भगवान ऋषभदेव जब गर्भ में आने को थे, महाराजा नाभिराय एवं महारानी मरुदेवी के आंगन में छह महीने पहले से ही रत्नों की वर्षा शुरू हो गई थी। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर प्रतिदिन माता के आंगन में साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा करता था। आषाढ़ कृ. २ को भगवान का गर्भावतरण हुआ। इंद्रों ने असंख्य देवों के साथ अयोध्या आकर महामहोत्सव मनाया।
चैत्र कृ. नवमी को भगवान का जन्म होते ही इंद्रों ने आकर असंख्य देवों-देवियों के साथ अयोध्या नगरी की तीन प्रदक्षिणा दी पुन: शिशु को ले जाकर सुमेरु पर्वत की पांडुकशिला पर जन्माभिषेक महोत्सव मनाया और ऋषभदेव नाम रखा।
युवावस्था में ऋषभदेव का विवाह यशस्वती और सुनंदा कन्याओं के साथ सम्पन्न हुआ। यशस्वती रानी ने भरत आदि सौ पुत्र एवं ब्राह्मी पुत्री को तथा सुनंदा रानी ने बाहुबली पुत्र व सुन्दरी पुत्री को जन्म दिया।
प्रभु ने पहले दोनों पुत्रियों को विद्याध्ययन कराया, जिनमें बड़ी पुत्री ब्राह्मी को अक्षर-अ-आ आदि विद्या एवं सुन्दरी को १, २ आदि अंकविद्या पढ़ाकर विद्याओं को प्रगट किया पुन: एक सौ एक पुत्र व दोनों पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं-कलाओं में निपुण किया।
प्रभु ने कर्मभूमि के प्रारंभ में प्रजा को असि, मषि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य ऐसी षट्क्रियाओं का उपदेश दिया। प्रभु की आज्ञा से इन्द्र ने उस समय काशी, कुरुजांगल आदि ५२ देशों की रचना एवं वाराणसी, हस्तिनापुर आदि नगरों की रचना करके प्रजा को यथास्थान बसाया था।
महापुराण आदि जैन शास्त्रों के अनुसार अयोध्या अनादिनिधन शाश्वत तीर्थ है एवं षट्काल परिवर्तन से चतुर्थकाल में जब कर्मभूमि प्रारंभ होती है तब पुन: उसी स्थान पर अयोध्या नगरी बनाई जाती है।
इस बार कर्मभूमि के प्रारंभ में भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर यहाँ जन्मे हैं। पुन: द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ, चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनंदननाथ, पंचम श्री सुमतिनाथ एवं चौदहवें श्री अनंतनाथ भगवान यहीं जन्मे हैं। शेष १९ तीर्थंकरों के जन्म श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, हस्तिनापुर आदि नगरियों में हुए हैं।
मेरा ( ज्ञानमती माताजी जीता ) जन्म अयोध्या से बीस कोस दूर टिकैतनगर में हुआ है। यहाँ अयोध्या में हमेशा चैत्र कृ. नवमी को ‘श्री ऋषभजयंती’ महोत्सव पाँच दिवसीय धूमधाम से मनाया जाता रहा है। बचपन से क्या माँ के गर्भ से ही यहाँ आगमन होता रहा है। अर्थात् जब मैं गर्भ में थी, तब भी माँ मोहिनी सपरिवार महोत्सव में आई थीं। अत: अयोध्या के प्रति अतीव श्रद्धा-भक्ति मेरे रोम-रोम में समाविष्ट है। क्षुल्लिकावस्था तक मैंने बार-बार दर्शन किए ही हैं।
सन् १९५२ में गृहत्याग के पूर्व आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने कटरा मंदिर में भगवान ऋषभदेव , भरत, बाहुबली इन तीनों भगवान की पहली बार प्रतिमाएं विराजमान कराकर पंचकल्याणक कराये थे, तब मैंने माता-पिता के साथ इसमें भाग लेकर ‘श्री देवी’ बनने का सौभाग्य भी प्राप्त किया था।
श्री महावीर जी अतिशय तीर्थ पर सन् १९५३ में चैत्र कृ. प्रतिपदा को मैंने क्षुल्लिका दीक्षा प्राप्त कर ‘वीरमती’ नाम पाया था। पुन: सन् १९५६ में आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम शिष्य व पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से ‘वैशाख कृ. २ को आर्यिका दीक्षा प्राप्त की थी और ‘ज्ञानमती’ नाम से प्रसिद्ध हुई हूँ।
