जन्म भूमि | कुंडलपुर-जिला नालन्दा (बिहार) | प्रथम आहार | कूल ग्राम के राजा वकुल द्वारा (खीर) |
पिता | महाराजा सिद्धार्थ | केवलज्ञान | वैशाख शु. १० (ऋजुकूला नदी के तट पर) |
माता | महारानी प्रियकारिणी (त्रिशला) | मोक्ष | कार्तिक कृ. अमावस्या |
वर्ण | क्षत्रिय | मोक्षस्थल | पावापुरी |
वंश | नाथवंश | समवसरण में गणधर | श्री इन्द्रभूति आदि ११ |
देहवर्ण | तप्त स्वर्ण सदृश | मुनि | चौदह हजार (१४०००) |
चिन्ह | सिह | गणिनी | आर्यिका चन्दना |
आयु | बहत्तर (७२) वर्ष | आर्यिका | छत्तीस हजार (३६०००) |
अवगाहना | सात (७) हाथ (अरत्नि) | श्रावक | एक लाख (१०००००) |
गर्भ | आषाढ़ शु. ६ | श्राविका | तीन लाख (३०००००) |
जन्म | चैत्र शु. १३ | जिनशासन यक्ष | मातंग देव (गुह्यकदेव) |
तप | मगसिर कृ. १० | यक्षी | सिद्धायिनी देवी |
दीक्षा -केवलज्ञान वन एवं वृक्ष | षण्डवन (मनोहरवन) एवं साल वृक्ष |
धर्म की शाश्वत सत्ता प्राकृतिक सृष्टि व्यवस्था के अनुसार धर्म की शाश्वत सत्ता मानी गई है। विश्वभर के अनेक धर्मों में जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन होते हुए भी इसका कोई संस्थापक नहीं है। जैनधर्म प्राकृतिक धर्म है क्योंकि इसका न कोई आदि है और न अंत, इसीलिए यह अनादिनिधनरूप में माना जाता है। समय-समय पर महापुरुषों ने भारत की धरती पर जन्म लेकर इस धर्म को प्रकाशित किया है। वैदिक पुराण एवं वेदों में भी जैनधर्म को वेदों से पूर्व का स्वीकार किया गया है और उनके अनुसार इसे “निर्ग्रन्थ” धर्म के नाम से जाना गया है ।जैनधर्म की तीर्थंकर परम्परा- सर्वप्रथम जैनधर्म की व्याख्या जानने की आवश्यकता है कि “कर्मारातीन् जयतीति जिनः” अर्थात् कर्मों को जीतने वाले ‘जिन’ कहलाते हैं तथा “जिनोदेवता यस्यासौ जैनः” अर्थात् उन जिन को जो अपना देवता मानते हैं वे जैन कहे जाते हैं। इस कथनानुसार जैनधर्म किसी व्यक्ति या सम्प्रदायविशेष का न होकर प्राणिमात्र का धर्म है। वैसे तो इस जैनधर्म में असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी (वृद्धि -हास ) कालों में असंख्य तीर्थंकर महापुरुषों ने जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त किया, फिर भी वर्तमान कर्मयुग में जो चौबीस तीर्थंकर हुए हैं
नाम | चिन्ह | नाम | चिन्ह |
(१ )श्री ऋषभदेव जी | बैल | (२) श्री अजितनाथ जी | हाथी |
(३) श्री संभवनाथ जी | घोड़ा | (४) श्री अभिनन्दननाथ जी | बंदर |
(५) श्री सुमतिनाथ जी | चकवा | (६) श्री पद्मप्रभ जी | कमल |
(७) श्री सुपार्श्वनाथ जी | साथिया | (८) श्री चन्द्रप्रभ जी | चन्द्रमा |
(९) श्री पुष्पदन्तजी | मगर | (१०) श्री शीतलनाथ जी | कल्पवृक्ष |
(११) श्री श्रेयांसनाथ जी | गैंडा | (१२) श्री वासुपूज्य जी | भैसा |
(१३) श्री विमलनाथ जी | शूकर | (१४) श्री अनन्तनाथ जी | सेही |
(१५) श्री धर्मनाथ जी | वङ्कादंड | (१६) श्री शान्तिनाथ जी | हिरण |
(१७) श्री कुंथुनाथ जी | बकरा | (१८) श्री अरनाथ जी | मछली |
१९) श्री मल्लिनाथ जी | कलश | (२०) श्री मुनिसुव्रतनाथ जी | कछुवा |
(२१) श्री नमिनाथ जी | नीलकमल | (२२) श्री नेमिनाथ जी | शंख |
(२३) श्री पार्श्वनाथ जी | सर्प | (२४) श्री महावीरस्वामी जी | सिंह |
इन चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने आज से असंख्यात वर्ष पूर्व (एक कोडाकोड़ी सागर वर्ष पूर्व) अयोध्या नगरी में जन्म लेकर समस्त प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षक्रियाओं के द्वारा जीवन जीने की कला सिखाई थी। उन्होंने सर्वप्रथम अपनी ब्राह्मी-सुन्दरी पुत्रियों को लिपि एवं अंकविद्या सिखाकर साक्षरता अभियान का शुभारंभ किया था। इसी प्रकार ऋषभदेव ने अपने भरत-बाहुबली, वृषभसेन, अनन्तवीर्य आदि सभी 101 पुत्रों को शस्त्र विद्या आदि सिखाकर आत्मरक्षा के साथ परिवार, समाज, देश एवं धर्मरक्षा का संदेश दिया था ।
