बढ़े स्वात्म अनुराग।२१।।
श्री नेमिनाथ पशु बंधे देख, जाति स्मृति पाय विरक्त हुये।
श्रावण सुदि छठ उत्तम तिथि में सुर लौकांतिक नमन किये।।
पालकी देवकुरु में बैठे, सहकार वनी में पहुँच गये।
इक सहस नृपों सह दीक्षा ली, तेला कर निज में लीन हुये।।
सुरपति ने उत्सव किया, नमूँ नमॅूँ मैं आप।
शिवकांता के हेतु प्रभु, दिया राजमति त्याग।।२२।।
प्रभु पाश्र्वनाथ जातिस्मृति से, वैराग्य पाय पूर्वाण्ह उदे।
वदि पौष ग्यारसी तिथि शुभ थी, प्रभु विमलाभा पालकी चढ़े।।
सुर ले पहुँचे अश्वत्थवनी, त्रयशत नृप साथ लिया दीक्षा।
बेला कर योग धरा तुमने, मुझको भी दो समरस भिक्षा।।
सुर असंख्य आये यहाँ, उत्सव किया अपूर्व।
मैं पूजूँ दीक्षा दिवस, होवे सौख्य अपूर्व।।२३।।
महावीर प्रभू जातिस्मृति से, वैराग्य धरा अपराण्ह समय।
मगसिर वदि दशमी तिथि उत्तम, सब ग्रह थे उत्तम श्रेष्ठ समय।।
चंद्राभा पालकि में बैठे, सुरपति ले गये नाथवन में।
प्रभु ‘सिद्ध नम:’ कह दीक्षा ली, स्वयमेव अकेले मुनी बने।।
देव देवियां आयके, किया महोत्सव धन्य।
नमूँ नमू प्रभु आपको, सुख दो स्वातम जन्य।।२४।।
जिन ऋषभ इक्षुरस का अहार, तेइस जिन खीर आहार लिया।
सब जिनकी प्रथम पारणा में, सुरगण ने पंचाश्चर्य किया।।
सन्मति के सब आहारों में, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
अधिकाधिक बारहकोटि सु कम, से कम वह बारह लाख कही।।
चौबिस जिन दीक्षा दिवस, नमूं भक्ति उरधार।
पाँच बालयति को नमूँ, मिले तपोनिधि सार।।२५।।
चौबोल छंद
पुरिमताल पुर के उद्यान में, फाल्गुन वदि एकादशि के।
एक हजार वर्ष तप करके, उत्तराषाढ़ नखत रहते।।
वट तरुवर के अध: ऋषभ के, केवल रवि का उदय हुआ।
यह अशोक तरु बना नमूं में, समवसरण धनदेव किया।।१।।
पौष शुक्ल ग्यारस नक्षत्र, रोहिणी कहा अपराण्ह समय।
बाग सहेतुक सप्तपर्ण तरु, नीचे केवल सूर्य उदय।।
अजितनाथ का अर्धनिमिष में, समवसरण नभ में चमके।
वंदूं शीश नमाकर मैं नित, मुझमें स्वपर ज्ञान प्रगटे।।२।।
कार्तिक वदि चौथी में मृगशिर, नक्षत्र रहा अपराण्ह समय।
वनी सहेतुक शालवृक्ष के, नीचे केवल सूर्य उदय।।
संभव जिनका तरु अशोक यह, समवसरण में शोभ रहा।
भव भव भ्रमण निवारण हेतू, पूूजू केवल तिथी यहां।।३।।
पौष सुदी चौदश पुनर्वसु, नखत रहे अपराण्ह समय।
उग्रवनी तरु सरल१ सु नीचे, अभिनंदन के ज्ञान उदय।।
सुर आसन हिल उठे उसी क्षण, घंटादिक स्वयमेव बजे।
सुरपति अतुल विभव युत आये, समवसरण रच नाथ यजें।।४।।
चैत्र सुदी ग्यारस तिथि में, शुभयोग सहेतुक वन शोभे।
तरु प्रियंगु के नीचे प्रभु को, केवल रवि का हुआ उदै।।
समय कहा अपराण्ह समवसृति, गंधकुटी में सुमति प्रभो।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग दुख, दूर करो मैं नमूं विभो।।५।।
चैत्र सुदी पूनम चित्रा, नक्षत्र प्रसिद्ध मनोहर वन।
तरु प्रियंगु के नीचे प्रभु को, केवलज्ञान हुआ अनुपम।।
सुरपति ऐरावत गज पर चढ़, अगणित विभव सहित आये।