सन् १९६३ में मैं आर्यिका संघ लेकर सम्मेदशिखर जा रही थी, तभी अयोध्या के दर्शन पदविहार से किये हैं। उस समय भगवान ऋषभदेव की ३१ फुट उत्तुंग प्रतिमा यहाँ लेटी थी व उन पर शिल्पी कार्य कर रहे थे। मन प्रसन्न हुआ था। पुन: सन् १९६५ में मैं ससंघ श्रवणबेलगोला में थी, तभी अयोध्या में आचार्य श्री देशभूषण जी की प्रेरणा से उन्हीं के सान्निध्य में यहाँ पंचकल्याणक महामहोत्सव सम्पन्न हुआ था, सुनकर प्रसन्नता का पार नहीं था।
कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि विहार करते हुए मैं ससंघ अंतर्राष्ट्रीय श्री महावीर स्वामी के २५००वें निर्वाण महामहोत्सव के निमित्त सन् १९७२ में दिल्ली आ गई थी।
श्रवणबेलगोला में जो सन् १९६५ में ध्यान में जम्बूद्वीप आदि उपलब्धि, जैन भूगोल रचना का निर्माण, प्रतिष्ठा महोत्सव आदि अनेकों कार्यक्रम यहाँ हस्तिनापुर में भगवान श्री शांतिनाथ की जन्मभूमि में सन् १९७५ से सम्पन्न होते रहे हैं।
कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी-धनतेरस (धन्यत्रयोदशी) की पिछली रात्रि में मैं ध्यान में निमग्न थी कि ‘‘भगवान ऋषभदेव ध्यान में आ गये’’। दर्शन करके मन में हर्षातिरेक उमड़ पड़ा। ध्यान पूर्ण करके मैंने अयोध्या के लिए मंगल विहार का मन में निर्णय ले लिया। यह सन् १९९२ की बात है।
इससे पूर्व सन् १९८५ में मैं ज्वर व पीलिया आदि बीमारी से बहुत ही कमजोर हो चुकी थी अत: क्षुल्लक-प्रथम पीठाधीश मोतीसागर जी व आर्यिका चंदनामती जी तथा ब्र. रवीन्द्र कुमार जी एकदम घबड़ा गये। मेरी शारीरिक स्थिति को देखते हुए वे सहमत नहीं हो पा रहे थे।
इसके पूर्व का इतिहास यह है कि मेरी माँ मोहिनी सन् १९७१ में अजमेर में आकर आचार्य श्री धर्मसागर जी से आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिका रत्नमती नाम प्राप्त कर दिल्ली, हस्तिनापुर आदि में मेरे साथ रहते हुए सन् १९८५ में माघ कृ. ९ को यहाँ समाधिमरण को प्राप्त कर चुकी थीं। उन्होंने भी मुझे कई बार अयोध्या के बड़े भगवान के दर्शनों की प्रेरणा दी थी।
इन्हीं दिनों ६ दिसम्बर १९९२ को ‘राममंदिर व बाबरी मस्जिद’ का प्रसंग छिड़ गया। ढांचा गिराये जाने पर विश्वस्तरीय चर्चा हो रही थी। तभी दिल्ली आदि के अनेक प्रतिष्ठित जनों ने मुझे अयोध्या विहार के लिए रोकने का प्रयास किया। परन्तु मेरा संकल्प दृढ़ था, मनोबल विशेष था अत: मैंने किसी की भी न मानकर फाल्गुन कृ. पंचमी, ११ फरवरी १९९३ को हस्तिनापुर से अयोध्या के लिए मंगल विहार कर दिया। टिकैतनगर के प्रद्युम्नकुमार जैन ने ‘संघपति’ का भार संभाला। मार्ग में अहिच्छत्र तीर्थ के दर्शन कर वहाँ पर अध्यक्ष श्री प्रेमचंद जैन-मेरठ आदि महानुभावों के समक्ष मैंने ‘तीस चौबीसी रचना’ बनाने की प्रेरणा दी। आगे बढ़ते हुए ज्येष्ठ कृ. ४, रविवार, दिनाँक ९ मई १९९३ को मैं टिकैतनगर पहुँच गई। वहाँ का उत्साह व भक्ति अभूतपूर्व थी।
इन सभी ने आग्रह व सत्याग्रह के बल पर मेरे से टिकैतनगर चातुर्मास करने की स्वीकृति ले ली। मेरी अपनी परम्परा है कि मैं स्वीकृति में ९९ प्रतिशत कहकर एक प्रतिशत की छूट रख लेती हूँ।
अत: यहाँ से आषाढ़ कृ. ४ मंगलवार, ८ जून को टिकैतनगर से विहार करके आषाढ़ कृ. ११, बुधवार, १६ जून १९९३ को प्रात: अयोध्या पहुँच गईं। लगभग ९ माह से भायी गयी भावना सफल हुई। प्रभु ऋषभदेव का ‘प्रथम मुखावलोकन’ कर जो आनंद का अनुभव हुआ है, वह स्वयं के ही गम्य था।
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार आषाढ़ कृ. १२, गुरुवार, १७ जून १९९३ को त्रिकाल चौबीसी मंदिर का शिलान्यास कराया।
पुन: आषाढ़ कृ. १४, शनिवार, १९ जून १९९३ को टोंकों के तीर्थंकर जन्मभूमि के चरणों की वंदना के लिए निकली।
श्री ऋषभदेव की टोंक पर पहुँच कर प्रभु के चरणों की वंदना करके मेरे नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह चली……। आर्यिका चंदनामती, क्षुल्लक मोतीसागर, ब्र. रवीन्द्र कुमार आदि सभी अवाक रह गये और पूछते रहे बात क्या है ?