महावीर का चुम्बकीय व्यक्तित्व – जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में पहचाने जाने वाले भगवान महावीर का जन्म आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त की “कुण्डलपुर ” नगरी में चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ था। कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ एवं रानी त्रिशला के एकमात्र को वर्धमान, वीर, सन्मति, अतिवीर और महावीर इन पांच नामों से जाना जाता है।
ज्ञान, पराक्रम, सुख एवं सौन्दर्य में अद्वितीय प्रतिभा के धनी महावीर ने अखण्डब्रह्मचर्यव्रत को स्वीकार करके 30 वर्ष की युवावस्था में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की थी पुनः 12 वर्ष की तपस्या के पश्चात् उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होने पर धनकुबेर ने आकाश में उनका समवसरण बनाया था अतः 30 वर्ष तक अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा असंख्य प्राणियों को लाभान्वित कर 72 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने बिहार प्रान्त की पावापुरी के जलमन्दिर से समस्त कर्म नाश करके निर्वाणधाम को प्राप्त किया था। तब से आज तक वह दिवस दीपावली पर्व के रूप में मनाया जाता है।
जैन धर्म में वर्तमान कर्मयुग में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं | जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हुए हैं और अंतिम भगवान महावीर हुए हैं | जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में पहचाने जाने वाले भगवान महावीर का जन्म आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त की “कुण्डलपुर ” नगरी में चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ था। कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ एवं रानी त्रिशला के एकमात्र को वर्धमान, वीर, सन्मति, अतिवीर और महावीर इन पांच नामों से जाना जाता है। अत: वर्तमान युग में जो ये भ्रांति व्याप्त हैं कि भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक हैं यह कथन सर्वथा असत्य हैं |
जब अच्युतेन्द्र की आयु छह मास बाकी रह गई तब इस भरत क्षेत्र के विदेह नामक देश संबंधी कुंडपुर – कुंडलपुर नगर (निकट नालंदा – बिहार प्रदेश) के राजा सिद्धार्थ के भवन के आँगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ प्रमाण रत्नों की धारा बरसने लगी। आषाढ़ शुक्ल षष्ठी के दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी प्रियकारिणी ने सोलह स्वप्न देखे और पुष्पोत्तर विमान से अच्युतेन्द्र का जीव च्युत होकर रानी के गर्भ में आ गया । प्रातः काल राजा के मुख से स्वप्नों का फल सुनकर रानी अत्यन्त संतुष्ट हुई। तदनंतर देवों ने आकर गर्भ कल्याणक उत्सव मनाकर माता-पिता का अभिषेक करके उत्सव मनाया ।
सोलह स्वप्नों में उन्होंने सर्वप्रथम मदोन्मत्त गजराज को देखा। बाद में चन्द्रमा के सदृश शुभ कांतियुक्त, ऊँचे कन्धेवाला बैल गम्भीर शब्द करता हुआ दिखलाई दिया। तीसरा स्वप्न अपूर्व कान्तिवान वृहद्काय लाल कन्धेवाला सिंह था। चौथे स्वप्न में कमलरूपी सिंहासन पर विराजमान लक्ष्मी देवी को उन्होंने देव-हस्तियों द्वारा अभिषेक करते हुए देखा। पाँचवें में दो सुगन्धित मालाएँ थीं। छट्ठे में ताराओं से घिरे हुए चन्द्रमा को देखा, जिससे सारा संसार आलोकित हो रहा था।
सातवें स्वप्न में देवी ने अन्धकार का विनाश करने वाले सूर्य को उदयाचल पर्वत से निकलते हुए देखा। आठवें स्वप्न में कमल के पत्तों से आच्छादित मुखवाले सुवर्ण के दो कलश देखे। नवमें स्वप्न में तालाब में क्रीड़ा करती हुई मछलियाँ देखीं। वह तालाब खिली हुई कुमुदिनी एवं कमलिनी से शोभायमान हो रहा था। दशवें स्वप्न में उन्होंने एक भरपूर तालाब देखा, जिसमें कमल पुष्पों की पीत रज तैर रही थी। ग्यारहवें स्वप्न में गम्भीर गर्जन करता हुआ चंचल तरंगों से युक्त समुद्र दिखलाई दिया।