गजदंतों सरवर कमलों पर, अप्सरियां जिनगुण गायें।।६।।
फाल्गुन वदि छठ नखत विशाखा, श्रेष्ठ समय अपराण्ह कहा।
बाग सहेतुक तरु शिरीष के, नीचे केवलज्ञान हुआ।।
इंद्र सातविध सेनाओं के, साथ चले उत्सव करने।
अनुपम वैभव श्रीसुपाश्र्व का, मैं वंदूं भवदधि तरने।।७।।
फाल्गुनि वदि सप्तमि अनुराधा, नखत समय अपराण्ह रहा।
सर्वारथवन नागवृक्ष के, नीचे केवलज्ञान हुआ।।
भवनवासि व्यंतर ज्योतिषसुर, कल्पवासि सुरगण आये।
चक्री मनुज पशु पक्षीगण, चंद्रप्रभू के गुण गायें।।८।।
कार्तिक शुक्ल द्वितीया मूल, नक्षत्र समय पश्चिम दिन था।
पुष्पबाग में अक्ष वृक्ष१ के, नीचे केवल ज्ञानप्रभा।।
पुष्पदंत का समवसरण सब, जन को आश्रयदाता है।
नमू नमूँ जिन केवलतिथि यह, मुझको अभय प्रदाता है।।९।।
पौषवदी चौदश अपराण्हे, पूर्वाषाढ़ नखत रहते।
बाग सहेतुक मालिवृक्ष के, नीचे शीतल जिन तिष्ठे।।
घातिकर्म का पूर्ण नाश हो, केवल भास्कर उदित हुआ।
दिव्यध्वनी वचनामृत से प्रभु, शीतल सारा भुवन किया।।१०।।
माघ वदी मावस अपराण्हे, श्रावण नखत श्रेयांस प्रभो।
बाग मनोहर में पालस तरु, नीचे केवलज्ञान लहो।।
पाँच सहस धनु ऊँचे पहुँचे, नभ में समवसरण रचना।
दिव्यधुनी से जन सम्बोधा, वंदत पद पाऊँ अपना।।११।।
वासुपूज्य सुदि माघ द्वितीया नखत विशाखा अपराण्हे।
बाग मनोहर तेंदू तरु के, नीचे केवलज्ञानि बनें।।
समवसरण धनपति ने रचियो, गंधकुटी में प्रभु राजें।
द्वादशगण धर्मामृत पीते, वंदत ही सब अघ भाजें।।१२।।
माघ शुक्ल छट्ठी अपराण्हे, उत्तरा भाद्रपद नखत जबे।
बाग सेहतुक में पाटलतरु, नीचे विमलनाथ तिष्ठे।।
केवलज्ञान सूर्य उगते ही, नाथ गगन में अधर हुये।
समवसरण में राजें जिनवर, वंदत ज्ञान प्रकाश हिये।।१३।।
चैत्र अमावस्या अपराण्हे, नखत रेवती के रहते।
बाग सहेतुक में पीपलतरु, नीचे अनंत जिन तिष्ठे।।
केवलज्ञान सूर्य उगते ही, त्रिभुवनतम अज्ञान हटा।
स्वपर भेद विज्ञान प्रगट हो, वंदत ही तम मेघ छटा१।।१४।।
पौष पूर्णिमा दिन अपराण्हे, पुष्प नखत के रहते ही।
धर्मनाथ को बाग सहेतुक, दधीपर्ण तरु नीचे ही।।
केवलज्ञान उद्योत हुआ अरि, घाति चतुष्टय भाग गये।
हम वंदे नित शीश नमाकर, नित मंगल हों नये नये।।१५।।
पौष शुक्ल दसमी पश्चिम, भागे शुभयोग सुग्रह रहते।
आम्र बाग में नंदी तरु के, नीचे शांतिनाथ तिष्ठे।।
केवलज्ञान विभाकर उगते, इंद्रों के आसन कंपे।
सुरपति अगणित वैभव लाकर, समवसरण में प्रभु वंदे।।१६।।
चैत्र शुक्ल तृतीया अपराण्हे, कृतिका नखत उच्च ग्रह में।
बाग सहेतुक तिलकवृक्ष के, नीचे ध्यान धरा प्रभु ने।।
केवलज्ञान प्रगट होते ही, इंद्र सपरिकर आ पहुँचे।
कुंथुनाथ को मैं नित वंदूं, मेरा ज्ञानसूर्य चमके।।१७।।
कार्तिक सुदि बारस अपराण्हे, नखत रेवती शुभ ग्रह में।
बाग सहेतुक आम्रवृक्ष के, नीचे ध्यान धरा अर ने।।
केवलज्ञान दिव्य किरणों से, मोह ध्वांत सब नष्ट हुआ।
मोह शत्रु उन्मूलन हेतू, आज यहाँ मैं नमन किया।।१८।।