मैंने निर्णय ले लिया-‘‘मुझे यहीं अयोध्या में वर्षायोग-चातुर्मास करना है।’’….जो टिकैतनगर की एक प्रतिशत छूट रखी है, उसी का सदुपयोग करना है।’’ बहुत कुछ घंटों बाद वापस आकर आहार लिया व निर्णय सुना दिया। अब क्या था टिकैतनगर के भक्तों का व बालक-बालिकाओं का हल्ला-गुल्ला चालू हो गया। आसपास के श्रावक व कमेटी के लोग ९९ प्रतिशत सभी पक्ष में थे, मात्र एक-दो लोग मना कर रहे थे…..।
एक दो बालकों ने तो आत्मदाह की व टंकी से कूदकर मरने की धमकी देना शुरू कर दिया…..। बड़ी विकट परिस्थिति थी।
मैंने न जाने वैâसे इन सभी को समझा-बुझाकर शांत किया।
मैंने कहा-तुम्हें अपनी जन्मभूमि का मोह है……या प्रभु तीर्थंकर की जन्मभूमि उससे महान है या नहीं ? बताओ आदि………।
मेरे पुण्य के योग से वर्षायोग यहाँ स्थापित हो गया। मंदिर निर्माण का कार्य दु्रतगति से चल रहा था। जिनप्रतिमाओं-त्रिकाल चौबीसी भगवन्तों के लिए आर्डर हो चुके थे। पंचकल्याणक की तिथि व महामस्तकाभिषेक की तिथि निश्चित हो गई थी। प्रचार-प्रसार द्रुतगति से चल रहा था।
दशलक्षण पर्व में सात मंडल बनाये गये व सात इन्द्रध्वज विधान एक साथ सम्पन्न हुए। आश्विन शु. पूर्णिमा को मेरा ६०वाँ जन्मदिवस मनाया गया।
माघ शु. ३ से १३ तक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महामस्तकाभिषेक की तिथियाँ (१३ फरवरी से २४ फरवरी १९९४ तक) निश्चित हुईं।
इसी मध्य यहाँ अयोध्या के दिगम्बर अखाड़ा के प्रसिद्ध महंत परमहंस व नृत्यगोपालदास जी आदि अनेकों संत-महंत सभी मेरे पास आते रहते थे। सभी से चर्चाएं होती रहती थीं। सभी पूर्णरूपेण पक्षधर थे। प्रभु श्री ऋषभदेव , भरत चक्री, श्री रामचन्द्र आदि की चर्चाएँ भी होती रहती थीं।
माघ शु. ९ (२० फरवरी १९९४) को श्री मुलायमसिंह (उत्तरप्रदेश मुख्यमंत्री) का आगमन हुआ। मेंने एकांत में उन्हें कुछ संकेत व संबोधन दे दिये थे।
भगवान ऋषभदेव की कृपा से शांतिपूर्वक कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। मुलायम- सिंह से ब्र. रवीन्द्र कुमार ने अवध विश्वविद्यालय में-
(१) श्री ऋषभदेव शोधपीठ स्थापना
(२) सरयू नदी के उद्यान का नाम ‘श्री ऋषभदेव उद्यान’
(३) ऋषभदेव नेत्र चिकित्सालय
(४) श्री ऋषभदेव पॉलीटेक्निक कॉलेज आदि के लिए घोषणाएं करा दीं। जो सभी अयोध्या में सम्पन्न हो चुकी हैं।
कुल मिलाकर पंचकल्याणक महोत्सव, रथयात्रा का अतिशयपूर्ण विशाल जुलूस व महामस्तकाभिषेक निर्विघ्न सम्पन्न हुआ है एवं अभूतपूर्व धर्मप्रभावना के साथ सर्वत्र देश-विदेशों तक प्रचार शुरू हो गया कि-
अयोध्या श्री रामचन्द्र से पहले उन्हीं के पूर्वज श्री ‘ऋषभदेव ’ की ‘जन्मभूमि’ भी है। जैन व जैनेतर ग्रंथों के प्रमाण भी दिखाये जाते रहे हैं।
इसी प्रकार अवध विश्वविद्यालय व दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, अयोध्या दि. जैन कमेटी आदि के तत्त्वावधान में यहाँ अयोध्या में मेरे सान्निध्य में ‘‘भारतीय संस्कृति के आद्य प्रणेता भगवान ऋषभदेव ’’ आदि विषयों पर संगोष्ठी, सेमिनार आदि भी होते रहे हैं।
यहाँ से विहार कर लखनऊ आदि में अनेक विधान आदि कार्यक्रम कराके पुन: टिकैतनगर में ईसवी सन् १९९४ का वर्षायोग विशेष प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ एवं श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन विद्यालय में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित करायी है। शरदपूर्णिमा को उत्तरप्रदेश के राज्यपाल मोतीलाल जी वोरा का आगमन हुआ है।
अनंतर अयोध्या आकर सरयू नदी के निकट ऋषभदेव उद्यान में २१ फुट पद्मासन श्री आदिनाथ-ऋषभदेव की प्रतिमा का निर्माण कराकर उनका अनावरण माघ शु. ९-२० फरवरी १९९५ को सम्पन्न हुआ।