बारहवें स्वप्न में उन्होंने दैदीप्यमान मणि से युक्त ऊँचा सिंहासन देखा। तेरहवाँ स्वप्न बहुमूल्य रत्नों से प्रकाशित स्वर्ग का विमान था । चौदहवें स्वप्न में पृथ्वी को भेदकर ऊपर की ओर जाता हुआ फणीन्द्र (भवनवासी देव) का ऊँचा भवन दिखलाई दिया। पन्द्रहवें स्वप्न में उन्होंने रत्नों की विशाल राशि देखी, जिसकी किरणों से आकाश तक दैदीप्यमान हो रहा था। सोलहवें स्वप्न में माता ने निर्धूम अग्नि देखी।
अन्त में गजेन्द्र के दर्शन का फल यह हुआ कि वह अन्तिम तीर्थंकर स्वर्ग से आकर तुम्हारे निर्मल पवित्र गर्भ में प्रवेश कर चुका है।महाराज के मुख-कमल से सोलहों स्वप्नों का फल सुनकर पतिव्रता महारानी का हृदय प्रफुल्लित हो उठा। उन्हें ऐसा लगा कि जैसे उन्हें पुत्र की प्राप्ति ही हो गई हो। वे बड़ी प्रसन्न हुईं।
नव मास पूर्ण होने के बाद चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन रानी त्रिशला ने पुत्र को जन्म दिया। भगवान महावीर का जन्म तेरस की रात्रि में हुआ है ऐसा जयधवला में वर्णित है-
“आषाढजोण्हपक्खछट्ठीए कुंडलपुर णगराहिव -णाहवंस – सिद्धत्थणरिंदस्य तिसिलादेवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ठदिवसाहियणवमासे अच्छिय चइत्तसुक्कपक्-तेरसीए रत्तीए उत्तरफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो वड्ढमाणजिणिंदो।।”
आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कुंडलपुर नगर के स्वामी नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्र की रानी त्रिशला देवी के गर्भ में आकर और वहां नव मास आठ दिन रहकर चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुये वर्द्धमान जिनेन्द्र ने जन्म लिया । उस समय देवों के स्थानों में अपने आप वाद्य बजने लगे, तीनों लोकों में सर्वत्र एक हर्ष की लहर दौड़ गई। सौधर्म इन्द्र ने बड़े | वैभव के साथ सुमेरूपर्वत की पांडुकशिला पर क्षीरसागर के जल से . भगवान का जन्माभिषेक किया । इन्द्र ने उस समय उनके “वीर” और “वर्धमान” ऐसे दो नाम रखे।
श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर के बाद दो सौ पच्चास वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर स्वामी उत्पन्न हुए थे। उनकी आयु भी इसी में शामिल है। कुछ कम बहत्तर वर्ष की आयु थी, सात हाथ ऊँचे, स्वर्ण वर्ण के थे। एक बार संजय और विजय नाम के चारणऋद्धिधारी मुनियों को किसी पदार्थ में संदेह उत्पन्न होने से भगवान के जन्म के बाद ही वे उनके समीप आकर उनके दर्शन मात्र से ही संदेह से रहित हो गये तब उन मुनि ने उन बालक का “सन्मति” नाम रखा । किसी समय संगम नामक देव ने सर्प बनकर परीक्षा ली और भगवान को सफल देखकर उनका “महावीर” यह नाम रखा ।
तीस वर्ष के बाद भगवान को पूर्वभव का स्मरण होने से वैराग्य हो गया तब लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति को प्राप्त भगवान ने ज्ञातृवन में सालवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा ग्रण कर ली और तत्काल मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया। पारणा के दिन कूलग्राम की नगरी के कूल नामक राजा के यहाँ खीर का आहार ग्रहण किया। किसी समय उज्जयिनी के अतिमुक्तक वन में ध्यानारूढ़ भगवान पर महादेव नामक रुद्र भयंकर उपसर्ग करके विजयी भगवान के “महतिमहावीर” नाम रखकर स्तुति की। किसी दिन कौशाम्बी नगरी में सांकलों में बंधी चंदनबाला ने भगवान को पड़गाहन किया तब उसकी बेड़ी आदि टूट गई । मिट्टी का सकोरा स्वर्णपात्र बन गया एवं कोदों का भात शालीचावल की खीर बन गया तभी चंदनबाला ने नवधाभक्ति पूर्वक महामुनि महावीर को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया ।
छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष बाद जृंभिक ग्राम की ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन में सालवृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ला दशमी के दिन भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हो गया । उस समय इन्द्र ने केवलज्ञान की पूजा की। भगवान की दिव्यध्वनि के न खिरने पर इन्द्र गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण को युक्ति से लाये तब उनका मान गलित होते ही वे भगवान से दीक्षित होकर मनःपर्यय ज्ञान और सप्तऋद्धि से विभूषित होकर प्रथम गणधर हो गये तब भगवान की दिव्यध्वनि खिरी ।
श्रावण कृष्ण एकम के दिन दिव्यध्वनि को सुनकर गौतम गणधर ने सायंकाल में द्वादशांग श्रुत की रचना की। इसके बाद वायुभूति आदि ग्यारह गणधर हुए हैं। भगवान के समवसरण में मुनीश्वरों की संख्या चौदह हजार थी, चंदना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाएं थीं, एक लाख श्रावक, तीन लाख ‘श्राविकायें, असंख्यात देव देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। बारह गणों से वेष्टित भगवान ने विपुलाचल पर्वत पर और अन्यत्र भी आर्य खंड में बिहार कर सप्ततत्व आदि का उपदेश दिया।
जगबंधु वर्द्धमान भगवान ने निग्रंथ मुद्रा में नगर, वन आदि में विहार करते हुये छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष व्यतीत कर दिये। श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं-
ग्रामपुरखेटकर्वट-मटम्बघोषाकरान् प्रविजहार।
उग्रैस्तपोविधानैर्द्वादशवर्षाण्यमरपूज्यः ।।
देवों द्वारा पूज्य भगवान महावीर ने उग्र उग्र तपश्चरण करते हुये ग्राम, पुर, खेट कर्वट, मटम्ब, पत्तन, घोष, आकर आदि स्थलों में विहार करते हुये दीक्षित जीवन में बारह वर्ष व्यतीत कर दिये।
किसी एक दिन वे भगवान जृंभिक ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नाम के वन के मध्य सालवृक्ष के नीचे रत्नमयी एक बड़ी शिला पर दो दिन के उपवास का नियम लेकर प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। शुक्लध्यान में आरूढ़ भगवान वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराण्ह काल में हस्त और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के बीच में चन्द्रमा के रहते हुये परिणामों की विशुद्धि को बढ़ाते हुये क्षपकश्रेणी में स्थित हो गये।
उसी समय द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा घातिया कर्मों को नष्ट कर भगवान ने दिव्य केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। उसी समय भगवान के जन्म समय के समान ही चारों प्रकार के देवों के यहां बिना बजाये बाजे बजने लगे। सौधर्मेंद्र ने भगवान के केवलज्ञान की प्रगटता को जानकर तत्क्षण ही कुबेर को समवसरण रचना बनाने की आज्ञा दी एवं स्वयं चारों निकाय के देवों के साथ अर्धनिमिष मात्र में वहाँ आ गया।
पावापुरी में स्थित जल मंदिर।
अंत में पावापुर नगर के मनोहर नामक वन में अनेक सरोवरों के बीच शिलापट्ट पर विराजमान होकर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को अंतिम प्रहर में स्वाति नक्षत्र में एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया । तब देवों ने मोक्ष कल्याणक पूजा कर दीप मालिका जलायी थी । तब से लेकर आज तक कार्तिक कृ. अमावस्या को पर्व दीपावली पर्व मनाया जाता है । भगवान के जीवन वृत्त से हमें यह समझना है कि मिथ्यात्व के फलस्वरूप जीव त्रस स्थावर योनियों में परिभ्रमण करता है। सम्यक्त्व और व्रतों के प्रसाद से चतुर्गति के दुखों से छूटकर शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है अतः मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यग्दृष्टि बन करके व्रतों से अपनी आत्मा को निर्मल बनाना चाहिए।
केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही तीर्थंकर का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पाँच हजार धनुष’ ( २०००० हाथ प्रमाण ) ऊपर चला जाता है। उस समय तीनों लोकों में अतिशय क्षोभ उत्पन्न होता है और सौधर्म आदि इन्द्रों के आसन कंपायमान हो जाते हैं। भवनवासी देवों के यहाँ अपने आप शंख का नाद होने लगता है। व्यंतर देवों के यहाँ भेरी बजने लगती है, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद होने लगता है और कल्पवासी देवों के यहाँ घण्टा बजने लगता है। इंद्रों के मुकुट के अग्रभाग स्वयमेव झुक जाते हैं और कल्पवृक्षों से पुष्पों की वर्षा होने लगती है।
इन सभी कारणों से इन्द्र और देवगण तीर्थंकर के के केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर भक्तियुक्त होते हुये सात पैर आगे बढ़कर भगवान् को प्रणाम करते हैं। जो अहमिन्द्रदेव हैं, वे भी आसनों के कंपित होने से केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर सात पैर आगे बढ़कर वहीं से परोक्ष में जिनेंद्रदेव की वंदना कर अपना जीवन सफल कर लेते हैं। सोलह स्वर्ग तक के देव-देवियाँ तो भगवान् की वंदना के लिये चले आते हैं।
उसी क्षण सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा तीर्थंकर के समवसरण ( धर्मसभा ) को विचित्र रूप से रचता है। उस समवसरण के अनुपम संपूर्ण स्वरूप का वर्णन करने के लिये साक्षात् सरस्वती भी समर्थ नहीं हैं।
१. पहली- ‘चैत्यप्रासाद भूमि’ है, इसमें एक-एक जिन मंदिर के अंतराल में पाँच-पाँच प्रासाद हैं।
२. दूसरी-खातिका भूमि है, इसके स्वच्छ जल में हंस आदि कलरव कर रहे हैं और कमल आदि पुष्प खिले हुये हैं।
३. तीसरी-लताभूमि है, इसमें छहों ऋतुओं के पुष्प खिले हुये हैं।
४. चौथी-उपवनभूमि है, इसमें पूर्व आदि दिशा में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र के वन हैं। प्रत्येक वन में एक-एक चैत्यवृक्ष हैं जिनमें ४-४ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं।
५. पाँचवी-ध्वजाभूमि है, इसमें सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र इन दशचिन्हों से सहित महाध्वजायें और उनके आश्रित लघु ध्वजायें सब मिलाकर ४,७०,८८० हैं
६. छठी-कल्पभूमि है, इसमें भूषणांग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। चारों दिशा में क्रम से नमेरु, मंदार, संतानक और पारिजात ऐसे एक-एक सिद्धार्थवृक्ष हैं। इनमें चार-चार सिद्धप्रतिमायें विराजमान हैं।
७. सातवीं-भवनभूमि में भवन बने हुये हैं। इस भूमि के पार्श्व भागों में अहंत और सिद्ध प्रतिमाओं से सहित नौ-नौ स्तूप हैं।
८. आठवीं-श्रीमण्डपभूमि है, इसमें १६ दीवालों के बीच में १२ कोठे हैं जिनमें १- गणधरादि मुनि २–कल्पवासिनी देवी ३-आर्यिका और श्राविका ४ – ज्योतिषी देवी ५ – व्यंतर देवी ६-भवनवासिनी देवी ७–भवनवासी देव ८- व्यंतर देव ६ – ज्योतिष देव १० – कल्पवासी देव ११ – चक्रवर्ती आदि मनुष्य और १२-सिंहादि तिर्यंच, ऐसे बारह गण के असंख्यातों भव्यजीव बैठकर धर्मोपदेश सुनते हैं। वहां पर रोग, शोक, जन्म, मरण, उपद्रव आदि बाधायें नहीं हैं।
पुनः प्रथम कटनी पर आठ महाध्वजायें, आठ मंगलद्रव्य आदि हैं। तृतीय कटनी पर गंधकुटी में सिंहासन पर लाल कमल की कर्णिका पर भगवान महावीर चार अंगुल अधर विराजमान हैं। इनका मुख एक तरफ होते हुये भी चारों तरफ दिखने से ये चतुर्मुख ब्रह्मा कहलाते हैं। भगवान के पास अशोक वृक्ष, तीन छत्र, सिंहासन, भामंडल, चौंसठ चंवर, सुरपुष्पवृष्टि, दुंदभि बाजे और हाथ जोड़े सभासद ये आठ महाप्रातिहार्य होते हैं। वहीं पर भगवान महावीर के जिनशासन देव मातंगयक्ष और शासनदेवी सिद्धायिनी यक्षी विद्यमान हैं।
पुरातत्व :
पद्मासन मुद्रा में भगवन महावीर की विशालतम ज्ञात प्रतिमा जी, पटनागंज (म•प•)