पौष वदी दूज अपराण्हे, नखत अश्विनी मल्लिप्रभो।
बाग मनोहर में अशोक तरु, नीचे तिष्ठे ध्यान धर्यो।।
दशवें में मोहारि घात, बारहवें में त्रय कर्म हने।
केवलज्ञानी हुये नाथ मैं, वंदूं सारे कार्य बनें।।१९।।
वदि वैशाख नवमि सु श्रवण में, ज्ञान उदय पूर्वाण्ह समय।
नील वृक्षवन में चंपक तरु, नीचे सुव्रत तीर्थ अभय।।
केवलज्ञानी का जब होता, श्री विहार इस भूतल में।
चरणकमल के तले स्वर्णमय, कमल रचे थे सुरगण ने।।२०।।
मगसिर सुदि ग्यारस दिन पश्चिम, भाग ध्यान में लीन रहे।
चित्रवनी में वकुलवृक्ष के, अध: नमीप्रभु कर्म दहे।।
केवलज्ञान तीक्ष्ण किरणों से, भुवन अंधेरा नष्ट हुआ।
भव्योंं ने शिवपथ को देखा, निज में ज्ञान उद्योत हुआ।।२१।।
आश्विन सुदि एकम पूर्वाण्हे, चित्रा नखत उच्चग्रह थे।
ऊर्जयंतगिरि पर तरु मेषशृंग, के अध: नेमि तिष्ठे।।
लोकालोक प्रकाशी केवलज्ञान, सूर्य तब उदित हुआ।
इस तिथि को वंदत ही क्षण में, भेदज्ञान मुझ प्रगट हुआ।।२२।।
चैत्रवदी चौदश पूर्वाण्हे, नखत विशाखा शुभ ग्रह थे।
शक्रपुरी में धवतरु नीचे, पाश्र्व ध्यान में तिष्ठे थे।।
कमठ किया उपसर्ग घोर तब, फणपति पद्मावती आये।
टल उपसर्ग प्रगट केवल रवि, प्रभु के गुण सुरपति गाये।।२३।।
सुदि वैशाख दशमि अपराण्हे, उत्तम तिथि में सन्मति ने।
ऋजुकूलानदि तट पर तिष्ठे, शुक्ल ध्यान से घाति हने।।
शालवृक्ष के नीचे प्रभु को, केवलज्ञान उद्योत मिला।
केवल ज्ञानमती हेतु नमूं, मन कलियों को खिला खिला।।२४।।
स्रग्विणी छंद
माघ कृष्णा चतुर्दश्य पूर्वाण्ह में।
नखत अभिजित समय देव वृषभेष ने।।
दस सहस साधु सह अद्रि वैलाश से।
मोक्ष पहुँचे नमॅूँ आज मैं भाव से।।१।।
पंचमी चैत्र शुक्ला सुपूर्वाण्ह में।
एक हज्जार मुनिसह सुरोहीणि में।।
नाथ अजितेश सम्मेदशिखराद्रि से।
मुक्ति पाई नमूं शीश को नाय के।।२।।
चैत्र शुक्ला छठी काल अपराण्ह में।
इक सहस साधु सह नखत मृगशिर भणें।।
नाथ संभव सुसम्मेद शिखराद्रि से।
सिद्ध आलय पधारे नमूँ भक्ति से।।३।।
छट्ट तिथि शुक्ल वैशाख पूर्वाण्ह में।
एक हज्जार साधू प्रभू साथ में।।
नखत है पुनर्वसु नाथ अभिनंदन।
मुक्त सम्मेदगिरि से करूँ वंदना।।४।।
चैत्र शुक्लासु ग्यारस के पूर्वाण्ह में।
एक हज्जार मुनि सह मघा नखत में।।
शैल सम्मेद से नाथ सुमति प्रभो।
मुक्ति पाई नमूं सो तिथी मैं विभो।।५।।
पद्मप्रभदेव फाल्गुन वदी चौथ के।
नखत चित्रा सु अपराण्ह सम्मेद से।।
तीन सौ और चौबीस मुनि साथ ले।
मुक्ति पहुँचे नमूँ मुक्ति लक्ष्मी मिले।।६।।
सप्तमी कृष्ण फाल्गुन विशाखा कहा।
शैल सम्मेद से काल पूर्वाण्ह था।।
पाँच सौ साधु सह नाथ सुपाश्र्व जी।
सिद्धिकांता वरी मैं नमूँ सो तिथी।।७।।
चंद्रप्रभ फाल्गुनी शुक्ल सप्तम दिने।
काल पूर्वाण्ह ज्येष्ठा सु नक्षत्र में।।
एक साहस्र मुनि साथ सम्मेद से।
मुक्ति पायी नमूँ सिद्धि को प्रेम से।।८।।
भादवा शुक्ल आठें सुअपराण्ह में।
इक सहस साधु सह मूल नक्षत्र में।।
सिद्धि पायी नमूं भक्ति से वो तिथी।।९।।