डॉ. राममनोहर लोहिया यूनिवर्सिटी में ‘श्री ऋषभदेव जैन पीठ’ उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायमसिंह यादव द्वारा घोषित था, कुलपति जी ने उसका शिलान्यास मेरे सान्निध्य में रखा, उसी दिन विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह आयोजित कर मुझे ‘‘डी. लिट्. की मानद उपाधि-माघ शुक्ला षष्ठी, ५ फरवरी १९९५ को प्रदान की। पुन: अयोध्या तीर्थ पर अनेक प्रभावना के कार्य सम्पन्न कराकर वहाँ से हस्तिनापुर के लिए चैत्र कृ. द्वादशी, मंगलवार २८ मार्च १९९५ को मंगल विहार करके ज्येष्ठ कृ. चतुर्दशी २८ मई १९९५ को हस्तिनापुर आ गई।
हस्तिनापुर चातुर्मास में श्री ऋषभदेव भगवान से संबंधित-शिविर-संगोष्ठी आदि के कार्यक्रम आयोजित हुए हैं-पाठ्य पुस्तकों में जो लिखा है कि भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक हैं, इसको हटाया जावे, श्री ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर हुए हैं, यह पाठ जोड़ा जावे, आदि चर्चाएँ व्यापक स्तर पर ली गईं।
अयोध्या में सन् १९९४ में आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी के द्वारा लिखित मांगीतुंगी तीर्थक्षेत्र से लगभग २५ पत्र आ गये कि-
माताजी! आप जैसे अयोध्या गई हैं, वैसे ही मांगीतुंगी आना ही आना है। यहाँ आकर पंचम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर जी के अपूर्ण कार्य को पूर्ण कराना है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराना है। मैंने अयोध्या से मांगीतुंगी के लिए विहार किया किन्तु गर्मी के निमित्त से स्वास्थ्य गड़बड़ होने से ब्र. रवीन्द्र कुमार जी वापस हस्तिनापुर ले आये और बोले-चातुर्मास के बाद चलना है। अत: सन् १९९५ का चौमासा पूर्ण कर २७ नवम्बर १९९५ को मांगीतुंगी के लिए विहार कर २७ अप्रैल १९९६ को मांगीतुंगी सकुशल पहुँच गई।
वहाँ मार्ग में इंदौर समाज के अति आग्रह से चातुर्मास की स्वीकृति देनी पड़ी थी, किन्तु यहाँ सभी के अति आग्रह से व शायद ऋषभदेव की अनुकम्पा से ही मानों इंदौर की ९९ प्रतिशत में एक प्रतिशत छूट का लाभ उठाया व यहीं मांगीतुंगी चातुर्मास हो गया।
आश्विन शु. १४ की पिछली रात्रि में मेरे ध्यान में आया कि-
‘‘यदि पूर्वमुखी पहाड़ मिले, पूर्वमुखी बड़ी प्रतिमा बने, श्री ऋषभदेव की प्रतिमा हो व १०८ फुट उत्तुंग हो’’ तो सारे विश्व के लिए अतिशयपूर्ण मंगलकारी होगी।’’
मैंने प्रात: शरदपूर्णिमा के दिन पहले आर्यिका चंदनामती, क्षुल्लक मोतीसागर व ब्र. रवीन्द्र कुमार से कहा-पुन: सभी दिल्ली, औरंगाबाद, महाराष्ट्र, हैदराबाद आदि के कार्यकर्ताओं के सामने घोषित कर दिया।
जय-जयकारों के साथ निर्णय लिया गया कि-
इसके लिए अलग मूर्ति निर्माण कमेटी बनेगी, तभी कार्य शुरू किया जायेगा। साथ ही सभी ने ब्र. रवीन्द्र कुमार को अध्यक्ष, विधायक जयचंद जी कासलीवाल-चांदवड़ को कार्याध्यक्ष व पन्नालाल पापड़ीवाल-पैठण को महामंत्री तथा दिल्ली के महावीर प्रसाद जैन, बंगाली स्वीट्स (संघपति) को कोषाध्यक्ष घोषित कर दिया। कमेटी को रजिस्टर्ड कराना, पहाड़ खरीदना आदि कार्यक्रम शुरू हो गये।
मेरा वहाँ से विहार होकर दिल्ली आगमन होकर क्रमश: कमलमंदिर में भगवान ऋषभदेव का पंचकल्याणक, मानसरोवर कैलाश पर्वत (कृत्रिम निर्मित होकर) यात्रा, चौबीस कल्पद्रुम विधान, श्री ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार, अंतर्राष्ट्रीय ऋषभदेव निर्वाण महामहोत्सव-१००८ निर्वाणलाडू चढ़ाना। दो बार तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी जी का आगमन आदि प्रभावनापूर्ण कार्यक्रम ईसवी सन् १९९७ से लेकर सन् २००० तक व्यापक स्तर पर प्रचारित किये गये।
अयोध्या में १९९३ के चौमासा में ‘श्री ऋषभदेव जन्मभूमि अयोध्या ’ पुस्तक लिखते समय प्रकरण आया पद्मपुराण में-
प्रकृष्टो वा कृतस्त्याग:, प्रयागस्तेन कीर्तित:।
जहाँ भगवान ऋषभदेव ने प्रकृष्ट त्याग करके वटवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की थी वही स्थान ‘प्रयाग’ इस नाम से प्रसिद्ध हो गया। पुनश्च वहाँ वटवृक्ष के नीचे एक शिलापट्ट लगा हुआ था कि यहाँ ऋषभदेव को दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ है। भगवान ने जिस वृक्ष के नीचे दीक्षा ली थी, उसी वृक्ष के नीचे एक हजार वर्ष बाद भगवान को केवलज्ञान हुआ है। अर्थात् श्री ऋषभदेव के तप व ज्ञान कल्याणक प्रयाग में हुए हैं।
इसी अध्ययन के बाद मैंने प्रयाग को ‘‘दीक्षा तीर्थ व केवलज्ञान तीर्थ’’ बनाने का निर्णय लिया था। तभी से प्रयास चल रहा था।
संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा आयोजित विश्वशांति शिखर सम्मेलन में धर्माचार्य के रूप में कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन ने दिगम्बर जैन समाज का प्रतिनिधित्व किया। यह सम्मेलन युनाइटेड नेशन्स द्वारा न्यूयार्क (अमेरिका) में २८ से ३१ अगस्त २००० तक आयोजित था। सम्पूर्ण भारत से निमंत्रित १०० से भी अधिक सम्प्रदाय के धर्माचार्यों ने इसमें भाग लिया। दिगम्बर जैनधर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए ब्र. रवीन्द्र जैन ने मेरी आज्ञा से वहाँ जाकर विश्वभर में जैनधर्म के प्राचीन एवं अहिंसामयी सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार इस माध्यम से किया।
प्रीतविहार-दिल्ली में महती प्रभावना के साथ कैलाश मानसराेवर यात्रा महोत्सव में दिल्ली प्रदेश की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित द्वारा उद्घाटन समारोह आदि कार्यक्रम सम्पन्न कराकर १ नवम्बर २००० को दिल्ली से विहार कर इलाहाबाद में नवनिर्मित प्रयाग तीर्थ पर १ जनवरी २००१ को मंगल पदार्पण। ५१ फुट ऊँचे नवनिर्मित कैलाश पर्वत पर १४ फुट उत्तुंग पद्मासन प्रभु ऋषभदेव प्रतिमा विराजमान कर माघ शु. ५ से १५ (८ फरवरी २००१) तक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं १००८ कलशों से भगवान ऋषभदेव का महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव सम्पन्न हुआ।
५ फुट खड्गासन की प्रभु ऋषभदेव प्रतिमा का दीक्षाकल्याणक व ऋषभदेव समवसरण का भव्य पंचकल्याणक सम्पन्न हुआ। इससे पूर्व विश्वहिन्दूपरिषद के कार्याध्यक्ष श्री अशोक सिंघल आदि के आग्रह से मेरे द्वारा महाकुंभ नगर में भी कार्यक्रम सम्पन्न हुए। विशाल पांडाल में भगवान ऋषभदेव प्रतिमा विराजमान कर १००८ निर्वाणलाडू माघ कृ. १४ को प्रभु के निर्वाण दिवस पर चढ़ाये गये। विशेष घटयात्रा, शोभायात्रा, ऋषभदेव चित्र प्रदर्शनी आदि के निमित्त से महाकुंभ नगर में भी अतिशायी जैनधर्म की गूंज रही। पुन: विश्वहिन्दूपरिषद के नवम संसद के विशेष पांडाल में मेरा प्रवचन हुआ। भगवान ऋषभदेव युग के आदिसृष्टा की प्रयाग दीक्षा व केवलज्ञान भूमि है। अक्षयवटवृक्ष के नीचे दीक्षा व दिव्यज्ञान आदि पर मैंने जैन व वैदिक ग्रंथो से भी प्रकाश डाला, तभी वहाँ पांडाल में व वहाँ उपस्थित हजारों संत-महंतों ने भी श्री ऋषभदेव को श्री राम का पूर्वज जाना, माना तथा उस समय पांडाल ऋषभदेव मय बन गया। मार्ग में मैंने भगवान महावीर स्वामी के २६००वें जन्मजयंती महोत्सव के निमित्त से २६०० अर्घ्य समन्वित विश्वशांति महावीर विधान लिखा था। उसको यहीं प्रयाग में महावीर जयंती के अवसर पर सम्पन्न कराया तथा इस वर्ष को ‘अहिंसा वर्ष’ के रूप में मनाने की घोषणा की।
इसी समय यहाँ से कौशाम्बी अन्तर्गत प्रभासगिरि पर जहाँ पर छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ भगवान की सवा सात फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा विराजमान कराकर तिथि-वैशाख शु. १० से पूर्णिमा, २ मई से ७ मई २००१ तक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न करायी तथा २५६५ वर्ष पूर्व भगवान महावीर स्वामी को मुनि अवस्था में चंदनासती ने आहार दिया था। वह इतिहास साकार करने हेतु प्रभु की आहारदान मुद्रा की प्रतिमा, सती चंदनबाला आहार देते हुए भी विराजमान करायी व आहार विधि सम्पन्न करायी।