अश्विनी अष्टमी शुक्ला पूर्वाण्ह में।
पूर्वषाढ़ा नखत इक सहस साधु ले।।
शैल सम्मेद से मुक्ति कन्या वरी।
स्वात्मसम्पत्ति हेतू नमूं वो घरी।।१०।।
श्रावणी पूर्णिमा उड्ड धनिष्ठा रहे।
प्रात श्रेयांस इक सहस मुनि साथ ले।।
शैल सम्मेद से मुक्तिराजा हुए।
मैं नमूं भव्य के भव जिहाजा हुए।।११।।
भादवा शुक्ला चौदश अपर भाग से।
उड्ड विशाखा सु चम्पापुरी स्थान से।।
वासुपूज्येश छै सौ सु इक साधु ले।
मुक्ति पायी नमूँ स्वात्मरिद्धी फले।।१२।।
अष्टमी कृष्ण आषाढ़ प्रादोष१ में।
उत्तराषाढ़ में साधु छै सौ भणें।।
मुक्ति पायी नमूं मुक्ति के लोभ से।।१३।।
चैत्र आमावसी काल प्रादोष में।
शैल सम्मेद से प्रभु अयोगी बने।।
सात हज्जार मुनि साथ मुक्ती गये।
मैं नमूँ स्वात्म साम्राज्य के ही लिये।।१४।।
ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी सु प्रत्यूष१ में।
शैल सम्मेद से पुष्य नक्षत्र में।।
आठ सौ एक मुनि साथ मुक्ति गये।
धर्म तीर्थेश को वंदते सुख भये।।१५।।
ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दश्य प्रादोष में।
शांति तीर्थेश नक्षत्र भरणी तबे।।
साधु नौ सौ संगे शैल सम्मेद से।
मुक्ति पायी नमूँ मुक्ति के प्रेम से।।१६।।
शुक्ल वैशाख एकम नखत कृत्तिका।
एक हज्जार मुनि साथ यम को हता।।
कुंथुजिन काल प्रादोष में शिव गये।
मैं नमूँ स्वात्म सम्पत्ति के ही लिये।।१७।।
चैत्र आमावसी रेवती नखत में।
एक साहस्र मुनि साथ प्रत्यूष में।।
तीर्थकर अरप्रभू शैल सम्मेद से।
मुक्ति पायी नमूँ सौख्य देवो मुझे।।१८।।
पंचमी फाल्गुनी शुक्ल प्रादोष में।
नखत भरणी रहे मल्लि तीर्थेश ने।।
पाँच सौ साधु सह शैल सम्मेद से।
मुक्ति पायी नमूँ स्वात्महित प्रेम से।।१९।।
फाल्गुनी कृष्ण बारस सु प्रादोष में।
एक साहस्र मुनिसह अघातीहने।।
शैल सम्मेद से मुनीसुव्रत प्रभो
मुक्ति पायी नमूँ मुक्ति के दिवस को।।२०।।
कृष्ण वैशाख चौदश सु प्रत्यूष में
इक सहस साधु सह अश्विनी नखत में।।
शैल सम्मेद से तीर्थकर नमि विभो।
मुक्ति पायी नमूँ भक्ति से नाथ को।।२१।।
सप्तमी शुक्ल आषाढ़ प्रादोष में।
नखत चित्रा रहे नेमि तीर्थेश ने।।
पाँच सौ और छत्तीस मुनि साथ ले।
ऊर्जयंताद्रि से मुक्ति पायी भले।।२२।।
सप्तमी शुक्ल श्रावण सुप्रादोष में।
साधु छत्तीस सह उड्ड विशाखा तने।।
पाश्र्व जिन शैल सम्मेद से शिव गये।
वंदते सर्व संकट उपद्रव गये।।२३।।
कार्तिकी कृष्णा मावस सुप्रत्यूष में।
वीर जिननाथ ने स्वाति नक्षत्र में।।
ध्यान पावापुरी में प्रभु ने धरा।
मुक्तिकांता वरी मैं नमूं वो धरा।।२४।।
श्री ऋषभदेव चौदह दिन योग, निरोधा नहीं विहार किया।
दो दिन तक वीर प्रभू बाइस, जिन योग रोध इक माह किया।।
श्रीऋषभ वासुपुज नेमिनाथ, पर्यंकासन से मुक्त हुए।
शेष सभी तीर्थंकर, कायोत्सर्गासन से सिद्ध हुए।।२५।।
चौबिस जिनकी मुक्तितिथि, मुक्तिस्थान पवित्र।
नमूँ ज्ञानमति पूर्ण हित, होवे स्वात्म पवित्र।।२६।।