पुन: २२ अप्रैल २००१ को प्रयाग दीक्षातीर्थ से विहार कर राजधानी दिल्ली आकर २००१ का वर्षायोग अशोक विहार, फेस-१, दिल्ली में स्थापित हुआ, चूँकि चातुर्मास में पूरी दिल्ली में भ्रमण हो सकता है अत: यहाँ ‘‘फिरोजशाह कोटला मैदान’’ दिल्ली में विशाल पांडाल में २६ मंडल बनाये गये। ब्र. रवीन्द्र कुमार की अध्यक्षता में २६००वें भगवान महावीर जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में यह महा आयोजन कराया गया।
इसमें मंडल पर रत्न चढ़ाना, रत्नों से जाप्य करना आदि अनेक कार्यक्रम नये रूप में प्रस्तुत कराये गये।
कनॉट प्लेस में पावापुरी रचना बनवाकर २६०० निर्वाणलाडू भगवान महावीर के निर्वाण दिवस पर चढ़ाये गये।
तालकटोरा स्टेडियम’ में दिगम्बर–श्वेताम्बर सभी साधुओं के सान्निध्य में विशाल जैन समाज का ‘जप, तप महाकुंभ’ नाम से एक महान आयोजन प्रभावनापूर्ण सम्पन्न हुआ।
‘फिक्की ऑडीटोरियम’ में ६ जनवरी को ‘अ.भा. दिगम्बर जैन युवा- परिषद’ का रजतजयंती कार्यक्रम सम्पन्न कराये गये।
पुनश्च भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर विकास हेतु २० जनवरी २००२ को इण्डिया गेट दिल्ली से मेरा विहार अतिशायी प्रभावना के साथ प्रारंभ हुआ। मार्ग में १२ जून २००२ को प्रयाग तीर्थ पर पदार्पण, वहीं वर्षायोग, तीर्थ निर्माण की पूर्णता आदि सम्पन्न कराकर अनेक कार्यक्रम सम्पन्न हुए।
यहाँ पर ‘‘न्यायाधीश सम्मेलन’’ २ नवम्बर २००२ को सम्पन्न कराकर यहाँ से ४ नवम्बर को विहार कर वाराणसी, आरा, पटना आदि शहरों में विशेष धर्मप्रभावना कराते हुए २९ दिसम्बर २००२ को श्री महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर में प्रवेश किया। यहाँ ७ फरवरी से ११ फरवरी, माघ शु. ५ से ११ तक प्रभु महावीर स्वामी की ११ फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमा का पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। नंद्यावर्त महल का नवनिर्माण, भगवान ऋषभदेव व नवग्रह मंदिर में नवग्रह शांतिकारक भगवन्तों के पंचकल्याणक सम्पन्न हुए हैं।
यहाँ से सम्मेदशिखर तीर्थ की पुन: एक बार पदयात्रा हो गई है। वहाँ भी भगवान ऋषभदेव को विराजमान कराया। राजगृही में भगवान मुनिसुव्रतनाथ का पंचकल्याणक व मानस्तंभ आदि निर्माण, गुणावां में श्री गौतमस्वामी प्रतिमा विराजमान आदि कार्यक्रम सम्पन्न कराये गये। पुन: पावापुरी में प्रतिमा विराजमान एवं राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुलकलाम का आगमन आदि कार्यक्रम सम्पन्न हुए।
ईसवी सन् २००३ व २००४ के चातुर्मास भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर में सम्पन्न हुए।
कुण्डलपुर से ‘भगवान महावीर ज्योति रथ’ का प्रवर्तन भी कराया गया।
यहाँ से १४ नवम्बर २००४ को विहार कर २३ दिसम्बर २००४ को वाराणसी में आगमन। वहाँ पौष कृ. एकादशी को भगवान पार्श्वनाथ के जन्मकल्याणक पर ‘‘भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’’ का उद्घाटन कराया। यहाँ विशेष धर्मप्रभावना के साथ सिंहपुरी (सारनाथ) में भगवान श्रेयांसनाथ की जन्मभूमि में विशाल प्रतिमा विराजमान कराकर पंचकल्याणक महोत्सव आदि कार्य सम्पन्न कराते हुए ४ फरवरी २००५ को टिकैतनगर जन्मभूमि प्रवेश हुआ।
अतिशय चमत्कार के साथ नवनिर्मित मंदिर में २४ तीर्थंकर भगवन्तों का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ।
अनंतर ११ वर्ष के पश्चात् तिथि फाल्गुन शु. ७ को-१७ मार्च २००५ को प्रभु ऋषभदेव जन्मभूमि अयोध्या में मंगल प्रवेश हुआ। चैत्र कृ. ७ से ९,
१ अप्रैल से ३ अप्रैल तक भगवान ऋषभदेव का महाकुंभ महामस्तकाभिषेक सम्पन्न हुआ।
यहाँ अयोध्या में अनेक संतों-महंतों ने भी प्रभावना में भाग लिया तथा अपने-अपने आश्रमों में मेरे प्रवचन कराये व सम्मान किया।
इस महामस्तकाभिषेक का सीधा प्रसारण आस्था चैनल से कराया गया। इसी समय मैंने घोषणा की कि-
यहाँ अयोध्या तीर्थ में ‘पांचों भगवन्तों के जन्मस्थल पर बने टोकों पर मंदिरों के निर्माण हों व जिनप्रतिमाएं विराजमान करायीं जावें। इससे पूर्व यहाँ टोकों पर प्राचीन चरण विराजमान थे, जिनका समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा है। ये टोंक व उनमें चरण चतुर्थ काल से ही यहाँ रहे हैं। समय-समय पर इनका जीर्णोद्धार होता रहा है।
(१) ईसवी सन् १९५२ में कटरा मंदिर में भगवान ऋषभदेव , भरत, बाहुबली की प्रतिष्ठा व सन् १९६५ में रायगंज मंदिर में ३१ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की वैशाख शु. १३ को प्रतिष्ठा आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में सम्पन्न हुई हैं।
(२) सन् १९९४ में त्रिकाल चौबीसी के ७२ भगवन्तों की माघ शु. द्वादशी को प्रतिष्ठा एवं सन् १९९५ में श्री ऋषभदेव के समवसरण के जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा फाल्गुन कृ. एकम् से पंचमी तक मेरे ससंघ सान्निय में सम्पन्न हुई हैं।
(३) श्री ऋषभदेव की प्रथम टोंक पर सन् २०११ में भव्य मंदिर का निर्माण होकर पद्मासन श्री ऋषभदेव भगवान फाल्गुन कृ. ३ को प्रतिष्ठित होकर विराजमान हुए हैं।
ईसवी सन् २०१३ में सरयू नदी के तट पर श्री अनंतनाथ
की टोंक पर विशाल जिनमंदिर में १० फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा का पंचकल्याणक हुआ है।
ईसवी सन् २०१४ में श्री अजितनाथ की टोंक पर भव्य मंदिर में पद्मासन श्री अजितनाथ का पंचकल्याणक हुआ।
सन् २०१४ में ही मगसिर शु. १०, सन् २०१४ में श्री अभिनंदननाथ की टोंक पर मंदिर बना व श्री अभिनंदननाथ की प्रतिमा विराजमान हुई है।
सन् २०१३ में ही भरत–बाहुबली मंदिर बनकर उनकी टोंक पर भरत–बाहुबली की प्रतिमाएं विराजमान हुई हैं।
अभी सन् २०१९ में भगवान सुमतिनाथ की टोंक पर जिनमंदिर बनकर धातु की सुंदर सवा तीन फुट पद्मासन प्रतिमा विराजमान हुई हैं। जिनकी प्रतिष्ठा अभी मेरे सान्निध्य में सम्पन्न हुई है।
इस अवसर पर भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक महोत्सव, जुलूस (अभूतपूर्व) रथयात्रा आदि कार्यक्रम सम्पन्न हुए हैं।
तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही माता के आंगन में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़१ रत्नों की वर्षा शुरू हो जाती है। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर रत्नों की वर्षा करता है। भगवान का जन्म होते ही सौधर्मेन्द्र असंख्य देव-देवियों के साथ आकर पहले नगरी की तीन प्रदक्षिणा देते हैं पुन: पिता के घर में प्रवेश कर इंद्राणी को प्रसूतिगृह में भेजकर तीर्थंकर शिशु को प्राप्त कर वैभव के साथ सुमेरु पर्वत पर ले जाकर पांडुक शिला पर तीर्थंकर शिशु को बिठाकर १००८ कलशों से जन्माभिषेक करते हैं।
ऐसे रत्नों की वर्षा अयोध्या में पाँच बार पाँच तीर्थंकरों के समय पंद्रह-पंद्रह महीने तक हुई है। आज भी जो कुबेर टीला (मणि पर्वत) कहलाता है, ‘‘जनश्रुति रही है कि यहाँ पर कुबेर देव रत्नवृष्टि करते रहे हैं’’ इसलिए इसे कुबेर टीला कहते हैं। अयोध्या तीर्थ की प्रदक्षिणा पाँचों तीर्थंकरों के कल्याणक महोत्सवों में इंद्रों ने की है। भगवान ऋषभदेव के व उनके पुत्र भरत के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष (५००²४·२००० हाथ) थी। उनका सर्वतोभद्र महल ८१ मंजिल का था। आप स्वयं चिंतन करें कि महल की ऊँचाई, लम्बाई, चौड़ाई कितनी रही होगी?
उसी अयोध्या में भरत चक्रवर्ती का वैभव, ९६ हजार रानियाँ, सभी के पुत्र-पुत्रियाँ, पौत्र आदि के निवास, कितने रहे होंगे। १८ करोड़ घोड़े, ८४ लाख हाथी आदि चक्रवर्ती का वैभव कितना बड़ा रहता है। आदि……….।
अत: उस समय अयोध्या कितनी विशाल थी, अर्थात् बहुत ही विशाल थी। श्री रामचन्द्र ये आठवें बलभद्र हुए हैं। आज से लगभग ९ लाख वर्ष पूर्व का इतिहास है। अयोध्या में श्री राम ने हजारों जिनमंदिर१ बनवाये थे व बहुत से विद्यालय-महाविद्यालय बनवाये थे। उस समय अयोध्या की आबादी सत्तर करोड़३ की थी। अर्थात् श्री रामचन्द्र के समय भी अयोध्या बहुत ही विशाल नगरी-राजधानी रही है, ऐसा पद्मपुराण-जैन रामायण में वर्णन है। आज से लगभग डेढ़ सौ, दो सौ वर्ष पूर्व अयोध्या में सौ जैनमंदिर थे, ऐसा इतिहासकारों ने लिखा है।
अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार सन् १३३० में अयोध्या में अनेक जैन मंदिर थे। महाराजा नाभिराज का मंदिर, पार्श्वनाथ बाड़ी, गोमुखयक्ष, चक्रेश्वरी यक्षी की रत्नमयी प्रतिमा, सीताकुंड, सहस्रधारा, स्वर्गद्वार आदि अनेक जैनायतन विद्यमान थे।
प्रभु ऋषभदेव ने बड़े पुत्र भरत को राज्यभार सौंप कर प्रयाग में जाकर दीक्षा ली थी, श्री भरत चक्री के प्रथम पुत्र अर्ककीर्ति ने राज्यभार को अपने पुत्र को सौंपकर दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया, ऐसी परम्परा अविच्छिन्नरूप से चौदह लाख राजाओं तक चली है। आगे भी उसी इच्छवाकुवंश में राजागण मोक्ष प्राप्त करते रहे हैं।
वहीं पर राजा सगर दूसरे चक्रवर्ती हुए हैं। इनके ६० हजार पुत्रों ने एवं स्वयं चक्रवर्ती ने भी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया है। श्री राम, भरत, शत्रुघ्न ने भी निर्वाण प्राप्त कर आत्मा को परमात्मा बनाया है। श्री राम के पुत्र लव-कुश ने भी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया है।
यहाँ श्री ऋषभदेव के महामस्तकाभिषेक के समय मैंने इसे ‘‘विश्वशांति केन्द्र’’ के नाम से घोषित किया है। यहाँ पर विश्वशांति मंत्र का उच्चारण चलता रहेगा-‘‘ॐ ह्रीं विश्वशांतिकराय श्री ऋषभदेवाय नम:’’।
(१) यहाँ अयोध्या में भगवान ऋषभदेव के एक सौ एक पुत्र भरत चक्रवर्ती आदि जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनका मंदिर बनेगा।
(२) भरत चक्रवर्ती की प्रतिमा २१ फुट खड्गासन प्रतिमा विराजमान रहेंगी, जिनके नाम से हमारे देश का नाम ‘भारत’ है।
(३) भरत चक्रवर्ती के ‘‘विवर्द्धन कुमार’’ आदि नव सौ तेईस (९२३) पुत्रों ने भगवान के समवसरण में जैनेश्वरी दीक्षा लेकर उसी भव से मोक्ष प्राप्त किया है। इनकी प्रतिमाएं स्थापित होंगी। एक स्तूप में ये बनेंगी।
(४) तीस चौबीसी मंदिर बनेगा।
(५) तीन लोक रचना बनेगी।
(६) सर्वतोभद्र महल बनेगा।
श्री ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों के जीवन दर्शन से संबंधित प्रदर्शनी-म्यूजियम आदि चलचित्र आदि द्वारा भगवन्तों के जीवन परिचय के साथ उनके सिद्धान्तों का भी प्रचार-प्रसार होता रहेगा। ‘अहिंसा परमो धर्म:’ की जयपताका फहराती रहेगी। व्यसनों से मुक्त शाकाहारी जीवन बनाने की प्रेरणा व प्रभुभक्ति की प्रेरणा मिलती रहेगी।
यह मेरी भावना सफल होवे, इसी भावना के साथ-
ऐसे पवित्र पूज्य शाश्वत तीर्थ अयोध्या को कोटि-कोटि नमन करते हुए युग की आदि में जन्में भगवान श्री ऋषभदेव को एवं श्री अजितनाथ, श्री अभिनंदननाथ, श्री सुमतिनाथ एवं श्री अनंतनाथ तीर्थंकर भगवन्तों को अनंत-अनंत बार नमन करते हुए यहाँ पर जन्म लेकर सिद्ध परमात्मपद को प्राप्त असंख्यातों सिद्ध परमेष्ठी भगवन्तों को असंख्यातों बार नमस्कार करती हूँ।
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